Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
तिर्यन्च आदि नाना योनियों में भ्रमण करता हुआ नाना प्रकार के दुःख प्राप्त करता है । इस प्रकार परिग्रह से जीव प्रत्यक्ष भी इहलोक में नाना प्रकार के दु:ख प्राप्त करता है और परोक्ष रूप से परलोक में भी उसे अनेक प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं । इसीलिये शास्त्रकार ने 'एवं दुक्खा ण मुच्चइ' कहकर पूर्वगाथा में प्रस्तुत जिज्ञासा के समाधान के रूप में इसी पंक्ति के अन्तर्गत कर्मबन्धन के कारणभूत परिग्रह का स्वरूप और परिणाम सूचित कर दिया है।
पहले कहा जा चुका है कि परिग्रह ही समस्त दुःखरूप कर्मबन्धन का कारण है और परिग्रह का आरम्भ के साथ गाढ़ सम्बन्ध है। आरम्भ करने में हिंसा होती है, तथा परिग्रह भी अनेक प्रकार की हिंसा से बढ़ता है । इसलिये अब तीसरी गाथा में बन्धन की कारणभूत हिंसा का स्वरूप और परिणाम बताते हैं ।
मूल पाठ सयं तिवायए पाणे, अदुवाऽन्नेहि घायए । हणंतं वाऽणुजाणाइ, वेरं वडढइ अप्पणो ॥३॥
संस्कृत छाया स्वयमतिपातयेत्प्राणान्, अथवाऽन्यैर्धातयेत् । घ्नन्तं वाऽनुजानाति, वैरं वर्धयत्यात्मनः ॥३।।
अन्वयार्थ जो व्यक्ति (सयं) स्वयं (पाणे) एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के प्राणियों की (तिवायए) हिंसा करता है, (अदुवा) अथवा (अन्नेहि) दूसरों के द्वारा (घायए) वध कराता है, (वा) अथवा (हणंतं) प्राणियों का घात करते हुए व्यक्ति को (अणुजाणाइ) अनुज्ञा-अनुमोदन देता है, वह (अप्पणो) अपना (वेरं) वैर-शत्रता, (वड्ढइ) बढ़ाता है।
भावार्थ जो व्यक्ति स्वयं प्राणियों की किसी प्रकार से हिंसा करता है, अथवा दूसरों से हिंसा कराता है, या प्राणियों की हिंसा करते हुए अन्य व्यक्तियों को अनुज्ञा देता है, अनुमोदन करता है, वह उन प्राणियों के साथ और उपलक्षण से अपनी आत्मा के साथ शत्रुता बढ़ाता है।
व्याख्या हिंसा : कारण, स्वरूप और परिणाम
कर्मबन्धन के पाँच कारणों में से 'अविरति' भी एक कारण है । अविरति के
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