Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समय : प्रथम अध्ययन–प्रथम उद्देशक
३६ अन्तर्गत जैसे परिग्रह है, वैसे हिंसा भी है। इसलिये परिग्रह के बाद अब हिंसा को कर्मबन्धन का कारण सूचित करते हुए शास्त्रकार हिंसा का स्वरूप और उसका परिणाम बताते हैं---'सयं तिवायए पाणे वरं वड्ढइ अप्पणो' ।
यद्यपि मूलपाठ में हिंसा के कारणों का उल्लेख नहीं किया, किन्तु अन्यान्य आगमों एवं धर्मग्रन्थों तथा पूर्व गाथा में वर्णित परिग्रह के स्वरूप के आधार पर इतना तो स्पष्ट है कि संसार में जितनी और जिस प्रकार की भी हिंसा होती है, वह अपने शरीर, जीवन, अपनी प्रतिष्ठा, अपनी मानी हुई जमीन, जायदाद, सम्पत्ति, मकान, दुकान आदि वस्तु, अपने माने हुए परिवार, समाज, धर्म, संघ, संस्था, प्रान्त, मत, राष्ट्र, विचार आदि पर ममता-मूर्छावश होकर अपनी रक्षा करने, वृद्धि करने के लिये होती है । अपना विरोध करने या उस पर अधिकार जमाने या उसे ग्रहण करने वाले के प्रति मनुष्य हिंसक प्रतिकार वर, विरोध, निन्दा, द्वेष, मारपीट, उपद्रव या वध करता है । स्वयं के द्वारा हिंसा सफल न होने पर दूसरों में पूर्वोक्त प्रकार का ममत्वभाव, स्वार्थ भाव से प्रेरित, प्रोत्साहित करके हिंसा करवाता है या हिंसा में सहयोग देने के लिये तैयार करता है, अथवा दूसरों को उकसा कर हिंसा का समर्थन करता है। इस प्रकार की हिंसापूर्ण उत्तेजना फैला देता है, या हिंसोत्तेजक विचार फैलाता है, जिससे लोग हिंसा के लिये अभ्यस्त हो जाएँ। फिर वह उन हिसाकर्ताओं को धन्यवाद देता है, उनके द्वारा की गई हिंसा का जोरदार शब्दों में समर्थन करता है, उन्हें हिंसा के लिये उपदेश देता है, अनुमति देता है, हिंसा के पथ पर जाने के लिये बाध्य कर देता है । इस प्रकार चाहे व्यक्ति स्वयं हिंसा करे, दूसरों से हिंसा कराये या हिंसा करने वालों का अनुमोदन करे, तीनों ही प्रकार की हिंसा किसी न किसी प्रकार के ममत्व (मैं और मेरे के परिग्रह) के कारण मन-वचन-काया से होती है और वह कर्मबन्धन का कारण बनती है।
हिंसा कर्मबन्धन का कारण क्यों बनती है इसका कारण बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं- 'वेरं वड्ढइ अप्पणो ।' कि किसी भी प्रकार से हिंसा करने-कराने वाला व्यक्ति उन प्राणियों के साथ अपना वैर बढ़ा लेता है । वैर इसलिये बढ़ाता है कि जिस प्राणी की हिंसा की जाती है, उसके मन में हिंसा करने वाले के प्रति अत्यन्त रोष, घृणा, द्वष और प्रतिकार की क्रूर भावना जागती है किन्तु कुछ कर नहीं सकता, इसलिये हिंसक के प्रति उसके दिल में वैरभाव बढ़ता जाता है इसीप्रकार हिंस्य प्राणी के प्रति भी हिंसक के मन में क्रूरता, द्वं ष, घृणा और रोष जागते हैं, अपने शरीर, परिवार अथवा अपनी मानी हुई किसी भी सजीव-निर्जीव वस्तु, वस्तु के प्रति राग, मोह और ममत्व जागते हैं । ये राग और द्वष ही कर्मबन्धन के कारण हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में बताया है—'रागो य दोसो वि य कम्मबीय'
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