Book Title: Suryaprajnapti Chandraprajnapti
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. पूज्य गुरुदेव । श्री जोरावरमलजी महाराज की स्मृति में आयोजित USTEER 24ta संयोजक एवं प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मधुकर मुनि सूर्यप्रज्ञप्ति-चन्द्रप्रज्ञप्ति ( मूल-अनुवाद-विवेचन-टिप्पण-परिशिष्ट-युक्त ) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अर्ह जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क २१ [परमश्रद्धेय गुरुदेव पूज्य श्री जोरावरमलजी महाराज की पुण्य-स्मृति में आयोजित] सूर्यपज्ञप्ति-चन्द्रपज्ञप्ति [मूलपाठ, प्रस्तावना तथा परिशिष्ट युक्त ] प्रेरणा 0 (स्व० ) उपप्रवर्तक शासनसेवी स्वामी श्री ब्रजलालजी महाराज आद्यसंयोजक तथा प्रधान सम्पादक । (स्व० ) युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' सम्पादक मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' मुख्य सम्पादक । स्व. पं.शोभाचन्द्र भारिल्ल प्रकाशक - श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क २१ निर्देशन महासती श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' सम्पादक मण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनि स्व. श्री कन्हैयालालजी 'कमल' आचार्य स्व. श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री श्री रतनमुनि सम्प्रेरक मुनि श्री विनयकुमार 'भीम' . तृतीय संस्करण वीरनिर्वाण संवत् २५२९ विक्रम संवत् २०५९ फरवरी सन् २००३ प्रकाशक श्री आगम प्रकाशन समिति, श्री ब्रज-मधुकर स्मृति भवन पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) ब्यावर - ३०५९०१ फोन : २५००८७ मुद्रक अजन्ता पेपर कन्वर्टर्स लक्ष्मी चौक, अजमेर - ३०५ ००१, फोन : २४२०१२० शब्द-संयोजन रोहित कम्प्यूटर्स, अजमेर - ३०५ ००८, फोन : २६६०९१६ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाचार्य श्री मधुकर मुनीजी म.सा. 卐महामंत्र卐 णमो अरिहंताणं, णमो सिध्दाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोएसव्व साहूणं, एसो पंच णमोक्कारो' सव्वपावपणासणो | मंगलाणं च सव्वेसिं, पढम हवइ मंगलं ॥ Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published on the Holy Remebrance occasion of Rev. Guru Shri Joravarmalji Maharaj Suryaprajnapti - Chandraprajnapti [Original Text, Introduction and Appendices] Inspiring Soul Up-pravartaka Shasansevi (Late) Swami Shri Brijlalji Maharaj Convener & Founder Editor (Late) Yuvacharya Shri Mishrimalji Maharaj 'Madhukar' Editor Muni Shri Kanhaiyalaji 'Kamal' Chief Editor (Late) Pt. Shobhachandra Bharilla Publishers Shri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj.) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publication No. 21 O Direction Mahasati Shri Umravkunwarji ‘Archana' ᄆ Board of Editors Anuyogapravartaka Muni Late Shri Kanhaiyalalji ‘Kamal' Acharya Late Shri Devendra Muni Shastri Shri Ratan Muni Promotor Munishri Vinayakumar 'Bhima' Third Edition Vir-Nirvana Samvat 2529 Vikram Samvat 2059 FEBRUARY, 2003 Publishers Shri Agam Prakashan Samiti, Shri Brij Madhukar Smriti Bhawan Pipaliya Bazar, Beawar (Raj.) [India] Pin 305 901 Phone: 250087 Printer Ajanta Paper Convertors Laxmi Chowk, AJMER : 2420120 Graphics ROHIT Computers, Ajmer - 305 001 Price: Rs. 65/ Phone: 2660916 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय श्री जिनागम ग्रन्थमाला के 29वें ग्रन्थाङ्क का तृतीत संस्करण आगमप्रेमी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है। इसमें सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति दो आगमों का समावेश किया गया है। दोनों का एक साथ मुद्रण कराने का हेतु क्या है, इस विषय में आगम-अनुपयोग-प्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी म. 'कमल' ने अपने सम्पादकीय में विस्तृत चर्चा की है, अतएव यहां दोहराने की आवश्यकता नहीं है। प्रस्तुत दोनों आगम मूल पाठ एवं परिशिष्ट आदि के साथ ही प्रकाशित किये जा रहे हैं। अर्थ-विवेचन आदि नहीं दिये गये हैं । इसका कारण यह है कि इनमें आये कतिपय पाठों और उनके अर्थ में मतैक्य नहीं हो सका है। इसके अतिरिक्त इनका विषय ज्योतिष है जो सर्वसाधारण के लिये दुरूह है। इस विषय की चर्चा भी सम्पादकीय में की गई है। प्रस्तुत प्रकाशन के अनेक आगम कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में निर्धारित किये गये हैं। अतएव यह आवश्यक समझा गया कि इनकी उपलब्धि निरंतर बनी रहे। इस कारण समस्त आगमों में जिनकी प्रतियां समाप्त हो रही हैं, उनके द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ संस्करण प्रकाशित करा दिये गये हैं। - संतोष का विषय है कि ग्रन्थमाला के इन प्रकाशनों का समाज एवं विद्वद्वर्ग ने पर्याप्त आदर किया है। आशा है भविष्य में इनका और अधिक प्रचार-प्रसार होगा और श्री आगम प्रकाशन समिति का प्रयास अधिक सफल और सुफलप्रदायक सिद्ध होगा। अन्त में आगम-अनुपयोग के विशाल कार्य में व्यस्त होते हुए भी मुनिश्री कन्हैयालालजी म. 'कमल' ने मूलपाठ का सम्पादन कर व डाक्टर श्री रुद्रदेवजी त्रिपाठी ने महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना लिखकर जो सहयोग प्रदान किया उसके लिये आदरपूर्वक आभार मानते हैं। साथ ही स्व. पं. शोभाचन्द्रजी भारिल्ल ने इसका आद्योपान्त अवलोकन किया एवं सहयोगी कार्यकत्ताओं से सहयोग प्राप्त हुआ तदर्थ उनके भी हम आभारी हैं। सागरमल बेताला रतनचन्द मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष - निवेदक ज्ञानचन्द बिनायकिया सरदारमल चोरडिया महामंत्री अध्यक्ष महामना मंत्री श्री आगम प्रकाशन-समिति ब्यावर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यक्ष : श्री सागरमल बेताला, इन्दौर कार्यवाहक अध्यक्ष श्री रतनचन्द जी मोदी उपाध्यक्ष : श्री धनराजजी विनायकिया, ब्यावर श्री भंवरलालजी गोठी, चैन्नई श्री हुक्मीचन्द जी पारख, जोधपुर श्री दुलीचन्द्रजी चौरडिया, चैन्नई श्री जसराजजी पारख, दुर्ग महामंत्री : श्री सरदारमल जी चोरड़िया, चैन्नई मन्त्री : श्री ज्ञानचन्दजी विनायकिया, ब्यावर श्री ज्ञानराजजी मूथा, पाली सहमन्त्री श्री प्रकाशचन्दजी चौपड़ा, ब्यावर कोषाध्यक्ष श्री जंवरीलालजी शिशोदिया, ब्यावर श्री आर. प्रसन्नचन्दजी चोरडिया, चैन्नई परामर्शदाता : श्री माणकचन्दजी संचेती, जोधपुर श्री रीखबचन्द जी लोढ़ा, चैत्रई सदस्य : श्री एस. सायरमलजी चोरडिया, चैन्नई श्री मूलचन्दजी सुराणा, नागौर श्री मोतीचन्दजी चोरडिया, चैन्नई श्री अमरचन्दजी मोदी, ब्यावर श्री किशनलालजी बेताला, चैन्नई श्री जतनराजजी मेहता, मेड़ता सिटी श्री देवराज जी चोरडिया, चैन्नई श्री गौतम चन्दजी चोरडिया श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर श्री प्रकाशचन्दजी चोरडिया, चैन्नई श्री प्रदीपचन्दजी चोरडिया, चैन्नई श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर कार्यकारिणी समिति Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम संस्करण में उदार सहयोगी : परिचय सेठ श्री किशनलालजी बैताला सेठ श्री किशनलालजी बैताला निष्ठावान धर्मप्रेमी एवं उदारमना श्रावक हैं । आप में समाजसेवा की विशेष भावना शुरू से रही है। आपका जीवन मानवीय सद्गुणों से ओत-प्रोत रहा है। सेवा और परोपकारवृत्ति आपके कण-कण में बसी हुई है। आप श्वे..स्था. समाज की अनेकानेक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपने अपने पुरुषार्थ बल से विपुल लक्ष्मी का उपार्जन किया और पवित्र मानवीय भावना से ओत-प्रोत होकर धर्म तथा समाज की सेवा के लिये उस लक्ष्मी का सदुपयोग भी किया। शिक्षा एवं साहित्य प्रचार में आपकी एवं आपके समस्त परिवार की विशेष रुचि प्रारम्भ से ही रही है। आपके पिता पू. श्री पूनमचन्दजी बैताला एवं माता श्रीमती राजीबाई बैताला बहुत ही शान्त, धर्मशील एवं संतमुनिराजों की सेवा करने में तत्पर रहते थे। आपके चार भ्राता हैं - सर्वश्री दुलीचंद जी, माणकचंद जी, मदनलाल जी एवं कंवरलाल जी। सभी बंधु उद्योग एवं व्यवसाय में कुशल, वैभव सम्पन्न एवं धार्मिक तथा सामाजिक कार्यों में तन-मन-धन से सहयोग करते रहे आपकी धर्मपत्नी श्रीमती विमला देवी बैताला बड़ी सुशीला, सेवाभावी, धर्मशीला नारी है। आपके चार पुत्र हैं - सर्वश्री प्रकाशचंद जी, श्रीचंद जी, प्रेमचंद जी एवं राजेन्द्र जी। मुनि श्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन द्वारा प्रकाशित कथामालाओं के प्रकाशन में भी आपके परिवार का काफी योगदान रहा है। आप पूज्य स्वामी जी श्री हजारीमल जी म. सा., श्री बृजलाल जी म. सा. एवं पूज्य युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी म. सा. तथा पू. महासती श्री उमरावकुँवर जी म. सा. 'अर्चना' के प्रति अत्यधिक भक्ति, निष्ठा एवं आदर भावना रखते हैं। आपने इस ग्रन्थ के प्रकाशन में श्री आ. प्र. स. को अपना महत्वपूर्ण हार्दिक सहयोग प्रदान किया है एतदर्थ समिति आपकी आभारी है एवं अपेक्षा रखती है कि भविष्य में भी आपका इसी प्रकार का सहयोग मिलता रहेगा। ज्ञानचंद विनायकिया मंत्री. श्री आगम प्रकाशन समिति,ब्यावर Page #11 --------------------------------------------------------------------------  Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय ज्योतिषगणराजप्रज्ञप्ति अर्थात् चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति [प्रथम संस्करण से] सूर्यप्रज्ञप्ति के सूत्रपाठ पूर्व प्रकाशित सूर्यप्रज्ञप्ति के मूल सूत्रों से प्रस्तुत सूर्यप्रज्ञप्ति के मूल सूत्र यदि अक्षरशः मिलाना चाहेंगे तो नहीं मिलेंगे। क्योंकि इस संस्करण के सूत्रों को कई पूरक वाक्यों से पूरित किया है, फिर भी सूत्र पाठों की प्रामाणिकता यथावत आगमों के विशेषज्ञ ही सूत्र पाठों की व्यवस्था के औचित्य को समझ सकेंगे। सामान्य अंतर के अतिरिक्त चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति सर्वथा समान हैं, इसलिये एक के परिचय से दानों का परिचय स्वतः हो जाता है। उपांगद्वय - परिचय . संकलनकर्ता द्वारा निर्धारित नाम - ज्योषिगणराजप्रज्ञप्ति है। प्रारम्भ में संयुक्त प्रचलित नाम – चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति रहा होगा। बाद में उपांगद्वय के रूप में विभाजित नाम - चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति हो गये हैं, जो अभी प्रचलित हैं। प्रत्येक प्रज्ञप्ति में बीस प्राभृत हैं और प्रत्येक प्रज्ञप्ति में १०८ सूत्र हैं। तृतीय प्राभृत से नवम् प्राभृत पर्यंत अर्थात् सात प्राभृतों में और ग्याहरवें प्राभृत से बीसवें प्राभृत पर्यंत अर्थात् दस प्राभृतों में प्राभृत-प्राभृत' नहीं हैं। केवल प्रथम, द्वितीय और दसवें प्राभृत में 'प्राभृत-प्राभृत' हैं। - संयुक्त संख्या के अनुसार सतरह प्राभृतों में प्राभृत-प्राभृत' नहीं है। केवल तीन प्राभृतों में प्राभृत-प्राभृत' हैं। उपलब्ध चन्द्र-सूर्य प्रज्ञप्ति का विषयानुक्रम वर्गीकृत नहीं है। यदि इनके विकीर्ण विषयों का वर्गीकरण किया जाय तो जिज्ञासु जगत अधिक से अधिक लाभान्वित हो सकता है। वर्गीकृत विषयानुक्रम चन्द्रप्रज्ञप्ति के विषयानुक्रम की रूपरेखा - १. चन्द्र का विस्तृत स्वरूप २. चन्द्र का सूर्य से संयोग ३. चन्द्र का ग्रहों से संयोग ४. चन्द्र का नक्षत्रों से संयोग ५. चन्द्र का ताराओं से संयोग सूर्यप्रज्ञप्ति के विषयानुक्रम की रूपरेखा - १. सूर्य का विस्तृत स्वरूप १. ग्रहों के सूत्र Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. सूर्य का चन्द्र से संयोग २. नक्षत्रों के सूत्र ३. सूर्य का ग्रहों से संयोग ३. ताराओं के सूत्र ४. सूर्य का नक्षत्रों से संयोग १. काल के भेद प्रभेद ५. सूर्य का ताराओं से संयोग २. अहोरात्र के सूत्र १. चन्द्र, सूर्य के संयुक्त सूत्र ३. संवत्सर के सूत्र २. चन्द्र, सूर्य, ग्रह के संयुक्त सूत्र ४. औपमिक काल के सूत्र ३. चन्द्र, सूर्य ग्रह नक्षत्र के संयुक्त सूत्र ५. काल और क्षेत्र के सूत्र ४. चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, ताराओं के संयुक्त सूत्र दोनों प्रज्ञप्तियों की नियुक्ति आदि व्याख्याएँ द्वादश उपांगों के वर्तमान मान्य क्रम में चन्द्रप्रज्ञप्ति छठा और सूर्यप्रज्ञप्ति सातवां उपांग है - इसलिये आचार्य मलयगिरि ने पहले चन्द्रप्रज्ञप्ति की वृत्ति और बाद में सूर्यप्रज्ञप्ति की वृत्ति रची होगी। यदि आचार्य मलयगिरिकृत चन्द्रप्रज्ञप्ति-वृत्ति कहीं से उपलब्ध है तो उसका प्रकाशन हुआ है या नहीं ? या अन्य किसी के द्वारा की गई नियुक्ति, चूर्णि या टीका प्रकाशित हो तो अन्वेषणीय है। आचार्य मलयगिरि ने सूर्यप्रज्ञप्ति की वृत्ति में लिखा है - सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्ति नष्ट हो गई है। अतः गुरु कृपा से वृत्ति की रचना कर रहा हूँ। नामकरण और विभाजन सभी अंग-उपांगों के आदि या अन्त में कहीं न कहीं उनके नाम उपलब्ध हैं किन्तु इन दोनों उपांगों की उत्थानिका या उपसंहार में चन्द्रप्रज्ञप्ति या सूर्यप्रज्ञप्ति का नाम क्यों नहीं है ? यह एक विचारणीय प्रश्न है। दो उपांगों के रूप में इनका विभाजन कब और क्यों हुआ ? यह शोध का विषय है। ग्रह, नक्षत्र, तारा ज्योतिष्क देव हैं - इनके इन्द्र हैं चन्द्र-सूर्य - ये दोनों ज्योतिषगणराज है। उत्थानिका और उपसंहार के गद्य-पद्य सूत्रों में ज्योतिषगणराजप्रज्ञप्ति' नाम ही उपलब्ध है किन्तु इस नाम से ये उपांग प्रख्यात न होकर चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति नाम से प्रख्यात हुए हैं। 'ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति' का संकलनकर्त्ता ग्रन्थ के प्रारम्भ में ज्योतिष-गण-राज-प्रज्ञप्ति' इस एक नाम से की गई स्वतंत्र संकलित वृत्ति को ही कहने की प्रतिज्ञा करता है। इसका असंदिग्ध आधार चन्द्रप्रज्ञप्ति के प्रारम्भ में दी हुई तृतीय और चतुर्थ गाथा है। अस्या नियुक्तिरभूत, पूर्व श्री भद्रबाहुसूरिकृता। कलिदोषात् साऽनेशद् व्याचक्षे केवलं सूत्रम् ॥ सूर्यप्रज्ञप्तिमहं गुरूपदेशानुसारतः किंचित् । विवृणोमि यथाशक्तिं स्पष्टं स्वपरोपकाराय॥ - सूर्य० प्र० वृत्ति प्र०१ ३. गाहाओ - फुड-वियड-पागडत्थं, वुच्छं पुव्वसुय-सार-णिस्संदं॥ सुहूमं गणिणोवइटें जोइसगणराय-पत्तिं ॥३॥ नामेण इंदभूइत्ति, गोयमो वंदिऊण तिविहेणं। पुच्छइ जिणवरवसहं, जोइसरायस्स पण्णत्तिं ॥४॥ [ १० ] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार चन्द्र और सूर्य प्रज्ञप्ति के अन्त में दी हुई प्रशस्ति गाथाओं में से प्रथम गाथा के दो पदों में संकलनकर्त्ता ने कहा है 'इस भगवती ज्योतिष - राज-प्रज्ञप्ति का मैंने उत्कीर्तन किया है।' इस ग्रन्थ के रचयिता ने कहीं यह नहीं कहा कि 'मैं चन्द्रप्रज्ञप्ति या सूर्यप्रज्ञप्ति का कथन करूंगा, किन्तु 'ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति' यही एक नाम इसके रचयिता ने स्पष्ट कहा है, इस सन्दर्भ में यह प्रमाण पर्याप्त है। यह उपांग एक उपांग के रूप में कब माना गया ? और इसके दो अध्ययनों अथवा दो श्रुतस्कन्धों को दो उपांगों के रूप में कब ये मान लिया गया ? ऐतिहासिक प्रमाण के अभाव में क्या कहा जाय । ज्योतिष - राज-प्रज्ञप्ति के संकलनकर्त्ता प्रश्न उठता है - 'ज्योतिष - राज-प्रज्ञप्ति' के संकलनकर्त्ता कौन थे ? इस प्रश्न का निश्चित समाधान संभव नहीं है, क्योंकि संकलनकर्त्ता का नाम कहीं उपलब्ध नहीं है । 'चन्द्र प्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति' को कइयों ने गणधरकृत लिखा है। संभव है इसका आधार चन्द्रप्रज्ञप्ति के प्ररम्भ की चतुर्थ गाथा' को मान लिया गया है। किन्तु इस गाथा से गौतम गणधरकृत है, यह कैसे सिद्ध हो सकता है ? इसके संकलनकर्त्ता कोई पूर्वधर या श्रुतधर स्थविर हैं, जो यह कह रहे हैं कि 'इन्द्रभूति' नाम के गौतम गणधर भगवान महावीर को तीन योग से वंदना करके 'ज्योतिष - राज - प्रज्ञप्ति' के सम्बन्ध में पूछते हैं। . ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति का संकलनकाल • भगवान महावीर और निर्युक्तिकार श्री भद्रबाहुसूरि इन दोनों के बीच का समय इस ग्रन्थराज का संकलनकाल कहा जा सकता है, क्योंकि भद्रबाहुसूरिकृत 'सूर्यप्रज्ञप्ति की निर्युक्ति' वृत्तिकार आचार्य मलयगिरि के पूर्व ही नष्ट हो गई थी, ऐसा वे सूर्यप्रज्ञप्ति की वृत्ति में स्वयं लिखते हैं । इस गाथा में 'पुच्छर' क्रिया का प्रयोग अन्य किसी संकलनकर्ता ने किया है। ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति एक स्वतंत्र कृति है संकलनकर्त्ता चन्द्रप्रज्ञप्ति की द्वितीय गाथा में पाँच पदों का वन्दन करता है और तृतीय गाथा' में वह कहता है कि 'पूर्वश्रुत का सार निष्यन्द - झरना' रूप स्फुट - विकट सूक्ष्म गणित को प्रकट करने के लिये 'ज्योतिष - गण - राज - प्रज्ञप्ति ' को कहूँगा । इससे स्पष्ट ध्वनित होता है - यह एक स्वतंत्र कृति है । चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति के प्रत्येक सूत्र के प्रारम्भ में 'ता' का प्रयोग है। यह 'ता' का प्रयोग इसको स्वतंत्र कृति सिद्ध करने के लिये प्रबल प्रमाण है। १. गाहा - इय एस पागडत्था, अभव्वजणहियय दुल्लभा इणमो । उक्कित्तिया भगवती, जोइसरायस्स पण्णत्ती ॥ ३ ॥ नामेण इंदभूइत्ति, गोयमो वंदिऊण तिविहेणं । पुच्छइ जिणवरवसहं, जोइसरायस्स पण्णत्ति ॥ ४ ॥ नमिऊण सुर-असुर गरुल-भुयंगपरिवंदिए गयकिलेसे । अरिहे सिद्धायरिए उवज्झाय सव्वसाहू य॥ २ ॥ फुड - वियड - पागडत्थं, वुच्छं पुव्वसुय-सारणिस्संदं । सुहुमं गणिणोवइट्ठ, जोइसगणराय - पण्णत्तिं ॥ ३ ॥ [ ११ ] २. ३. ४. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार का 'ता' का प्रयोग किसी भी अंग उपांगों के सूत्रों में उपलब्ध नहीं है। चन्द्र-सूर्य प्रज्ञप्ति के प्रत्येक प्रश्नसूत्र के प्रारम्भ में 'भंते !' का और उत्तरसूत्र के प्रारम्भ में 'गोयमा' का प्रयोग नहीं है। जबकि अन्य अंग-उपांगों के सूत्रों में भंते ! और गोयमा! का प्रयोग प्रायः सर्वत्र है, अत: यह मान्यता निर्विवाद है कि यह कृति पूर्णरूप से स्वतंत्र संकलित कृति है। ग्रन्थ एक, उत्थानिकाएँ दो ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति की एक उत्थनिका चन्द्रप्रज्ञप्ति के प्रारम्भ में दी हुई गाथाओं की है और एक उत्थनिका गद्य सूत्रों की है। इन उत्थानिकाओं का प्रयोग विभिन्न प्रतियों के सम्पादकों ने विभिन्न रूपों में किया है - १. किसी ने दोनों उत्थानिकाएँ दी हैं। २. किसी ने एक गध-सूत्रों की उत्थानिका दी है। ३. किसी ने पद्य-गाथाओं की उत्थानिका दी है। इसी प्रकार प्रशस्ति गाथायें चन्द्रप्रज्ञप्ति के अंत में और सूर्यप्रज्ञप्ति के अंत में भी दी है। जबकि ये गाथायें ज्योतिष -राज-प्रज्ञप्ति के अंत में दी गई थीं। संभव है ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति को जब दो उपांगो के रूप में विभाजित किया गया होगा, उस समय दोनों उपांगों के अंत में समान प्रशस्ति गाथायें दे दी गई हैं। ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति की संकलन-शैली चिर अतीत में ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति का संकलन किस रूप में रहा होगा? ग्रह तो आगम-साहित्य के इतिहासविशेषज्ञों का विषय है किंतु वर्तमान में उपलब्ध चन्द्रप्रज्ञप्ति तथा सूर्यप्रज्ञप्ति के प्ररम्भ में दी गई विषय-निर्देशक समान गाथाओं में प्रथम प्राभृत का प्रमुख विषय 'सूर्यमण्डलों में सूर्य की गति का गणित' सूचित किया गया है, किन्तु दोनों उपांगों का प्रथम सूत्र मुहूर्तों की हानि-वृद्धि का है। ___ सूर्य संबंधी गणित और चन्द्र संबंधी गणित के सभी सूत्र यत्र-तत्र विकीर्ण हैं। यह नक्षत्र और ताराओं के सूत्रों का भी व्यवस्थित क्रम नहीं है। अत: आगमों के विशेषज्ञ सम्पादक श्रमण या सद्गृहस्थ इन उपांगों को आधुनिक सम्पादन शैली से सम्पादित करें तो गणित की आशातीत वृद्धि हो सकती है। प्रथम प्राभृत के पाँचवें प्राभृत-प्राभृत में दो सूत्र हैं। सोलहवें सूत्र में सूर्य की गति के संबंध में अन्य मान्यताओं की पाँच प्रतिपत्तियाँ हैं और सत्रहवें में स्वमान्यता का प्ररूपण है। इस प्रकार अन्य मान्यताओं का और स्वमान्यता का दो विभिन्न सूत्रों में निरूपण अन्यत्र नहीं है। संकलनकाल गणधर अंग आगमों को सूत्रागमों के रूप में पहले संकलित करता है और श्रुतधर स्थविर उपांगों को बाद में संकलित करते हैं। यह संकलन का कालक्रम निर्विवाद है। अंग आगमों को संकलित करने वाला गणधर एक होता है और उपांग आगमों को संकलित करने वाले श्रुतधर [ १२ ] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न काल में विभिन्न होते हैं अतः उनकी धारणाएं तथा संकलन पद्धति समान संभव नहीं है। स्थानांग अंग आगम है। इसके दो सूत्रों में चन्द्र-सूर्य प्रज्ञप्ति के नामों का निर्देश दुविधाजनक है, क्योंकि स्थानांग के पूर्व चन्द्र-सूर्य-प्रज्ञप्ति का संकलन होने पर ही उनका उसमें निर्देश संभव हो सकता है। इस विपरीत धारणा के निवारण के से पूर्व उन्हें यह ध्यान में रखना चाहिये नक्षत्र - गणनाक्रम में परस्पर विरोध है चन्द्र-सूर्य-प्रज्ञप्ति दशम प्राभृत के प्रथम प्राभृत-प्राभृत में नक्षत्र गणनाक्रम की स्वमान्यता का प्ररूपण है - तदनुसार अभिजित के उत्तराषाढ़ा पर्यन्त २८ नक्षत्रों का गणनाक्रम है किन्तु स्थानांग अ. २, उ. ३, सूत्रांक ९५ में तीन गाथाएँ नक्षत्र - गणनाक्रम की हैं और यही तीन गाथाएँ अनुयोगद्वार के उपक्रम विभाग में सूत्र १८५ में हैं। इनमें कृत्तिका से भरणी पर्यंत नक्षत्रों का गणनाक्रम है। स्थानांग अंग आगम है - इसमें कहा गया नक्षत्र - गणनाक्रम यदि स्वमान्यता के अनुसार है तो सूर्यप्रज्ञप्ति में कहे गये नक्षत्र - गणनाक्रम को स्वमान्यता का कैसे माना जाय ? क्योंकि उपांग की अपेक्षा अंग आगम की प्रामाणिकता स्वतः सिद्ध है। १. २. लिये बहुश्रुतों को समाधान प्रस्तुत करना चाहिये किन्तु समाधान प्रस्तुत करने यह संक्षिप्त वाचना की सूचना नहीं है ये दानों अलग-अलग सूत्र हैं। यदि स्थानांग में निर्दिष्ट नक्षत्र गणनाक्रम को किसी व्याख्याकार ने अन्य मान्यता का मान लिया होता तो परस्पर विरोध निरस्त हो जातां किन्तु जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि के आगम पाठों से स्वमान्यता का क्रम अभिजित से उत्तराषाढ़ा पर्यंत का है अन्य क्रम अन्य मान्यता के हैं। सूर्यप्रज्ञप्ति वृत्ति के अनुसार प्राभृत शब्द के अर्थ १ २ ३ - इष्ट पुरुष के लिये देशकाल के योग्य हितकर दुर्लभ वस्तु अर्पित करना अथवा जिस पदार्थ से मन प्रसन्न हो ऐसा पदार्थ इष्ट पुरुष को अर्पित करना, ये दोनों शब्दार्थ हैं । (क) स्थानांग अ. २, उ. २, सू. १६० (ख) स्थानांग अ. ४, उ. १, सू. २७७ (क) अथ प्राभृतमिति कः शब्दार्थ : ? उच्यते - इह प्राभृतं नाम लोके प्रसिद्धं यदभीष्टाय पुरुषाय देश-कालोचितं दुर्लभ वस्तु परिणामसुन्दरमुपनीयते । (ख) प्रकर्षेण आ-समन्ताद् म्रियते पोष्यते चित्तमभीष्टस्य पुरुषस्यानेनेति प्राभृतम् । कालौचित्येनोपनीयन्ते । - (ग) विवक्षिता अपि च ग्रन्थपद्धतयः परमदुर्लभा परिणामसुन्दराश्चाभीष्टेभ्यो विनयादिगुणकलितेभ्यः शिष्येभ्यो देश- सूर्य. सू. ६ वृत्ति-पत्र ७ का पूर्वभाग श्वेताम्बर परम्परा में चन्द्र-सूर्य प्रज्ञप्ति के अध्ययन आदि विभागों के लिए 'प्राभृत' शब्द प्रयुक्त है। दिगम्बर परम्परा के कषायपाहुड आदि सिद्धान्त ग्रन्थों के लिये प्रयुक्त 'पाहुड' शब्द के विभिन्न अर्थ | - जिसके पद स्फुट - व्यक्त हैं वह 'पाहुड' कहा जाता है। - —- जो प्रकृष्ट पुरुषोत्तम द्वारा आभृत जो प्रकृष्ट ज्ञानियों द्वारा आभूत जाता है। - प्राभृत पद का परमार्थ - = -- [१३] - प्रस्थापित है वह 'पाहुड' कहा जाता है। धारण किया गया है अथवा परम्परा से प्राप्त किया गया है वह 'पाहुड' कहा - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष से उद्धत Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र-सूर्य-प्रज्ञप्ति से सम्बन्धित अर्थ विनयादि गुण सम्पन्न शिष्यों के लिये देश-कालोपयोगी शुभफलप्रद दुर्लभ ग्रन्थ स्वाध्याय हेतु देना। यहाँ 'देश-कालोपयोगी' विशेषण विशेष ध्यान देने योग्य है। कालिक और उत्कालिक नन्दीसूत्र में गमिक को 'उत्कालिक' और अगमिक को 'कालिक' कहा है। दृष्टिवाद गमिक है। दृष्टिवाद का तृतीय विभाग पूर्वगत है, उसी पूर्वगत से ज्योतिषगणराज-प्रज्ञप्ति (चन्द्रप्रज्ञप्तिसूर्यप्रज्ञप्ति) का निर्वृहण किया गया है, ऐसा चन्द्रप्रज्ञप्ति की उत्थनिका की तृतीय गाथा से ज्ञात होता है। अंग-उपांगों का एक दूसरे से संबंध है, ये सब अगमिक हैं, अत: वे सब कालिक हैं। उसी नन्दीसूत्र के अनुसार चन्द्रप्रज्ञप्ति कालिक है और सूर्यप्रज्ञप्ति उत्कालिक है। चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति के कतिपय गद्य-पद्य सूत्रों के अतिरिक्त सभी सूत्र अक्षरशः समान हैं, अतः एक कालिक और एक उत्कालिक किस आधार पर माने गये हैं ? यदि इन दिनों उपांगों में से एक कालिक और एक उत्कालिक निश्चित है तो 'इनके सभी सूत्र समान नहीं थे' यह मानना ही उचित प्रतीत होता है, काल के विकराल अंतराल में इन उपांगों के कुछ सूत्र विछिन्न हो गये और कुछ विकीर्ण हो गये हैं। मूल अभिन्न और अर्थ भिन्न चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति के मूल सूत्रों में कितना साम्य है ? यह तो दोनों के आद्योपान्त अवलोकन से स्वतः ज्ञात हो जाता है; किन्तु चन्द्रप्रज्ञप्ति के सभी सूत्रों की चन्द्रपरक व्याख्या और सूर्यप्रज्ञप्ति के सभी सूत्रों की सूर्यपरक व्याख्या अतीत में उपलब्ध थी। यह कथन कितना यथार्थ है, कहा नहीं जा सकता है, क्योंकि ऐसा किसी टीका, नियुक्ति आदि में कहीं कहा नहीं है। यदि इस प्रकार का उल्लेख किसी टीका, नियुक्ति आदि में देखने में आया हो तो विद्वज्जन प्रकाशित करें। एक श्लोक या एक गाथा के अनेक अर्थ असम्भव नहीं हैं। द्विसंधान, पंचसंधान, सप्तसंधान आदि काव्य वर्तमान में उपलब्ध हैं। इनमें प्रत्येक श्लोक की विभिन्न कथापरक टीकाएँ देखी जा सकती हैं। किन्तु चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति के सन्दर्भ में बिना किसी प्रबल प्रमाण के भिन्नार्थ कहना उचित प्रतीत नहीं होता। ज्योतिषशास्त्र निमित्तशास्त्र माना गया है। इसका विशेषज्ञ शभाशभ जानने में सफल हो सकता है। मानव की सर्वाधिक जिज्ञासा भविष्य जानने की होती है क्योंकि वह इष्ट का संयोग एवं कार्य की सिद्धि चाहता चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति ज्योतिष विषय के उपांग हैं - यद्यपि इनमें गणित अधिक है और फलित अत्यल्प है, फिर भी इनका परिपूर्ण ज्ञाता शुभाशुभ निमित्त का ज्ञाता माना जाता है - यह धारणा प्राचीन काल से प्रचलित है। ग्रह-नक्षत्र मानवमात्र के भावी द्योतक हैं अतएव इनका मानव जीवन के साथ व्यापक संबंध है। १. २. ३. नन्दीसूत्र, गमिक अगमिक श्रुत सूत्र ४४. नन्दीसूत्र, दृष्टिवाद श्रुत सूत्र ९०. नन्दीसूत्र, उत्कालिक श्रुत सूत्र ४४. नन्दीसूत्र, कालिक श्रुत सूत्र ४४. [ १४ ] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्र के प्रति जो मानव की अगाध श्रद्धा है, वह भी ग्रह-नक्षत्रों के शुभाशुभ प्रभाव के कारण ही है। ज्योतिषी देवों का जीव-जगत् से संबंध इस मध्यलोक के मानव और मानवेत्तर प्राणी-जगत से चन्द्र आदि ज्योतिषी देवों का शाश्वत संबंध है। क्योंकि वे सब इसी मध्यलोक के स्वयं प्रकाशमान देव हैं और वे इस भूतल के समस्त पदार्थों को प्रकाश प्रदान करते रहते हैं। ज्योतिष लोक और मानव लोक का प्रकाश्य-प्रकाशक का भाव संबंध इस प्रकार है - (१) चन्द्र शब्द की रचना चदि आह्लादने धातु से 'चन्द्र' शब्द सिद्ध होता है। चन्द्रमाह्लादं मिमीते निर्मिमीते इति चन्द्रमा प्राणिजगत् के आह्लाद काजनक चन्द्र है, इसलिये चन्द्रदर्शन की परम्परा प्रचलित है। चन्द्र के पर्यायवाची अनेक हैं उनमें से कुछ ऐसे पर्यायवाची हैं जिनमें इस पृथ्वी के समस्त पदार्थों से एवं पुरुषों से चन्द्र का प्रगाढ़ संबंध सिद्ध है। कुमुदबान्धव – जलाशयों में प्रफुल्लित कुमुदिनि का बंधु चन्द्र है इसलिये 'कुमुदबान्धव' कहा जाता है। कलानिधि चन्द्र के पर्याय हिमांशु, शुभ्रांशु, सुधांशु की अमृतमयी कलाओं से कुमुदिनी का सीधा संबंध है। इसकी साक्षी है राजस्थानी कवि की सूक्ति - दोहा – जल में बसे कुमुदिनी, चन्दा बसे आकाश। जो जाहु के मन बसे, सो ताहु के पास ॥ औषधीश – जंगल की जड़ी बूटियां 'औषधी' हैं - उनमें रोग-निवारण का अद्भुत सामर्थ्य सुधांशु की सुधामयी रश्मियों से आता है। मानव आरोग्य का अभिलाषी है, वह औषधियों से प्राप्त होता है - इसलिये औषधीष चन्द्र से मानव का घनिष्ठ संबंध है। निशापति - निशा-रात्रि का पति – चन्द्र है। 'श्रमजीवी दिन में 'श्रम' करते हैं और रात्रि में विश्राम करते हैं । आह्लादजनक चन्द्र की चन्द्रिका में विश्रान्ति लेकर मानव स्वस्थ हो जाता है इसलिये मानव का निशानाथ से अति निकट का संबंध सिद्ध होता है। जैनागमों में चन्द्र के एक 'शशि' पर्याय की ही व्याख्या है। १. सभी सदस्स विसिट्ठऽत्थो प्र. से केणठेणं भंते! एवं वुच्चई - चंदे ससी, चंदे ससी? उ. गोयमा! चंदस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरण्णो मियंके विमाणे, कंता देवा, कंताओ देवीओ, कंताई आसणसयण-खंभ-भंडमत्तोवगरणाइं, अप्पणा वि यणं चंदे जोतिसिंदे जोतिसराया सोमे कंते सुभए पियदंसणे सुरूवे से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चई - 'चंदे ससी, चंदे ससी'। - भग. स. १२, उ.६, सु. ४ शशि शब्द का विशिष्टार्थ प्र. हे भगवन् ! चंद्र को 'शशि' किस अभिप्राय से कहा जाता है ? उ.हे गौतम! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र के मृगांक विमान में मनोहर देव, मनोहर देवियां तथा मनोज्ञ आसन-शयन-स्तम्भभाण्ड-पात्र आदि उपकरण हैं और ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र स्वयं भी सौम्य, कान्त, सुभग, प्रियदर्शन एवं सुरूप है। हे गौतम ! इस कारण से चन्द्र को 'शशि' (या सश्री) कहा जाता है। [ १५ ] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) सूर्य शब्द की रचना सू प्रेरणे धातु से 'सूर्य' शब्द सिद्ध होता है। सुवति-प्रेरयति कर्मणि लोकान् इति सूर्यः – जो प्राणि मात्र को कर्म करने के लिये प्रेरित करता है वह सूर्य सूरज - ग्रामीण जन 'सूर्य' को 'सूरज' कहते हैं। सु ऊर्ज से सूर्ज या सूरज उच्चारण होता है। सु श्रेष्ठ - ऊर्ज = ऊर्जा - शक्ति। . सूर्य से श्रेष्ठ शक्ति प्राप्त होती है। सूर्य के पर्याय अनके हैं। इनमें कुछ ऐसे पर्याय हैं, जिनसे सूर्य का मानव के साथ गहन संबंध सिद्ध होता है। सहस्त्रांशु – सूर्य की सहस्त्र रश्मियों से प्राणियों को जो 'ऊष्मा प्राप्त होती है, वही जगत् के जीवों का जीवन प्रत्येक मानव शरीर में जब तक ऊष्मा - गर्मी रहती है, तब तक जीवन है। ऊष्मा समाप्त होने के साथ ही जीवन समाप्त हो जाता है। भास्कर, प्रभाकर, विभाकर, दिवाकर, घुमणि, अहर्पति, भानु आदि पर्यायों से 'सूर्य' प्रकाश देने वाला देव है। मानव की सभी प्रवृत्तियां प्रकाश में ही होती हैं। प्रकाश के बिना यह अकिंचित्कर है। सूर्य के ताप से अनेक रोगों की चिकित्सा होती है सौर ऊर्जा से अनेक यंत्र शक्तियों का विकास हो रहा है। इस प्रकार मानव का सूर्य से शाश्वत संबंध है। जैनागमों में सूर्य के एक 'आदित्य पर्याय की व्याख्या द्वारा सभी कालविभागों का आदि सूर्य कहा गया है। (३) गृह-ग्रह की रचना ग्रह उपादाने धातु से यह ग्रह शब्द सिद्ध होता है। जैनागमों में छह ग्रह और आठ ग्रह का उल्लेख है। १. सूर सहस्स विसिट्ठत्थो - प्र.से केणठेणं भंते! एवं वुच्चइ - 'सूरे आदिच्चे सूरे आदिच्चे'? उ.गोयमा! सुरादीया णं समयाइवा, आवलियाइवा, जाव ओसप्पिणीइ वा, उस्सप्पिणीइ वा। से तेण→णं गोयमा! एवं वुच्चइ - 'सूरे आदिच्चे सूरे आदिच्चे।' - भग. स. १२, उ. ६, सु.५ सूर्य शब्द का विशिष्टार्थ प्र. हे भगवन् ! सूर्य को आदित्य किस अभिप्राय से कहा जाता है ? उ. हे गौतम! समय, आवलिका यावत् अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी काल का आदि कारण सूर्य है। हे गौतम! इस कारण से सूर्य को आदित्य कहा जाता है। छ तारग्गहा पण्णत्ता, तंजहा - १. सुक्को, २. बुहे, ३. बहस्पति, ४. अंगारके, ५. साणिच्छरे, ६. केतु। - ठाणं अ. ६, सु. ४८ अट्ठ महग्गहा पण्णत्ता तंजहा - १. चन्दे, २. सूरे, ३. सुक्के, ४. बुहे, ५. बहस्सति, ६. अंगारके, ७. सणिच्छरे, ८. केतु । - ठाणं ८, सू.६/३ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र-सूर्य को ग्रहपति माना है।, शेष छह को ग्रह माना है,राहु-केतु को भिन्न न मानकर एक केतु को ही माना अट्ठासी ग्रह भी माने हैं। अन्य ग्रन्थों में नौ ग्रह माने हैं। ग्रहों के प्रभाव के संबंध में वशिष्ठ और बृहस्पति नाम के ज्योतिर्विदाचार्य ने इस प्रकार कहा है - वशिष्ठ - ग्रहा राज्यं प्रयच्छंति, ग्रहा राज्यं हरन्ति च । ग्रहैस्तु व्यपितं सर्व, त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ बृहस्पति - ग्रहाधीनं जगत्सर्वं, ग्रहाधीना नरामराः। कालं ज्ञानं ग्रहाधीनं, ग्रहाः कर्मफलप्रदाः॥ (३२ वां गोचर प्रकरण - वृहदैवज्ञरंजन, पृ. ८४) (४) नक्षत्र और नरसमूह नक्षत्र शब्द की रचना १. न क्षदते हिनस्ति 'क्षद' इति सौत्रो धातु : हिंसार्थ आत्मनेपदी। ष्टन (उ. ४/१५९) नभ्रानपाद् (६/३/७५) इति नञः प्रकृतिभावः। २. णक्ष गतौ (भ्वा. प. से.) नक्षति। असि-नक्षि-यजि-वधि-पतिभ्यो त्रन् (उ. ३/१०५) प्रत्यये कृते। ३. न क्षणोति. क्षणु हिंसायाम् (त. उ. से.) (ष्ट्रन्) (उ. ४/१५९) नक्षत्रं । ४. न क्षत्रं देवत्वात् क्षत्र भिन्त्वात्। जो क्षत-खतरे से रक्षा करे वह 'क्षत्र' कहा जाता है। उस 'क्षत्र' का जो 'रक्षा करना' धर्म है वह क्षात्र धर्म' कहा जाता है। क्षत्र की संतान 'क्षत्रिय' कही जाती है। — इस भूतल के रक्षक नर 'क्षत्र' हैं और नभ - आकाश में रहने वाले रक्षक देव 'नक्षत्र' हैं। इन नक्षत्रों का नर क्षत्र से संबंध नक्षत्र संबंध है। अट्ठाईस नक्षत्रों में से 'अभिजित् ' नक्षत्र को व्यवहार में न लेकर सत्ताईस नक्षत्रों से व्यवहार किया है। प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण हैं अर्थात् चार अक्षर हैं। इस प्रकार सत्ताईस नक्षत्रों के १०८ अक्षर होते हैं। इन १०८ अक्षरों को बारह राशियों में विभक्त करने पर प्रत्येक राशि के ९ अक्षर होते हैं। इस प्रकार सत्ताईस नक्षत्रों एवं बारह राशियों १०८ अक्षरों से प्रत्येक प्राणी एवं पदार्थों के 'नाम' निर्धारित किये जाते हैं। वह नक्षत्र और नर समूह का त्रैकालिक संबंध है। चर स्थिर आदि सात, अंध काण आदि चार इन ग्यारह संज्ञाओं से अभिहित ये नक्षत्र प्रत्येक कार्य की सिद्धि आदि में निमित्त होते हैं। [ १७ ] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) तारामण्डल तारा शब्द की रचना तारा शब्द स्त्रीलिंग है। तृ प्लवन-तरणयोः धातु से 'तारा' शब्द की सिद्धि होती है। तरन्ति अनया इति तारा। सांयात्रिक - जहाजी व्यापारियों के नाविक रात्रि में समुद्र यात्रा तारामण्डल के दिशा बोध से करते थे। ___ ध्रुव तारा सदा स्थिर रह कर उत्तर दिशा का बोध कराता है। शेष दिशाओं का बोध ग्रह, नक्षत्र और राशियों की नियमित गति से होता रहता है। इसलिये नौका आदि के तिरने में जो सहायक होते हैं, वह तारा कहे जाते हैं। रेगिस्तान की यात्रा रात्रि में सुखपूर्वक होती है इस लिये यात्रा के आयोजक रात्रि में तारा से दिशाबोध करते हुए यात्रा करते हैं। तारामण्डल के विशेषज्ञ प्रान्त का, देश का शुभाशुभ जान लेते हैं इसलिये ताराओं का पृथ्वीतल के प्राणियों से अति निकट का संबंध सिद्ध है। इस प्रकार चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा मानव के सुख-दुःख के निमित्त है। गणितानुयोग का गणित सम्यक् श्रुत है मिथ्याश्रुतों की नामावली में गणित को मिथ्याश्रुत माना है', इसका यह अभिप्राय नहीं है कि – 'सभी प्रकार के गणित मिथ्याश्रुत हैं।' आत्मशुद्धि की साधना में जो गणित उपयोगी या सहयोगी नहीं है, केवल वही गणित 'मिथ्याश्रुत' है, ऐसा समझना चाहिये। यहां 'मिथ्या' का अभिप्राय 'अनुपयोगी' है, झूठा नहीं। वैराग्य की उत्पत्ति के निमित्तों में लोकभावना अर्थात् लोकस्वरूप का विस्तृत ज्ञान भी एक निमित्त है, अत: अधो और ऊर्ध्व लोक से संबंधित सारा गणित 'सम्यक श्रत' है, क्योंकि वह गणित आजीविका या अन्यान्य सावध क्रियाओं का हेतु नहीं हो सकता है। स्थानांक, समवायांग और व्याख्याप्रज्ञप्ति - इन तीनों अंगों में तथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति - इन तीनों उपांगों में गणित संबंधी जितने सूत्र हैं वे सब सम्यक्श्रुत हैं। क्योंकि अंग, उपांग सम्यक्श्रुत हैं। अन्य मान्यताओं के उद्धरण - स्वमान्यताओं का प्ररूपण चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति में अनेक मान्यताओं के उद्धरण दिये गये हैं, साथ ही स्वमान्यताओं के प्ररूपण भी किये गये हैं। अन्य मान्यताओं का सूचक 'प्रतिपत्ति' शब्द है। चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति में जितनी प्रतिपत्तियां हैं, उनकी सूची इस प्रकार है - १. नन्दीसूत्र २. जगत्कायस्वभावी च संवेग-वैराग्यार्थम्। त्तत्त्वार्थसूत्र अ. ७ [ १८ ] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ० ० ० 39 v० ० ० ० ० ० ० ० सूर्यप्रज्ञप्ति में प्रतिपत्तियों की संख्या प्राभृत प्राभृत-प्राभृत सूत्र प्रतिपत्ति संख्या प्राभृत प्राभृत-प्राभृत सूत्र प्रतिपत्तियां संख्या १५ ६ प्रतिपत्तियां १ २० ३ प्रतिपत्तियां ५ प्रतिपत्तियां २ ८ प्रतिपत्तियां १७ स्वमत कथन २ २२ २ प्रतिपत्तियां १८ ७ प्रतिपत्तियां २३ ४ प्रतिपत्तियां १९ ८ प्रतिपत्तियां १२ प्रतिपत्तियां 'एक के समान स्वमान्यता' ४ १६ प्रतिपत्तियां प्राभृत प्राभृत-प्राभृत सूत्र प्रतिपत्ति संख्या प्राभृत प्राभृत-प्राभृत सूत्र प्रतिपत्तियां संख्या २० प्रतिपत्तियां १० ५ प्रतिपत्तियां २५ प्रतिपत्तियां १० ५ प्रतिपत्तियां २० प्रतिपत्तियां १७ ८८ २५ प्रतिपत्तियां ३ प्रतिपत्तियां १८ ८९ २५ प्रतिपत्तियां ३ प्रतिपत्तियां १९ १०० १२ प्रतिपत्तियां २५ प्रतिपत्तियां २० १०२ २ प्रतिपत्तियां २ प्रतिपत्तियां' २० १०३ २ प्रतिपत्तियां ९६ प्रतिपत्तियां बहुश्रुतों का कर्तव्य . उपांगद्वय में उद्धृत प्रतिपत्तियों के स्थल निर्देश करना, प्रमाणभूत ग्रन्थ से प्रतिपत्ति की मूल वाक्यावली देकर अन्य मान्यता का निरसन करना और स्वमान्याताओं का युक्तिसंगत प्रतिपादन करना इत्यादि आधुनिक पद्धति की सम्पादन प्रक्रिया से सम्पन्न करके उपांगद्वय को प्रस्तुत करना। अथवा - किसी शोधसंस्थान के माध्यम से चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति पर विस्तृत शोधनिबन्ध लिखवाना। किसी योग्य श्रमण-श्रमणी या विद्वान् को शोधनिबन्ध लिखने के लिये उत्साहित करना। शोधनिबन्ध-लेखन के लिये आवश्यक ग्रन्थादि की व्यवस्था करना। शोधनिबन्ध लेखक का सम्मान करना। ये सब श्रुतसेवा के महान् कार्य हैं। एक व्यापक भ्रान्ति दोनों उपांगों के दसवें प्राभृत के सतरहवें प्राभृत-प्राभृत में प्रत्येक नक्षत्र का पृथक-पृथक भोजन-विधान है। इनमें मांस भोजन के विधान भी हैं। इन्हें देखकर सामान्य स्वाध्यायी के मन में एक आशंका उत्पन्न होती है। १. (क) इन प्रतिपत्तियों के पूर्व के प्रश्नसूत्र विच्छिन्न हैं। (ख) इन प्रतिपत्तियों के बाद स्वमत-प्रतिपादक सूत्रांश भी विच्छिन्न हैं। उपांगद्वय के संकलनकर्ता ने प्रतिपत्तियों के जितने उद्धरण दिये हैं, उनके प्रमाणभूत मूल ग्रन्थों के नाम, ग्रन्थकारों के नाम, अध्याय, श्लोक, सूत्रांक आदि नहीं दिये हैं। [ १९ ] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये दोनों उपांग आगम हैं - इनमें ये मांस भोजन के विधान कैसे हैं ? यह आश्का अज्ञातकाल से चली आ रही है। सूर्यप्रज्ञप्ति के वृत्तिकार मलयगिरि ने भी इन मांसभोजनविधानों के संबंध में किसी प्रकार का ऊहापोह या स्पष्टीकरण नहीं किया है। एक कृत्तिका नक्षत्र के भोजन विधान की व्याख्या करके शेष नक्षत्रों के भोजन कृत्तिका के समान समझने की सूचना दी है। शेष नक्षत्रों के भोजन विधानों की व्याख्याएँ न करने के संबंध में यह कल्पना है कि - मांसवाची शब्दों की व्याख्या क्या की जाय ? अथवा मांसवाची भोजनों को वनस्पतिवाची सिद्ध करने की कल्पना करना उन्हें उचित नहीं लगा होगा ? या उस समय ऐसी कोई परम्परागत धारणा न रही होगी? स्व. पूज्य श्री घासीलाल जी म. ने इस भोजन सूत्र को प्रक्षिप्त सिद्ध किया है और कतिपय मांसनिष्पन्न भोजनों को वनस्पतिनिष्पन्न भोजन भी सिद्ध किया है। ये दानों परस्पर विरोधी कार्य हैं। नक्षत्र भोजन का यह सूत्र यदि प्रक्षिप्त है तो मांसनिष्पन्न भोजनों को वनस्पत्यादि निष्पन्न भोजन सिद्ध करने से लाभ ही क्या है ? क्योंकि सूर्यप्रज्ञप्ति के प्ररूपक लौकिक कार्यों की सिद्धि के लिये सावध विधि का प्ररूपण ही नहीं कर सकते और सूत्रागमों का गुंथन करने वाले गणधर ऐसे भ्रामक शब्दों का प्रयोग भी नहीं करते, यह निश्चित है। इसलिये हमारे बहुश्रुतों को इस सूत्र के संबंध में सर्वसम्मत निर्णय घोषित करना ही चाहिये। जैनागमों में नक्षत्र गणना का क्रम अभिजित से प्रारम्भ हो कर उत्तराषाढ़ा पर्यन्त का है। प्रस्तुत प्राभृत के इस सूत्र में नक्षत्रों का क्रम कृत्तिका से प्रारम्भ हो कर भरणीपर्यन्त का है।' उप्लब्ध अनेक ज्योतिष ग्रन्थों में भी यह नक्षत्र गणना का क्रम विद्यमान है – अत: यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत १. चन्द्र-सूर्य-प्रज्ञप्ति के संकलनकर्ता श्रुतधर स्थविर ने नक्षत्र गणना क्रम की पाँच विभिन्न मान्यताओं का निरूपण करके स्वमान्यता का प्ररूपण किया है। पाँच अन्य मान्यताओं का निरूपण - अट्ठाईस नक्षत्रों का गणनाक्रम - १. कृत्तिका नक्षत्र से भरणी नक्षत्र पर्यन्त २८ नक्षत्र २. मघा नक्षत्र से अश्लेषा नक्षत्र पर्यन्त २८ नक्षत्र ३. धनिष्ठा नक्षत्र से श्रवण नक्षत्र पर्यन्त २८ नक्षत्र ४. अश्विनी नक्षत्र से रेवती नक्षत्र पर्यन्त २८ नक्षत्र ५. भरणी नक्षत्र से अश्विनी नक्षत्र पर्यन्त २८ नक्षत्र स्वमान्यता का प्ररूपण - अभिजित नक्षत्र से उत्तराषाढ़ा नक्षत्र पर्यन्त २८ नक्षत्र । - चन्द्र-सूर्य-प्रज्ञप्ति, दशम प्राभूत, प्रथम प्राभृत-प्राभृत, सू. ३२ नक्षत्र गणना के इस क्रम के विधान से यह स्पष्ट है कि दशम प्राभृत व सप्तदशम प्राभृत-प्राभृत में निरुपित नक्षत्रभोजनविधान सूर्यप्रज्ञप्ति के संकलनकर्ता की स्वमान्यता का नहीं है। आश्चर्य यह है कि अब तक सम्पादित एवं प्रकाशित चन्द्र-सूर्य प्रज्ञप्तियों के अनुवादकों आदि ने इस संबंध में स्पष्टीकरण लिख कर व्यापक भ्रान्ति के निराकरण के लिये सत्साहस नहीं किया। [ २० ] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्रभोजनविधान का क्रम अन्य किसी ज्योतिष ग्रन्थ से 'उद्धृत है। इन उपांगद्वय की संकलन शैली के अनुसार अन्य मान्यताओं के बाद स्वमान्यता का सूत्र रहा होगा, जो विषमकाल के प्रभाव से विछिन्न हो गया है - ऐसा अनुमान है। सामान्य मनीषियों ने इस नक्षत्रभोजनविधान को और नक्षत्रगणनाक्रम को स्वसम्मत मानने की बहुत बड़ी असावधानी की है। इसी एक सूत्र के कारण उपांगद्वय के संबंध में अनेक चमत्कार की बातें कह कर भ्रांतियां फैलाई गई हैं। इन भ्रांतियों के निराकरण के लिये आजतक किसी भी बहुश्रुत ने अपने उत्तरदायित्व को समझकर समाधान करने का प्रयत्न नहीं किया है। इसका परिणाम यह हुआ कि इन उपांगों का स्वाध्याय होना भी बंद हो गया। चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति और अन्य ज्योतिष ग्रन्थों का तुलनात्मक चिन्तन दशम प्राभृत के अष्टम प्राभृत-प्राभृत में नक्षत्र संस्थान १. नवम् प्राभृत-प्राभृत में नक्षत्र, तारा संख्या नक्षत्र स्वामी- देवता चन्द्र-सूर्य प्रज्ञप्ति में दशम प्राभृत के बारहवें प्राभृत- प्राभृत के सूत्र ४६ में नक्षत्र देवताओं के नाम हैं । मुहूर्तचिंतामणि के नक्षत्र प्रकरण में नक्षत्र देवताओं के नाम हैं 1 इन दोनों के नक्षत्र देवता निरूपण में सर्वथा मान्य है। केवल नक्षत्र गणना क्रम का अंतर है। इसी प्रकार दशम प्राभृत के तेरहवें प्राभृत-प्राभृत में तीस मुहूर्तों के नाम, चौदहवें प्राभृत-प्राभृत में पन्द्रह दिनों के और रात्रियों के नाम, पन्द्रहवें प्राभृत-प्राभृत में दिवस तिथियों और रात्रि तिथियों के नाम, सोलहवें प्राभृत-प्राभृत में नक्षत्र गोत्रों के नाम, सत्तरहवें प्राभृत-प्राभृत में नक्षत्र भोजनों के विधान । वृहद् दैवज्ञरंजनम्, मुहूर्तमार्तण्ड आदि ग्रन्थों में ऊपर अंकित सभी विषय उपलब्ध हैं। कुल्माषांस्तिलतांडुलानपि तथा माषांश्च गव्यं त्वाज्यं दुग्धमथैणमांसमपरं तस्यैव रक्तं तदत्पायसमेव चापपललं मार्ग च शाशं षष्टिवयं च प्रियग्वपूपमथवा चित्राण्डजान सत्फलम् ॥ कौर्मं सारिकगोधिकं च पललं शाल्यं हविष्यं हया । घृक्षे स्यान्कृसरान्नमुदमपिना पिष्टं यवानां तथा ॥ मत्स्यान्नं खलु चिनिमथवा दध्यकृमेवं क्रमात् । भक्ष्याभक्ष्यमिदं विचार्य मतिमान् भक्षेत्तथाऽऽलोकयेत् ॥ [ २१ ] दधि । तथा ॥. तथा । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दानुभूति श्रुतसेवा के इस महा यज्ञ में श्री विनय मुनि जी आदि के सविनय सविवेक विविध सहयोगों से अधिक आनन्दानुभव कर रहा हूँ और सभी सहयोगियों की संयम साधना सफल हो यह कामना कर रहा हूँ । आत्मशोधन - सूर्यप्रज्ञप्ति के संपादन में जहाँ कहीं प्रमादवश कुछ भी विपरीत या असंगत हुआ हो तो आगमज्ञ बहुश्रुत सुधार कर स्वाध्याय करें और आगामी प्रकाशन के लिये उपयोगी सुझाव प्रेषित करें । सहकार साभार स्वीकार सूर्यप्रज्ञप्ति के कतिपय सूत्रों से संबंधित गणित विभाग का संक्ष्सिप्त विवेचन खम्भात सम्प्रदाय के आचार्य प्रवर श्री कान्तिॠषि जी म. सा. के प्रशिष्य स्व. श्री महेन्द्रऋषि जी न्याय साहित्य - व्याकरणाचार्य ने लिख कर हार्दिक सहयोग किया है। पंडित साहब श्री शोभाचन्द्र जी भारिल्ल ने समय समय पर अनेक उपयोगी सुझाव दे कर प्रस्तुत संस्करण के सम्पादन में सक्रिय सहयोग किया है। श्री रुद्रदेव जी त्रिपाठी ने सूर्यप्रज्ञप्ति की प्रस्तावना लिख कर जिज्ञासु ज्योतिर्विदों को सूर्यप्रज्ञप्ति के स्वाध्याय के लिये प्रेरित किया है। आगम समिति के सूत्रधार सज्जन ज्ञावकों ने मेरे श्रम की सफलता के लिये जिज्ञासु जनों में इस संस्करण को वितरित किया है। ३१ जनवरी' ८९ [ २२ ] - अ. प्र. मुनि कन्हैयालाल 'कमल' श्री वर्धमान महावीर केन्द्र, आबू पर्वत - ३०७५०१ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना (प्रथम संस्करण से) डॉ. रुद्रदेव त्रिपाठी साहित्य-सांख्य-योगदर्शनाचार्य, एम. ए. (संस्कृत एवं हिन्दी), पी-एच. डी., डी. लिट्. निदेशक ब्रजमोहन बिड़ला शोध केन्द्र, उज्जैन (म.प्र.) १. धर्मत्रिवेणी और उसका सर्वमान्य साहित्य भारत के सिद्ध तपस्वी मन्त्रद्रष्टा महर्षि और महान् त्यागी-विरागियों द्वारा प्रदत्त ज्ञानपीयुष के कलश को सुरक्षित रखते हुए उसकी अमृत-बिन्दुओं को प्राणीमात्र के कल्याण के लिये वितरित करने वाले जैन, ब्राह्मण एवं बौद्धाचार्यों ने जिस धार्मिक / सर्वमान्य साहित्य को पुरस्कृत किया, उसकी समता विश्व के समक्ष किसी अन्य साहित्य में उपलब्ध नहीं होती है। जैन आगम, ब्राह्मण-वेद तथा बौद्ध पिटक' के रूप में व्याप्त दिव्य-प्रकाश की किरणों से जन-जन के अन्तर को उज्जवल बनाने वाले इस सर्वमान्य साहित्य का हमारे पूर्वाचार्यों ने विशुद्ध भाव से लोक कल्याण की भावना से ही उपदिष्ट किया था, यही कारण है कि यह सुदीर्घ काल से पूर्ण श्रद्धा के साथ समाज में आत्मसात् हुआ है, हो रहा है और चिरकाल तक होता रहेगा। धर्म के सनातन-सत्यों की समष्टि को चिर-स्थिर रखने वाला यह साहित्य भारत को गौरव प्रदान कराता है, मानव-मात्र को सत्य के दर्शन की प्रेरणा देता है, समुचित मार्ग का निर्देश करता है, कर्तव्याकर्तव्य का विवेक सिखाता है और सांसारिक-प्रपंचों से मुक्त होकर मोक्ष-पथ का पथिक बनने के लक्ष्य तक पहुंचाता है। २. एक लक्ष्य 'मोक्ष-प्राप्ति' और उसके क्रमिक सन्दर्भ भाषा, भाव, कथन की विविधता, वक्ता की और द्रष्टा की भिन्नता एवं श्रोता-संग्रहकर्ता आदि की अनेकता के रहते हुए भी 'आगम, वेद अथवा त्रिपिटकों के आन्तरिक उपदेशों में ऐक्य नितान्त सुसिद्ध है। समान तात्त्विक सिद्धान्तों के हार्दतत्त्व - १. कर्म-विपाक, २. संसार-बन्धन और ३. मुक्ति, मुख्यतः एक ही ध्येय की पूर्ति करते हैं, वह है - सर्वकर्मों का क्षय करके मोक्ष की प्राप्ति । मोक्ष किसका अपेक्षित है? यह प्रश्न मोक्ष-प्राप्ति के प्रसंग में सहज उठता है तो इसका सभी दर्शनकारों का एक ही उत्तर होता है 'आत्मा का'। इस उत्तर से 'आत्मा क्या है ?' यह प्रश्न उठना भी स्वाभाविक हो गया, तब सभी दर्शनकारों ने इस संबंध में अपनी-अपनी दृष्टि से 'आत्म-चिन्तन' की प्रक्रियाएँ प्रस्तुत की। इन प्रक्रियाओं के प्रस्तोताओं की भारतीय-वाङ्मय में एक सुदीर्घ परम्परा प्रवर्तित हुई और जैन, बौद्ध एवं वैदिक तथा इनके अवान्तर अनेक चिन्तकों ने अत्यन्त प्रौढ़ता एवं गम्भीरता के साथ वे उपस्थापित की। आस्तिक और नास्तिक जैसे परम्परा-पोषक भेदों की बहुलता के कारण चार्वाक ने जहां प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानकर 'भूतात्मवाद और देहात्मवाद' १. पुव्वकम्मखयाट्ठए इमं देहं ............। - उत्त. अ. ६,गा. १३. [ २३ ] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को जन्म दिया वहीं उनके सूक्ष्म रूप से 'मन-आत्मवाद, इन्द्रियात्मवाद (एकेन्द्रियात्मवाद तथा समूहात्मवाद), प्राणात्मवाद, पुत्रात्मवाद, अर्थात्मवाद' के सिद्धान्त भी उभर आये। इसी प्रकार वैदिक-विचारकों में वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसा एवं अद्वैत वेदान्त के द्वारा भी विभिन्न ऊहापोह-पूर्वक आत्मा की खोज में 'धर्म, चेतन, कर्म, देव, माया, ब्रह्म, जीव, जड़, पुरुष, प्रकृति' आदि अनेक तत्त्वों की साङ्गोपाङ्ग मीमांसा की गई। जैन-दर्शन में 'अतति/गच्छति इति आत्मा' इस व्युत्पत्ति को लक्ष्य में रखकर, गमनार्थक धातु को ज्ञानार्थक भी .. मानने की व्याकरण-सम्मत व्यवस्था को स्वीकृत करते हुये यह व्याख्या प्रस्तुत की कि जो 'ज्ञान आदि गुणों में आसामन्तात् रहता है, अथवा उत्पाद, व्यय और धौव्यरूप त्रिक के साथ समग्र रूप में रहता है, वह आत्मा है।" जैनदर्शनकारों ने आत्मा के संबंध में अनेक दृष्टियों से विचार किया है, इसीलिये जैनदर्शन का अपर नाम 'अनेकान्तदर्शन' भी प्रसिद्ध है। 'चैतन्यस्वरूप' यह आत्मा का मुख्य विशेषण है। जैन मतानुसार अन्य विशेषण इस प्रकार है - 'चैतन्यस्वरूपः परिणामी कर्ता साक्षाद् भोक्ता देहपरिमाणः प्रतिक्षेत्रं भिन्नः पौद्गलिकादृष्टवांश्चायम् । ३. आत्मा का पर्याय 'जीव' तथा उसका मौलिक विश्लेषण जैनदर्शन का 'आत्मशास्त्र' अत्यन्त सूक्ष्म है। इसकी विचारणा सम्पूर्ण वैज्ञानिक है। विभिन्न दर्शनकार आत्मा का अस्तित्व तो मानते हैं किन्तु उनमें से कुछ आत्मा का 'अनेकत्व, नित्यत्व अथवा कर्तृत्व-मोक्षादि' नहीं मानते हैं किन्तु जैनदर्शन में आत्मा को नित्य और अविनाशी माना गया है। आत्मा के अस्तित्व के बारे में 'जीवो उवओगलक्खणो' सूत्र द्वारा वर्धमान महावीर ने उसकी पहचान का मार्ग दिखलाया है। जैन शास्त्रकार आत्मा के पर्याय रूप में 'जीव' शब्द का प्रयोग करते हैं और वह जीवन, प्राणशक्ति एवं चेतना का द्योतक है। त्रैकालिक जीवन गुण से युक्त होने के कारण आत्मा की 'जीव' संज्ञा सार्थक है। 'जीवन' के आधार दशविध 'प्राण' बतलाये गये हैं। यह व्यवहार दृष्टि है। निश्चयदृष्टि से जिसमें 'चेतना' पाई जाए वह 'जीव' है। जीव का लक्षण जैनदर्शन के अनुसार 'उपयोग' है। उपयोग, चेतना का अनुविधायी परिणाम होता है। इसके 'ज्ञान' और 'दर्शन' नाम से दो भेद हैं तथा इन दोनों के धारक को 'जीव' कहते हैं । जीव में अचेतन पदार्थों की तरह 'प्रदेश' और 'अवयव' भी माने गये हैं, उसे इसी कारण 'अस्तिकाय' कहा गया है। " उसमें प्रतिक्षण परिणमन क्रिया होती रहती है, फिर भी वह अपने मूलरूप/गुण को नहीं छोड़ता। ये 'उत्पाद, व्यय और धौव्य' ये पर्याय उसमें सदा पाये जाते हैं। इन कारणों से जीव को उत्त. अ. २८,गा.११ १. (क) नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा। वीरियं उवओगो य एयं जीवस्स लक्खणं॥ (ख) बृहद् द्रव्यसंग्रह - ५७ प्रमाणनय-तत्त्वालोक, ७-५६ 3. क. उत्त. अ. २८, गा. १० ख. उपयोगो लक्षणम् - तत्त्वार्थसूत्र अ. २, सू.८ तत्त्वार्थराजवार्तिक, १४७ 5. तत्त्वार्थराजवार्तिक, २८१ ६. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्। - तत्त्वार्थसूत्र अ.५, सू. २९ [ २४ ] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी एक 'द्रव्य' माना गया है। जीव-द्रव्य अनन्त हैं। वे सभी अरूपी और चैतन्य गुण वाले होने से निरन्तर अपने-अपने बाह्य-आभ्यन्तर उभय परिणामों के कर्ता और भोक्ता बनते हैं तथा स्व-पर परिणामों के ज्ञाता भी हैं। जीवद्रव्य के अतिरिक्त अन्य चार 'अजीव-द्रव्य' भी हैं जो चैतन्य-रहित जडत्व-गुण से युक्त हैं। इनमें १. धर्मास्तिकाय' द्रव्य है, जो 'अरूपी' और 'गति-सहायक' गुण-धर्म वाला है। २. 'अधर्मास्तिकाय' द्रव्य भी अरूपी एवं स्थिति-सहायक गुण-धर्म वाला है। ३. लोकालोक प्रमाण 'आकाशस्तिकाय' द्रव्य भी अरूपी, अवकाश देने के गुण-धर्म वाला है। ४. 'पुद्गलास्तिकाय' द्रव्य स्कन्ध देश-प्रदेश और परमाणु स्वरूप से पूरण-गलन-स्वभाव वाला और वर्ण-गन्ध-रस और स्पर्शादि धर्म से युक्त होकर रूपी द्रव्य है। ४. जीव तथा अजीव द्रव्य रूप 'जगत्' और उसके ज्ञान की आवश्यकता सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी श्री वीतराग जिनेश्वर ने समस्त जगत् को जीव और अजीव द्रव्यों का राशि रूप कहा है और यह भी प्ररूपित है कि यह जगत् अनादि, अनन्त तथा 'पंचास्तिकायमय' है। अत: जगत् में जो-जो द्रव्य दिखाई देते हैं और विभिन्न स्वरूप में जीव द्रव्यों के भोग-उपभोग में आते हैं, वे सभी पुद्गलद्रव्य हैं तथा जड़ पुद्गल-द्रव्यों के चित्रविचित्र परिणामों के संयोग-वियोगादि में, जिस-जिस को भिन्न-भिन्न स्वरूप में सुख-दुःखादि का अनुभव होता है ये भिन्न-भिन्न जीव-द्रव्य हैं। क्योंकि जड़ द्रव्यों में सुख-दुःखादि की अनुभव रूप ज्ञान-चेतना नहीं होती। इसलिये जैन दृष्टि से समस्त जगत् जीव और अजीव ऐसे दो पदार्थों में विभक्त है और अजीव के विविध परिणमनरूप में प्रत्यक्ष दिखाई देने १. प. कइ णं भंते १ अत्थिकाया पण्णत्ता ? उ. गोयमा १ पंच अस्थिकाया पण्णत्ता, तं जहा - १. धम्मत्थिकाए, २. अधम्मत्थिकाए, ३. आगासत्थिकाए, ४. जीवत्थिकाए, ५. पोग्गलत्थिकाए। - विया. स. २, उ. १०, सु. १ यद्यपि जैन शासन में द्रव्य पांच ही है 'पंचास्तिकायो लोकः' यह सूत्र इसका प्रमाण है, तथापि कहीं-कहीं 'काल' को स्वतंत्र द्रव्य मानकर 'षड्द्रव्य' भी बतलाये गये हैं। दव्वाणं नामाई - प. से किं तं दव्वणामे ? 3. दव्व-णामे छव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - १. धम्मत्थिकाए, २. अधम्मत्थिकाए, ३. आगासत्थिकाए, ४. जीवत्थिकाए, ५. पोग्गलत्थिकाए ६. अद्धासमए, अ। से तं दव्य-णामे। - अणु. सु. २१८ तत्त्वार्थकार ने भी पांचवें अध्याय के ३० वें सूत्र में स्पष्ट लिखा है कि 'कालश्चेत्येके' अर्थात् कुछ आचार्य काल को भी स्वतंत्र द्रव्य मानते हैं। जबकि पंचद्रष्यावादी 'काल' को जीव और अजीव का पर्याय-स्वरूप मानते हैं। २. (क) दुवे रासी पण्णत्ता, तं जहा - १ जीवरासी य, अजीवरासी य। - सम. सू. १४८ (ख) अस्थि जीवा, अत्थि अजीवा, - उव. सु.५६ (ग) के अयं लोगे? जीवच्चेव, अजीवच्चेव । के अणंता लोगे? जीवच्चेव, अजीवच्चेव। के सासया लोगे? जीवच्चेव, अजीवच्चेव। - ठाणं. अ. २, उ. ४, सू. ११४ [ २५ ] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाला यह समस्त जगत् नवतत्त्वात्मक स्वरूप से सत् है। जिसकी किसी भी काल में, किसी से उत्पत्ति नहीं हुई और जिसका किसी भी काल में आमूल-सर्वथा विनाश भी नहीं है, ऐसे अनादि-अनन्त, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य परिणामी पांचों अस्तिकाय द्रव्यों में कालादि भेद से जो-जो चित्र-विचित्र पर्याय-परिणमन होते हैं, वे सभी 'स्वतः' और 'परतः सहेतुक होते हैं। अत: उनसे सम्बद्ध कार्य-कारणभाव का यथार्थ स्वरूप जानना आवश्यक है। धर्मास्तिकायादि पदार्थ लोकाकाश रूप जगत् में ही व्याप्त हैं। इसी जगत् में जीवों की स्थिति है और जगत् के त जीवों को अनादिकाल से सुख और शान्ति की अपेक्षा रहती ही आयी है। सख और शान्ति के लिये तडपते हए जीवों को सुख-शान्तिा का वास्तविक मार्ग बतलाने की दृष्टि से ही परम करुणामूर्ति अरिहंत तीर्थंकर धर्मतीर्थ की प्ररूपणा करते हुए कहते हैं कि 'जिन आत्माओं को सुख और शान्ति की अभिलाषा हो, उन्हें अपनी आत्मा से मोक्षाभिलाषरूप संवेगभाव तथा सांसारिक सुख के प्रति अनासक्त भाव रूप निर्वेद प्रकट करना चाहिये, तभी वे सुख-शान्ति का अनुभव कर सकते हैं।' इसी लिये वाचकप्रवर श्री उमास्वाति ने भी संवेग-निर्वेद की उत्पत्ति का उपाय बतलाते हुए कहा है कि - जगत्-कायस्वभावौ च संवेग-वैराग्यार्थम् और उसी 'तत्त्वार्थसूत्र' में तथा 'नवतत्त्व' में आत्मा में संवरभाव प्रकट करने के लिये बारह भावनाओं के भावने की बात कही गई है। उसमें लोक-स्वभाव-भावना भी एक है। यह लोकस्वभाव-भावना तभी भावित कर सकता है जबकि उसे लोक का स्वरूप ज्ञात हो। _ 'जगत' का अपर-पर्याय 'लोक' है। लोक का अर्थ दृश्यादृश्य 'क्षेत्र' भी होता है। अतः धर्मास्ति-कायादि द्रव्य जिस आकाश में विलसित हो रहे हैं, उस क्षेत्र को भी 'लोक' कहते हैं। इसी लोकस्वरूप-परिज्ञान करने की आज्ञा जैनागम तथा अन्य शास्त्रों में दी गई है। 'आचाराङ्ग-सूत्र' में कहा गया है - "विदित्ता लोगं वंता लोगसण्णं से मइमं परिक्कमेजासि। इसके अनुसार लोकविषयक ज्ञान के अनन्तर ही विषयासक्ति में त्याग के पराक्रम निर्दिष्ट हैं। इस प्रकार - ___ 'द्वीप-समुद्र-पर्वत-क्षेत्र-सरित-प्रभृति-विशेषः सम्यक् सकल-नैगमादि-नयेन ज्योतिषां प्रवचनमलसत्रैर्जन्य-मानेन कथमपि भावविदभिः सदभिः स्वयं पर्वापरशास्त्रार्थ-पर्यालोचनेन प्रवचन-पदार्थविदपासनेन चाभियोगादि-विशेषविशेषेण वा प्रपंचेन परिवेद्य इति। कथन द्वारा श्लोकवार्तिकार ने भी लोक-विषयक सभी पदार्थों के ज्ञान करने का आग्रह किया है। वस्तुत: आन्तरिक सत्ता के ज्ञान के साथ बाह्य-सत्ता का ज्ञान भी आवश्यक माना गया है। इसीलिये जैन और अन्यान्य सभी धर्मानुयायियों के प्रमाणभूत आगमादि ग्रन्थों में 'सृष्टि-विज्ञान' को धर्मचर्चा के रूप में प्रस्तुत करते हुए मान्यता दी गई है। साथ ही विज्ञान को सर्वज्ञ जिनेश्वर-प्ररूपित होने के कारण इसे मोक्ष के प्रमुख साधनभूत धर्म के चार भेदों के अन्तर्गत 'धर्मध्यान' नामक भेद में लोक के स्वभाव और आकार एवं उसमें स्थित विविध द्वीपादि, क्षेत्र तथा समुद्रादि के स्वरूप-चिन्तन में मनोयोग संस्थान-विचय' नामक धर्मध्यान होता है – ऐसा कहा गया है। इस प्रकार की लोक-भावना करते हुए आत्मा संस्थान-विचय' नामक धर्मध्यान में पहुँचने से अपने कर्मों का नाश कर शुक्लध्यान में पहुँचता है और क्षपक श्रेणी में आजाने से अष्टकर्म क्षय करके अपनी आत्मा को शाश्वत सुख का भागी बनाता है। ऐसे अनेक तथ्यों के कारण ही लोक की स्थिति और विस्तार' आदि की मीमांसा जैन आगमों में पर्याप्त विस्तार उत्त. अ. २८, गा. १४ १. जीवाजीवा य बंधो य पुण्ण-पावासवा तहा। संवरो निजरा मोक्खोसंतेए तहिया नव॥ १४ ॥ आचारांगसूत्र - श्रुत. १, अ.३, उ. १, सू. २५. तत्त्वार्थसूत्र ३/७० पर श्लोकवार्तिक. ४. ज्ञानार्णव ३४/४-८ तथा हैमयोगशास्त्र ७/१०-१२. [ २६ ] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 에 어 से हुई है, उसके मूल में धर्मबोध की ही प्रधानता रही है और इसलिये धार्मिक चर्चाओं में सर्वत्र 'लोकविज्ञान, लोकचिन्तन' को भी महत्त्व मिला है। ऐसी एक आवश्यक चर्या का आध्यात्मिक महत्त्व सर्वोपरि है और वह है - एयंसि णं भंते ! एमहालयंसि लोगंसि अस्थि केइ परमाणुपोग्गलत्ते वि पएसे जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा, न मए वा वि? नो इणढे समठे। से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ - 'एयंसि णं एमहालयंसि लोगंसि नत्थि केई परमाणुपोग्गलमत्ते वि पएसे जत्थ णं अयं जीवे ण जाए वा न मए वा वि?' गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे अयासहस्सस्स एगं महं अयावयं करेजा, से णं तत्थ जहण्णेणं एक्कं वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं अयासहस्सं पक्खिवेज्जा, ताओ णं तत्थ पउरगोयराओ पउरपाणियाओ, जहण्णेणं एगाहं वा, दुयाहं वा, तियाहं वा, उक्कोसेणं छम्मासे परिवसेज्जा। अत्थि णं गोयमा! तस्स अयावस्स केयि परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे जे णं तासिं अयाणं उच्चारेण वा पासवणेण वा खेलेण वा सिंघाणएण वा वंतेण वा पित्तेण वा पूरण वा सुक्केण वा सोणिएण वा चम्मेहि वा रोमेहि वा सिंगेहि वा खुरेहिं वा नहेहिं वा अणोक्कंतपुव्वे भवइ ? उ. णो इणठे समठे। होज्जा वि णं गोयमा! तस्स अयावयस्स केयि परमाणुपोग्गलमत्ते वि पएसे जे णं तासिं अयाणं उच्चारेणं वा जाव नहेहिं वा अणोक्कंतपुव्वे नो चेव णं एयंसि एमहालयंसि लोगंसि लोगस्स य सासयभावं, संसारस्स य अणादिभावं, . जीवस्स य निच्चभावं कम्मबहुत्तं जम्मण-मरणाबाहुल्लं च पडुच्च नत्थि केयि परमाणपोग्गलमत्ते वि पएसे - 'जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा, मए वा वि।' से तेणठेणं गोयमा! वुच्चइ - 'एयंसि णं एमहालयंसि लोगंसि नत्थि केइ परमाणुपोग्गलमत्ते वि पएसे जत्थ णं अयं जीवे णं जाए वा न मए वा वि।' -विया. स. १२, उ. ७,सु.३/१-२. अर्थात् इस लोक का ऐसा कोई प्रदेश नहीं है, जहाँ अनेक बार जीव उत्पन्न हुआ और मरा नहीं। जिस लोक में मानव उत्पन्न हुआ है, उसके स्वरूप-परिज्ञान से वह सोचने लगता है कि 'इस लोक के प्रत्येक प्रदेश में मेरे अनेक बार जन्म और मरण हुए हैं, अतः इस पुनः पुनः जन्म-मरण के चक्र से मुझे मुक्त होना चाहिये।' उसकी यह जागरुकता उसे विभिन्न पुण्य-पाप, सत्कर्म-दुष्कर्म आदि से परिचित कराती है और उनके स्वरूपों से परिचित हो कर असत्कर्मों से निवृत्ति एवं सत्कर्मप्रवृत्तिपूर्वक अपने निरापद गन्तव्य का निर्धारण करने में तत्पर हो जाता है। यदि समस्त लोक तथा पृथ्वी पर स्थित द्वीपादि का निरूपण शास्त्रों में नहीं होता तो जीव अपने स्वरूप के परिचय से अपरिचित ही रह जाता और वैसी [ २७ ] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिति में आत्म ज्ञान के प्रति श्रद्धान तथा ज्ञानादि की संभावनाएँ भी विलुप्त हो जातीं। जो जीवे वि न याणाति अजीवे वि न याणति । जीवाऽजीवे अयाणंतो कहं सो नाहीइ संजमं ॥ ३५ ॥ जो जीवे वि वियाणाति अजीवे विवियाणाति । जीवाजीवे वियाणतो सो हु नाहीइ संजमं ॥ ३६ ॥ जया जीवमजीवे य दो वि एए वियाणई । तया गई बहुविहं सव्वजीवाणं जाणई ॥ ३७ ॥ तया गई बहुविहं सव्वजीवाणं जाई । तया पुण्णं च पावं च जया पुण्णं च पावं च तया निव्विदए भोए जे बंधं मोक्खं च जाणई ॥ ३८ ॥ बंधं मोक्खं च जाणई । दिव्वे जे य माणुसे ॥ ३९ ॥ जया निव्विदए भोए जे दिव्वे जे य माणुसे । तया चयइ संजोगं सऽभितर बाहिरं ॥ ४० ॥ तया चयइ संजोगं सभितर बाहिरं । तया मुंडे भवित्ताणं पव्वइए अणगारियं ॥ ४१ ॥ जया मुंडे भवित्ताणं पव्वइए अणगारियं । तया संवरमुक्किट्ठ धम्मं फासे अणुत्तरं ॥४२ ॥ जया संवरमुक्किट्ठ धम्मं फासे अणुत्तरं । अबोहिकलुसं कडं ॥ ४३ ॥ तया धुणइ कम्मरयं जया धुणइ कम्मरयं अबोहिकलुसं कडं । तया सव्वत्तगं नाणं दंसणं चाभिगच्छई ॥४४ ॥ जया सव्वत्तगं नाणं दंसणं चाभिगच्छई । तया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली ॥ ४५ ॥ जया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली । तया जोगे निरंभित्ता सेलेसिं पडिवज्जई ॥ ४६ ॥ जया जोगे निरंभित्ता सेलेसिं पडिवज्जई । तया कम्मं खवित्ताणं सिद्धिं गच्छइ नीरओ ॥४७॥ जया कम्मं खवित्ताणं सिद्धिं गच्छइ नीरओ । तया लोगमत्थयत्थो सिद्धो भवइ सासओ ॥ ४८ ॥ [ २८ ] - दस. अ. ४, गा. ३५-४८ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्हीं सब कारणो से लोक संबंधी ज्ञान अत्यावश्यक माना गया है और इस ज्ञान की उपलब्धि के लिये आगमसाहित्य सदैव परिशीलनीय माना गया है। ५. लोक और उसमें 'सूर्य' - जैसा कि ऊपर बताया गया है कि 'लोक विज्ञान' का निदर्शन जैन-आगमों में विस्तार से हुआ है। वहीं उसका परिचय'१. समग्र, २. विभिन्न अंग और ३. अंग-विशेष' के रूप में निर्दिष्ट होकर उत्तरकाल के आचार्यों द्वारा भाष्य, वित्ति आदि के रूप में उसे और भी पल्लवित एवं पुष्पित किया गया है। ऐसे साहित्य में - लोक परिचय के लिये १. आचारांग सूत्र १ श्रुतस्कन्ध, २. अध्ययन, १ उद्देशक'। २. स्थानांग सूत्र, १ स्थान। ३. समवायांग सूत्र - प्रथम समवाय। ४. भगवतीसूत्र ११ शतक, १० उद्देशक। in x i n bi im १. इच्चत्थं गढिए लोए वसे पमत्ते अहो य राओ य परितप्पमाणे कालाकालसमुट्ठायी संजोगट्ठी अट्ठालोभी आलुंपे सहसक्कारे विणिविट्ठचित्ते एत्थ सत्थे पुणो पुणो।। २. ठाणं. अ. १, सु. ५ सम. अ. १, सु. ३ प्र. कविहे णं भंते १. लोए पण्णत्ते ? गोयमा! चउविहे लोए पण्णत्ते, तं जहा - १. दव्वलोए, २. खेत्तलोए, ३. काललोए, ४. भावलोए। खेत्तलोए णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? उ. गोयमा! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा - १. अहेलोयखेत्तलोए, २. तिरियलोयखेत्तलोए, ३. उड्ढलोयखेत्तलोए। अहेलोयखेत्तलोए णं भंते! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा! सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा - रयणप्पभापुढविअहेलोयखेत्तलोए जाव अहेसत्तमपुढविअहेलोयखेत्तलोए। तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा! असंखेजइविहे पण्णत्ते, तं जहा - जंबुद्दीवतिरियलोयखेत्त लोए जाव सयंभुरमणसमुद्दतिरियलोयखेत्तलोए। प्र. उड्ढलोयखेत्तलोए णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा! पण्णरसविहे पण्णत्ते, तं जहा - सोहम्मकप्पउड्ढलोयखेत्तलोए जाव अच्चुयउड्ढलोयखेत्तलोए। गेवेजविमाणउड्ढलोयखेत्त लोए अणुत्तर विमाणउड्ढलोयखेत्तलोए। इसिपब्भारपुढविउड्ढलोयखेत्तलोए। - विया. स. ११, उ. १०,सु.२-६ bi im bi im sim [ २९ ] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. १३ शतक, ४ उद्देशक। तथा अन्य सूत्रों में प्रासंगिक रूप से चर्चित विषयों का अध्ययन किया जाये तथा२. लोक के आकार-ज्ञान के लिये - १. आचारांगसूत्र श्रुत १. अ. ८, उ. २ । द्रष्टव्य हैं। लोक-विषयक विचारणा का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत है। जैन आगमों में लोक का अभिप्रेतार्थ 'रज्जु लोक' है, क्योंकि यह १४ विभागों में विभाजित है, अत: इसे 'चौदह रजु लोक' के नाम से भी पहचाना जाता है। वैसे वैदिकधर्मग्रन्थों में भी 'चौदह रज्जु लोक' की मान्यता एवं वर्णन मिलते हैं। एक रज्जु लोक का प्रमाण - 'कोई देव एक हजार भार वाले लोहे के गोले को अपनी समग्र शक्तिपूर्वक आकाश से फैंके और वह लोह गोलक ६ माह, ६दिन, घड़ी, ६ पल में जितना क्षेत्र लांघ जाये उतना क्षेत्र एक रज्जु लोक कहलाता है।' चौदह रज्जु लोक का आकार दोनों पैर सीधे करके कटि के दोनों पाश्वों पर हाथ रख कर खड़े हुए पुरुष के समान है। आगम साहित्य में इसे लोक पुरुष की संज्ञा दी गई है। इसी में धर्मास्तिकायादि (काल द्रव्य, सहित) छह द्रव्य है। लोक के बाहर जो आकाशास्तिकाय है, उसमें इन छह द्रव्यों के न होने से उसे 'अलोक' कहते हैं । अलोक का विस्तार लोक की अपेक्षा अनंत गुना विशाल है। लोक के 'ऊर्ध्व', 'अधः' और 'तिर्यक ' ऐसे तीन भाग हैं। इनमें 'रत्नप्रभा' से नौ सो योजन ऊपर तथा नौ सो योजन नीचे इस प्रकार कुल अठारह सौ योजन मोटाई वाला, एक रज्जु चौड़ा ऐसा 'तिर्यक्लोक' है। वहाँ से नौ सौ योजन न्यून सात रज्जु प्रमाण 'अधोलोक' है और 'ऊर्ध्व लोक ' भी नौ सौ योजन न्यून सात रज्जु प्रमाण है। संक्षेप में यह लोक का सामान्य परिचय है। विशेष ज्ञान के लिये गणितानुयोग का आद्योपान्त अवलोकन 'लोक प्रकाश', क्षेत्रसमास आदि दर्शनीय है। ६. सूर्य का आलोक और उसका स्वरूप तिर्यक्लोक में जो प्रकाश व्याप्त है, वह सूर्यों के द्वारा ही प्राप्त है। मनुष्य लोक के अन्दर और बाहर के विभागों को प्रकाशित करने वाले सूर्य पृथक-पृथक हैं और इस दृष्टि से सूर्यों की अनेकता सिद्ध है। इस मध्य लोक के प्रकाशक प. कहि णं भंते! लोगस्स आयाममझे पण्णते? उ. गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए, ओवासंतरस्स असंखेज्जइभागं एत्थ वां लोगस्स आयाममज्झे पण्णते। प्र. कहि णं भंते ! अहेलोगस्स आयाममण्झे पण्णते? उ. गोयमा! चउत्थीए पकप्पभाए पुढवीए, ओवासंतरस्स साइरेगं अद्धं ओगाहिता, एत्थ णं अहेलोगस्स आयाममज्झे पण्णते। . प्र. कहिणं भंते उड्ढलोगस्स आयाममज्झे पण्णते? उ. गोयमा! उप्पिं सणंकुमार-माहिदाणं कपाणं हेठिंबंभलोए कप्पे रिठे विमाणपत्थडे एत्थ णं उड्ढलोगस्स आयाममज्झे पण्णते। प्र. कहिणं भंते! तिरियलोगस्स आयाममण्झे पण्णते? उ. गोयमा! जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स बहुमज्झदेसभाए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेट्ठिल्लेसु खुडुगपयरेसु, एत्थणं तिरियलोयमण्झे अट्ठपएसिए रूयए पण्णते, जओ णं इमाओ दस दिसाओ पवहंति, तं जहा-पुरत्थिमा पुरथिमदाहिणा एवं जहा दसमसते जाव नामधेज त्ति विया, स, १३ उ.४ सु १०-१५ 2. अत्थिलोए, णत्थिलोए, धुवेलोए, अधुवेलोए, सादिएलोए, अनाडियलोए सपज्जवसिए लोए अपज्जसिए लोए, सुकडे ति वा दुकडे ति वा कल्लाणे ति वा, पावए ति वा साधू ति वा असाधु ति वा सिद्धी ति वा असिद्धि ति वा निरए ति वा अनिरए ति वा। भाषा. श्रु. ९ अ.८ उ.१ सु २०० [ ३० ] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्य और इनके सहयोगी अन्य देव, जो कि ज्योतिष्क देव के रूप में पहचाने जाते हैं – इन सबका परिचय आगमों में इस प्रकार है - जम्बूद्वीप के मध्य में स्थित 'मेरुपर्वत' की समतल भूमि से ऊपर ७९० योजन की ऊँचाई के पश्चात् ज्योतिश्चक्र का क्षेत्र प्रारम्भ होता है जो कि ११० योजन प्रमाण है अर्थात् ज्योतिश्चक्र की स्थिति इसी मध्य लोक में है। इन ११० योजनों में से १० योजन छोड़कर उसके ऊपर मेरु की समतल भूमि से ८०० योजन की ऊँचाई पर सूर्य के विमान हैं। उससे ८० योजन की ऊँचाई पर चन्द्र के विमान हैं। वहाँ से २० योजन तक अर्थात् मेरु की समतल भूमि से ९०० योजन की ऊँचाई तक की परिधि में ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्ण तारागण हैं । तारासमूह को प्रकीर्ण कहने का कारण यह है कि अन्य कतिपय तारे अनियतचारी होने से कभी सूर्य और, चन्द्र के नीचे भी चलते हैं तथा कभी ऊपर भी। इन सब ज्योतिष्कों की स्थिति भी इसी मध्य लोक में है। मनुष्य लोक की सीमा में ज्योतिष्क हैं वे भ्रमण करते रहते हैं। इसलिये उन्हें 'चर ज्योतिष्क' कहते हैं। चर ज्योतिष्कों की गति की अपेक्षा से ही मुहूर्त, प्रहर, अहोरात्र, पक्ष, मास, अतीत, वर्तमान आदि तथा संख्येय-असंख्येय आदि काल का व्यवहार है। मनुष्य लोक की सीमा से बाहर ज्योतिष्कों के विमान स्थिर हैं। स्वभावतः वे एक स्थान पर स्थिर रहते हैं, भ्रमण नहीं करते। अत: उनका उदय-अस्त न होने से उनका प्रकाश भी एक समान पीतवर्णी और लक्ष योजन-प्रमाण रहता है। इसलिये उन्हें 'स्थिर ज्योतिष्क' कहा है। सभी ज्योतिष्क पाँच यूथों में विभाजित होते हैं और वे सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और ताराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। केवल मनुष्य सृष्टि के लिये ही ये सतत् गतिशील रहते हैं ऐसा प्रतीत होता है, यहाँ सूर्य-चन्द्र की बहुलता के संबंध में स्पष्टीकरण जैन सिद्धांत की लाक्षणिकता के लिये आवश्यक है। मुख्यत: जम्बूद्वीप (मध्यलोक) में दो सूर्य, दो चन्द्रों का होना माना जाता है। समय विभाजन इन ज्योतिर्मय देवों की गति से ही निर्धारित होता है। जैन दर्शन की दृष्टि में जगत् में व्याप्त दृष्ट-अदृष्ट सभी पदार्थ जिन षड् द्रव्यों में विभक्त हैं उनमें 'काल' को भी एक द्रव्य माना है। चेतन और जड़ पुद्गल तीनों कालों में सक्रिय रहते हैं। जीव तथा पुद्गल की सक्रियता की समय मर्यादा निश्चित करने का एकमात्र आधार काल-द्रव्य है। सामान्यत: जगत् में 'काल' नामक कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है तथापि उपर्युक्त जड़ और चेतन पदार्थ के संबंध में अत्यंत उपकारक होने से शास्त्रकारों ने इसको औपचारिक द्रव्य भी कहा है। काल का अर्थ यहाँ समय (सैकण्ड, मिनिट, घन्टे, दिन, पक्ष, मास और वर्ष आदि) का सूचक है। इस समय को यदि कोई भी निश्चित कर देने वाले साधन हैं, तो वे हैं 'सूर्य-चन्द्र'। अनन्तज्ञानी तीर्थंकर परमात्मा ने सूर्य-चन्द्र दोनों ही असंख्य कहे हैं और इनमें परस्पर तनिक भी न्यूनाधिकता नहीं है। वस्तुत: ये चार प्रकार के देवों में ज्योतिषी देव' हैं। इनके विमानों में जटित विशिष्ट रत्नों के प्रकाश से जगत् के सर्व पदार्थ प्रकाशित होते हैं। सूर्यविमान के रत्नों में वर्तमान एकेन्द्रिय जीवों को आतप नामकर्म से उष्ण प्रकाश का अनुभव होता है और चन्द्र विमान के रत्नों में वर्तमान एकेन्द्रिय जीवों को उद्योत नामकर्म से शीतप्रकाश का अनुभव होता ___असंख्य सूर्य ज्योतिषी-निकाय के इन्द्र हैं और इन असंख्य सूर्य-इन्द्रों के रहने के विमान भिन्न-भिन्न होते हैं। उसी प्रकार चन्द्रों के भी विमान भिन्न-भिन्न हैं । सूर्य का प्रत्येक विमान पूर्व दिशा में ४००० सिंह रूप, दक्षिण में ४००० हस्ति रूप, पश्चिम में ४००० वृषभ रूप तथा उत्तर में ४००० अश्व रूप इस प्रकार कुल १६००० आभियोगिक (सेवकादि) देव इन विमानों को वहन करते हैं। सूर्य के विमान पृथ्वी से ८०० योजन ऊँचे हैं तथा वे शाश्वत हैं । शाश्वत पदार्थों का १ योजन ३६०० मील जितना होता है। जम्बूद्वीप और उसके बाद वाले असंख्य द्वीप-समुद्रों में सूर्य-चन्द्र सदा हर समय प्रकाश फैला रहे हैं। यथा - [381 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीप में लवणसमुद्र में धातकीखण्ड में कालोदधिसमुद्र में अर्ध - पुष्कर द्वीप में मनुष्यलोक के सूर्य-चन्द्र २ सूर्य ४ सूर्य १३२ सूर्य इन सूर्य-चन्द्रों के संबंध में अन्य ज्ञातव्य इस प्रकार है १२ सूर्य ४२ सूर्य ७२ सूर्य १. अस्थिर (परिभ्रमणशील) २. इनके विमान की पीठिका अर्ध कोष्ठकाकार ३. चन्द्र विमान ५६ / ६२ योजन (लम्बाई-चौड़ाई) ४. चन्द्र विमान की ऊँचाई २८/६१ योजन मनुष्यलोक से बाहर के सूर्य-चन्द्र १. स्थिर (परिभ्रमणरहित) ५. सूर्य विमान ४८ / ६१ योजन ( लम्बाई-चौड़ाई) ६. सूर्य विमान की ऊँचाई २४/६१ योजन। २. चतुरस्र इष्टकाकार ३. चन्द्र विमान २८ / ६१ योजन (लम्बाई-चौड़ाई) ४. चन्द्र विमान की ऊँचाई १४/६१ योजन ५. सूर्य विमान २४/६१ योजन (लम्बाई-चौड़ाई) ६. सूर्य विमान की ऊँचाई २४ / ६१ योजन । 111 २ चन्द्र ४ चन्द्र १२ चन्द्र ४२ चन्द्र ७२ चन्द्र १३२ चन्द्र जम्बूद्वीप में एक चन्द्र, एक सूर्य ४८ घण्टे में प्रत्येक मण्डल को पूर्ण करता है। जम्बूद्वीप में एक सूर्य दक्षिण दिशा में भरत क्षेत्र में होता है तब दूसरा सूर्य उत्तरदिशा में - ऐरवत क्षेत्र में रहता है। उसी समय एक चन्द्र पूर्व महा विदेह में होता है तब दूसरा चन्द्र पश्चिम महाविदेह में रहता है। जहाँ सूर्य होता है वहाँ दिन और जहाँ चन्द्र होता है वहाँ रात्रि होती है । अत: प्रत्येक क्षेत्र में जो सूर्य-चन्द्र आज दिखाई देते हैं, वे दूसरे दिन नहीं दिखाई देते । इस प्रकार सूर्य-चन्द्र का परिभ्रमण सतत चालू है। अढाई द्वीपवर्ती सभी सूर्य चन्द्र द्वीपवर्ती मेरु पर्वतों के चारों ओर सतत परिभ्रमण कर रहे हैं । इस प्रकार कुल १३२ सूर्य-चन्द्र अढाईद्वीपों के मध्यस्थ मेरु की परिक्रमा कर रहे हैं, वे दो विभाग में विभक्त ६६ - ६६ संख्या में रहते हैं और इनकी पंक्ति सदा एक साथ ही परिक्रमा करती है। सूर्य परिभ्रमण करते हुए जैसे-जैसे आगे बढ़ता है वैसे उस क्षेत्र में सूर्योदय कहलाता है और वह गति करता हुआ पिछले क्षेत्र में अन्तिम दिखाई देता है तब सूर्यास्त कहलाता है। वस्तुतः जैन आगमों में वर्णित सूर्य-चन्द्रादि ज्योतिष्क देवों की विचारणा इतनी महत्त्वपूर्ण एवं सूक्ष्मता से परिपूर्ण है कि उसका वर्णन करना यहाँ संभव नहीं है। भगवतीसूत्र, जीवाभिगम, सूर्य - प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, ज्योतिष्करण्डक, क्षेत्रलोकप्रकाश, बृहत्संग्रहणी, क्षेत्रसमास (लघु एवं बृहत्) तथा त्रिलोकसारादि में यह विषय विस्तार से समझाया गया है। इतना ही नहीं, अन्य धर्मों के प्रमुख ग्रन्थों में भी सूर्य की सर्वोपरि सत्ता को बहुत ही आदर के साथ सराहा गया [ ३२ ] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। वेदों में सूर्य को 'प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः, विभ्राट, बृहत्, विश्वाय, दृशे सूर्यम, सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च,' और 'आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यश्च। हिरण्ययेन सविता रथन देवो याति भुवनानि पश्यन्' इत्यादि अनेक मंत्रों से विविध रूप में व्यक्त किया है। सर्वाराध्य गायत्री मंत्र में भी सवित् देवता की ही महिमा और प्रार्थना है। सूर्य के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी अनेक विवेचन वैदिक मंत्रों में अभिव्यक्त हैं, जिनके भाष्यों में आचार्यों ने सूक्ष्मातिसूक्ष्म परीक्षणात्मक प्रयोगों के निर्देश भी दिये हैं। सूर्य सप्ताश्व रथ में स्थित हो कर जगत् को प्रकाशित करता है। ऋगवेद में 'सप्त युञ्जन्ति रथमेकचक्रं ' कहते हुए जगत् को सप्त वर्गी ही बताया है । ये सात वर्ग - पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, दिक् और काल हैं । सौर-परिवार के नौ सदस्य नवग्रह हैं । सूर्य आदि ग्रहों के बिम्बों का व्यास, गति, युति, ग्रहण आदि के वर्णन पुराणों तथा ज्योतिष के ग्रन्थों में व्यापक रूप से आये हैं। 'वृद्ध गर्गसंहिता' में 'महासलिलाध्याय' के उत्तरार्ध में 'ग्रहकोषाध्याय, नक्षत्रकर्मगणाध्याय' आदि में वैज्ञानिक विषयों का विस्तृत वर्णन भी दर्शनीय है। इस प्रकार सूर्य की अखण्ड सत्ता सनातन धर्म ग्रन्थों में भी विस्तार से स्वीकृत है। ऐसी ही सूर्य की सार्वत्रिक महिमा को वैज्ञानिक दृष्टि से समन्वित चिन्तन-प्रधान असाधारण विवेचना के द्वारा व्यक्त करने वाला एक महान ग्रन्थ 'सूर्य-प्रज्ञप्ति' है। जिसका परिचय इस प्रकार है - ७. सूर्य-प्रज्ञप्ति का आगम साहित्य में स्थान जैन आगम-साहित्य प्राचीनतम वर्गीकरण के अनुसार पूर्व' और 'अंग' के रूप में वर्गीकृत हुआ था जिसे श्रमण भगवान महावीर से पूर्ववर्ती बतलाया है। इसके पश्चात् 'पूर्वश्रुत' को सरल रूप में ग्रथित कर उसमें 'दृष्टिवाद' को सम्मिलित करने से आचारादि ग्यारह अंगों को 'द्वादशांगी' कहा गया। आचारांग आदि के प्ररूपक महावीर की श्रुतराशि 'चौदह पूर्व' अथवा 'दृष्टिवाद' के नाम से पहचानी जाती थी। इसका वर्गीकरण 'अंगप्रविष्ट' और 'अंगबाह्य' ऐसे दो भागों में किया गया। इनमें प्रथम 'गणधर द्वारा सूत्र में निर्मित' और द्वितीय स्थविरकृत समाविष्ट हैं । इनके अतिरिक्त एक और सूक्ष्म विवेचन करते हुए नन्दीसूत्र में 'आवश्यक, आवश्यक-व्यतिरिक्त, कालिक और उत्कालिक' रूप में आगम की सम्पूर्ण शाखओं का परिचय दिया गया है। इनके अतिरिक्त दिगम्बर मान्यताओं के अनुसार 'अंगप्रविष्ट' आगमों का एक एवाद के १. परिकर्म, २. सूत्र, ३. प्रथमानुयोग,४. पूर्वगत एवं ५. चूलिका के रूप में हुआ है। श्री आर्यरक्षित ने आगमों को अनुयोगों के अनुसार चार भागों में विभाजित किया जिनके '१. चरण-करणानुयोग, २. धर्मकथानुयोग, ३. गणितानुयो तथा ४. द्रव्भानुयोग' ये नाम दिये हैं। इन्हीं ने व्याख्याक्रम की दृष्टि से १. अपृथक्त्वानुयोग और २. पृथक्त्वानुयोग के रूप में आगमों के दो रूप भी बतलाये। इन सब के अतिरिक्त नन्दीसूत्र की चूर्णि में एक दृष्टि और उद्घाटित हुई जिसमें द्वादशांगी को 'श्रुत पुरुष' के अंगों की संज्ञा से अभिहित किया गया। साथ ही द्वादश उपांगों का भी विनियोग हुआ और प्रत्येक अंग के साथ एक-एक उपांग (अंगों में कहे गये अर्थों का स्पष्ट बोध कराने वाला सूत्र) भी निर्धारित हुए। इन और ऐसे ही अन्य भेदों में श्रुतस्थविर-विरचित 'सूर्य-प्रज्ञप्ति' सूत्र क्रमशः अंग, दृष्टिवाद, अंगबाह्य, आवश्यक व्यतिरिक्त में उत्कालिक, दृष्टिवाद का प्रथम भेद परिकर्म, गणितानुयोग, पृथक्त्वानुयोग और श्रुतपुरुष के ज्ञाताधर्मकथांग के उपांग में अपना स्थान रखती है। बत्तीस आगमों के क्रम में यह उपांगगत २२वीं संख्या पर है। कुछ ग्रन्थों में इसे पाँचवां और कहीं छठा उपांग बतलाया गया है। ८. सूर्य-प्रज्ञप्ति का स्वरूपात्मक परिचय जैन-आगम वाङ्मय में 'सूर्य और ज्योतिष्कचक्र' का व्यवस्थित दिग्दर्शन कराने वाला यह उपांग ग्रन्थ मुख्यतः ज्ञान एवं विज्ञान की संक्लिष्ट पद्धति से विचारों को व्यक्त करता है। गणित और ज्योतिष की महत्त्वपूर्ण विवेचना इसमें [ ३३ ] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपना विशिष्ट स्थान रखती है। इसकी रचना में १०८ गद्य-सूत्र और १०३ पद्य-गाथाएं प्रयुक्त हैं। इसमें एक अध्ययन, २० प्राभृत और उपलब्ध मूल पाठ २२०० श्लोक परिमाण है। __ 'सूर्य-प्रज्ञप्ति' अति प्राचीन ग्रन्थ है, क्योंकि इसका उल्लेख श्वेताम्बर, दिगम्बर और स्थानकवासी – तीनों में मान्य रहा है। इसी दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि इसकी स्थिति तीनों के विभाजन से पूर्व थी। इसका समय विक्रम पूर्व का होना चाहिये। विषय विस्तार की दृष्टि से इसके २० प्राभृतों में खगोल शास्त्र की जितनी सूक्ष्म विचारणाएँ प्रस्तुत हुई हैं, उतनी अन्यत्र कहीं एक साथ प्रस्तुत नहीं हुई हैं। इसका उपक्रम मिथिला नगरी में जितशत्रु के राज्य में नगर से बाहर मणिभद्र चैत्य में वर्धमान महावीर के पधारने पर धर्मोपदेश के पश्चात् गणधर गौतम की जिज्ञासा के समाधान हेतु हुआ है। इसमें - 'मंडलगतिसंख्या, सूर्य का तिर्यक् परिभ्रमण, प्रकाश्य क्षेत्र परिमाण, प्रकाश संस्थान, लेश्या प्रतिघात, ओजः संस्थिति, सूर्यावरक उदय संस्थिति, पौरुषी छायाप्रमाण, योग स्वरूप, संवत्सरों के आदि और अंत, संवत्सर के भेद, चन्द्र की वृद्धि अपवृद्धि, ज्योत्स्ना प्रमाण, शीघ्रगति निर्णय, ज्योत्स्ना लक्षण, च्यवन और उपपात, चन्द्र सूर्य आदि की ऊंचाई, उनका परिमाण एवं चन्द्रादि के अनुभाव आदि' विषयों की विस्तृत चर्चा है। अतः यह ग्रन्थ खगोलशास्त्र के चिन्तकों के लिये पर्याप्त उपयोगी तथ्य उपस्थापित करता है। उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री ने अपने महनीय ग्रन्थ 'जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा' में सूर्यप्रज्ञप्ति का विस्तृत परिचय देते हुये लिखा है। सारांश इस प्रकार है - प्रथम प्राभृत में – 'दिन व रात्रि में ३० मुहूर्त, नक्षत्रमास, सूर्यमास, चन्द्रमास और ऋतुमास के मुहूर्तों की वृद्धि, प्रथम से अंतिम और अंतिम से प्रथम मंडल पर्यन्त सूर्य की गति के काल का प्रतिपादन एवं अंतिम मंडल में सूर्य की एक बार तथा शेष मंडलों में सूर्य की दो बार गति होना, आदित्य-संवत्सर के दक्षिणायन और उत्तरायन में अहोरात्र के जघन्य तथा उत्कृष्ट मुहूर्त एवं अहोरात्र के मुहूर्तों की हानिवृद्धि के कारण भरत और ऐरावत क्षेत्र के सूर्य का उद्योत क्षेत्र, आदित्य संवत्सर के दोनों अयनों में प्रथम से अंतिम और अंतिम से प्रथम पर्यन्त एक सूर्य की गति का अंतर, अंतर के संबंध में छह अन्य मान्यताएँ, सूर्य द्वारा द्वीप समुद्रों के अवगाहन संबंध में एक अहोरात्र में सूर्य के परिभ्रमण का परिमाण एवं मंडलों की रचना तथा विस्तार वर्णित है।' द्वितीय प्राभृत में – 'सूर्य के उदय और अस्त का वर्णन करके अन्य तीर्थकों के मतों का उल्लेख किया है, जिसमें - १. सूर्य का पूर्व दिशा में उदित होकर आकाश में चला जाना, २. सूर्य को गोलाकार किरणों का समूह बतलाकर संध्या में नष्ट होना, ३. सूर्य को देवता बतलाकर उसका स्वभाव में उदयास्त होना, ४. सूर्य के देव होने से उसकी सनातन स्थिति रहना, ५. प्रात: पूर्व दिशा में उदित होकर सायं पश्चिम में पहुंचना तथा वहां से अधोलोक को प्रकाशित करते हुये नीचे की ओर लौट जाना आदि प्रमुख हैं। अंत में सूर्य के एक मंडल से दूसरे मंडल में गमन का और वह एक मुहूर्त में कितने क्षेत्र में परिभ्रमण करता है ? इसका विचार व्यक्त करते हुये स्वमत का भी प्रतिपादन हुआ है। अन्य धर्मावलम्बी पृथ्वी का आकर गोल मानते हैं किन्तु जैन धर्म की मान्यता उससे भिन्न है, यह भी इससे संकेतित है।' तृतीय प्राभृत में – चन्द्र, सूर्य द्वारा प्रकाशित किये जाने वाले द्वीप एवं समुद्रों का वर्णन है। इसी प्रसंग में बारह [ ३४ ] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतान्तरों का भी निर्देश हुआ है। चतुर्थ प्राभृत में – चन्द्र और सूर्य के १. विमान संस्थान तथा २. प्रकाशित क्षेत्र के संस्थान और उनके संबंध उल्लेख है। यहीं स्वमत से प्रत्येक मंडल में उद्योत तथा ताप क्षेत्र का संस्थान बतलाकर अंधकार के क्षेत्र का निरूपण किया गया है। सूर्य के ऊर्ध्व, अधः एवं तिर्यक् ताप-क्षेत्र के परिमाण भी यहीं वर्णित हैं। पाचवें प्राभृत में - सूर्य की लेश्याओं का वर्णन है। ___छठे प्राभृत में – सूर्य का ओज वर्णित है अर्थात् सूर्य सदा एक रूप में अवस्थित रहता है अथवा प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है ? इस संबंध में २५ प्रतिपत्तियां हैं । जैन दृष्टि से व्यक्त किया है कि जम्बूद्वीप में प्रतिवर्ष केवल ३० मुहूर्त तक सूर्य अवस्थित रहता है तथा शेष समय में अनवस्थित रहता है। क्योंकि प्रत्येक मंडल पर एक सूर्य ३० मुहूर्त रहता है। इसमें जिस-जिस मंडल पर वह रहता है, उस दृष्टि से वह अवस्थित है और दूसरे मंडल की दृष्टि से वह अनस्थित है, यह स्पष्ट किया है। सातवें प्राभृत में – सूर्य अपने प्रकाश से मेरुपर्वतादि को ओर अन्य प्रदेशों को प्रकाशित करता है, यह बतलाया है। आठवें प्राभत में - जो सर्य पर्व-दक्षिण में उदित होता है. वह मेरु के दक्षिण में स्थित भरतादि क्षेत्रों को प्रकाशित करता है और जो मेरु के पश्चिम-उत्तर में उदित होता है, वह मेरु के उत्तर में स्थित ऐरावतादि क्षेत्रों को प्रकाशित किया है इस प्रकार दो सूर्यों की सत्ता प्रतिपादित हुई है और इसी से दिन-रात्रि की व्यवस्था स्पष्ट की गई है। साथ ही भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की अपेक्षा उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल का कथन ही इसी प्राभूत में वर्णित है। " नौवें प्राभृत में – पौरुषी छाया का प्रमाण बतलाते हुए सूर्य के उदयास्त के समय ५९ पुरुष-प्रमाण छाया होती है, यह बतलाया है और इस संबंध में अनेक मत-मतान्तरों का उल्लेख करते हुए स्वमतानुसार पौरुषी-छाया के संबंध में स्थापना की है। दसवें प्राभत में - नक्षत्रों में आवलिका क्रम, मुहूर्त की संख्या, पूर्व-पश्चिम भाग तथा उभयभागों से चन्द्र के साथ योग करने वाले नक्षत्र, युगारम्भ में योग करने वाले नक्षत्रों का पूर्वादि विभाग, नक्षत्रों के कुल, उपकुल तथा कुलोपकुल, १२ पूर्णिमा और अमावस्याओं में नक्षत्रों के योग, समान नक्षत्रों के योग वाली पूर्णिमा तथा अमावस्या, नक्षत्रों के संस्थान, उनके तारे, वर्षा, हेमन्त और ग्रीष्म ऋतुओं में मासक्रम के नक्षत्रों का योग तथा पौरुषी प्रमाण, दक्षिण-उत्तर एवं उभयमार्ग से चन्द्र के साथ योग करने वाले नक्षत्र, नक्षत्र रहित चन्द्रमण्डल, सूर्यरहित चन्द्रमण्डल, नक्षत्रों के देवता, ३०मुहूर्तों के नाम, १५ दिन, रात्रि और तिथियों के नाम, नक्षत्रों के गोत्र, नक्षत्रों में भोजन का विधान, एक युग में चन्द्र तथा सूर्य के साथ नक्षत्रों का योग एवं संवत्सर के महीने और उनके लौकिक तथा लोकोत्तर नाम, पाँच प्रकार के संवत्सर, उनके ५-५ भेद और अन्तिम शनैश्चर-संवत्सर के २८ भेद, दो चन्द्र, नक्षत्रों के द्वार, दो सूर्य और उनके साथ योग करने वाले नक्षत्रों के मुहूर्त परिमाण, नक्षत्रों की सीमा तथा विष्कम्भ आदि का प्रतिपादन विस्तार के साथ इसके २२ उप-अध्यायों में हुआ है। ग्यारहवें प्राभृत में – संवत्सरों के आदि, अन्त और नक्षत्रों के योग का वर्णन है। बारहवें प्राभृत में - नक्षत्र, चन्द्र, ऋतु, आदित्य और अभिवर्धित ५ संवत्सरों का वर्णन, छह ऋतुओं का प्रमाण,६-६ क्षमाधिक तिथियां, एक युग में सूर्य और चन्द्र की आवृत्तियां और उस समय नक्षत्रों के योग और योग काल आदि का वर्णन है। [ ३५ ] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवें प्राभृत में - कृष्ण और शुक्ल पक्ष में चन्द्र की हानि-वृद्धि, ६२ पूर्णिमा तथा ६२ अमावस्याओं में चन्द्रसर्यों के साथ राह का योग, प्रत्येक अयन में चन्द्र की मण्डल-गति आदि का वर्णन किया गया है। चौदहवें प्राभृत में – कृष्ण और शुक्ल पक्ष की ज्योत्सना और अंधकार का प्रमाण वर्णित है। पन्द्रहवें प्राभूत में - चन्द्रादि ज्योतिष्क देवों की एक मुहूर्त की गति है, यह बतलाकर नक्षत्र मास में चन्द्र, सूर्य, ग्रहादि की मण्डल गति और ऋतुमास तथा आदित्यमास में भी मण्डलगति का निरूपण किया है। सोलहवें प्राभृत में – चन्द्रिका, आतप और अन्धकार के पर्यायों का वर्णन है। सत्रहवें प्राभृत में - सूर्य के च्यवन तथा उपपात के संबंध में अन्य २५ मत-मतान्तरों का उल्लेख करने के पश्चात् स्वमत का संस्थापन किया है। अठारहवें प्राभृत में - भूमि सेसूर्य-चन्द्रादि की ऊँचाई का परिमाण बताते हुए अन्य २५ मत-मतान्तरों का उल्लेख करके स्वमत का प्रतिपादन किया है। चन्द्र-सूर्य के विमानों के नीचे, ऊपर तथा सम विभाग में ताराओं के विमान होने के कारण एक चन्द्र का ग्रह, नक्षत्र और ताराओं का परिवार, मेरु पर्वत से ज्योतिष्कचक्र का अन्तर, जम्बूद्वीप में सर्व बाह्य-आभ्यन्तर, ऊपर नीचे चलने वाले नक्षत्र, चन्द्र-सूर्यादि के संस्थान, आयाम, विष्कम्भ और बाहुल्य, उनको वहन करने वालों देवों की संख्या और उनके दिशाक्रम से रूप, शीघ्र-मंद गति, अल्पबहुत्व, चन्द्र-सूर्य की अग्र महिषियों का परिवार, विकुर्वणा, शक्ति एवं देव-देवियों की जघन्स उत्कृष्ट स्थिति आदि विषयों पर विस्तार से विचार हुआ है। उन्नीसवें प्राभृत में – चन्द्र और सूर्य सम्पूर्ण लोक को प्रकाशित करते हैं अथवा लोक के एक विभाग को ? यह प्रश्न उठा कर इस संबंध में बारह मत-मतान्तरों का उल्लेख करते हुए स्वमत का निरूपण किया है। साथ ही लवण समुद्र का आयाम, विष्कम्भ और चन्द्र, सूर्य नक्षत्र एवं ताराओं का वर्णन है। उसी प्रकार धातकीखण्ड के संस्थान, कालोदधिसमुद्र और पुष्कारार्ध द्वीप तथा मनुष्य क्षेत्र आदि का विवरण प्रस्तुत हुआ है। इसी प्राभृत में यह भी बतलाया गया है कि - इन्द्र के अभाव में व्यवस्था, इन्द्र का जघन्य और उत्कृष्ट विरहकाल, मनुष्य क्षेत्र के बाहर चन्द्र की उत्पत्ति और गति तथा अन्त में स्वयम्भरमण समुद्र तक द्वीपसमुद्रों के आयाम, विष्कम्भ, परिधि आदि का वर्णन है। बीसवें प्राभृत में - चन्द्रादि का स्वरूप, राहू का वर्णन, राहू के दो प्रकार तथा जघन्य-उत्कृष्ट काल का वर्णन है। यहीं चन्द्र को शशि और सूर्य को आदित्य कहने का कारण बतलाते हुए स्पष्ट किया है कि ज्योतिष्कों के इन्द्र - चन्द्र का मृग (शश) के चिह्न वाला 'मृगाङ्क-विमान' है और सूर्य समय, आवलिका आदि से लेकर अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल का आदिकर्ता है। चन्द्र और सूर्य की अग्रमहिषियों और चन्द्र-सूर्य के कामभोगों की मानवीय कामभोगों के साथ तुलना भी यहाँ प्रस्तुत हुई है तथा अन्त में ८८ ग्रहों के नाम बताये गये हैं। इन प्राभृतों के भी अन्य लघु प्राभृतों के रूप में विभाजन उपर्यक्त विषयों के अवलोकन से सहज ही यह अनुमान किया जा सकता है कि सूर्य-प्रज्ञप्ति के आयाम में न केवल सूर्य और उससे संबद्ध विषयों का ही इसमें विमर्श हुआ है, अपितु समग्र ज्योतिष्क परिवार का प्रसंगानुसार सूक्ष्म एवं स्थूल विमर्श समावृत हो गया है। इतना ही नहीं, यहाँ प्राचीन ज्योतिष-संबंधी मूल मान्यताओं का भी सङ्कलन आ गया है। इसमें चर्चित विषय अन्यान्य धर्मों के मान्य-ग्रन्थों में चर्चित विषयों से भी कुछ अंशों में साम्य रखते हैं। ९. सूर्य-प्रज्ञप्ति की नियुक्ति एवं अन्य विवेचनाएँ __सूर्य-प्रज्ञप्ति के व्यापक विषय-विवेचन से प्रभावित हो कर नियुक्तिकार श्री भद्रबाहु ने दस आगमों पर नियुक्तियों की रचना की थी, उनमें सूर्य-प्रज्ञप्ति भी थी। किन्तु दुर्भाग्य से वह अब अनुपलब्ध है। किन्तु आचार्य मलयगिरि की वृत्ति [ ३६ ] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में इसका निर्देश हुआ है। उन्होंने वहाँ लिखा है - 'भद्रबाहुसूरि कृत नियुक्ति का नाश हो जाने से मैं केवल मूल सूत्र का ही व्याख्यान करूंगा।' इसके बीच के काल में भाष्य और चूर्णियां भी लिखी गई किन्तु सूर्य-प्रज्ञप्ति पर किसी ने लिखा हो, ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता। ___ आचार्य मलयगिरि का स्थितिकाल १५वीं शती माना जाता है ।इनके द्वारा लिखे गये ग्रन्थों में 'सूर्यप्रज्ञप्त्युपाङ्ग टीका' ९५०० श्लोक प्रमाण उपलब्ध होती है। इसी का अपरनाम 'सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्ति' प्रचलित है। आचार्य ने यहाँ आरंभ में मिथिलानगरी, मणिभद्र चैत्य, जितशत्रु राजा, धारिणी देवी और भगवान् महावीर का साहित्यिक वर्णन किया है। तदनन्तर गणधर इन्द्रभूति गौतम का वर्णन है। वैसे सूर्य-प्रज्ञप्ति के बीसों प्राभूतो का विवेचन मननीय है और उसमें यत्र-तत्र विशिष्ट चिन्तन, आलोचना एवं स्वमत-निरूपण को ही स्थान दिया है। यद्यपि अधिकांश आचार्य, जिन्होंने आगम-ग्रन्थों पर भाष्य, नियुक्ति, चूर्णि या टीकाएँ लिखने में पर्याप्त उदारता व्यक्त की है, परन्तु सूर्य-चन्द्र संबंधी प्रज्ञप्तियों पर प्रायः नहीं लिखा है। इसका एक कारण यह प्रतीत होता है कि सीधं अध्यात्म एवं आचार-उपासना जैसे विषयों के प्रति उनकी रुचि विशेष रही होगी। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि इन प्रज्ञप्तियों के विषय विज्ञान के अतिनिकट होने से क्लिष्ट जान कर छोड़ दिये हों। उत्तरकाल में कुछ आचार्यों ने इस कमी को समझा और पुनः इस पर टीका लिखने का उपक्रम किया। इनमें स्थानकवासी आचार्य मुनि धर्मसिंहजी (१८ वीं शती)ने सूर्यप्रज्ञप्ति के यन्त्र' निर्मित किये और इसी परम्परा के अन्य आचार्य श्री घासीलालजी महाराज ने ३२ आगमों पर जो संस्कृत भाषा में टीकाएँ लिखी हैं उनमें सूर्य-प्रज्ञप्ति पर 'प्रमेयबोधिनी'। सूर्य प्रज्ञप्ति-प्रकाशिका नामक टीका/व्याख्या महत्त्वपूर्ण है। इसमें आचार्य श्री ने मूलसूत्र की संस्कृत छाया और संस्कृत व्याख्या की है। इसका हिन्दी और गुजराती भाषा में अनुवाद दो भागों में प्रकाशित भी हुआ है, जिसका नियोजन पण्डित मुनि श्री कन्हैयालालजी ने किया है। हिन्दी और गुजराती अनुवादकर्ताओं का नामोल्लेख नहीं हुआ है। आचार्य श्री अमोलकऋषिजी ने भी प्रज्ञप्ति का हिन्दी अनुवाद किया है इसका प्रकाशन हैदराबाद से हुआ है तथा और भी कुछ विद्वान् आचार्यों ने इस पर विवेचन किये हैं। सूर्य-प्रज्ञप्ति के संबंध में देश-विदेश के विचारक मनीषियों ने भी बहुत से अभिमत भिन्न-भिन्न लेखों में व्यक्त किये हैं। भारतीय ज्योतिष के क्षेत्र में बहुमान्य वराहमिहिर' नियुक्तिकार भद्रबाहु के भ्राता थे, उन्होंने अपने ग्रन्थ 'वराहसंहिता' में सूर्य प्रज्ञप्ति के कतिपय विषयों को आधार बनाकर उन पर लिखा है। इसी प्रकार प्रसिद्ध ज्योतिर्विद भास्कर ने सूर्य प्रज्ञप्ति की कुछ मान्यताओं को लेकर अपने खण्डनात्मक विचार व्यक्त किये हैं जो 'सिद्धान्तशिरोमणि' ग्रन्थ में द्रष्टव्य हैं । इसी प्रकार ब्रह्मगुप्त ने 'स्फुटसिद्धान्त' ग्रन्थ में खण्डन का आधार बनाया है। किन्तु इस युग में वैदेशिक विद्वानों ने सूर्य-प्रज्ञप्ति के महत्व को स्वीकार करते हुए इसे विज्ञान का ग्रन्थ माना है, डॉ. विन्टरनित्ज उनमें प्रथम है। डॉ.शुबिंग ने तो यहां तक कहा है कि 'सूर्य-प्रज्ञप्ति के अध्ययन के बिना भारतीय ज्योतिष के इतिहास को सही रूप से नहीं समझा जा सकता।' वेबर ने सन् १८६८ में 'उवेर डी सूर्य-प्रज्ञप्ति' नामक निबन्ध प्रकाशित किया था। डॉ.सिबो ने 'ऑन द सूर्य-प्रज्ञप्ति' नामक अपने शोध पूर्ण लेख में ग्रीक लोगों के भारतवर्ष में आगमन से पूर्व वहां 'दो सूर्य और दो चन्द्र' का सिद्धान्त सर्वमान्य था, ऐसा प्रतिपादित किया है तथा उन्होंने अतिप्राचीन ज्योतिष के वेदांग ग्रन्थ की मान्यताओं के साथ सूर्य-प्रज्ञप्ति के सिद्धान्तों की समानता भी बतलाई है। १०. प्रस्तुत प्रकाशन और कुछ प्रश्न : कुछ समाधान -प्रज्ञप्ति' की गरिमा से स्वतः सिद्ध हो जाता है कि ऐसे ग्रन्थ का सर्वाधिक स्वाध्याय हो, मनन हो १. द्रष्टव्य, गच्छाचार की वृत्ति. [ ३७ ] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और गम्भीरता पूर्वक इसमें वर्णित विषयों का स्व-पर कल्याण की दृष्टि से पुनः पुनः विचार हो। सम्भवतः इसी कल्याणमयी भावना से इसका प्रकाशन किया गया है, जो कि अभिनन्दनीय है। ___ यद्यपि यह ग्रन्थ मूल रूप में ही प्रकाशित है किन्तु इसके सम्पादनकर्ता मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' ने परिश्रम पूर्वक इसके पाठों को विशुद्ध रूप में प्रकाशित करने का प्रयास किया है। साथ ही पाद-टिप्पणियों में अनेक प्रश्नों को भी उठाया है तथा उनके समुचित समाधानों की कामना भी की है। मैंने जब इस का अवलोकन किया तो मेरे मन में भी कुछ प्रश्न उभर आये। उन सबका क्रमिक विचार भी यहां प्रस्तुत करना अनुचित न होगा। यहां उन प्रश्नों की उपस्थापना के साथ ही उनके यथोपलब्ध समाधान भी प्रस्तुत हैं - प्रश्न १. सूर्य-प्रज्ञप्ति ग्रन्थ वस्तुतः खंडित है फिर यह ग्रन्थ कैसे पूर्ण हुआ ? समाधान : ऐसा कहा जाता है कि इसके पाठों में और चन्द्रप्रज्ञप्ति के पाठों में प्रायः साम्य है। अतः पूर्वाचार्यों ने ही इसे परस्पर पाठानुसंधान द्वारा वर्तमान रूप दिया है। प्रश्न २. वर्तमान सूर्यप्रज्ञप्ति के मूलपाठों में अब भी पाठान्तर क्यों है ? यह स्थिति इस संस्करण से पूर्व प्रकाशित 'सूर्यप्रज्ञप्ति' ग्रन्थों से मिलाने से स्पष्टतः प्रतीत हो जाती है। जैसे प्रारम्भ में 'वीरस्तुति' नहीं दी है। कहीं गद्यपाठ में कुछ अंश त्याग दिये हैं तो यत्र-तत्र पाठगत शब्दों में व्यत्यय भी हुआ है, आदि। समाधान : सम्भवत: यह इस इसलिये किया गया होगा कि सम्पादक-वर्ग को ऐसी अन्य पाण्डुलिपियों उपलब्ध हुई हों। साथ ही उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री के शब्दों में यह भी संभव है कि जैन आगम 'शब्द' की अपेक्षा अर्थ को अधिक महत्त्व देते हैं। वेदों की तरह शब्दवादी नहीं है। अतः ऐसा पाठ भेद हुआ होगा। एक यह भी कारण हो सकता है कि स्थविरों के द्वारा संग्रह होने के पश्चात् इनकी जो भिन्न-भिन्न कालों में वाचनाएँ हुई हैं, उनमें वैसी व्यवस्था हुई हो। प्रश्न ३. इस ग्रन्थ में एक और महत्त्वपूर्ण प्रश्न है नक्षत्र-भोजन में मांसादि के भोजन का? यह जैनधर्म के सर्वथा प्रतिकूल कथन इसमें कैसे आया ? समाधान : इस संबंध में भिन्न-भिन्न समाधान प्राप्त होते हैं । यथा - १. यह पाठ प्रक्षिप्त है। २. इस पाठ से पूर्व और भी कुछ पाठ था, जो विछिन्न हो गया। ३. इस संबंध में आगमप्रभाकर पुण्यविजयी का अभिमत था कि 'इसके पहले के कुछ वाक्य खण्डित हो गये हैं, जिनमें यह भगवान् रा कथित न होकर किसी प्रश्न के उत्तर में उद्धरण के रूप में अन्य मतों का प्रदर्शन किया गया है। ४. अन्य आचार्यों का कथन है कि यहां प्रयुक्त 'मांस' शब्द का अर्थ प्राण्यङ्ग मांस नहीं है, अपितु यह अत्यन्त प्राचीन काल में प्रयुक्त होने वाले अर्थ 'वनस्पतिजनित फल मेवा' आदि के अर्थ में व्यवहृत है। इसी प्रकार मांस के पर्यायवाची अन्य शब्द 'पिशित, तरस्, पलल, क्रव्य और आमिष' शब्द भी प्राण्यङ्गजन्य मांस के सूचक न होकर अन्य अर्थों के ही सूचक हैं। अमरकोष के टीकाकार भानुजी दीक्षित ने जो धातप्रत्यय जनित शब्द की व्युत्पत्ति दी है, उससे 'पिशित-अवयववान, तरस-बलवान्, मांस-मानकारक, पलल-गमनकारक, क्रव्य-भयकारक अथवा गतिकारक और आमिष-किंचित् स्पर्धाकारक अथवा सेचन अर्थ का ही प्रतिपादन होता है। कोशकारों के अतिरिक्त आयुर्वेद के ग्रन्थों में भी ऐसे अनेक शब्दों को वनस्पतियों के अर्थों में ही प्रयुक्त किया है। ५. वेद, ब्राह्मण, उपनिषद् और अन्य संहिता ग्रन्थों में भी ऐसे मांसादि शब्दों के प्रयोग निर्विवादरूप से प्राण्यङ्गजनित मांस के लिये कदापि प्रयुक्त नहीं है । ६. तन्त्रग्रन्थों में भी यही स्थिति है। वहां ऐसे शब्दों को वस्तुतः आध्यात्मिक अर्थों में ही सूचित किया है किन्तु वामाचार के नाम पर जिह्वालोलुपवर्ग अपनी लिप्साओं १. यह बात उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्रीजी ने कही थी, जबकि उन्होंने इसके लिये स्वयं आगमप्रभाकरजी से पूछा था। [ ३८ ] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अनुसार अर्थ करके विकृत मार्ग का अनुसरण करते हैं। प्रचीन महर्षियों की कथन-पद्धति का वास्तविक तथ्य एवं प्रक्रिया का पारम्परिक बोध न होने से मनमाना अर्थ लगाकर समाज में दूषण फैलाने वाले अथवा आक्षेपसिद्धि के लिये दुर्वृत्ति के लोग ऐसा करते हैं। 'जैन-साहित्य में प्रयुक्त मांस-मत्स्यादि शब्दों के वास्तविक अर्थ' आधनिक व्यवहार में प्रचलित अर्थ कथमपि नहीं है, यह निश्चित है। इस तथ्य को 'मानव-भोज्य-मीमांसा' ग्रन्थ के द्वितीय प्रकरण में अत्यन्त विस्तार से पंन्यास श्री कल्याणविजयजी गणी ने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धार्थ और अप्रसिद्धार्थ का विवेक नहीं रखने से ही अल्पज्ञ वर्ग ऐसी दुर्भावनाएँ फैलाते हैं । सूर्य-प्रज्ञप्ति में 'नक्षत्र-भोजन' की बात नक्षत्रों के दोष से मुक्त होने के लिये उनकी तुष्टि करने वाले पदार्थों के भोजन से संबद्ध है। ज्योतिषशास्त्र में वारदोष, तिथिदोष, ग्रहदोष, शकुनदोष, दुर्योग आदि की निवृत्ति के लिये ऐसे उपाय बहुधा दिखाये गये हैं, उन्हीं को यहां भी उदारहण के रूप में प्रसङ्गपूर्वक संक्षेप में दिया होगा। यह धारण अवश्य ही स्वीकरणीय है। 'मुहूर्त-चिन्तामणि' में भी ऐसे नक्षत्रों के दोष से छुटकारा पाने के लिये खाद्य-वस्तुओं का कथन हुआ है। उनमें भी 'मांस' शब्द प्रयुक्त है। किन्तु उसके प्रसिद्ध टीकाकार गोविन्द ज्योतिर्वित् ने अपनी 'पीयुषधारा' टीका में स्पष्ट लिखा है कि – 'नक्षत्रदोहदं कुल्माषनित्यादिकमिदं भक्ष्याभक्ष्यं वर्णभेदेन देशभेदेन वा भक्ष्यमेतदभक्ष्यमिति विचार्य भक्ष्यसम्भवे भक्षयते अभक्ष्यसम्मवे आलेकयेत् पश्येत् स्पृशेद् वेत्यपि ध्येयम्।' (पृ. ३९०, निर्णयसागर बम्बई प्रकाशन)। इसका सारांश यह है कि - 'नक्षत्रदोहद के पालन में वर्णभेद और देशभेद के आधार पर भक्ष्याभक्ष्य का विचार करके जैसा उचित हो वह करे। यदि भक्ष्य न हो तो उसको देखे अथवा स्पर्श करे' - वहीं नारद के किसी ग्रन्थ का तथा वसिष्ठ, कश्यप, श्रीपति और भट्ट उत्पल द्वारा भी नक्षत्र-दोहद कथन का संकेत दिया है। अपने कथन के प्रमाण में टीकाकार ने 'गुरु' के वचनों को उद्धृत करते हुये बतलाया है कि – 'अत्र यदभक्ष्यं दुष्प्रापं वा तत् समत्वा दृष्ट्वा दत्त्वा गन्तव्यमित्याह गुरुः।' इससे स्पष्ट है कि ये दोहद-भक्ष्य जनसाधारण को लक्ष्य में रखकर सूचित किये थे और उनमें विवेक को प्रधानता दी थी। __ आचार्य श्रीमलयगिरि ने इस प्रसंग की व्याख्या में सामान्य अर्थ के रूप में 'कृत्तिका में प्रारब्ध कार्य निर्विघ्न सिद्ध हो, तदर्थ दधिमिश्रित ओदन का भोजन किया जाता है' इतना कहकर 'शेष सूत्रों में देखें' कह दिया है। आचार्य श्री घासीलालजी महाराज ने अपनी व्याख्या प्रमेह-बोधिनी में (दशम प्राभूत के सत्रहवें प्राभृत-प्राभृत में) 'नामैकदेशग्रहणेन नामग्रहणं भवतीति नियमात्' कहकर 'वृषभमांस से धतुरे का सार अवथा चूर्ण ग्राह्य है ' ऐसा बतलाया है तथा मृगमांस का अर्थ इन्द्रावरुणी वनस्पति, दीपकमांस-अजवाइन का चूर्ण, मण्डूकमांस-मण्डूकपर्णी का चूर्ण, नखीमांस-वाघनखी का चूर्ण, वराहमांस-वाराहीकन्द का चूर्ण, जलचरमांस-जलचर कुम्भिका का चूर्ण, तिन्तिणीकमांस-इमली का चूर्ण - ऐसे अर्थ स्पष्ट किये हैं। आचार्य श्री अमोलकऋषिजी ने भी अपनी व्याख्या में ऐसे ही अर्थों को व्यक्त किया है, जिसकी तालिका इस प्रकार है - द्रष्टव्य, टीका ग्रन्थ, पृ. १०४८ से १०५२ तक। श्री सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रम् (प्रथम भाग), अ. भा. श्वे. स्था. जैन शास्त्रोद्धार समिति, अहमदाबाद से प्रकाशित। [ ३९ ] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र-भोजन-तालिका दधि घृत कस्तूरी नवनीत (मक्खन) घृत दही वसहमंस मिगमंस णवणीय घय खीर. दीवगमंस कसारि मेढगमंस णक्खिमंस वत्थाणिएग कवचसिंग अथवा कमल केशर (?) अथवा केसार एलायची अथवा आलू लसूणकंद अथवा आलू सिंघाडा मूंग की दाल मगसूए फल आतिसिया १. कृतिका २. रोहिणी ३. मिगसिर ४. आर्द्रा ५. पुनर्वसु ६. पुष्य ७. अश्लेषा ८. मघा ९. पूर्वाफाल्गुनी १०. उत्तराफाल्गुणी ११. हस्त १२.चित्रा १३. स्वाति १४. विशाख १५. अनुराधा १६.ज्येष्ठा १७. मूल १८. पूर्वाषाढा १९. उत्तराषाढा २०.अभिजित २१. श्रवण २२. धनिष्ठा २३. शतभिषा २४. पूर्वाभाद्रपदा २५. उत्तरभाद्रपदा २६.रेवती २७. अश्विनी २८. भरणी मासा करेण कोलठ्ठिय मूलक आठली अथवा शाक मिथ कुरो धान्य कोला-कद्दू मूली अथवा मोगरे का शाक आंवला विल्व फल अथवा पक्का नींबू पुष्प आमलग विल्ल पुष्फ खीर जूस करेला अथवा सक्कर कोला तूंबा करेला तुम्बरात कारियए वराहमंस जलयरमंस तित्तरमंस तिल तंदुल कपूर जलचर फूलन अथवा पानी सीताफल तिल्ली का तेल अथवा चावल [ ४० ] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस तरह अट्ठाईस नक्ष्त्रों के भोजन का विषय जैसा अन्य स्थान में देखने में आया है वैसा ही लिखा है। टीकाकार श्री मलयगिरि आचार्य ने इसकी टीका नहीं की है। तत्त्व केवलिगम्य । आचार्य अमोलकऋषि जी म. आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज द्वारा सम्पादित सूर्यप्रज्ञप्ति पा. १० अन्तरपाहुड - १७ पृ. २२० - २२३. ११. उपसंहार एवं र्तिव्य-बोध - इन सब विवेचनों के द्वारा हम एक ही निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि 'विश्व को सर्वांश में सर्वज्ञ ही जानते हैं । बुद्धिजीवी जगत् इसकी समग्रता को पहचानने में सदैव अक्षम ही रहा है । दुर्विज्ञेय आधिभौतिक तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करने के लिये आधिदैविक और आध्यात्मिक भूमिकारूढ हुए बिना जीव-जगत की जिज्ञासा पूर्ण नहीं हो सकती। अलौकिक तत्त्वोपलब्धि अथवा सत्य का साक्षात्कार आगमों के द्वारा ही सम्भव है। यही कारण है कि विश्व विद्याओं के निधान आगमों का प्रत्येक अक्षर सभी के लिये बहुमान्य है । सर्वज्ञ की वाणी होने से उसका प्रत्येक अंश सत्य है, श्रद्धेय है और उपास्य है और साथ ही यह भी ध्यातव्य है कि 'आगम-साहित्य के वास्तविक तत्त्वों को समझने के उनके लिये मर्मज्ञ मनीषियों से पारम्परिक सम्प्रदायार्थ का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये, तभी हम कुछ जान सकते हैं। सूर्य - प्रज्ञपित भी एक ऐसा ही आगम ग्रन्थ है, जिसके रहस्यार्थ का परिज्ञान आधुनिक परिभाषाओं की अपेक्षा प्राचीन गाणितिक एवं खगोलीय परिभाषओं को समझे बिना तुष कुट्टन के समान ही निष्फल हो सकता है। अन्त में मैं एक बात और कहना चाहता हूं कि भारतीय संस्कृति के इन अपूर्व-ग्रन्थ रत्नों के चिरन्तन सत्य के परिचायक तत्त्वों की खोज में विद्वान् गवेषकों एवं चिन्तकों को जैन, वैदिक और बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों का संयुक्त रूप से परिशीलन करना चाहिये, क्योंकि ये तीनों धाराएँ प्रारम्भ से ही एक ही लक्ष्य से बही है किन्तु वीच के साम्पातिक काल में कुछ तो स्वयं के दुराग्रहों से और कुछ पराये लोगों के बहकावे के कारण विश्रृंखलित हो गई हैं। जब तक परस्पर मिलकर एक-दूसरे की न्यूनताओं को पूर्ण नहीं किया जायेगा तब तक पूर्णता की प्राप्ति आकाश - पुष्प ही बनी रहेगी । अतः यूयं यूयं वयमिह वयं सर्वदैवं बुवद्भिहन्ता हन्ताग्रह - निपतितै भ्रंशितं नैव किं किम् । सञ्चिन्त्यातः पुनरपि निजं स्वत्वमुद्धर्तुमार्या, यूयं ये ते वयामिति मिथः स्वात्मना संवदन्तु ॥ यही निवेदन है, कामना है और प्रार्थना है ॥ ॐ ॥ [ ४१ ] Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभृतप्राभृत वीरत्थुई पंचपयवंदणं जोइसरायपण्णत्तिपरूवणपइण्णा य पाहुडाणं विसयपरूवणं पढमपाहुडगय अट्ठपाहुडपाहुडसुत्ताणं विसयपरूवणं पढमपाहुडस्स पडिवत्तिसंखा बितियपाहुडस्स विसयपरूवणं बितियपाहुडस्स पंडिवत्तिसंखा दसमे पाहुडे बावीसं पाहुडपाहुडाणं विसयपरूवणं मासस्स मुहुत्ताणं वद्धीऽवद्धी सव्वसूरमंडलमग्गे सूरस्स गमणागमणे राईदियप्पमाणं सूरमंडलेसु सूरस्स सइं दुक्खुत्तो वा चारं आइच्चसंवच्छरे अहोरत्तप्पमाणं उपसंहारमुत्तं द्वितीय प्राभृतप्राभृत सूरस्स दाहिणा अद्धमंडल संठिई सूरस्स उत्तरा अद्धमंडलसंठिई तृतीय प्राभृतप्राभृत सूरियाणं संचरण - खेत्तं चतुर्थ प्राभृतप्राभृत सूरियाणं अण्णमण्णस्स अंतरचारं विषयानुक्रम पंचम प्राभृतप्राभृत सूरस्स दीवसमुद्द- अवगाहणाणंतरं चारं प्रथम प्राभृत षष्ठ प्राभृतप्राभृत सूरस्स एगमेगे राइदिए मंडलाओ मंडलसंकमणखेत्तचारं सप्तम प्राभृतप्राभृत चंद - सूरमंडल - संठिई अष्टम प्राभृतप्राभृत सूरस्स सव्वमंडलाणं बाहल्लं आयाम - विक्खंभ- परिक्खेवं च [ ४२ ] ३ ३ ४ ४ ४ ४ ४ ५ ५ ६ ६ ६ ८ ९ १० १३ १५ १८ २१ २४ २५ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वसूरमंडलाणं बाहल्लं अंतरं अद्धापमाणं च प्रथम प्राभृतप्राभृत सूराणं तेरिच्छगई द्वितीय प्राभृतप्राभृत सूरस्स मंडलाओ मंडलान्तरसंकमणं तृतीय प्राभृतप्राभृत सूरस्स मुहुत्तगइपमाणं तृतीय प्राभृत चंदिम-सूरियाणं ओभासखेत्तं उज्जोयखेत्तं तावखेतं पगासखेत्तं च चतुर्थ प्राभृत सेयाते संठिई चंदिम - सूरियसंठिई सूरियस्स तावक्खेत्तसंठिती तावक्खेत्तसंठिइए बाहाओ सूयस्स लेस्सापडिघायगा पव्वता सूरियस्स ओयसंठिई सूरिएण पगासिया पव्वया सूरस्स उदयसेठि वासा उउ हेमंत उउ गिम्ह उउ द्वितीय प्राभृत अयणाइ उस्सप्पिणी- ओसप्पिणी लवणसमुद्दो धायइडो अब्भंतरपुक्खरद्दो पंचम प्राभृत षष्ठ प्राभृत सप्तम प्राभृत अष्टम प्राभृत [ ४३ ] २९ ३० ३२ ३४ ३९ ४२ चे ४२ ४४ ४६ ४९ ५२ ५७ ५८ ६४ ६४ ६५ ६५ ६६ ६६ ६६ ६७ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम प्राभृत पोरिसिच्छायनिव्वत्तणं पोरिसिनिवत्तणं पोरिसिपमाणं दशम प्राभृत प्रथम प्राभृतप्राभृत णक्खताणं आवलिया-णिवायजोगो य द्वितीय प्राभृतप्राभृत णक्खताणं चंदेण जोगकालो णक्खताणं सूरेण जोगकालो तृतीय प्राभृतप्राभृत णक्खताणं पुव्वाइभागा खेत्त-कालप्पमाणं च चतुर्थ प्राभृतप्राभृत णक्खताणं चंदेण जोगारंभकालो पंचम प्राभृतप्राभृत णक्खताणं कृलोवकुलाई षष्ठ प्राभृतप्राभृत दुवालसासु पुण्णमासिणीसु कुलाइ-णक्खत्त-जोगसंखा दुवालसासु अमावासासु णक्खत्तजोगसंखा दुवालसासु अमावासासु कुलाइ-णक्खत्त-जोगसंखा सप्तम प्राभृतप्राभृत दुवालस पुण्णिमासु अमावासासु य चंदेण-णक्खत्तसंजोगो अष्टम प्राभृतप्राभृत णक्खत्ताणं संठाणं नवम प्राभृतप्राभृत णक्खत्ताणं तारग्गसंखा दशम प्राभृतप्राभृत वास-हेमंत-गिम्ह-राइंदियाणं ग्याहरवां प्राभृतप्राभृत चंदमगो णक्खत्तजोगसंखा रवि-ससि-णक्खत्तेहिं अविरहियाणं, विरहियाणं सामण्णाण य चंदमंडलाणं संखा बारहवां प्राभृतप्राभृत णक्खत्ताणं देवया [ ४४] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां प्राभृतप्राभृत मुहुत्ताणं णामाई चौदहवां प्राभृतप्राभृत दिवसराईणं णामाई पन्द्रहवां प्राभृतप्राभृत तिहीणं णामाई सोलहवां प्राभृतप्राभृत क्खत्ताणं गोत्ता सत्तरहवां प्राभृतप्राभृत णक्खत्ताणं भोयणं कज्जसिद्धी य अठारहवां प्राभृतप्राभृत एगे जुगे आदिच्च - चंदचारसंखा उन्नीसवां प्राभृतप्राभृत एगसंवच्छरस्स मासा बीसवां प्राभृतप्राभृत संवच्छराणं संखा लक्खणं च लक्खणसंवच्छरस्स भेया इक्कीसवां प्राभृतप्राभृत क्खत्ताणं दाराई बावीसवां प्राभृतप्राभृत णक्खत्ताणं सरूवपरूवणं णक्खत्तमंडलाणं सीमाविक्खंभो णक्खत्ताणं चंदेण जोगो चंदस्स पुण्णिमासिणीसु जोगो सूरस्स पुण्णिमासिणीसु जोगो जोगो चंदस्स अमावासासु सूरस्स अमावासासु जोगो पुण्णिमासिणीसु चंदस्स य सूरस्स य णक्खत्ताणं जोगो अमावासासु चंदस् य सूरस्स य णक्खत्ताणं जोगो चंदेण च सूरेण य णक्खत्ताणं जोगकालो चंद - सूर-गह-णक्खत्ताणं गइसमावण्णत्तं चंद-सूर-गह-णक्खत्ताणं जोगो [ ४५ ] ११४ ११५ ११६ ११७ १२० १२२ १२३ १२४ १२५ १२६ १२९ १३१ १३२ १३२ १३४ १३५ १३५ १३६ १३७ १३८ १३९ १३९ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां प्राभृत पंचण्हं संवच्छरणं पारंभ-पज्जवसाणकालं, चंद सूराण - णक्खत्तसंजोगकालो च पढमं चंदसंवच्छरं बितियं चंदसंवच्छरं ततियं अभिवड्ढियं संवच्छरं चउत्थं चंदसंवच्छरं पंचमं अभिवड्ढियं संवच्छरं पंचण्हं संवच्छराणं मासाणं च राइंदियमुहुत्तप्पमाणं पढमं णक्खत्तसंवच्छरं बितियं चंदसंवच्छरं ततियं उडुसंवच्छरं चउत्थं 'आइच्चसंवच्छरं पंचमं अभिवड्ढियसंवच्छरं एगस्स जुगस्स अहोरत्त-मुहुत्तप्पमाणं पंचं संवच्छरणं पारंभ-पज्जवसाणकालस्स समत्तपरूवणं उडूणं णामाई कालप्पमाणं च अवम-अइरित्तरत्ताणं संखा हेऊ च बारहवां प्राभृत वासिक्कियासु आउट्टियासु चंदेण सूरेण य णक्खत्तजोगकालो हेमंतियासु आउट्टियासु चंदेण सूरेण य णक्खत्तजोगकालो जोगाणं चंदेण सद्धिं जोग-परूवणं चंदमसो वड्ढोऽवड्ढी एगयुगे पुण्णिमासिणीओ अमावासाओ चंदाइच्च अद्धमासे चंदाइच्चाणं मंडलचारं पढमे चंदायणे दोच्चे चंदायणे तच्चे चंदायने दोसिणा अंधयारस्स य बहुत्तकारणं चंद - सूर-गह - णक्खत्त- ताराणं गइपरूवणं चंद-सूर - णक्खत्ताणं विसेसगइपरूवणं तेरहवां प्राभृत चौदहवां प्राभृत पन्द्रहवां प्राभृत [ ४६ ] १४१ १४१ १४१ १४२ १४२ १४३ १४४ १४४ १४४ १४५. १४५ १४६ १४६ १४७ १४८ १४८ १४८ १४९ १५० १५१ १५१ १५२ १५२ १५३ १५४ १५६ १५७ १५८ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदस्स णक्खत्ताण य जोगगइपरूवणं चंदस्स गहाण य जोग - गइकालपरूवणं सूरस्स णक्खत्ताण य जोग-गइकालपरूवणं सूरस्स गहाण य जोग - गइकालपरूवणं क - णक्खत्तमासे चंदस्स सूरस्स णक्खत्तस्स य मंडलचारं ख - चंदमासे चंदस्स सूरस्स णक्खत्तस्स य मंडलचारं ग - उडुमासे चंदस्स सूरस्स णक्खत्तमासस्स य मंडलचारं घ - आइच्चमासे चंदस्स सूरस्स णक्क्षत्तस्स य मंडलचारं ङ - अभिवड्ढियमासे चंदस्स सूरस्स णक्खत्तस्स य मंडलचारं एगमेगे अहोरत्ते चंद-सूर णक्खत्ताणं मंडलचारं एगमेगे मंडले चंद-सूर-णक्खत्ताणं अहोरत्ते चारं गजुगे चंद-सूर - णक्खत्ताणं मंडल चारं दोसिणाइयाणं लक्खणा सोलहवां प्राभृत सत्तरहवां प्राभृत अठारहवां प्राभृत चंद-सूरियाणं चवणोवबाया चंदाइच्चाईणं भूमिभागाओ उड्ढत्तं ताराणं अणुत्ते तुल्लत्ते कारणाइं चंदस्स गह - णक्खत्त- ताराणं परिवारो मंदरपव्वयाओ जोइसचारं लोअंताओ जोइसठाणं णक्खत्ताणं अब्धंतराइं चारं ' चंद - सूर-गह - णक्खत्तविभाणाणं संठाणाई चंद-सूर-गह-णक्खत्त तारा- विमाणाणं आयाम - विक्खंभ-परिक्खेव बाहिल्लाइ चंद - सूर-गह-णक्खत्त-ताराणं विमाणपरिवहणं जोइसियाणं सिग्घ-मंदगइपरूवणं जो सियाणं अप्प - महिड्ढिपरूवणं ताराणं अबाहा अंतरपरूवणं चंदस्स अग्गमहिसीओ देवीपरिवार विउव्वणा य सूरस्स अग्गमहिसीओ देवीपरिवार विउव्वणा य जोइसियाणं देवाणं ठिई [ ४७ ] १५८ १५८ १५८ १५९ १५९ १५९ १६० १६० १६० १६० १६० १६१ १६२ १६३ १६६ १६७ १६८ १६९ १६९ १६९ १७० १७१ १७२ १७६ १७६ १७६ १७७ १७८ १७८ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ १८० १८१ १८१ १८२ १८३ १८६ १८६ १८७ १९१ १९२ १९२ .१९३ जोइसियाणं अप्पबहुत्तं उन्नीसवां प्राभृत चंद-सूर-गह-णक्शत्त-ताराणं परिमाणं जम्बुद्दीवो-जम्बुद्दीवे जोइसियपरिमाणं लवणसमुद्दो धायईत्तडदीवे कालोए समुद्दे पुक्खरवरदीवे माणुसुत्तरे पव्वए अग्भिंतर-पुक्खरद्धे समयक्खेत्ते अंतोमणुस्सखेत्ते जोइसियाणं उड्ढोववण्णगाइपरूवणं पुव्वइंदस्स चवणाणंतरं अण्णइंदस्स उववजणं माणुसखेत्तस्स बहिया जोइसियाणं उड्ढोववण्णगाइपरूवणं सेसाणं दीव-समुद्दाणं आयामाइ बीसवां प्राभृत चंदिम-सूरियाणं अणुभावो राहु-कम्मपरूवणं राहुस्स णव णामाई राहुस्स विमाणा पंचवण्णा राहुस्स दुविहत्तं चंदस्स ससी-अभिहाणं सूरस्स आइच्चाभिहाणं चंद-सूराई णं काम-भोगपरूवणं अट्ठासीई महग्गहा संगहणीगाहाओ उवसंहारो सुयथविरपणीयं चंदपण्णात्तिसुत्तं परिशिष्ट श्री सूर्य-चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र का गणित विभाग सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र २० व २४ का परिशिष्ट १९६ १९७ १९८ १९८ १९९ २०० २०० २०० . २०२ २०३ २०४ २०५ २०८ २३८ [ ४८ ] Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयथेरविरइयं उवंग सूरियपण्णत्तिसुत्तं चंदपण्णत्तिसुत्तं श्रुतस्थविरविरचित उपांग सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र Page #53 --------------------------------------------------------------------------  Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभृत [प्रथम प्राभृतप्राभृत] वीरत्थुई जयइ नव-नलिण-कुवलय, वियसिय-सयवत्त-पत्तल-दलच्छो॥ वीरो गइंद-मयंगल, सललिय-गयविक्कमो भयवं ॥१॥ पंच-पय-वंदणं जोइसगणराय-पण्णत्ति-परूवण-पइण्णा य नमिऊण असुर-सुर-गरुल - भुयंग-परिवंदिए गयकिलेसे॥ अरिहे सिद्धायरिय-उवज्झाए सव्वसाहू य॥२॥ फुड-वियड-पागडत्थं, वुच्छं पुव्व-सुय-सार-णिस्संद॥ सुहुमं गणिणोवइटें, जोइसगणराय-पण्णत्तिं ॥३॥ नामेण 'इंदभूइ' त्ति, गोयमो वंदिऊण तिविहेणं॥ पुच्छइ जिणवरवसहं, जोइसरायस्स पण्णत्तिं ॥४॥ १-२. तेणं कालेणं तेणं समएणं 'मिहिला' णामं णयरी होत्था, वण्णओ। तीसे णं मिहिलाए णयरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसिभाए, एत्थ णं 'माणिभद्दे' णाम चेइए होत्था, वण्णओ। तीसे णं मिहिलाए 'जिएसत्तू' राया परिवसइ, वण्णओ। तस्स णं जियसत्तुस्स रण्णो 'धारिणी' णामं देवी होत्था, वण्णओ। तेणं कालेणं, तेणं समएणं तंमि भाणिभद्दे चेइए सामी समोसढे, वण्णओ। [क] परिसा णिग्गया, धम्मो कहिओ। [ख] परिसा पडिगया। [ग] राया जामेव दिसिं पाउन्भूए, तामेव दिसिं पडिगए। तेणं कालेणं, तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेढे अंतेवासी 'इंदभूई' णामं अणगारे जाव पंजलिउडे पज्जुवासमाणे एवं वयासी - Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र बीस पाहुडाणं विसयपरूवणं ३. गाहाओ - १. कइ मंडलाइ वच्चइ, २. तिरिच्छा किं च गच्छइ॥ ३. ओभासइ केवइयं, ४. सेयाइ किं ते संठिई॥१॥ ५. कहिं पडिहया लेसा, ६. कहिं ते ओयसंठिई॥ ७. के सूरियं वरयंति, ८. कहं ते उदयसंठिई ॥२॥ ९. कइ कट्ठा पोरिसिच्छाया, १०. जोके किं ते व आहिए॥ ११. किं ते संवच्छरेणाई, १२. कइ संवच्छाराइ य॥३॥ १३. कहं चंदमसो वुड्ढी, १४. कया ते दोसिणा बहू॥ १५. के सिग्घगई वुत्ते, १६. कहं दोसिण - लक्खणं॥४॥ १७. चयणोववाय, १८.उच्चत्ते, १९. सूरिया कह आहिया॥ २०. अणुभावे के व संवुत्ते, एवमेयाइ वीसई ॥५॥ पढमपाहुडगय अट्ठपाहुडपाहुडसुत्ताणं विसयपरूवणं ४. गाहाओ - १. वड्ढो वड्ढी मुहूत्ताण, २. मद्धमंडल-संठिई॥ ३. के ते चिण्णं परियरइ, अंतरं किं चरंति य॥१॥ ५. ओगाहइ केवइयं, ६. केवइयं च विकंपइ॥ ७. मंडलाण य संठाणे, ८. विक्खंभो-अट्ठ पाहुडा॥२॥ पढमपाहुडस्स पडिवत्तिसंखा ५. गाहा - ४. छ, ५. प्पंच य, ६. सत्तेव य, ७. अट्ठ, ८. तिन्नि य हवंति पडिवत्ती॥ पढमस्स पाहुडस्स, हवंति एयाउ पडिवत्ती॥१॥ बितियपाहुडस्स विसय-परूवणं ६. गाहाओ - पडिवत्ताओ उदए, तह अत्थमणेसु य॥ २. भेयग्याए कण्णकला, ३. मुहुत्ताणं गती ति य॥१॥ निक्खममाणे सिग्घगई, पविसंते मंदगई इय॥ चुलसीइ सयं पुरिसाणं, तेसिं च पडिवत्तीओ॥२॥ पडिवत्तिसंखा गाहा - १. उदयंमि अट्ठ भणिया, २. भेयग्याए दुवे य पडिवत्ती॥ ३. चत्तारि मुहुत्तगईए, हुंति तइयंमि पडिवत्ती॥३॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभृत- प्रथम प्राभृतप्राभृत ] दसमे पाहुडे बावीसं पाहुड - पाहुडाणं विसयपरूवणं ७. गाहाओ - १. आवलिय, २. मुहुत्तग्गो, ५. कुलाई, ६. पुण्णमासी य, ९. तारग्गं च, १०. नेता य १८. आइच्चचार, २१. जोइस्स य, दाराई, दसमे पाहुडे एए, 'मासस्स' मुहुत्ताणं वद्धोऽवद्धी ३. एवं भागा य, देवता य अज्झयणे, १४. दिवसा - राइवुत्ता य, १५. तिहि, १६. १९. मासा य, १. ४. जोगस्स । [ ५ ७. सन्निवाए य ८. संठिई ॥ १ ॥ ११. चंदमग्गत्ति, १२. यावरे । १३. मुहुत्ताणं नामाइ य ॥ २ ॥ गोत्ता, १७. भोयणाणि य । २०. पंच संवच्छराइ य ॥ ३ ॥ २२. नक्खत्ता विजये वि य । बावीसं पाहुड- पाहुडा ॥ ४॥ ८. ता कहं ते वद्धोऽवद्धी मुहुत्ताणं आहिए त्ति, वदेज्जा ? ता अट्ठ एगूणवीसे मुहुत्तसए सत्तावीसं च सट्टिभागे मुहुत्तस्स आहिए ति वदेज्जा । १ सव्वसूरमंडलमग्गे सूरस्स गमणागमण-राइंदियप्पमाणं (क) मुहूर्तो की हानि - वृद्धि का यह सूत्र यहां कैसे दिया गया है ? यह एक विचारणीय प्रश्न है । सूर्यप्रज्ञप्ति के प्रारम्भ में उत्थानिका के बाद बीस प्राभृतों के प्राथमिक विषयों की प्ररूपक पांच गाथाएँ हैं । उनमें से प्रथम गाथा में प्रथम प्राभृत के प्रथम प्राभृतप्राभृत की प्राथमिक विषयसूचक गाथा का 'कइ मंडलाई वच्चइ' यह प्रथम पद है। इसके अनुसार 'एक वर्ष में सूर्य कितने मंडलों में एक वार और कितने मंडलों में दो वार गति करता है।' यह विषय है । वृत्तिकार श्रीमलयगिरि उक्त पद की व्याख्या इस प्रकार करते हैं- 'प्रथमे प्राभृते - सूर्यो वर्षमध्ये कति मण्डलान्येकवारं, कति वा मण्डलानि द्विः कृत्वा व्रजतीत्येतन्निरूपणीयम् । किमुक्तं भवति ? एवं गौतमेन प्रश्ने कृते तदनन्तरं सर्वं तद्विषयं निर्वचनं प्रथमे प्राभृते वक्तव्यमिति ।' किन्तु प्रथम प्राभृत के आठ प्राभृतप्राभृतों की विषयप्ररूपक दो गाथाओं में से प्रथम गाथा के प्रथम पद में 'वड्ढोऽवड्ढी मुहुत्ताणं' यह पद है। इसके अनुसार प्रथम प्राभृत के प्रथम प्राभृतप्राभृत में प्रथम सूत्र में वृत्तिकार के अनुसार चार प्रकार के मासों के मुहूर्ती की हानि - वृद्धि का प्ररूपण है । वृत्तिकार श्रीमलयगिरि उक्त पद की व्याख्या इस प्रकार करते हैं- 'प्रथमस्य प्राभृतस्य सत्के प्रथमे प्राभृतप्राभृते मुहूर्तानां दिवस - रात्रिगतानां वृद्व्यपवृद्धी वक्तव्ये ।' विषयप्ररूपक संग्रहणी गाथाओं की रचना के पूर्व एवं वृत्तिकार के पूर्व यह व्युत्क्रम हो गया है। वृत्तिकार स्वयं उक्त व्युत्क्रम की उपेक्षा कर गए तो अन्य सामान्य श्रुतधरों का तो कहना ही क्या ? यह सूत्र क्रमानुसार कहां होना चाहिये, इस संबंध में आगे यथास्थान लिखने का संकल्प है। (ख) मुहूर्तों की हानि - वृद्धि का यह सूत्र भी खण्डित प्रतीत होता है, क्योंकि प्रस्तुत सूत्र के प्रश्नसूत्र में मुहूर्तों की हानि - वृद्धि का प्रश्न है, किन्तु उत्तरसूत्र में केवल नक्षत्रमासों के मुहूर्तों का ही कथन है । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र ९. ता जया णं सूरिए सव्वब्भंतराओ मंडलाओ सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, सव्वबाहिराओ मंडलाओ सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, एस णं अद्धा केवइयं राइंदियग्गे णं आहिते त्ति वदेजा? ता तिण्णि छावठे राइंदियसए राइंदियग्गे णं आहिते त्ति वदेज्जा। सूरमंडलेसु सूरस्स सई दुक्खुत्तो वा चारं . १०. ता एताए अद्धाए सूरिए कति मंडलाइं चरइ ? ता चुलसीयं मंडलसयं चरइ। बासीइ मंडलसयं दुक्खुत्तो चरइ, तं जहा - णिक्खममाणे चेव, पवेसमाणे चेव। दुवे य खलु मंडलाइं सई चरइ, तं जहा - सव्वब्भंतरं चेव मंडलं, सव्वबाहिरं चेव मंडलं। आइच्चसंवच्छरे अहोरत्तप्पमाणं ११. जइ खलु तस्सेव आदिच्चस्स संवच्छरस्स सइं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ सइं अट्ठारस मुहुत्ता राई भवइ, सई दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, सई दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, पढमे छम्मासे-अस्थि अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, नत्थि अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे, अत्थि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे, नत्थि दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। दोच्चे छम्मासे-अस्थि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, नत्थि अट्ठारसमुहुत्ता राई, अत्थि दुवालसमुहुत्ता राई, नत्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ। पढमे छम्मासे वा दोच्चे छम्मासे वा णत्थि पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, णत्थि पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ। तत्थ णं कं हेउं वदेज्जा? ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वब्भंतराए सव्वखुड्डागे वटे जाव जोयणसयसहस्समायाम-विक्खंभे णं, तिनि जोयण-सयसहस्साई दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए तिन्नि कोसे, अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस य अंगुलाई, अद्धंगुलं, च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवे णं पण्णत्ते। ता जया णं सूरिए सव्वब्भंतर-मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राईं भवइ, ___ से निक्खममाणे सूरिए नवं संवछरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अभिंतराणंतरं मंडलं Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभृत - प्रथम प्राभृतप्राभृत ] उवसंकमित्ता चारं चरई, ता जया णं सूरिए अब्भिंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसट्ठिभाग मुहुत्तेहिं ऊणे। दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिया, से निक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि अब्भित्तर तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। ता जया णं सूरिए अब्भितरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चउहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवई, चउहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं आहिया, एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तयाणंतराणंतरं मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे दो दो एगट्ठिभागमुहुत्ते एगमेगे मंडले दिवसखेत्तस्स णिवुड्ढेमाणे णिवुड्ढेमाणे रयणिखेत्तस्स अभिवुड्ढेमाणे अभिवुड्ढेमाणे सव्वबाहिरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, .. ता जया णं सूरिए सव्वब्भंतराओ मंडलाओ सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं सव्वब्भंतरं मंडलं पणिहाय एगे णं तेसीए णं राइंदियसए णं तिण्णि छावढे एगसट्टि भागमुहुत्तसए दिवस-खेत्तस्स णिवुड्ढित्ता रयणि-खेत्तस्स अभिवुड्ढित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसियों अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए बारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, एस णं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छमासस्स पज्जवसाणे। से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, ता जया णं सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, दोहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं उणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई, दोहि एगसट्ठिभागमुहुतेति आहिए, से पविसमाणे सूरिए बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ।। ता जया णं सूरिए बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, चउहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चउहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए, एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे दो दो एगसट्ठिभागमुहुत्ते एगमेगे मंडले रयणिखेस्स णिवुड्ढेमाणे णिवुड्ढेमाणे दिवसखेत्तस्स अभिवड्ढेमाणे अभिवड्ढेमाणे सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, ता जया णं सूरिए सव्वबाहिराओ मंडलाओ सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सव्वबाहिरं मंडलं पणिहाय एगे णं तेसीए णं राइंदियसए णं तिन्नि छावढे एगसट्ठिभागमुहुत्तसए रयणिखेत्तस्स निवुड्ढेत्ता दिवसखेत्तस्स अभिवड्ढेत्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, एस णं दोच्चे छम्मासे, एस णं दुच्चस्स छम्मासस्स पजवसाणे। एस णं आदिच्चे संवच्छरे एस णं आदिच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे। उपसंहारसुत्तं एवं खलु तस्सेव आदिच्चस्स संवच्छरस्स सइं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, सइं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, सई दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, सई दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, पढमे छम्मासे - अत्थि अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, नत्थि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे, अत्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, नत्थि दुवालसमुहुत्ता राई। दोच्चे वा छम्मासे - अत्थि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ। नत्थि अट्ठारसमुहुत्ता राई, अत्थि दुवालसमुहुत्ता राई नत्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, पढमे वा छम्मासे दोच्चे वा छम्मासे - णत्थि पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, णत्थि पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ, णत्थि राइंदियाणं वड्ढोवड्ढीए, मुहुत्ताण वा चयोवचएणं णण्णत्थ वा अणुवायगईए, गाहाओ भाणियव्वाओ। १. अत्र अनन्तरोक्तार्थसंगाहिका अस्या एव सूर्यप्रज्ञप्तेर्भद्रबाहुस्वामिना या नियुक्तिः कृता तत्प्रतिबद्धा अन्या वा काश्चन ग्रन्थान्तरसुप्रसिद्धा गाथा वर्तन्ते ता'भणितव्या' पठनीया, ताश्च सम्प्रति क्वापि पुस्तके न दृश्यन्तइति व्यवच्छिन्ना सम्भाव्यन्ते ततो न कथयितुं 'व्याख्यातुं वा शक्यन्ते।' - सूर्य. टीका. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभृत [द्वितीय प्राभृतप्राभृत] सूरस्स दाहिणा अद्धमंडलसंठिई १२. ता कहं ते अद्धमंडलसंठिई आहिताति वदेजा ? तत्थ खलु इमे दुवे अद्धमंडलसंठिई पण्णत्ता, तं जहा - १. दाहिणा चेव अद्धमंडलसंठिई, २. उत्तरा चेव अद्धमंडलसंठिई। ता कहं ते दाहिणा अद्धमंडलसंठिई आहिताति वदेजा ? ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुदाणं सव्वभंतराए सव्वखुड्डागे वट्टे जाव जोयणसयसहस्समायाम - विक्खंभेणं तिण्णि जोयणसयसहस्साई, दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए, तिण्णि कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते। ___मा जया णं सूरिए सव्वन्भंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। ___ . से निक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि दाहिणाए अंतराए भागाए तस्सादिपदेसाए अब्भिंतराणंतरं उत्तरं अद्धमंडलं संठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ। ता जया णं सूरिए अभिंतराणंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं अट्ठारसमुहुत्तेहिं दिवसे भवइ दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणे। दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिया। से निक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि उत्तराए अंतराए भागाए तस्सादिपदेसाए अब्भिंतरं तच्चं दाहिणं अद्धमंडलसंठितिं उवसंकमित्ता चारं चरइ। ता जया णं सूरिए अब्भिंतरं तच्चं दाहिणं अद्धमंडलसंठितिं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणे। दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिया। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरमंडलस्स तंसि तंसि देसंसि तं तं अद्धमंडलसंठितिं संकममाणे संकममाणे दाहिणाए अंतराए भागाए तस्सादिपदेसाए सव्वबाहिरं उत्तरं अद्धमंडलसंठितिं उवसंकमित्ता चारं चरड़ । १० ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं उत्तरं अद्धमंडलसंठितिं उवसंकमित्ता चारं चरड़, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । एस णं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छम्मास्स पज्जवसाणे । से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि उत्तराए अंतराए भागाए तस्सादिपदेसाए बाहिराणंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठितिं उवसंकमित्ता चारं चरड़ ता जया णं सूरिये बाहिराणंतरं दाहिणअद्धमंडलसठितिं उवसंकमिता चारं चरड़, तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, दोहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुत्ते दिवसे भवइ, दोहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं अहिए, से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि दाहिणाए अंतराए भागाए तस्सादिपदेसाए बाहिरंतरं तच्चं उत्तरं अद्धमंडलसंठितिं उवसंकमित्ता चारं चरड़, ता जया णं सूरिए बाहिरं तच्चं उत्तरं अद्धमंडलसंठितिं उवसंकमित्ता चारं चरड़, तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, चउहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुते दिवसे भवइ, चउहिं एगाट्ठिभागमुहुतेहिं अहिए, एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरंसि तंसि तंसि देसंसि तं तं अद्धमंडलसंठिइं संकममाणे संकममाणे उत्तराए अंतराए भागाए तस्सादिपदेसाए सव्वन्तरं दाहिणं अद्धमंडलसंठि उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए सव्वब्धंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठितिं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहण्णिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । एस णं दोच्चे छम्मासे, एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एस णं आइच्चे संवच्छरे, एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे । सूरस्स उत्तराअद्धमंडलसंठिई १३. ता कहं ते उत्तरा अद्धमंडलसंठिई आहितेति वदेज्जा ? ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वब्धंतराए सव्वखुड् डागे वट्टे जाव जोयणसयसहस्समायाम-विक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साइं, दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए, तिण्णि Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभृत- द्वितीय प्राभृतप्राभृत ] [ ११ कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस य अंगुलाई, अर्द्धगुलं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते, ता जया णं सूरिए सव्वब्धंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिइं उवसंकमित्ता चारं चरड़ तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहण्णिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, से निक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि उत्तराए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए अब्भंतराणंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिइं उवसंकमित्ता चारं चरई । ता जया णं सूरिए अब्धंतराणंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठि उवसंकमित्ता चारं चरड़, तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, दोहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं अहिया । सेणिक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि दाहिणाए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए अब्भिंतराणंतरं तच्चं उत्तरं अद्धमंडलसंठि उवसंकमित्ता चारं चरड़ । ताजा सूरि अब्धिंतराणंतरं तच्चं उत्तरं अद्धमंडलसंठिइं उवसंकमित्ता चारं चरड़ तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चउहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, चउहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं अहिया, एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे तंसि तंसि देसंसि तं तं अद्धमंडलसंठिई संकममाणे संकममाणे उत्तराए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए सव्वबाहिरं दाहिणं अद्धमंडलसंठि उवसंकमित्ता चारं चरड़, ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिइं उवसंकमित्ता चारं चरड़, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राइ भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, एस णं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि दाहिणाए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए बाहिराणंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठि उवसंकमित्ता चारं चरड़, ता जया णं सूरिए बाहिराणंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिङ्गं उवसंकमित्ता चारं चरड़ तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, दोहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं ऊगा, दुवालसमुहुते दिवसे भवइ दोहिं एगट्टिभागमुहुतेहिं अहिए, से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि उत्तराए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए बाहिरं तच्छं दाहिणं अद्धमंडलसंठिइं उवसंकमित्ता चारं चरड़, ता जया णं सूरिए बाहिरं तच्चं दाहिणं अद्धमंडलसंठिइं उवसंकमित्ता चारं चरड़ तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ चउहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए, एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे तंसि तंसि देसंसि तं तं अद्धमंडलसंठिई संकममाणे संकममाणे दाहिणाए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए सव्वब्भंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ, ता जया णं सूरिए सव्वब्भंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ, तयाणं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहनिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, एस णं दोच्चे छम्मासे, एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पजवसाणे, एस णं आइच्चे संवच्छरे, एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाणं संचरण - खेत्तं प्रथम प्राभृत [ तृतीय प्राभृतप्राभृत ] १४. ता किं ते चिण्णं पडिचरति आहितेति वदेज्जा ? तत्थ खलु इमे दुवे सूरिया पण्णत्ता, तं जहा भारहे चेव सूरिए । एरवए चेव सूरिए । ताणं दुवे सूरिया पत्तेयं पत्तेयं तीसाए तीसाए मुहुत्तेहिं एगमेगं अद्धमंडलं चरड़, सट्टी सट्ठी मुहुत्तेहिं एगमेगं मंडलं संघातयति । ता निक्खममाणे खलु एते दुवे सूरिया णो अण्णमण्णस्स चिण्णं पडिचरंति, पविसमाणा खलु एते दुवे सूरिया अण्णमण्णस्स चिण्णं पडिचरंति तं सयमेगं चोयालं, प. - तत्थ णं को हेतु, त्ति वदेज्जा ? उ. - ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वब्धंतराए सव्वखुड्डागे वट्टे जाव जोयणसयसहस्समायाम- विक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साई, दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए, तिण्णि कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरस य अंगुलाई, अर्द्धगुलं च किचिं विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते । - - तत्थ णं अयं भारहए चेव सूरिए जंबुद्दीवस्स दीवस्स पाईणपडीणाययाए उदीण- दाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउवीसएणं सएणं छेत्ता - दाहिण-पुरत्थिमिल्लंसि चउब्भागमंडलंसि बाणउतिय सूरियमयाइं जाई सूरिए अप्पणा चेव चिण्णाई पडिचरइ, तत्थ णं अयं भारहे सूरिए एरवयस्स सूरियस्स जंबुद्दीवस्स दीवस्स पाईण-पडीणाययाए उदीणदाहीणाययाए जीवाए मंडलं चउवीसएणं सरणं छेत्ता उत्तर-पुरत्थिमिल्लंसि चउब्भागमंडलंसि बाणउड़य सूरियमयाइं जाई सूरिए परस्स चेव चिण्णाई पडिचरइ, दाहिण-पच्चत्थिमिल्लंसि चउब्भागमंडलंसि एक्काणउइयं सूरियमयाई जाई सूरिए परस्स चेव चिण्णाई पडिचरइ, Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र तत्थ णं अयं एरवए चेव सूरिए जंबुद्दीवस्स दीवस्स पाईणपडीणाययाए उदीण-दाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउवीसएणं सएणं छेत्ता उत्तर-पुरथिमिल्लसि चउब्भागमंडलंसि बाणउइयं सूरियमयाई जाई सूरिए अप्पणा चेव चिण्णाई पडिचरइ, > दाहिण-पुरथिमिल्लंसि चउब्भागमंडलंसि एक्काणउइय सूरियमयाइं जाइं सूरिए अप्पणा चेव चिण्णाई पडिचरइ, तत्थ णं अयं एरवए सूरिए भारहस्स सूरियस्स जंबुद्दीवस्स दीवस्स पाईण-पडीणाययाए उदीणदाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउवीसएणं सएणं छेत्ता दाहिण-पच्चथिमिल्लंसि चउब्भागमंडलंसि बाणउइय सूरियमयाएं जाइं सूरिए परस्स चेव चिण्णाई पडिचरइ, उत्तर-पुरथिमिल्लंसि चउब्भागमंडलंसि एक्काणउइय सूरियमयाइं जाइं सूरिए परस्स चेव चिण्णाई पडिचरइ, ता निक्खममाणा खलु एए दुवे सूरिया णो अण्णमण्णस्स चिण्णं पडिचरंति। पविसमाणा खलु एए दुवे सूरिया णो अण्णमण्णस्स चिण्णं पडिचरति सयमेगं चोयालं। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभृत [चतुर्थ प्राभृतप्राभृत] सूरियाणं अण्णमण्णस्स अंतर-चारं १५. ता केवइयं एए दुवे सूरिया अण्णमण्णस्स अंतरं कटु चारं चरंति, आहितेति वदेज्जा? तत्थ खलु इमाओ छ पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - १. तत्थ एगे एवमाहंसु - ता एगं जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसयं अण्णमण्णस्स अंतरं कटु सूरिया चारं चरंति, आहितेति वदेजा, एगे एवमाहंसु। २. एगे पुण एवमाहंसु - ता एगं जोयणसहस्सं एगं च चोत्तीसं जोयणसयं अण्णमण्णस्स अंतरं कटु सूरिया चारं चरंति, आहितेति वदेजा, एगे एवमाहंसु, ३. एगे पुण एवमाहंसु - ता एगं जोयणसहस्सं एगं च पणतीसं जोयणसयं अण्णमण्णस्स अंतरं. कटु सूरिया चारं चरंति, आहितेति वदेज्जा, एगे एवमाहंसु, ४-१. एगे पुण एवमाहंसु - ता एगं दीवं, एगं समुदं अण्णमण्णस्स अंतरं कटु सूरिया चारं चरंति, आहितेति वदेजा, एगे एवमाहंसु, ५-२. एगे पुण एवमाहंसु - ता दो दीवे, दो समुद्दे अण्णमण्णस्स अंतरं कटु सूरिया चारं चरंति, आहितेति वदेजा, एगे एवमाहंसु, ६-३. एगे पुण एवमाहंसु - ता तिण्णि दीवे, तिणि समुद्दे, अण्णमण्णस्स अंतरं कटु सूरिया चारं चरंति, आहितेति वदेजा, एगे एवमाहंसु, Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र वयं पुण एवं वयामो - ता पंच पंच जोयणाइं पणतीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले अण्णमण्णस्स अंतरं अभिवड्ढेमाणा वा, निवड्ढेमाणा वा सूरिया चारं चरंति, आहितेति वदेजा, तत्थ णं को हेउ ? आहितेति वदेजा, __ता अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वब्भंतराए सव्वखुड्डागे वट्टे जाव जोयणसयसहस्समायाम-विक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साई दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए, तिण्णि कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरसय-अंगुलाई अद्धंगुललं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते, १. ता जया णं एते दुवे सूरिया सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, तया णं णवणउई जोयणसहस्साइं, छच्च चत्ताले जोयणसए अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टु चारं चरंति आहितेति वदेजा, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, २. ते निक्खममाणा सूरिया णवं संवच्छरं अयमाणा पढमंसि अहोरत्तंसि अन्भिंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, ता जया णं एते दुवे सूरिया अब्भिंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, तया णं णवणउई जोयणसहस्साई छच्च पणयाले जोयणसए पणतीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स अण्णमण्णस्स अंतरं कटु चारं चरंति आहितेति वदेजा, तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहिं एगट्ठिभाग मुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिया, ३. ते निक्खममाणा सूरिया दोच्चंसि अहोरत्तंसि अब्भिंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, ता जया णं एते दुवे सूरिया अब्भिंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, तया णं णवणउई जोयणसहस्साई छच्च इक्कावण्णे जोयणसए नव य एगट्ठिभागे जोयणस्स अण्णमण्णस्स अंतरं कटु चार चरंति आहितेति वदेजा, तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चउहिं एगट्ठिभागमुहुतेहिं अहिया, एवं खलु एएणं उवाएणं निक्खममाणा एते दुवे सूरिया तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणतरं मंडलं संकममाणा संकममाणा पंच पंच जोयणाई पणतीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले अण्णमण्णस्स अंतरं अभिवड्ढे माणा अभिवड्ढे माणा, सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चरं चरंति, Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभृत - चतुर्थ प्राभृतप्राभृत ] भवइ, [ १७ ता जया णं एते दुवे सूरिया सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, ताणं एगं जोयणसयसहस्सं छच्च सट्ठे जोयणसए अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टु चारं चरंति, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे एस णं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, २. ते पविसमाणा सूरिया दोच्चंछम्मासं अयमाणां पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, ता जया णं एते दुवे सूरिया बाहिराणंतरंमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, तया णं एगं जोयणसयसहस्सं छच्च चउप्पण्णे जोयणसए छत्तीसं च एगद्विभागे जोयणस्स, अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टू चारं चरंति, तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, दोहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं अहिए, ३. ते पविसमाणा सूरिया दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, ता जया णं एते दुवे सूरिया बाहिरं तच्छं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, ताणं एगं जोयणसयसहस्सं छच्च अडयाले जोयणसए बावण्णं च एगट्टिभागे जोयणस्स, अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टू चारं चरंति, भवइ, तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, चउहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चउहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं अहिए, एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणा एते दुवे सूरिया तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणा संकममाणा पंच पंच जोयणाई पणतीसे च एगट्टिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले अण्णमण्णस्स अंतरं निवड्ढेमाणा निवड्ढेमाणा सव्वब्धंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, ता जया णं दुवे सूरिया सव्वब्धंतरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरंति, तया णं णवणउइं जोयणसहस्साइं छच्च चत्ताले जोयणसए अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टू चारं चरंति, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते, उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहण्णिया दुवालसमुहुत्ता राई एस णं दोच्चे छम्मासे एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एस णं आइच्चे संवच्छरे, एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभृत [पंचम पाभृतप्राभृत] सूरस्स दीव-समुद्द-ओगाहणाणंतरं चारं १६-१७. ता केवइयं ते दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चार चरइ, आहितेति वदेजा ? तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ तं जहा - तत्थेगे एवमाहंसु - १. ता एगं जोयण-सहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसयं, दीवं वा समुई वा ओगाहित्ता सूरिए चारं, चरइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - २. ता एगं जोयण-सहस्सं, एगं च चउत्तीसं जोयणसयं, दीवं वा समुहं वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ३. ता एगं जोयण-सहस्सं, एगं च पणत्तीसं जोयणसयं, दीवं वा समुहं वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ४. ता अवड्ढे दीवं वा, समुई वा, ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ एगे एवमाहंसु, ५. एगे पुण एवमाहंसु - ता नो किंचि एगं जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसयं दीवं वा, समुद्द वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंसु, तत्थ जे ते एवमाहंसु - १. ता एगं जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसयं, दीवं वा समुह वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ, ते एवमाहंसु - Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभृत - पंचम प्राभृतप्राभृत ] क - ता जया णं सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं जंबुद्दीवं दीवं एग जोयणसहस्सं, एगं च तेत्तीसं जोयणसयं ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, ख – ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं लवणसमुदं एगं जोयणसहस्सं, एगं च तेत्तीसं जोयणसयं ओगाहित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, २. एवं चउत्तीसेऽवि जोयणसयं, ३. पणतीसेऽवि एवं चेव भाणियव्वं, ४. तत्थ णं जे ते एवमाहंसु - ता अवड्ढं दीवं वा, समुदं वा, ओगाहित्ता सूरिए चर चरइ, ते एवमाहंसु - ता जया णं सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं अवड्ढं जंबुद्दीवं दीवं ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, . एवं सव्वबाहिरे मंडलेऽवि, णवरं – 'अवड्ढं लवणसमुई' तया णं – 'राइंदियं' तहेव, ५. तत्थ णं जे ते एवमाहंसु - ता नो किंचि दीवं वा समुह वा ओगाहित्ता चारं चरइ, ते एवमाहंसु - ता जया णं सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं नो किंचि दीवं वा, समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, एवं सव्वबाहिरे मंडले वि, णवरं - 'नो किंचि लवणसमुदं ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ, राइंदियं तहेव',' १. ऊपर अंकित सूत्र के समान है। २. ऊपर अंकित सूत्र के समान है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र वयं पुण एवं वयामो - क - ता जया णं सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं जंबुद्दीवं दीवं असीयं जोयणसयं ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ, तयाणं उत्तमकट्ठपत्ते उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, ख - ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ, तया णं लवणसमुई तिण्णि तीसे जोयणसए ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, गाहाओ भाणियव्याओ। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभृत [छठा प्राभृतप्राभृत] सूरस्स एगमेगे राइदिए मंडलाओ मंडलसंकमणखेत्तचारं १८. ता केवइयं ते एगमेगे णं राइदिए णं विकंपइत्ता विकंपइत्ता सूरिए चार चरइ, आहितेति वदेजा? तत्थ खलु इमाओ सत्त पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ तं जहा - तत्थेगे एवमाहंसु - १. ता दो जोयणाई अद्धदुचत्तालीसे तेसीई सयभागे जोयणस्स, एगमेगेणं, राइदिएणं विकंपइत्ता विकंपइत्ता सूरिए चारं, चरइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - २. ता अड्ढाइज्जाई जोयणाई एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता विकंपइत्ता सूरिए चार चरइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ३. ता तिभागूणाई तिनि जोयणाई एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता विकंपइत्ता सूरिए चार चरइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ४. ता तिण्णि जोयणाई अद्धसीतालीसं च तेसीइसयभागे जोयणस्स, एगमेगेणं, राइदिएणं विकंपइत्ता विकंपइत्ता सूरिए चार चरइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ५. ता अधुट्ठाइं जोयणाई एगमेगेणं, राइदिएणं विकंपइत्ता विकंपइत्ता सूरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ७. ता चत्तारिजोयणाइं अद्धबावण्णं च तेसीइसयभागे जोयणस्स एगमेगेणं, राइदिएणं विकंपइत्ता विकंपइत्ता सूरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंसु, Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] वयं पुण एवं वयामो ता दो जोयणाई अडयालीसं च एगद्विभागे जोयणस्स एगमेगं मंडलं एगमेगेणं राईदिएणं विकंपइत्ता विकंपइत्ता सूरिए चारं चरड़, तत्थ णं को हेऊ ? इति वदेज्जा । भवइ, [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र ता अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वब्धंतराए सव्वखुड्डागे वट्टे जाव जोयणसयहस्समायामविक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साइं दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए, तिण्णि कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई, अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते । १. ता जया णं सूरिए सव्वब्धंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहण्णिया दुवालसमुहुत्ता राई - २. से निक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अब्धिंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरड़, ताजा णं सूरिए अब्धिंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरड़, तया णं दो जोयणाई अडयालीसं च एगट्टिभागे जोयणस्स एगेणं राईदिएणं विकंपइत्ता विकंपइत्ता चारं चरड़, तया णं अठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहि एगट्टिभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, दोहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं अहिया । ३. से निक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि अब्धिंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, ताजा णं सूरिए अब्धिंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरड़, तया णं पंच जोयणाइ पणतीसं च एगट्टिभागे जोयणस्स दोहिं राइदिएहिं विकंपइत्ता विकंपइत्ता चारं चरइ, तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चउहिं एगट्टिभागसमुहुत्हिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चउहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं अहिया, एवं खलु एएणं उवाएणं निक्खममाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे दो दो जोयणाई अडयालीसं च एगद्विभागे जोयणस्स एगमेगं मंडलं एगमेगेणं राइदिएणं विकंपमाणे विकंपमाणे सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए सव्वब्धंतराओ मंडलाओ सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सव्वब्धंतरं मंडलं पणिहाय एगेणं तेसीएणं राईदियसएणं पंचदसुत्तरजोयणसए विकंपइत्ता विकंपइत्ता चारं चरइ, Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभृत - छठा प्राभृतप्राभृत] [ २३ तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, एस णं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छम्मासस्स पजवसाणे, १. से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, _ता जया णं सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं दो दो जोयणाई अडयालीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स एगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता चार चरइ, तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए, २. से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, • ता जया णं सूरिए बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं पंचजोयणाई पणतीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स दोहिं राइदिएहिं विकंपइत्ता विकंपइत्ता चारं चरइ, तया णं अट्ठारसम हुत्ता राई भवइ चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए, एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाऽणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे दो जोयणाई अडयालीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगं मंडलं एगेमेगेणं राइदिएणं विकंपमाणे विकंपमाणे सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, ता जया णं सूरिये सव्वबाहिराओ मंडलाओ सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सव्वबाहिरं मंडलं पणिहाय एगे णं तेसीए णं राइंदियसएणं पंचदसुत्तरे जोयणसए विकंपइत्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते, उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, एस णं दोच्चे छम्मासे एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पजवसाणे, एस णं आइच्चे संवच्छरे, एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पजवसाणे। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभृत [सप्तम प्राभृतप्राभृत] चंद-सूर-मंडल-संठिई १९. ता कहं ते मंडल-संठिई आहितेति वदेज्जा ? तत्थ खलु इमाओ अट्ठ पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - तत्थेगे एवमाहंसु - १. ता सव्वा वि णं मंडलावता समचउरंस-संठाणसंठिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - २. ता सव्वा वि णं मंडलावता विसमचउरंस-संठाणसंठिया पण्णत्ता, एगेएवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ३. ता सव्वा वि णं मंडलावता समचउक्कोणसंठिया पण्ण्त्ता , एगेएवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ४. ता सव्वा वि णं मंडलावता विसमचउक्कोणसंठिया पण्ण्त्ता , एगेएवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ५. ता सव्वा वि णं मंडलावता समचक्कवालसंठिया पण्ण्त्ता , एगेएवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ६. ता सव्वा वि णं मंडलावता विसमचक्कवालसंठिया पण्त्ता , एगेएवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ७. ता सव्वा वि णं मंडलावता चक्कद्धचक्कवालसंठिया पत्ता, एगेएवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ८. ता सव्वा वि णं मंडलावता छत्तागारसंठिया पण्ण्त्ता , एगेएवमाहंसु, तत्थ जे ते एवमाहंसु - ता सव्वा वि णं मंडलावता छतागारसंठिया पण्णत्ता, एएंगे णएणं णायव्वं, णो चेव णं इयरेहिं । पाहुडगाहाओ भाणियव्वाओ। . Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभृत [ अष्टम प्राभृतप्राभृत ] सूरस्स सव्वमंडलाणं बाहल्लं आयाम-विक्खभं परिक्खेवं च २०. ता सव्वा वि णं मंडलवया - के वइयं बाहल्लेणं ? केवइयं आयाम - विक्खंभेणं ? केवइयं परिक्खेवेणं ? आहितेति वदेज्जा । तत्थ खलु इमा तिण्णि पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा तत्थेगे एवमाहंसु १ - ता सव्वा वि णं मंडलवया जोयणं बाहल्लेणं, एगं जोयणसहस्सं एगं तेत्तीसं जोयणसयं आयाम - विक्खंभेणं, तिणि जोयणसहस्साइं तिण्णि य णवणउई जोयणसए परिक्खेवेणं पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, - एगे पुण एवमाहंसु २ - ता सव्वा विणं मंडलवया जोयणं बाहल्लेणं, - एगं जोयणसहस्सं एगं च चउत्तीसं जोयणसयं आयाम - विक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसहस्साई चस्तारि विउत्तराई जोयणसयाइं परिक्खेवेणं पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ३- ता सव्वा वि णं मंडलवया जोयणं बाहल्लेणं, एगं जोयणसहस्सं एगं च पणतीसं जोयणसयं आयाम - विक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसहस्साइं चत्तारि पंचुत्तराई जोयणसयाइं परिक्खेवेणं पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, वयं पुण एवं वयामो ता सव्वा वि णं मंडलवया अंडयालीसं एगद्विभागे जोयणस्स बाहल्लेणं, - Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र अणियया आयाम-विक्खंभ-परिक्खेवेणं, आहितेति वदेजा, तत्थ णं को हेऊ ? त्ति वदेजा। ता अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुदाणं सव्वब्भंतराए सव्वखुड्डागे वट्टे जाव जोयणसहस्समायाम-विक्खंभेणं, तिणि जोयणसयसहस्साइं, दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए, तिण्णि कोसे, अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरस य अंगुलाई, अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते, १. ता जया णं सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सा मंडलवया अडयालीसं एगट्ठिभागे पोयणस्स बाहेल्लेणं, णवणउइ जोयणसहस्साई छच्च चत्ताले जोयणसयाई आयाम-विक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साइं पण्णरस जोयणसहस्साइं एगूणणउई जोयणाई किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, तयाणं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। २. से निक्खम्ममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अब्भितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, ता जया णं सूरिए अभिंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सा मंडलवया अडयालीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं, . णवणउई जोयणसहस्साइं छच्च पणयाले जोयणसए पणतीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साइं पण्णरस जोयणसहस्साई एगं चउत्तरं जोयणसयं किंचि विसेसूणं १. सूर्यप्रज्ञप्ति तथा जम्बूद्वीप्रप्रज्ञप्ति के सूत्रों में सूर्यमण्डल का आयाम-विष्कम्भ कहा गया है किन्तु समवायांग सूत्र में केवल विष्कम्भ ही कहा गया है। इसका समाधान यह है कि वृत्ताकार का आयाम-विष्कम्भ सदा समान होता है, सूर्यमण्डल वृत्ताकार है, अतः केवल विष्कम्भ कहने से आयाम और विष्कम्भ दोनों समझ लेने चाहिये। सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्यमण्डल का बाहल्य एक योजन के इकसठ भागों में से अड़तालीस भाग जितना कहा गया है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में सूर्यमण्डल का बाहल्य एक योजन के इकसठ भागों में से चौबीस भाग जितना कहा गया है। इन दो प्रकार के बाहल्य प्रमाणो में से कौन सा वास्तविक है, यह शोध का विषय है। सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्यमण्डल का आयाम-विष्कम्भ और परिधि बाह्याभ्यन्तर मण्डलों की अपेक्षा अनियत है, ऐसा लिखा है किन्तु जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में सूर्यमण्डल का आयाम, विष्कम्भ और परिधि अनियत नहीं लिखी है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में सूर्यमण्डल का आयाम-विष्कम्भ और परिधि जो कही है वह आभ्यन्तर या बाह्यमण्डलों की है ? क्योंकि सूर्यप्रज्ञप्ति में कथित बाह्याभ्यन्तर मण्डलों के आयाम-विष्कम्भप्रमाणों में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिकथित आयाम-विष्कम्भ परिधि का प्रमाण मिलता नहीं है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभृत - अष्टम प्राभृतप्राभृत ] [ २७ परिक्खेवेणं, तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिया, ३. से निक्खम्माणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि अतिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, ता जया णं सूरिए अब्भिंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सा मंडलवया अड़यालीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं, णवणउइ जोयणसहस्साई छच्च एकावन्ने जोयणसए णव य एगट्ठिभागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साई पण्णरस जोयणसहस्साई एग च पणवीसं जोयणसयं परिक्खेवेणं पत्ते, तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चाहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिया, ४. एवं खलु एएणं उवाएणं निक्खम्ममाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे पंच पंच जोयणाई पणतीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले विक्खंभवुड्ढि अभिवड्ढेमाणे अभिवड्ढेमाणे अट्ठारस अट्ठारस जोयणाइं परिरयवुड्ढि अभिवड्ढेमाणे अभिवड्ढेमाणे सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सा मंडलवया अड़यालीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं, एगं च जोयणसयसहस्साहं छच्चसट्टे जोयणसए आयामविक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्सं अट्ठारस सहस्साई तिण्णि य पण्णरसुत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं, तया णं उत्तमकट्ठपेत्ते उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णिए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, एस णं पढमे छम्मासे एस णं पढमस्स छम्मासस्स पजवसाणे, १. से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, ता जया णं सूरिए बाहिराणंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सा मंडलवया अड़यालीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं, Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र एगं जोयणसयसहस्सं छच्च चउप्पणे जोयणसए छव्वीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साइं अट्ठारस सहस्साइंदोण्णि य सत्ताणउए जोयणसए परिक्खेवेणं पण्णत्ते, तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए, २. से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, ता जया णं सूरिए बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सा मंडलवया अडयालीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं, एगं जोयणसयसहस्सं छच्च अडयाले जोयणसए बावण्णं च एगट्ठिभागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साई अट्ठारससहस्साई दोण्णि य एगूणासीए जोयणसए परिक्खेवेणं पण्णत्ते, तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चाहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए, एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे पंच पंच जोयणाई पणतीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले विक्खंभवुट्टि निवुड्ढेमाणे निवुड्ढेमाणे अट्ठारस जोयणाई परिरयवड्डि निवुड्ढेमाणे निवुड्ढेमाणे सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, ता जया णं सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सा मंडलवया अड़यालीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं, णवणउई जोयणसहस्साइं छच्च चत्ताले जोयणसए आयाम-विक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साई पण्णरससहस्साई एगूणणउई च जोयणाई किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, एस णं दोच्चे छम्मासे, एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एस णं आइच्चे संवच्छरे एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभृत- अष्टम प्राभृतप्राभृत ] सव्वसूरमंडलाणं बाहल्लं अंतरं अद्धा पमाणं च ता सव्वा विणं मंडलवया अडयालीसं च एगट्टिभागे जोयणस्स बाहेल्लेणं, [ २९ सव्वा वि णं मंडलंतरिया दो जोयणाइं विक्खंभेणं, एस णं अद्धा तेसीय सयपडुप्पण्णे पंचदसुत्तरे जोयणसए आहिए त्ति वएजा, ता अब्धिंतराओ मंडलवयाओ बाहिरं मंडलवयं बाहिराओ वा मंडलवयाओ अब्धिंतरं मंडलवयं, एसणं अद्धा के वइयं आहिए त्ति वदेज्जा ? ता पंचदसुत्तरे जोयणसए आहिए त्ति वएज्जा, अब्धिंतराए मंडलवयाए बाहिरा मंडलवया एस णं अद्धा केवइयं आहिए ति वएज्जा ? ता पंचदसुत्तरे जोयणसए अडयालीसं च एगद्विभागे जोयणस्स अहिया, ता अब्धिंतराओ मंडलवयाओ बाहिरमंडलवया बाहिराओ मंडलवयाओ अब्धिंतरमंडलवया - एस. णं अद्धा के वइयं आहिए ति वदेज्जा ? ता पंचनवुत्तरे जोयणसए तेरस एगद्विभागे जोयणस्स आहिए त्ति वदेज्जा, अब्भिंतराओ मंडलवयाओ बाहिरा मंडलवया, बाहिराए मंडलवयाए अब्धिंतर-मंडलवया एस णं अद्धा केवइया आहिए त्ति वदेज्जा ? ता पंचदसुत्तरे जोयणसए आहिए ति वदेज्जा । 김 - Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूराण तेरिच्छगई द्वितीय प्राभृत [ प्रथम प्राभृतप्राभृत ] २१. ता कहं ते तेरिच्छगई आहिए ? त्ति वएज्जा । तत्थ खलु इमाओ अट्ठ पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा तत्थेगे एवमाहंसु - - १. ता पुरत्थिमाओ लोयंताओ पाओ मरीची आगासंसि उट्ठेइ, से णं इमं लोयं तिरियं करेइ, करित्ता पच्चत्थिमंसि लोयंतंसि सायंमि आगासंसि विद्धंसइ एगे एवमाहंसु । एगे पुण एवमाहंसु - २. ता पुरत्थिमाओ लोयंताओ पाओ सूरिए आगासंसि उट्ठेइ, से णं इमं लोयं तिरियं करेइ, करित्ता पच्चत्थिमंसि लोयंतंसि सायंसूरिए आगासंसि विद्धंसइ एगे एवमाहंसु । एगे पुण एवमाहंसु - ३. ता पुरत्थिमाओ लोयंताओ पाओ सूरिए आगासंसि उट्ठेइ, से णं इमं लोयं तिरियं करेइ, करित्ता पच्चत्थिमंसि लोयंतंसि सायं सूरिए आगासं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता अहे पडियागच्छइ पडियागच्छित्ता पुणरवि अवरभू-पुरत्थिमाओ लोयंताओ पाओ सूरिए आगासंसि उट्ठेइ एगे एवमाहंसु । एगे पुण एवमाहंसु - ४. ता पुरत्थिमाओ लोयंताओ पाओ सूरिए पुढवीओ उट्ठेइ, से णं इमं तिरियं करेइ, करित्ता पच्चत्थिमंसि लोयंतंसि सायं सूरिए पुढविकायंसि उट्ठेइ एगे एवमाहंसु । एगे पुण एवमाहंसु - . ५. ता पुरत्थिमाओ लोयंताओ पाओ सूरिए पुढवीओ उट्ठेइ, से णं इमं लोयं तिरियं करेइ, करित्ता पच्चत्थिमंसि लोयंतंसि सायं सूरिए पुढविकायं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता अहे पडियागच्छइ पडियागच्छित्ता पुणरवि अवरभू-पुरत्थिमाओ लोयंताओ पाओ सूरिए पुढवीओ उट्ठेइ एगे एवमाहंसु । एगे पुण एवमाहंसु Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्राभृत- प्रथम प्राभृतप्राभृत ] ६. ता पुरत्थिमाओ लोयंताओ पाओ सूरिए आउकायंसि उट्ठेइ, से णं इमं लोयं तिरियं करेड़, करित्ता पच्चत्थिमंसि लोयंतंसि सायं सूरिए आउकायंसि विद्धंसइ एगे एवमाहंसु । [ ३१ एगे पुण एवमाहंसु - ७. ता पुरत्थिमाओ लोयंताओ पाओ सूरिए आउओ उट्ठेइ, से णं इमं लोयं तिरियं करेइ, करित्ता पच्चत्थिमंसि लोयंतंसि सायं सूरिए आउकायंसि पविसइ, पविसित्ता अहे पडियागच्छइ पडियागच्छित्ता पुणरवि अवरभू-पुरत्थिमाओ लोयंताओ पाओ सूरिए आउओ उट्ठेइ एगे एवमाहंसु । एगे पुण एवमाहंसु - ८. ता पुरत्थिमाओ लोयंताओ बहूई जोयणाई बहूइं जोयणसयाइं बहूइं जोयसहस्साइं उड्ढं दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं पाओ सूरिए आगासंसि उट्ठेइ, से णं इमं दाहिणंड्ढं लोयं तिरियं करेइ, करित्ता उत्तरड्ढलोयं तमेव राओ, से णं इयं उत्तरоलोयं तिरियं करेइ, करित्ता दाहिणइलोयं तमेव राओ, से णं इमाइं दाहिण-उत्तरड्ढलोयाइं तिरियं करेइ, करित्ता पुरत्थिमाओ लोयंताओ बहूई जोयणाई बहूई जोयणसयाइं, बहूइं जोयणसहस्साइं उड्ढं दूरं उप्पइत्ता, एत्थ णं पाओसूरिए आगासंसि उट्ठेइ, एगे एवमाहंसु । वयं पुण एवं वयामो ता जंबुद्दीवस्स दीवस्स पाईण-पडीणायय-उदीण- दाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउव्वीसेणं सरणं छेत्ता दाहिण - पुरत्थिमंसि उत्तर-पच्चत्थिमंसि य चउब्भाग - मंडलंसि इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ अट्ठजोयणसयाई उड्ढं उप्पइत्ता- एत्थ णं पाओ दुवे सूरिया आगासाओ उत्तिट्ठसि, - ते णं इमाई दाहिणुत्तराई जंबुद्दीव-भागाई तिरियं करेंति, करेंतित्ता पुरत्थिम-पच्चत्थिमाई जंबुद्दीवभागाई तामेव राओ, ते णं इमाइं पुरत्थिम-पच्चत्थिमाई जंबुद्दीवभागाई तिरियं करेंति, करेंतित्ता दाहिणुत्तराई जंबुद्दीवभागाई तामेव राओ, इमाई दाहिणुत्तराइं पुरत्थिम-पच्चत्थिमाइं जंबुद्दीवभागाइं तिरियं करेंति, करेंतित्ता जंबुद्दीवस्स दीवस्स पाईण-पडीणायय-उदीण दाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउव्वीसे णं सएणं छेत्ता दाहिण पुरत्थिमंसि उत्तर-पच्चत्थिमंसि य चउब्भाग-मंडलंसि इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ अट्ठ जोयणसयाई उड्ढं उप्पइत्ता- एत्थ णं पाओ दुवे सरिया आगासंसि उत्तिट्ठसि । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्राभृत [द्वितीय प्राभृतप्राभृत] सूरस्स मंडलाओ मंडलांतर-संकमणं २२. ता कहं ते मंडलाओ मंडलं संकममाणे संकममाणे सूरिए चारं चरइ आहिए ? ति वएजा, तत्थ खलु इमाओ दुवे पडिवत्तीओ पण्णताओ तं जहा - तत्थेगे एवमाहंसु१. ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे संकममाणे सूरिए भेयधाएणं संकामइ, एगे एवमाहंस, एगे पुण एवमाहंसु - २. ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे संकममाणे सूरिए कण्णकलं निव्वेढेइ, एगे एवमाहंसु, . तत्थ णं जे ते एवमाहंसु - १. ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे संकममाणे सूरिए भेयधाएणं' संकामइ, तेसिणं अयं दोसे, "ता जेणंतरेणं मंडलाओ मंडलं संकममाणे संकममाणे भेयधाएणं संकमइ-एवइयं च णं अद्धं पुरओ न गच्छइ, पुरओ पुरओ अगच्छमाणे मंडलकालं परिहवेइ' तेसि णं अयं दोसे। तत्थ णं जे ते एवमाहंसु - १. मण्डलादपरमण्डलं संक्रामन् संक्रमितुमिच्छन् सूर्यो भेदघातेन संक्रमति, भेदो मण्डलस्य मण्डलस्यापान्तरालं तत्र घातो - गमनं, एतच्च प्रागेवोक्तं, तेन संक्रामति, किमुक्तं भवति? विवक्षिते मण्डले सूर्येणापूरिते सति तदन्तरमपान्तरालगमनेन द्वितीय मण्डलं संक्रामति संकम्य च तस्मिन् मण्डले चारं चरति। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्राभृत - द्वितीय प्राभृतप्राभृत ] २. ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे सूरिए कण्णकलं' निव्वेढेइ, एवइयं च णं अद्धं पुरओ न गच्छइ, पुरओ गच्छमाणे मंडलकालं न परिहवेइ, तेसि णं अयं विसेसे। तत्थ णं जे ते एवमाहंसु - मंडलाओ मंडलं संकममाणे सूरिए कण्णकलं निव्वेढेइ एएणं ठाएणं णेयव्वं, णो चेव णं इयरेणं, मण्डलान्मण्डलं संक्रामन् संक्रमितुमिच्छन् सूर्यस्तदधिकृतं मंडलम प्रथमक्षणादृर्ध्वमारभ्य कर्ण-कलं निर्वेष्टयति मुंचति, इयमत्र भावना-'भारत ऐरावतो वा सूर्यः स्व-स्वस्थाने उद्गतः सन् अपरमण्डलगतं कर्णं प्रथमकोटिभागरूपं लक्ष्यीकृत्य शनैःशनैरधिकृतं मण्डलं तया कयाचनापि कलया मुंचन चारं चरति' येन तस्मिन्नहोरात्रेऽतिक्रान्ते सति अपरानन्तरमण्डलस्यारम्भे वर्तते इति। कर्णकलमिति च क्रियाविशेषणं द्रष्टव्यं, तच्चैवं भावनीयं - कर्ण-अपरमण्डलगतप्रथमकोटिभागरूपं लक्ष्यीकृत्याधिकृतमण्डलं प्रथमक्षणादूर्ध्व क्षणे क्षणे कलयाऽतिक्रान्तं यथा भवति तथा निर्वेष्टयतीति। - सूर्य. टीका. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्राभृत ___ [तृतीय प्राभृतप्राभृत] सूरस्स मुहुत्त-गइ-पमाणं २३. ता केवइयं ते खेत्तं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ ? आहिए त्ति वएजा। तत्थ खलु इमाओ चत्तारि पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - तत्थेगे एवमाहंसु - (१) ता छ छ जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, एगे एवमाहंसु - एगे पुण एवमाहंसु - (२) ता पंच पंच जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, एगे एवमाहंसु - एगे पुण एवमाहंसु - (३) ता चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साइं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, एगे एवमाहंसु - एगे पुण एवमाहंसु - (४) ता छवि, पंच वि, चतारि वि जोयणसहस्साइं सूरिए एगमेगेणं मुहुतेणं गच्छइ, एग एवमाहेसु। तत्थ णं जे ते एवमाहंसु - (१) ता छ छ जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, ते एवमाहंसु - ता जया णं सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहण्णिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। तंसि च णं दिवसंसि एग जोयणसयसहस्सं अट्ठ य जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते पण्णत्ते। ___ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ जहन्नए दुवालसमुहत्ते दिवसे भवइ। तंसि च दिवसंसि बाबतरि जोयणसहस्साई तावक्खेते पण्णते, तया णं छ छ जोयणसहस्साइं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्राभृत - तृतीय प्राभृतप्राभृत ] [ ३५ तत्थ णं जे ते एवमाहंसु - (२) ता पंच पंच जोयणसहस्साइं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, ते एवमाहंसु - ता जया णं सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। तंसि च णं दिवसंसि नउइ जोयणसहस्साइं तावक्खेत्ते पण्णत्ते। ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ। तंसि च णं दिवसंसि सटुिं जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते पण्णत्ते। तया णं पंच पंच जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ। तत्थ णं जे ते एवमाहंसु - (३) ता चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, ते एवमाहंसु - • ता जया णं सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जहणिया दुवालसमुहुत्ते राई भवइ। तंसि च णं दिवसंसि बावत्तरि जोयणसहस्साइं तावक्खेत्ते पण्णत्ते। ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ। तंसि च णं दिवसंसि अडयालीसं जोयणसहस्साइं तावक्खेत्ते पण्णत्ते। तया णं चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ। तत्थ णं जे ते एवमाहंसु - (४) ता छ वि, पंच वि, चत्तारि वि जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, ते एवमाहंसु - ता सूरिए णं उग्गमणमुहुत्तंसि य, अस्थमणमुहुत्तंसि यं सिग्घगई भवइ, तया णं छ छ जोयणसहस्साई एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ। __ मज्झिमं तावक्खेत्ते समासाएमाणे समासाएमाणे सूरिए मज्झिमगई भवइ, तया णं पंच पंच जोयणसहस्साइं एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ। मझिमं तावक्खेत्तं संपत्ते सूरिए मंदगई भवइ, तया णं चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ। . ता जया णं सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्टे उक्कोसए Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। तंसि च दिवसंसि एक्काणउइ जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते पण्णत्ते। ___ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ। तंसि च णं दिवसंसि एगट्ठिजोयणसहस्साई तावक्खेत्ते पण्णत्ते। तया णं छ वि, पंच वि, चत्तारि वि जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, एगे एवमाहंसु । वयं पुण एवं वयामो - ता साइरेगाइं पंच पंच जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ। . प्र. - तत्थ को हेऊ ? त्ति वएजा। उ. - ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वब्भंतराए सव्वखुड्डागे वट्टे जाव जोयणसयसहस्समायाम-विक्खंभेणं, तिनि जोयणसहस्साई दोनि य सत्तावीसे जोयणसए तिन्नि कोसे, अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरस य अंगुलाई, अद्धंगुलं च किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते। ता जया णं सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं पंच पंच जोयणसहस्साई दोण्णि य एक्कावण्णे जोयणसयाई एगूणतीसं च सट्ठिभाए जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ। तया णं इहगयस्स मणूसस्स सीयालीसाए जोयणसहस्सेहिं दोहि य तेवढेहिं जोयणसएहिं एक्कवीसाए य सट्ठिभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ। तया उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। से निक्खममाणे सूरिए णवं संवच्डरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अभिंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। ता जया णं सूरिए अब्धेितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं पंच पंच जोयणसहस्साई दोण्णि य एक्कावण्णे जोयणसए सीयालीसं च सट्ठिभाए जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ। तया णं इहगयस्स मणूसस्स सीयालीसाए जोयणसहस्सेहिं एगूणासिए य जोयणसए सत्तावण्णाए सट्ठिभागेहिं जोयणस्स सट्ठिभागं च एगट्ठिहा छेत्ता एगूणवीसाए चुण्णिआभागेहिं सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ। तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहिं एगट्ठिभाग मुहुत्तेहिं ऊणे। दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिया। से निक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि अभिंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्राभृत - तृतीय प्राभृतप्राभृत ] [ ३७ ___ता जया णं सूरिए अभिंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं पंच पंच जोयणसहस्साई दोण्णि य बावण्णे जोयणसए पंच य सट्ठिभाए जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ। तया णं इहगयस्स मणूसस्स सीओलीसाए जोयणसहस्सेहिं छण्णउईए य जोयणेहिं तेत्तीसाए य सट्ठिभागेहिं जोयणस्स सट्ठिभागं च एगट्ठिहा छेत्ता दोहिं चुण्णिआभागेहिं सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ। तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणे। दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिया। एवं खलु एएणं उवाएणं निक्खममाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे अट्ठारस अट्ठारस सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले मुहुत्तगई अभिवुड्ढेमाणे अभिवुड्ढेमाणे चुलसीयं चुलसीयं सीयाइं जोयणाई पुरिसच्छायं निव्वुड्ढेमाणे निव्वुड्ढेमाणे सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। . ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं पंच पंच जोयणसहस्साई तिनि य पंचुत्तरे जोयणसए पण्णरस य सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ। तयाणं इहगयस्स मणूसस्स एक्कतीसाए जोयणसहस्सेहिं अट्ठहिं एक्कतीसेहिं जोयणसहस्सेहि तीसाए य सट्ठिभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ। तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ। एस णं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे। से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। ता जया णं सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं पंच पंच जोयणसहस्साई तिण्णि य चउरुत्तरे जोयणसए सत्तावण्णं च सट्ठिभाए जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ।। तया णं इहगयस्स मंणूसस्स एक्कतीसाए जोयणसहस्सेहिं नवहिं य सोलसुत्तरेहिं जोयणसएहिं एगुणचत्तालीसाए सट्ठिभागेहिं जोयणस्स सट्ठिभागं च एगट्ठिहा छेत्ता सट्ठीए चुणिया भागेहिं, सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ। तयो णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा। दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए। से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। ता जया णं सूरिए बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं पंच पंच जोयणसहस्साई Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र तिन्नि य चउरुत्तरे जोयणसए एगूणचत्तालीसं च सट्ठिभाए जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ। तया णं इहगयस्स मणूसस्स एगाहिएहिं बत्तीसाए जोयणसहस्सेहिं एगूणपण्णाए य सट्ठिभाएहिं जोयणस्स सट्ठिभागं च एगट्ठिहा छेत्ता तेवीसाए चुण्णियाभागेहिं सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ। । तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा। दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए। एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए जयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे अट्ठारस अट्ठारस सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले मुहुत्तगई निव्वुड्ढेमाणे निव्वुड्ढेमाणे साइरेगाई पंचासीइ पंचासीइ जोयणाई पुरिसच्छायं अभिवुड्ढेमाणे अभिवुड्ढेमाणे सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। ता जया णं सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं पंच पंच जोयणसहस्साई दोण्णि य एक्कावण्णे जोयणसए अट्ठतीसं च सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे णं मुहुत्ते णं गच्छइ। तया णं इहगयस्स मणूसस्स सीयालीसाए जोयणसहस्सेहिं दोहिं य दोवदे॒हिं जोयणसएहिं य एक्कवीसाए य सट्ठिभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ। तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। एस णं दोच्चे छम्मासे, एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पजवसाणे। एस णं आइच्चे संवच्छरे, एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पजवसाणे। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्राभृत चंदिम-सूरियाणं ओभासखेत्तं उज्जोयखेत्तं तावखेतं पगासखेत्तं च २४. प. - ता केवइयं खेत्तं चंदिम-सूरिया ओभासंति, उज्जोवेंति तवेंति पगासेंति ? आहिएत्ति वएज्जा, उ. - तत्थ खलु इमाओ बारस पडिवत्तीओ पण्णत्तओ तं जहा - तत्थेगे एवमाहंसु - १. ता एगं दीवं एगं समुद्द चंदिम-सूरिया ओभासेंति उज्जोवेति तवेंति पगासेंति' एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - २. ता तिण्णि दीवे, तिण्णि समुद्दे चंदिम-सूरिया ओभासेंति जाव पगासेंति एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ३. ता अद्धचउत्थे दीवे, अद्धचउत्थे समुद्दे चंदिम-सूरिया ओभासेंति जाव पगासेंति एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ४. ता सत्तदीवे, सत्तसमुद्दे चंदिम-सूरिया ओभासेंति जाव पगासेंति एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ५. ता दसदीवे, दससमुद्दे चंदिम-सूरिया ओभासेंति जाव पगासेंति एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ६. ता बारसदीवे, बारससमुद्दे चंदिम-सूरया ओभासेंति जाव पगासेंति एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ७. ता बायालीसं दीवे, बायालीसं समुद्दे चंदिम-सूरिया ओभासेंति जाव पगासेंति एगे एवमाहंसु, १. अवभासयन्ति, तत्रावभासो ज्ञानस्यापि व्यवहियते अतस्तद्व्यवच्छेदार्थमाह-उद्योतयन्ति, स चोद्योतो यद्यपि लोके भेदेन प्रसिद्धो यथा सूर्यगत आतप इति, चन्द्रगतः प्रकाश इति, तथाप्यातपशब्दश्चन्द्रप्रभायामपि वर्तते, यदुक्तम् 'चन्द्रिका कौमुदी ज्योत्स्ना, तथा चन्द्रगत:स्मृतः इति' प्रकाशशब्दः सूर्यप्रभायामपि, एतच्च प्रायो बहूनां सुप्रतीतंतत एतदर्थप्रतिपत्यर्थमुभयसाधारणं भूयोऽप्येकार्थकद्वयमाह तापयन्ति प्रकाशयन्ति आख्याता इति । - संस्कृतटीका Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र एगे पुण एवमाहंसु - ८. ता बावत्तरि दीवे, बावत्तरिं समुद्दे चंदिम-सूरया ओभासेंति जाव पगासेंति एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ९. ता बायालीसं दीवसयं बायालीसं समुद्दसयं चंदिम-सूरया ओभासेंति जाव पगासेंति एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - १०. ता बावत्तरि दीवसयं बावत्तरि समुइसयं चंदिम-सूरया ओभासेंति जाव पगासेंति एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ११. ता बायालीसं दीवसहस्सं, बायालीसं समुद्दसहस्सं चंदिम-सूरया ओभासेंति जाव पगासेंति एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - १२. ता बावत्तरं दीवसहस्सं, बावत्तरं समुद्दसहस्सं चंदिम-सूरया ओभासेंति जाव पगासेंति एगे एवमाहंसु, वयं पुण एवं वयामो - ता अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुदाणं सव्वभंतराए सव्वखुड्डागे वट्टे जाव जोयणसयसहस्समायाम - विक्खंभे णं तिण्णि जोयणसयसहस्साई, दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए, तिण्णि कोसे, अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते, से णं एगाए जगईए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते सा णं जगई अट्ठ-जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं - पण्णत्ता, एव जहा जंबुद्दीवपण्णत्तीए जाव, एवामेव सपुव्वावरे णं जंबुद्दीवे चोइस सलिलासयसहस्सा छप्पण्णं च सलिलासहस्सा भवंतीतिमक्खायं, जंबुद्दीवे णं दीवे पंच चक्कभागसंठिए ? आहिएत्ति वएज्जा, प. - ता कहं जंबुद्दीवे दीवे पंच चक्कभागसंठिए ? आहिए त्ति वएन्जा, १. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के प्रथम वक्षस्कार सूत्रांक ४ से षष्ठ वक्षस्कार सूत्रांक १२५ पर्यन्त के सभी सूत्रों के पाठ यहां समझने की सूचना है। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्राभृत ] उ. - ता जया णं एए दुवे सूरिया सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तया णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स तिण्णि पंच चक्कभागे ओभासेंति जाव पगासेंति, तं जहा ताएगे वि सूरिए एगं दिवढं पंच चक्कभागं ओभासेइ जाव पगासेइ, ताएगे वि सूरिए एगं दिवड्ढं पंच चक्कभागं ओभासेइ जाव पगासेइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जहण्णिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, - भवइ, [ ४१ ता जया णं एए दुवे सूरिया सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तया णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स दोण्णि पंच चक्क भागे ओभासेंति जाव पगासेंति, ता एगे वि सूरिए एगं पंच चक्कवालभागं ओभासेइ जाव पगासेइ, ताएगे वि सूरिए एगं पंच चक्कवालभागं ओभासेइ जाव पगासेइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्त राई भवइ जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ प्राभृत सेयाते संठिई . प. – ता कहं ते सेआते' संठिई आहितेति वदेजा ? उ. - तत्थ खलु इमा दुविहा संठिती पण्णत्ता, तं जहा - १. – चंदिम-सूरियसंठिती य। २. – तावक्खेत्तसंठिती य। चंदिम-सूरियसंठिई प. - ता कहं ते चंदिम-सूरियसंठिती आहिताति वदेजा? उ. - तत्थ खलु इमाओ सोलस पडिवत्तीओ पण्ण्त्ताओ। १.- तत्थेगे एवमाहंसु - ता समचउ रंससंठिया चंदिम-सूरियसंठीती पण्णता, एगे एवमाहंसु। २. – एगे पुण एवमाहंसु - ता विसमचउरंससंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णता, एगे एवमाहंसु। ३. – एगे पुण एवमाहंसु - ता समचउक्कोणसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णता, एगे एवमाहसु। ४. – एगे पुण एवमाहंसु - ___ता विसमचउक्कोणसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णता, एगे एवमाहंसु। ५. – एगे पुण एवमाहंसु - १. वृत्तिकार ने 'श्वेतता' की व्याख्या इस प्रकार की है - 'इह श्वेतता चन्द्र-सूर्यविमानानामपि विद्यते, तत्कृततापक्षेत्रस्य च, ततः श्वेततायोगादुभयमपि श्वेतताशब्देनोच्यते। २. चन्द्र-सूर्य विमानों के संस्थान अन्यत्र कहे गये हैं। अत: चन्द्र-सूर्य विमानों की संस्थिति के संबंध में प्रश्नकर्ता के अभिप्राय का स्पष्टीकरण वृत्तिकार ने इस प्रकार किया है - 'इह चन्द्र-सूर्यविमानानां संस्थानरूपा संस्थितिः प्रागेवाभिहिता तत इह चन्द्र-सूर्यविमान-संस्थितिश्चतुर्णामपि अवस्थानरूपा पृष्टा द्रष्टव्या।' Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ प्राभृत ] [ ४३ ता समचक्कवालसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णता, एगे एवमाहंसु। ६. – एगे पुण एवमाहंसु - ता विसमचक्कवालसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णता, एगे एवमाहंसु। ७. – एगे पुण एवमाहंसु - ता चक्कद्धचक्कवालसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णता, एगे एवमाहंसु। ८. – एगे पुण एवमाहंसु - ता छत्तागारसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णता, एगे एवमाहंसु। ९. – एगे पुण एवमाहंसु - ता गेहसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णता, एगे एवमाहंसु। १०. – एगे पुण एवमाहंसु - ता गेहावणसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णता, एगे एवमाहंसु। ११. - एगे पुण एवमाहंसु - · ता पासायसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णता, एगे एवमाहंसु। १२. – एगे पुण एवमाहंसु - ता गोपुरसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णता, एगे एवमाहंसु। १३. – एगे पुण एवमाहंसु - ___ता पेच्छाघरसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णता, एगे एवमाहंसु। १४. – एगे पुण एवमाहंसु - ता वलभीसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णता, एगे एवमाहंसु। १५. - एगे पुण एवमाहंसु - . ता हम्मियतलसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णता, एगे एवमाहंसु। १६. – एगे पुण एवमाहंसु - ता बालग्गपोतियासंठिया' चंदिम-सूरियसंठिती पण्णता, एगे एवमाहंसु। तत्थ जे ते एवमाहंसु - बालाग्रपोतिकाशब्दो देशीशब्दत्वादाकाशतडागमध्ये व्यवस्थितं क्रीडा-स्नानं लघुप्रासादम्। - सूर्य. वृत्ति Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र ता समचउरंस-संठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णत्ता, एएणं णएणं णेयव्वं णो चेव णं इयरेहि। सूरियस्स तावक्खेत्तसंठिती प. – ता कहं ते तावक्खेत्तसंठिती ? आहिएत्ति वएज्जा। उ. - तत्थ खलु इमाओ सोलस नडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - तत्थ णं - १. - एगे एवमाहंसु - ता गेह संठिता तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। २. - एगे पुण एवमाहंसु - गेहावणसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। ३. - एगे पुण एवमाहंसु - पासायसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। ४. – एगे पुण एवमाहंसु - गोपुरसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। ५. - एगे पुण एवमाहंसु - पिच्छाघरसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। ६. – एगे पुण एवमाहंसु - वलभीसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। ७. - एगे पुण एवमाहंसु - हम्मियतलसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। १. परतीर्थिकों की इन सोलह प्रतिपत्तियों में से केवल एक प्रतिपत्ति सूत्रकार की मान्यतानुसार है - इस विषय में वृत्तिकार का कथन यह है - 'तत्थेत्यादि-तत्र तेषां षोडशानां परतीर्थिकानां मध्ये ये ते वादिन एवमाहुः' - समचतुरस्त्रसंस्थिता चन्दसूर्य-संस्थितिः प्रज्ञासा इति, एतेन नयेन, नेतव्यं एतेनाभिप्रायेणास्मन्मतेऽपि चन्द्र-सूर्यसंस्थितिरवधार्येति भावः, तथाहि - 'इह सर्वेऽपि कालविशेषाः सुषमसुषमादयो युगमूलाः। युगस्य चादौ श्रावणे मासे बहुलपक्षप्रतिपदि प्रातरुदयसमये एकसूर्यो दक्षिणपूर्वस्यां दिशि वर्तते, तद्वितीयस्त्व परोत्तरस्यां, चन्द्रमा अपि तत्समये एको दक्षिणपरस्यां दिशि वर्तते, द्वितीय उत्तरपूर्वस्यामत एतेषु युगस्यादौ चन्द्र-सूर्याः समचतुरस्त्रसंस्थिता वर्तन्ते। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ प्राभृत ] [ ४५ ८. - एगे पुण एवमाहंसु - बालग्गपोतियासंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। ९. - एगे पुण एवमाहंसु - जस्संठिए जंबुद्दीवे तस्संठिए तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। १०. – एगे पुण एवमाहंसु - जस्संठिए भारहे वासे तस्संठिए तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। ११. – एगे पुण एवमाहंसु - उजाणसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहसु। १२. – एगे पुण एवमाहंसु - निजाणसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। १३. - एगे पुण एवमाहंसु - एगओ णिसधसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। १४. - एगे पुण एवमाहंसु - दुहओ णिसधसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। १५. - एगे पुण एवमाहंसु - सेयणगसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। १६. - एगे पुण एवमाहंसु - सेयणगपट्ठसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। वयं पुण एवं वदामो - ता उद्धीमुहकलंबुआपुप्फसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता। अंतो संकुचिया, बाहिं वित्थडा। अंतो वट्टा, बाहिं पिधुला। यत्त्वत्र मण्डलकृतं वैषम्यं यथा सूर्यों सर्वाभ्यन्तरमण्डले वर्तते, चन्द्रमसौ सर्वबाह्य इति तदल्पमितिकृत्वा न विवक्ष्यते। तदेवं यतः सकलकालविशेषाणां सुषमासुषमादिरुपाणामादिभूतस्य युगस्यादौ समचतुरस्रसंस्थिताः सूर्य-चन्द्रमसौ भवन्ति, ततस्तेषां संस्थितिः समचतुरस्रसंस्थानेनोपवर्णिता, अन्यथा वा यथासम्प्रदायं समचतुरस्त्रसंस्थितिः परिभावनीयेति।। नो चेव णं इयरेहिं ति - नो चेव नैव इतरैः- शेषैर्नयैश्चन्द्र-सूर्यसंस्थितिर्जातव्या, तेषां मिथ्यारूपत्वात् तदेवमुक्ता चन्द्र-सूर्यसंस्थितिः।' Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र अंतो अंकमुहसंठिया, बाहिं सत्थियमुहसंठिया। तावक्खेत्तसंठिइए दुवे बाहाओ उभओ पासेणं तीसे दुवे बाहाओ अवट्ठियाओ भवंति, पणयालीसं पणयालीसं जोयणसहस्साई आयामेणं। तीसे दुवे बाहाओ अणवट्ठिआओ भवंति, तं जहा - १. - सव्वब्तरिया चेव बाहा। २. - सव्वबाहिरिया चेव बाहा। प. - तत्थ को हेउ त्ति ? वएजा। उ. - ता अयण्णं जबुद्दीवे दीवे - सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वब्भंतराए, सव्वखुड्डाए। वट्टे तेल्लापूय-संठाण-संठिए। वट्टे रहचक्कवाल-संठाण-संठिए। वट्टे पुक्खरकण्णिया-संठाण-संठिए। वट्टे पडिपुण्णचंद-संठाण-संठिए। एगं जोयणसयसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं। तिण्णि जोयणसयसहस्साई सोलससहस्साई दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए, तिण्णि य कोसे, अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरस अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते। तावक्खेत्तसंठिइए परिक्खेवो. ता जया णं सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, तया णं उद्धीमुहकलंबुआपुप्फसंठिया तावक्खेत्तसंठिईं आहिताति वएज्जा, अंतो संकुडा, बाहिं वित्थडा, अंतो वट्टा, बाहिं पि थुला, १. अंतर्मेरुदिशि अंक-पद्मासनोपविष्टस्योत्संगरूप आसनबन्धः तस्य मुखं अग्रभागोर्खवलयाकारस्तस्येव संस्थितं संस्थानं यस्य सा। २. तथा बहिलवणदिशि स्वस्तिकमुखसंस्थिता, स्वस्तिकः सुप्रतीतः तस्य मुखम्-अग्रभागः तस्येवातिविस्तीर्णतया संस्थितं-संस्थानं यस्या सा। ३. 'ये द्वे बाहे ते आयामेन-जम्बूद्वीपगतमायाममाश्रित्यावस्थिते भवतः।' सूरिय. वृत्ति. ४. 'द्वे च बाहे अनवस्थिते भवतः, तद्यथा सर्वाभ्यन्तरा, सर्वबाह्या च।' (क) तत्र या मेरुसमीपे विष्कम्भमधिकृत्य बाहा सा सर्वाभ्यन्तरा। (ख) या तु लवणदिशि जम्बूद्वीपपर्यन्ते विष्कम्भमधिकृत्य बाहा सा सर्वबाह्यबाहा। (ग) आयामश्च-दक्षिणायततया प्रतिपत्तव्यो, विष्कम्भः पूर्वापरायततया। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ प्राभृत ] [ ४७ अंतो अंकमुहसंठिया, बाहिं सत्थियमुहसंठिया, दुहओ पासेणं तीसे तहेव जाव सव्वबाहिरिया चेव बाहा। __ (क ) तीसे णं सव्वब्भंतरिया बाहा = मंदरपव्वयं तेणं णव जोयणसहस्साई चत्तारि य छलसीए जोयणसए णव य दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहिए त्ति वएजा। प. - ता से णं परिक्खेवविसेसे कओ ? आहिए त्ति वएजा ? उ. - ताजे णं मंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं, तिहिं गुणित्ता, दसहिं छित्ता दसहिं भागे हीरमाणे = एस णं परिक्खेव-विसेसे, आहिए त्ति वएजा। __ (ख) तीसे णं सव्वबाहिरिया बाहा = लवण समुदंतेणं, चउणउइं जोयणसहस्साइं, अट्ठ य अट्ठसठे जोयणसए, चत्तारि य दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं, आहिए त्ति वएज्जा। प. - ता से णं परिक्खेवविसेसे कओ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. - ता जे णं जंबूहीव-दीवस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं तिहिं गुणित्ता, दसहिं छेत्ता, दसहिं भागे हीरमाणे = एस णं परिक्खेव-विसेसे, आहिए त्ति वएजा। तावखेत्तस्स अंधकारखेत्तस्स य आयामाईणं परूवणं प. - ता तीसे णं तावक्खेत्ते केवइयं आयामेणं ? आहिए त्ति वएजा। उ. - ता अट्ठत्तरि जोयणसहस्साइं, तिण्णि य तेत्तीसे जोयणसए जोयणतिभागे च आयामेणं, आहिए त्ति वएज्जा। प. - तया णं किंसंठिया अंधकारसंठिई ? आहिय त्ति वएजा। उ. - उद्धीमुह-कलंबुआपुप्फसंठिया तहेव जाव बाहिरिया चेव बाहा। तीसे णं सव्वब्भंतरिया बाहा मंदरपव्वयंतेणं छज्जोयणसहस्साई तिण्णि य चउवीसे जोयणसए छच्च दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं, आहिय त्ति वएज्जा। प. - ता तीसे णं परिक्खेव विसेसे ? आहिय त्ति वएज्जा। उ. - ता जे णं मंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेवे णं तं परिक्खेवं दोहिं गुणेत्ता, दसहिं छित्ता दसहिं भागे हीरमाणे, एस णं परिक्खेव-विसेसे, आहिय त्ति वएज्जा। तीसे णं सव्वबाहिरिया बाहा लवणसमुदं तेणं तेवट्ठि जोयणसहस्साइं दोण्णि य पणयाले जोयसाए छच्च दस भागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहिय त्ति वएज्जा। १. मेरु की परिधि ३१,६,२३ योजन की है, इसे तीन से गुणा करने पर ९४,८,७९ योजन हुए, इनके दश का भाग देने पर ९,८,८६ ९/१० लब्ध होते हैं - यह सर्व आभ्यन्तर बाहा की परिधि है। २. जंबूद्वीप की परिधि ३,१६,२,२७ योजन तीन कोस २८ धनुष १३ अंगुल तथा आधे अंगुल से कुछ अधिक है। इसमें दश का भाग देने पर ९४,८,६८ योजन और एक योजन के दस भागों में से चार भाग जितनी सर्वबाह्य बाहा की परिधि विशेष है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] प. तासे णं परिक्खेवविसेसे कओ ? आहिय त्ति वएज्जा । उ. - ताजेणं जम्बुद्दीवस्स दीवस्स परिक्खेवे, तं परिक्खेवं दोहिं गुणेत्ता दसहिं छेत्ता दसहिं भागेहिं हीरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे, आहिय त्ति वएजा । प. तासे णं अंधकारे केवइयं आयामेणं ? आहिय त्ति वएज्जा । उ. — — - [ सूर्यप्रज्ञप्तिसू ता अट्ठत्तरं जोयणसहस्साइं तिण्णि य तेत्तीसे जोयणसए जोयणतिभागं च आयामेणं, आहियति वजा । तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसेणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति । जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । प. - ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं किंसंठिया तावखेत्तसंठिई ? आहिय त्ति वएज्जा । उ. - ता उद्धमुह-कलंबुयापुप्फसंठिया तावक्खेत्तसंठिई आहिय त्ति वएज्जा, एवं जं अब्भिंतरमंडले अंधकार संठिईए पमाणं तं बाहिरमंडले तावक्खेत्तसंठिईए, जं तहिं तावक्खेत्तसंठिईए तं बाहिरमंडले अंधकारसंठिईए भाणियव्वं, जाव तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसेणं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति, जहण्णिए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । सूरियाणं तावखेत्तपमाण-परूवणं प. - ताजंबुद्दीवे दीवे सूरिया केवइयं खेत्तं उड्नुं तवंति, केवइयं खेत्तं अहे तवंति, के वइयं खेत्तं तिरियं तवंति ? उ. - ता जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया एगं जोयणसयं उड्नुं तवंति । अट्ठारस जोयणसयाइं अहे पतवन्ति । सीयालीसं जोयणसहस्साइं दुन्नि य तेवट्ठे जोयणसए एक्कवीसं च सद्विभागे जोयणस्स तिरियं तवंति । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम प्राभृत सूरियस्स लेस्सा पडिघायगा पव्वया २६. . ता कस्सिं णं सूरियस्स लेस्सा पडिहया ? आहिय त्ति वएजा। तत्थ खलु इमाओ वीसं पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - तत्थेगे एवमाहंसु - १. ता मंदरंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, आहिय त्ति वएजा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - • २. ता मेरुंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, आहिय त्ति वएजा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ३. तामणोरमंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, आहियत्ति वएजा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ४. ता सुदंसणंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, आहियत्ति वएजा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ५. ता सयंपभंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, आहिय त्ति वएजा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ६. ता गिरिरायंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, आहियत्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ७. ता रयणुच्चयंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, आहिय त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ८. ता सिलुच्चयंसि णं पव्वयंसि सूरियस लेस्सा पडिहया, आहियत्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ९. तालोयमझंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, आहियत्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र १०. ता लोगनाभिंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, आहियत्ति वएजा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ११. ता अच्छंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, आहिय त्ति वएजा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - १२. ता सूरियावत्तंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, आहिय त्ति वएजा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - १३. ता सूरियावरणंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, आहिय त्ति वएजा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - १४. ता उत्तमंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, आहिय त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - १५. ता दिसादिसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, आहियत्ति वएजा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - १६. ता अवयंसंसिणं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, आहिय त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - १७. ता धरणिखीलंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, आहिय त्ति वएजा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - १८. ता धरणिसिंगसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, आहिय त्ति वएजा, एगे एवमासु, एगे पुण एवमाहंसु - १९. ता पव्वइंदंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, आहिय त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - २०. ता पव्वयरायसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, आहियत्ति वएजा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - वयं पुण एवं वयामो, Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम प्राभृत ] . [ ५१ जंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, से ता मंदरे वि पवुच्चइ जाव पव्वयराया वि पवुच्चइ, [क] ता जे णं पुग्गला सूरियस्स लेस्सं फुसंति ते णं पुग्गला सूरियस्स लेस्सं पडिहणंति, [ख] अदिट्ठा वि णं पुग्गला सूरियस्स लेस्सं पडिहणंति। चरिमलेस्संवरगया वि पुग्गला सूरियस्स लेस्सं पडिहणंति। १. मंदरस्स णं पव्वयस्स सोलस नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा गाहाओ - १. मंदर २. मेरु ३. मणोरम ४. सुदंसण ५. सयंपभे य ६. गिरिराया। ७. रयणुच्चय ८. पियदंसण ९ - १९. मज्झे लोगस्स, नाभी य ॥१॥ ११. अच्छे य १२. सूरियावत्ते १३. सूरियावरणे त्ति य। १४. उत्तमे य १५. दिसादी य १६. वडेंसेइ य सोलसे ॥२॥ क- सम. स. १६, सु.३ ख - जंबू. वक्ख. ४, सु. १०९ इन दोनों गाथाओं में 'मंदर पर्वत' के सोलह नाम गिनाये हैं, यहां इनके अतिरिक्त चार औपमिक नाम और भी हैं। मंदर पर्वत के इन बीस पर्यायवाची नामों को अन्यान्य मान्यतावाले भिन्न भिन्न पर्वत मानते हैं। किन्तु सूर्यप्रज्ञप्ति के संकलनकर्ता ने समवायांग और जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति के अनुसार मन्दर पर्वत के ये बीस पर्यायवाची नाम मानकर सभी अन्य मान्यताओं का 'समन्वय' किया है। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा प्राभृत सूरियस्स ओयसंठिई प. - ता कहं ते ओयसंठिई ? आहिय त्ति वएजा। उ. - तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवत्तीओ पण्णत्तओ, तं जहा - तत्थेगे एवमाहंसु - १. ता अणुसमयमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पजइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - २. ता अणुमुहुत्तमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - ३. ता अणुराइदियमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पजइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - ४. ता अणुपक्खमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पजइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - ५. ता अणुमासमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पजइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु६. ता अणुउउमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पजइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - ७. ता अणुअयणमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - ८. ता अणुसंवच्छरमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पजइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - ९. ता अणुजुगमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पजइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा प्राभृत ] [ ५३ एगे पुण एवमाहंसु - १०. ता अणुवाससयमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - ११. ता अणुवाससहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पजइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - १२. ता अणुवास-सय-सहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पजइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - १३. ता अणुपुव्वमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पजइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - १४. ता अणुपुव्व-सयमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पजइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - १५. ता अणुपुव्वसहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - १६. ता अणुपुव्वसयसहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पजइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - १७. ता अणुपलिओवममेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पजइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - १८. ता अणुपलिओवमसयमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पजइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - . १९. ता अणुपलिओवमसहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पजइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - २०. ता अणुपलिओवमसयसहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवेइ, एगे . एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - २१. ता अणुसागरोवम-सयमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पजइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र २२. ता अणुसागरोवम-सयमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - २३. ता अणुसागरोवम-सहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पजइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - २४. ता अणुसागरोवम-सयसहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पजइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - २५. ता अणुउस्सप्पिणि-ओसप्पिणिमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पजइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। वयं पुण एवं वयामो - (क) ता तीसं तीसं मुहुत्ते सूरियस्स ओया अवट्ठिया भवइ तेण परं सूरियस्स ओया अणवट्ठिया भवइ। (ख) छम्मासे सूरिए ओयं णिव्वुड्ढेइ। ___ छम्मासे सूरिए ओयं अभिवुड्ढेइ। (ग) निक्खममाणे सूरिए देसं णिव्वुड्ढेइ। पविसमाणे सूरिए देसं अभिवुड्ढेइ। प. - तत्थ को हेऊ ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. - ता अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वब्भंतराए सव्व खुड्डागे वट्टे जाव जोयणसयसहस्समायाम-विक्खंभेणं तिण्णि जोयणसयसहस्साइं, दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए, तिण्णि कोसे, अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवे णं पण्णत्ते। १. ता जया णं सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। २. से निक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अभिंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। १. इन प्रतिपत्तियों से ऐसा प्रतीत होता है कि जैनागमों के अतिरिक्त अन्य दार्शनिक पुराणादि ग्रन्थों में भी औपमिककालवाचक 'पल्योपम-सागरोपम, उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी' आदि शब्दों का प्रयोग था। वर्तमान में भी यदि पुराणादि ग्रन्थों इन औपमिककाल वाचक शब्दों का कहीं प्रयोग हो तो अन्वेषणशील विद्वान् प्रयत्न करके प्रकाशित करें। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा प्राभृत ] [ ५५ ताजा सूरिए अब्धिंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरड़, तया णं एगेणं राईदिएणं एगं भागं ओयाए दिवसखित्तस्स निव्वुड्ढित्ता रयणि खित्तस्स अभिवुड्डित्ता चारं चरड़, मंडलं अट्ठारसेहिं तीसेहिं एहिं छेत्ता । तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहिं एगट्टिभागमहुत्तेहिं ऊणे । दुवालसमुहुत्ता राई भवइ - दोहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं अहिया । ३. से निक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि अब्धिंतराणंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ | ताजा सूरिए अब्धिंतराणंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरड़, तया णं दोहिं राइदिएहिं दो भागे ओयाए दिवस - खेत्तस्स निव्वुड्ढित्ता, रयणि खेत्तस्स अभिवुड्डित्ता चारं चरड़, मंडलं अट्ठारसेहिं तीसेहिं सएहिं छेत्ता । तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चउहिं एगट्टिभागमहुत्तेहिं ऊणे । 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ - चउहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं अहिया । ४. एवं खलु एएणं उवाएणं निक्खममाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे एगमेगे मंडले, एगमेगेणं राईदिएणं एगमेगं एगमेगं भागं ओयाए दिवस - खेत्तस्स निव्वुड्ढेमाणे निव्वुड्ढेमाणे रयणि खेत्तस्स अभिवुड्ढेमाणे अभिवुड् ढेमाणे सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ५. ता जया णं सूरिए सव्वब्धंतराओ मंडलाओ सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सव्वब्धंतरं मंडलं पणिहाय एगेणं तेसिएणं राइंदियसएणं एगं तेसीयभागसयं ओयाए दिवस खेत्तस्स निव्वुड्ढेत्ता रयणि खेत्तस्स अभिवुड्ढेत्ता चारं चरड़, मंडलं अट्ठारसेहिं तीसेहिं सएहिं छेत्ता । तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । एस णं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छम्मासस्स, पज्जवसाणे । १. से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणेपढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ताजा णं सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरड़, तया णं एगेणं राईदिएणं एगं भागं ओयाए रयणिखेत्तस्स निव्वुड्ढेत्ता, दिवस- खेत्तस्स अभिवुड्ढेत्ता चारं चरड़, मंडलं अट्ठारसेहिं सेहिं सएहिं छेत्ता । तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, दोहिं एगट्टिभागमहुत्तेहिं ऊणा । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए। २. से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। ता जया णं सूरिए बाहिराणंतरं तच्चं मंडलं तवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं दोहिं राइंदिएहिं दो भाए ओयाए रयणिखेत्तस्स निव्वुड्ढेत्ता, दिवस-खेत्तस्स अभिवुड्ढेत्ता चारं चरइ, मंडलं अट्ठारसेहिं तीसेहिं सएहिं छेत्ता। तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, चउहिं एगट्ठिभागमहुत्तेहिं ऊणा। दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए। ३. एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे एगमेगे मंडले, एगमेगेणं राइदिएणं एगमेगं भागं ओयाए रयणि-खेत्तस्स निव्वुड्ढेमाणे निव्वडढेमाणे दिवस-खेत्तस्स अभिवडढेमाणे अभिवड्ढेमाणे सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। ४. ता जया णं सूरिए सव्वबाहिराओ मंडलाओ सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सव्वबाहिरं मंडलं पणिहाय एगेणं तेसीएणं राइंदियसएणं एगं तेसीयं भागसयं ओयाए रयणिखेत्तस्स निव्वुड्ढेत्ता दिवस-खेत्तस्स अभिवुड्ढेत्ता चारं चरइ, मंडलं अट्ठारसेंहि तीसेहिं सएहिं छेत्ता। तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। एस णं दोच्चे छम्मासे, एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे। एस णं आइच्चे संवच्छरे, एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पजवसाणे। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम प्राभृत सूरियेण पगासिया पव्वया प. - ता किं ते सूरियं वरइ ? आहिएत्ति वएज्जा। उ. - तत्थ खलु इमाओ वीसं पडिवत्तीओ पण्णत्तओ तं जहा - तत्थेगे एवमाहंसु - १. ता मंदरे णं पव्वए सूरियं वरइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - २. ता मेरू णं पव्वए सूरियं वरइ एगे एवमाहंसु। ३-१९. एवं एएणं अभिलावेणं णेयव्वं तहेव जाव। एगे पुण एवमाहंसु - २०. ता पव्वयराये णं पव्वए सूरियं वरइ, एगे एवमाहंसु। वयं पुण एवं बदामो - ता मंदरे णं पव्वए सूरियं वरइ, एवं पि पवुच्चइ तहेव जाव (१-२० सूरिय. पा. ५, सु. २६ को देखें)। ता पव्वयराये णं पव्वए सूरियं वरइ, एवं पि पवुच्चइ। (क) ता जे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति, ते णं पुग्गला सूरियं वरयंति। (ख) अदिट्ठा वि णं पोग्गला सूरियं वरयंति। (ग) चरिमलेस्संतरगया विणं पोग्गला सूरियं वरयंति। १. 'सूरियस्स लेस्सा पडिधायगा पव्वया' इस शीर्षक के अन्तर्गत सूर्य. प्रा. ५, सु. २६ में बीस प्रतिपत्तियों के अनुसार सूर्य की लेश्या । को प्रतिहत करने वाले बीस पर्वतों के नाम गिनाये हैं। यहां भी उसी के अनुसार मूल-पाठ के सभी आलापक कहने चाहिये। २. ऊपर के टिप्पण में सूचित शीर्षक के अन्तर्गत सूर्य. पा.५,सु. २६ के अनुसार सूर्यप्रज्ञप्ति के संकलनकर्ता ने यहां भी मंदर पर्वत के बीस नामों को पर्यायवाची मानकर समन्वय कर लिया है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम प्राभृत । सूरस्स उदय-संठिई प. - ता कह ते उदयसंठिई आहिया ? ति वएजा। उ. - तत्थ खलु इमाओ तिण्णि पडिवत्तीओ पण्ण्त्ताओ, तं जहा - १. तत्थेगे एवमाहंसु - (क) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ। जया णं उत्तरड्ढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढेऽवि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ। (ख) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ। जया णं उत्तरड्ढे सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढेऽवि सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ। (ग) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे सोलसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि सोलसमुहुत्ते दिवसे भवइ। जया णं उत्तरड्ढे सोलसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढेऽवि सोलसमुहुत्ते दिवसे भवइ। (घ) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ। जया णं उत्तरड्ढे पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढेऽवि पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ। (ङ) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे चउद्दसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि चउद्दसमुहुत्ते दिवसे भवइ। जया णं उत्तरड्ढे चउद्दसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढेऽवि चउद्दसमुहुत्ते दिवसे भवइ। (च) ता जया णं जंबुहीवे दीवे दाहिणड्ढे तेरससमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि तेरससमुहुत्ते दिवसे भवइ। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम प्राभृत ] [ ५९ जया णं उत्तरड्ढे तेरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढेऽवि तेरसमुहुत्ते दिवसे भवइ। (छ) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि बारसमुहुत्ते दिवसे भवइ। जया णं उत्तरड्ढे बारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढे ऽवि बारसमुहुत्ते दिवसे भवइ। (ज ) तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिम-पच्चत्थिमे णं सया पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, सया पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ, अवट्ठिया णं तत्थ राइंदिया पण्णत्ता, समणाउओ! एगे एवमाहंसु। २. एगे पुण एवमाहंसु - (क) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ। जया णं उत्तरड्ढे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढेऽवि अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ। ___ (ख) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे सत्तरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि सत्तरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ। जया णं उत्तरड्ढे सत्तरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढेऽवि सत्तरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ। (ग) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे सोलसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि सोलसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ। जया णं उत्तरड्ढे सोलसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढेऽवि सोलसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ। (घ) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे पण्णरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तयाणं उत्तरड्ढेऽवि पण्णरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ ! जया णं उत्तरड्ढे पण्णरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढेऽवि पण्णरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ। (ङ) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे चोद्दसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि चोद्दसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ। जया णं उत्तरड्ढे चोद्दसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढेऽवि चोद्दसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र ( च ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे तेरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे ऽवि तेरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ । जया णं उत्तरड्ढे तेरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढे ऽवि तेरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ । (छ) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, , तया णं उत्तरड्ढेऽवि बारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ । जया णं उत्तरड्ढे बारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढेऽवि बारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ । (ज) तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिम-पच्चत्थिमे णं णो सया पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णो सया पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ, अणवट्ठिया णं तत्थ राइंदिया पण्णत्ता, , समणाउसो ! एगे एवमाहंसु । ३. एगे पुण एवमाहंसु - (क) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । जया णं उत्तरड्ढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढे बारस मुहुत्ता राई भवइ । (ख) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ । जया णं उत्तरड्ढे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ । (क) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । जया णं उत्तरड्ढे सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ । (ख) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे सत्तरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ । जया णं उत्तरड्ढे सत्तरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ । (क) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे सोलसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम प्राभृत ] [ ६१ जया णं उत्तरड्ढे सोलसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ। (ख) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे सोलसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। जया णं उत्तरड्ढे सोलसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ। (क ) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। जया णं उत्तरड्ढे पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ। (ख ) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे पण्णरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। जया णं उत्तरड्ढे पण्णरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ। (क ) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे चोद्दसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। जया णं उत्तरड्ढे चोद्दसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ। (ख ) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे चोद्दसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। जया णं उत्तरड्ढे चोहसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ। (क ) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे तेरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। जया णं उत्तरड्ढे तेरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ। (ख ) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे तेरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। जया णं उत्तरड्ढे तेरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ। (क ) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। जया णं उत्तरड्ढे बारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ। (ख ) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र जया णं उत्तरड्ढे बारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ। तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमपच्चत्थिमे णं णेवत्थि पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, णेवत्थि पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ। वोच्छिण्णा णं तत्थ राइंदिया पण्णत्ता, समणाउओ! एगे एवमाहसु। वयं पुण एवं वयामो ता जंबुद्दीवे दीवे सूरिया। उदीण-पाईणमुग्गच्छंति, पाईण-दाहिणमागच्छंति। पाईण-दाहिणमुग्गच्छंति, दाहिण-पडीणमागच्छंति। दाहिण-पडीणमुग्गच्छंति, पडीण-उदीणमागच्छंति। पडीण-उदीणमुग्गच्छंति, उदीण-पाईणमागच्छंति।' (क) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणड्ढे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि दिवसे भवइ। जया णं उत्तरड्ढे दिवसे भवइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिम-पच्चित्थमे णं राई भवइ। (ख) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमे णं दिवसे भवइ, तया णं पच्चत्थिमेऽवि दिवसे भवइ। ___ जया णं पच्चत्थिमे णं दिवसे भवइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणे णं राई भवइ। (क) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणड्ढे उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई, तया णं उत्तरड्ढे उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ। __ जया णं उत्तरड्ढे उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स १. प. जम्बूद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिआ ? उदीणपाईणमुग्गच्छ पाईणदाहिणमागच्छंति ? पाईणदाहिणमुग्गच्छ दाहिणपडीणमागच्छं ति ? दाहिणपडीणमुग्गच्छ पडीणउदीणमागच्छंति ? पडीणउदीणमुग्गच्छ उदीणपाईणमागच्छंति ? उ. हंता गोयमा ! जहा पंचमसए पढमे उद्देसे जाव णेवत्थि उस्सप्पिणी अवटुिंए णं तत्थ काले पं. समणाउसो! - भग. स. ५, उ.१ सु.५ (क) जंबु. वक्ख. ७, सु. १५० Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम प्राभृत ] [ ६३ पुरत्थिम-पच्चत्थिमे णं जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। (ख) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमे णं उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं पच्चत्थिमेऽवि उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ। जया णं पच्चत्थिमे णं उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणे णं जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। एवं एएण गमेणं णेयव्वं अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे - साइरेग-दुवालस-मुहुत्ता राई। सत्तरस-मुहुत्ते-दिवसे - तेरस-मुहुत्ता-राई। सत्तरस-मुहुत्ताणंतरे दिवसे - साइरेग-तेरस-मुहुत्ता राई। सोलस-मुहुत्ते दिवसे - चोद्दस-मुहुत्ता राई। सोलस-मुहुत्ताणंतरे दिवसे - साइरेग-चोइस-मुहुत्ता राई। पण्णरस-मुहुत्ते दिवसे - पण्णरस-मुहुत्ता राई। पण्णरस-मुहुत्ताणंतरे दिवसे - साइरेग-पण्णरस-मुहुत्ता राई। चोद्दस-मुहुत्ते दिवसे - सोलस-मुहुत्ता राई। चोइस-मुहुत्ताणंतरे दिवसे - साइरेग-सोलस-मुहुत्ता राई। तेरस-मुहुत्ते दिवसे - सत्तरस-मुहुत्ता राई। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र तेरस-मुहुत्ताणंतरे दिवसे - साइरेग-सत्तरस-मुहुत्ता राई। जहण्णए दुवालस-मुहुत्ते दिवसे भवइ - उक्कोसिया अट्ठारस-मुहुत्ता राई भवइ एवं भाणियव्वं ।' वासाउउ (क ) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वस्स दाहिणड्ढे वासाणं पढमे समए पडिवजइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि वासाणं पढमे समए पडिवजइ। जया णं उत्तरड्ढे वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वस्स पुरस्थिम-पच्चत्थिमे णं अणंतर-पुरक्खड-काल-समयंसि वासाणं पढमे समए पडिवजइ। (ख) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वस्स पुरत्थिमे णं वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं पच्चत्थिमे ऽवि वासाणं पढमे समए पडिवजइ। जया णं पच्चत्थिमे णं वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वस्स उत्तर-दाहिणे णं अणंतरपच्छाकय-काल-समयंसि वासाणं पढमे समए पडिवन्ने भवइ। . जहा समओ तहा १. आवलिया, २. आणापाणू, ३. थेवे, ४. लवे, ५. मुहुत्ते, ६. अहोरत्ते, ७. पक्खे, ८. मासे, एए अट्ठ आलावगा, जहा वासाणं तहा भाणियव्वा। हेमत उ उ (क ) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वस्स दाहिणड्ढे हेमंताणं पढमे समए पडिवजइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि हेमंताणं पढमे समए पडिवजइ। जया णं उत्तरड्ढे हेमंताणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिम-पच्चत्थिमे णं अणंतर-पुरक्खड-काल-समयंसि हेमंताणं पढमे समए पडिवजइ।। (ख) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमे णं हेमंताणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं पच्चत्थिमे ऽवि हेमंताणं पढमे समए पडिवजइ। जया णं पच्चत्थिमे णं हेमंताणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वस्स १. ऊपर सूत्र में 'पढमे समए' आठ स्थानों पर है उन स्थानों में नीचे लिखे आलापक कहें, और प्रत्येक आलापक के दो दो सूत्र ऊपर के समान कहें - १. पढमा आवलिया, २. पढमो आणापाणू, ३. पढ मे थोवे, ४. पढ मे लवे, ५. पढमे मुहुत्ते, ६. पढमे अहोरत्ते, ७. पढमे पक्खे, ८. पढमे मासे। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम प्राभृत ] ६५ उत्तर र-दाहिणे णं अणंतर- पच्छाकड-काल- समयंसि हेमंताणं पढमे समए' पडिवज्जइ । जहा समओ तहा १. आवलिया, २. आणापाणू, ३. थोवे, ४. लवे, ५. मुहुत्ते, ६. अहोरत्ते, ७. पक्खे, ८. मासे, एए अट्ठ आलावगा, जहा हेमंताणं तहा भाणियव्वा । गिम्ह उउ (क) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणड्ढे गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ । जया णं उत्तरड्ढे गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिम-पच्चत्थिमे णं अनंतर पुरक्खड - काल - समयंसि गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ । (ख) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं पच्चत्थिमेऽवि गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ । जया णं पच्चत्थिमे णं गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दांहिणे णं अणंतरपच्छाकय-काल- समयंसि गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ । जहा समओ तहा १. आवलिया, २. आणापाणू, ३. थोवे, ४. लवे, ५. मुहुत्ते, ६. अहोरत्ते, ७. पक्खे, ८. मासे, एए अट्ठ आलावगा, जहा गिम्हाणं तहा भाणियव्वा । अयणाइ (क) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणड्ढे पढमे अयणे पडिवज्जइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि पढमे अयणे पडिवज्जइ । जया णं उत्तरड्ढे पढमे अयणे पडिवज्जइ, तया णं दाहिणड्ढेऽवि पढमे अयणे पडिवज्जइ । जया णं उत्तरड्ढे पढमे अयणे पडिवज्जइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमपच्चत्थिमे णं अनंतर पुरक्खड - काल-समयंसि पढमे अयणे पडिवज्जइ । (ख) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं पढमे अयणे पडिवज्जइ, तया णं पच्चत्थिमेऽवि पढमे अयणे पडिवज्जइ । जया णं पच्चत्थिमे णं पढमे अयणे पडिवज्जइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणे णं अणंतर- पच्छाकड-काल- समयंसि पढमे अयणे पडिवज्जइ । १,२.ऊपर सूत्र में 'पढमे समए' आठ स्थानों पर है उन स्थानों में नीचे लिखे आलापक कहें, और प्रत्येक आलापक के दो दो सूत्र ऊपर के समान कहें - १. पढमा आवलिया, २. पढमो आणापाणू, ३. पढम्रे थोवे, ४. पढमे लवे, ५. पढमे मुहुत्ते, ६. पढमे अहोरत्ते, ७. पढमे पक्खे, ८. पढमे मासे । ३. जहाँ जहाँ पढमे अयणे है, वहाँ वहाँ दीच्चे अयणे कहें । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र जहा पढमस्स अयणस्स आलावगो तहा दोच्चस्स अयणस्स भाणियव्यो। जहा अयणे तहा संवच्छरे, जुगे, वाससए, वाससहस्से, वास-सयसहस्से, पुव्वगे, पुव्वे, जाव सीसपहेलिया पलिओवमे सागरोवमे य। उस्सप्पिणी ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणड्ढे उस्सप्पिणी पडिवजइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि उस्सप्पिणी पडिवजइ। जया णं उत्तरड्ढे उस्सप्पिणी पडिवज्जइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमपच्चत्थिमे णं णेवत्थि उस्सप्पिणी णेवत्थि ओसप्पिणी अवट्ठिए णं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो। एवं ओसप्पिणी। लवणसमुद्दो ___ता जया णं लवणेसमुद्दे दाहिणड्ढे दिवसे भवइ, तया णं लवणेसमुद्दे उत्तरड्ढेऽवि दिवसे भवइ । जया णं लवणेसमुद्दे उत्तरड्ढे दिवसे भवइ। तया णं लवणेसमुद्दे पुरथिम-पच्चत्थिमे णं राई भवइ। सेसं जहा जंबुद्दीवे दीवे तहेव जाव ओसप्पिणी। धायइखंडो ता धायइखंडे णं दीवे सूरिया - १. (क) ऊपर जहाँ जहाँ 'उस्सप्पिणी' है वहाँ वहाँ 'ओसप्पिणी' कहें। २. 'जच्चेव जंबूद्दीवस्स वत्तव्वता भणिता, सच्चेव सव्वा अपरिसेसिता लवणसमुदस्स वि भाणितष्या।' नवरं - इमेणं अभिलावेणं सव्ये आलावगा भाणितव्वा। प. (क) लवणे णं भंते ! समुद्दे सूरिया - उदीण-पादीणमुग्गच्छ पादीण-दाहिणमागच्छंति ? (ख) पादीण-दाहिणमुग्गच्छ दाहिण-पादीणमागच्छंति ? (ग) दाहिण-पादीणमुग्गच्छ पादीण-उदीणमागच्छंति ? (घ) पादीण-उदीणमुग्गच्छ-उदीण-पादीणमागच्छंति ? उ. (क-घ) हंता गोयमा! लवणे णं समुद्दे सूरिया - उदीण-पादीणमुग्गच्छ पादीण-दाहिणमागच्छंति, जाव पादीण-उदीणमुग्गच्छ उदीण-पादीणमागच्छंति। एतेणं अभिलावेणं णेतव्यं - जाव प. (क) जदा णं भंते ! लवणसमुद्दे दाहिणड्ढे पढमा उस्सप्पिणी पडिवजति तदा णं उत्तरड्ढे वि पढमा उस्सप्पिणी पडिवज्जति ? (ख) जदा णं उत्तरड्ढे पढमा उस्सप्पिणी पडिवज्जति, तदा णं लवणसमुद्दे पुरथिमपच्चत्थिमे णं नेवत्थि ओसप्पिणी, नेवत्थि उस्सप्पिणी ? अवट्ठिते णं काले पण्णत्ते ? उ. हंता गोयमा! तं चेव उच्चारेयव्वं जाव समणाउसो! - भग. स. ५, उ. १, सु. २२ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम प्राभृत ] उदीण-पाईणमुग्गच्छंति, पाईण-दाहिणमागच्छंति, जाव पडीण-उदीणमुग्गच्छंति, उदीण-पाईणमागच्छंति, ता जया णं धायइसंडे दीवे मंदारणं पव्वयाणं दाहिणड्ढे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि दिवसे भवइ, जया णं उत्तरड्ढे दिवसे भवइ, तया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं पुरथिम-पच्चत्थिमें णं राई भवति, सेसं जहा जंबुद्दीवे दीवे तहेव जाव ओसप्पिणी, कालोए णं समुद्दे जहा लवणे समुद्दे। अब्भंतरपुक्खरद्धो ता अब्भंतर-पुक्खरद्धे णं दीवे सूरिया - उदीण-पाईणमुग्गच्छंति, पाईण-दाहिणमागच्छंति, जाव पडीण-उदीणमुग्गच्छंति, उदीण-पाईमागच्छंति, ता जया णं अब्भंतर-पुक्खरद्धे मंदराणं पव्वयाणं दाहिणड्ढे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि दिवसे भवइ, जया णं उत्तरेड्ढे दिवसे भवइ, तया णं अब्भिंतरपुक्खरद्धे मंदराणं पव्वयाणं पुरथिमपच्चत्थिमे णं राई भवइ, सेसं जहा जंबुद्दीवे दीवे तहेव जाव ओसप्पिणी। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम प्राभृत पोरिसिच्छाय-निव्वत्तणं ३०. प. ता कइकट्ठ ते सूरिए पोरिसिच्छायं णिव्वेत्ति ? आहिए त्ति वएज्जा, उ. तत्थ खलु इमाओ तिण्णि पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - तत्थेगे एवमाहंसु - १. ताजे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति, ते णं पोग्गला संतप्पंति, ते णं पोग्गला संतप्पमाणा तदणंतराइं बाहिराई पोग्गलाई संतावेंतीति, एस णं से समिए तावक्खेत्ते एगे एवमाहंसु, एो पुण एवमाहंसु - २. ता जे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति, ते णं पोग्गला नो संतप्पंति, ते णं पोग्गला . असंतप्पमाणा तदणंतराई बाहिराई पोग्गलाई संतावेंतीति, - एस णं से समिए तावक्खेत्ते एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ३. ता जे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति, ते णं पोग्गला अत्थेगइया संतप्पंति, अत्थेगइया नो संतप्पंति, तत्थ अत्थेगइया संतप्पमाणा तदणंतराई बाहिराई पोग्गलाई अत्थेगयाइं संतावेंति, अत्थेगयाइं नो संतावेतीति, एस णं से समिए तावक्खेत्ते एगे एवमाहंसु, वयं पुण एवं वयामो - ताजाओ इमाओ चंदिम-सूरियाणं देवाणं विमाणेहिंतो लेसाओ बहित्ता उच्छूढा अभिणिसट्ठाओ पतावेंति, एयासि णं लेसाणं अंतरेसु अण्णयरीओ छिण्णलेसाओ संमुच्छंति, तए णं ताओ छिण्णलेस्साओ संमुच्छियाओ समाणीओ तदणंतराइं बाहिराई पोग्गलाई संतावेंतीति, एस णं से समिए तावक्खेत्ते। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम प्राभृत ] पोरिसिच्छाय-निवत्तणं ३१. ता कइकट्ठे ते सूरिए पोरिसिच्छायं णिव्वत्तेति ? आहिए त्ति वजा । प. उ. तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ तंजहा तत्थेगे एवमाहंसु १. ता अणु समयमेव सूरिए पोरिसिच्छायं णिव्वत्तेइ, आहिए त्ति वएजा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - २. ता अणुमुहुत्तमेव सूरिए पोरिसिच्छायं णिव्वत्तेइ, आहिए त्ति वएजा, जाओ चेव ओयसंठिईए पडिवत्तीओ एएणं अभिलावेणं णेयव्वाओ, जाव' [ ३-२४] एगे पुण एवमाहंसु - २५. ता अणुउस्सप्पिणि-ओसप्पिणिमेव सूरिए पोरिसिच्छायं णिव्वत्तेड़ आहिए त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, - वयं पुण एवं वयामो ता सूरियस - - [ ६९ १. उच्चत्तं च लेसं च पडुच्च छायुद्देसे, २. उच्चतं च छायं च पडुच्च लेसुद्देसे, ३. लेस्सं च छायं च पडुच्च उच्चत्तोद्दे २ प. उ. तत्थ खलु इमाओ दुवे पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तंजहा - तत्थेगे एवमाहंसु - (क) १. ता अत्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि सूरिए चउपोरिसिचछायं निव्वत्तेइ, (ख) अत्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि सूरिए दु-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - (क) २. ता अत्थि णं दिवसे जंसि णं दिवसंसि सूरिए दु-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, १. सूरिए. पा. ६. सु. २७ २. सूर्यप्रज्ञप्ति की संकलन शैली के अनुसार यहाँ प्रश्नसूत्र होना चाहिये था, किन्तु यहाँ प्रश्नसूत्र आ. स. आदि किसी प्रति में नहीं है, अत: यहाँ का प्रश्नसूत्र विछिन्न हो गया है, ऐसा मान लेना ही उचित है। सूर्य प्रज्ञप्ति के टीकाकार भी यहाँ प्रश्नसूत्र के होने न होने के संबंध सर्वथा मौन हैं, अतः यहाँ प्रश्नसूत्र का स्थान रिक्त रखा है। यदि कहीं किसी प्रति में प्रश्नसूत्र हो तो स्वाध्यायशील आगमज्ञ सूचित करने की कृपा करें, जिससे अगले संस्करण में परिवर्धन किया जा सके। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र (ख) अस्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि सूरिए नो किंचि पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, तत्थ जे ते एवमाहंसु - (क ) १. मा अस्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि सूरिए चउ-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, (ख) अस्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि सूरिए दु-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, ते एवमाहंसु, (क) ता जया णं सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसिए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालस-मुहुत्ता राई भवइ। तंसि च णं दिवसंसि सूरिए चउ-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, तं जहा – उग्गमण-मुहुत्तंसि य, अत्थमण-मुहुत्तंसि य, लेसं अभिवड्ढेमाणे नो चेव णं निव्वुड्ढेमाणे। __ (ख) ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णिए दुवालस-मुहुत्ते दिवसे भवइ। तंसि च णं दिवसंसि सूरिए दु-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ,तं जहा – उग्गमण-मुहुत्तंसि य, अस्थमणमुहुत्तंसि य, लेसं अभिवड्ढेमाणे नो चेव णं निव्वुड्ढेमाणे। तत्थ णं जे ते एवमाहंसु - २. ता अस्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि सूरिए दु-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, अत्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि सूरिए नो किंचि पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, ते एवमाहंसु, [क] ता जया णं सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसिए अट्ठारस-मुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालस-मुहुत्ता राई भवइ, तंसि च णं दिवसंसि सूरिए दु-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, तं जहा - उग्गमण-मुहुत्तंसि य, अत्थमणमुहुत्तंसि य, लेसं अभिवड्ढेमाणे, नो चेव णं निव्वुड्ढेमाणे, [ख] ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारस-मुहुत्ता राई भवइ, जहण्णिए दुवालस-मुहुत्ते दिवसे भवइ, तंसि च णं दिवसंसि सूरिए नो किंचि पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, तं जहा - उग्गमण-मुहुत्तंसि य, अस्थमण-मुहुत्तंसि य, Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम प्राभृत ] [ ७१ नो चेव णं लेसं अभिवड्ढेमाणे वा, निव्वुड्ढेमाणे वा।' प. ता कइकट्ठे ते सूरिए पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ ? आहिए त्ति वएजा। उ. तत्थ इमाओ छण्णउइ पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - तत्थेगे एवमाहंसु - १. ता अस्थि णं से देसे जंसि णं देसंसि सूरिए एगपोरिसियं छायं निव्वत्तेइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - २. ता अस्थि णं से देसे जंसि णं देसंसि सूरिए दु-पोरिसियं छायं निव्वत्तेइ, एगे एवमाहंसु, एवं एएणं अभिलावेणं णेयव्वं, जाव (३-९५) एगे पुण एवमाहंसु - ९६ - ता अस्थि णं से देसे जंसि णं देसंसि सूरिए छण्णउइ पोरिसियं छायं निव्वत्तेइ, एगे एवमाहंसु, तत्थ जे ते एवमाहंसु - १. ता अत्थि णं से देसे जंसि णं देसंसि सूरिए एग-पोरिसियं छायं निव्वत्तेइ 'त्ति' ते एवमाहंसु, ता सूरियस्स णं सव्वहेट्ठिमाओ सूर-प्पडिहीओ बहित्ता अभिणिसट्टाहिं लेसाहिं ताडिजमाणीहिं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ जावइयं सूरिए उड्ढं उच्चत्तेणं, एवइयाए एगाए अद्धाए, एगेणं छायाणुमाणप्पमाणेणं उमाए, तत्थ से सूरिए एगपोरिसीयं छायं निव्वत्तेइ त्ति, तत्थ जे वे एवमाहंसु - २. ता अत्थि णं से देसे जंसि णं देसंसि सूरिए दु-चोरिसिपं छायं निव्वत्तेइ 'त्ति' ते एवमाहंसु, ता सूरियस्स णं सव्वहेट्ठिमाओ सूर-प्पडिहीओ बहित्ता अभिणिसट्टाहिं लेसाहिं ताडिजमाणीहिं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ जावइयं सूरिए उड्ढे उच्चत्तेणं, एवइयाई दोहिं अद्धाहिं, दोहिं छायाणुमाणप्पमाणोहिं उमाए, एत्थ णं से सूरिए दुपोरिसीयं छायं निव्वत्तेइ त्ति, ___ ३.९५ - एवं एएणं अभिलावेणं णेयव्व, जाव .... १. इसके अनन्तर यहाँ स्वमत सूचक 'वयं पुण एवं वयामो' यह वाक्य नहीं है और न स्वमत का कथन ही है। तदेवं परतीर्थिक-प्रतिपत्तिद्वयं श्रुत्वा भगवान् गौतमः, स्वमतं पृच्छति, ता कट्ठइ कमित्यादि - सूर्य. टीका टीकाकार का यह कथन सूर्यप्रज्ञप्ति की संकलनशैली के अनुरूप नहीं है - क्योंकि प्रतिपत्तियों के कथन के अनन्तर 'वयं पण एवं वयामो' इस वाक्य से ही सर्वत्र स्वमत का प्रतिपादन किया गया है। २. तत्र-तेषां षण्णवते : परतीर्थिकानां मध्ये, एके एवमाहुः, 'ता' इति पूर्ववत् अस्ति स देशो, यस्मिन् देशे सूर्यः आगत:सन् एकपौरुपी-एकपुरुपप्रमाणां (पुरुपग्रहणमुपलक्षणं सर्वस्यापि प्रकाश्यवस्तुनः स्व-प्रमाणां) छायां निर्वर्तयति। - सूर्य. टीका. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ 1 तत्थ जे ते एवमाहंसु - ९६. 'ता अत्थि णं से देसे जंसि णं देसंसि सूरिए छण्णउई पोरिसीयं छायं निव्वत्तेइ त्ति' ते एवमाहंसु, ता सूरियस णं सव्वहिट्टिमाओ सूरप्पडिहीओ बहित्ता अभिणिसद्वाहिं लेसाहिं ताडिज्जमाणीहिं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ जावइयं सूरिए उड्ढे उच्चत्तेणं, एवइयाई छण्णउईए छायाणुमाणप्पमाणेहिं उमाए, एत्थ णं सूरिए छण्णउई पोरिसीयं छायं निव्वत्तेइ त्ति, वयं पुण एवं वयामो - ता साइरेग-अउणट्ठि- पोरिसीणं सूरिए पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ त्ति । पोरिसिच्छाय- प्पमाणं प. ता अवद्ध पोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ? ताति-भागे गए वा सेसे वा । उ. ता अउणसट्ठिपोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ? ता बावीससहस्सभागे गए वा सेसे वा । ता पोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ? ता चउब्भागे गए वा सेसे वा । ता दिवड पोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ? ता पंचभागे गए वा सेसे वा । ता बि-पोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ? ता छब्भागगए वा सेसे वा । ता अड्डाइज्ज -पोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ? ता सत्तभागगए वा सेसे वा । प. उ. प. उ. - प. उ. प. उ. [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र प. उ. १. पौरुषी की परिभाषा - 'पुरिस त्ति, संकु, पुरिस सरीरं वा, ततो पुरिसे निप्फन्ना पोरिसी, एवं सव्वस्सं वत्थुणो यदा स्वप्रमाणा छाया भवति, तदा हवइ, \ एवं पोरिसी प्रमाणं उत्तरायणस्स अंते, दक्खिणायणस्स आईए इक्कं दिणं भवइ, अतो परं अद्ध- एगसट्ठिभागा अंगुलस्स दक्खिणायणे वड्ढति, उत्तरायणे हस्संति, एवं मंडले अन्ना पोरिसी । ' यह पौरुषी की परिभाषासूर्य-प्रज्ञप्ति की टीका में नन्दि- चूर्णि से उद्धृत है। चूर्णि की भाषा संस्कृत-मिश्रित प्रकृत होती है, अत: ऊपर अंकित चूर्णि पाठ अशुद्ध नहीं है । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम प्राभृत ] [ ७३ एवं अवड्डपोरिसिं छोढुं छोढुं पुच्छा, दिवसभागं छोढुं छोढुं वागरणं जाव .... प. ता अउणसट्ठि-पोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा, सेसे वा ? उ. ता एगूणवीस-सय-भागे गए वा, सेसे वा। प. ता अउणसट्ठिपोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा, सेसे वा? उ. ता वावीसहस्सभागे गए वा, सेसे वा। प्र. ता साइरेग-अउणसट्ठि-पोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा, सेसे वा ? उ. ता नत्थि किंचि गए वा, सेसे वा। तत्थ खलु इमा पणवीसविहा छाया पण्णत्ता, तंजहा - १. खंभ-छाया २. रज्जु-छाया ३. पागार-छाया ४. पासाय-छाया ५. उग्गम-छाया ६. उच्चत्तछाया ७. अणुलोम-छाया ८. पडिलोम-छाया ९. आरंभिया-छाया १०. उवहया-छाया ११. समा-छाया १. एवमित्ययदि-एवमुक्तेन प्रकारेण 'अर्द्धपौरुषी' अद्धपुरुषप्रमाणां छाया क्षिप्त्वा, क्षिप्त्वा पृच्छा पृच्छासूत्रं द्रष्टव्यं । - सूर्य. टीका. २. दिवसभाग' ति, पूर्व-पूर्वसूत्रापेक्षया एकैकमधिकं दिवसभागं क्षिप्त्वा क्षिप्वा व्याकरणं, उत्तरसूत्रं ज्ञातव्यम्। - सूर्य. टीका. ३. यहां अंकित प्रश्नोत्तर यहां दी गई संक्षिप्त वाचना की सूचनानुसार संशोधित है। सूर्यप्रज्ञप्ति की '१ आ. स.। २ शा. स.। ३ अ.सु.। ४ ह.ग्र.' इन चारों प्रतियों में दिये गये प्रश्नोत्तर यहां दी गई संक्षिप्त वाचना की सूचना से कितने विपरीत हैं ? यह निर्णय पाठक स्वयं करें। प. 'ता अद्धअउणसट्ठि पोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा, सेसे वा? उ. ता एगूणवीससयभागे गए वा, सेसे वा। प. ता अउणसट्ठि पोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा, सेसे वा? उ. ता बावीस-सहस्स भागे गए वा, सेसे वा। प. ता साइरेग-अउणसट्ठि-पोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा, सेसे वा? उ. ता नत्थि किंचि गए वा, सेसे वा। (क) यहां इन प्रश्नोत्तरों में व्यतिक्रम हो गया प्रतीत होता है। सर्वप्रथम साढे गुनसठ पौरुषी छाया का प्रश्नोत्तर है। द्वितीय प्रश्नोत्तर गुनसठ पौरुषी छाया का है। तृतीय प्रश्नोत्तर कुछ अधिक गुनसठ पौरुषी छाया का है। (ख) यहां प्रश्नों के अनुरूप उत्तर भी नहीं है। प्रथम प्रश्नोत्तर में - 'साढे गुनसठ पौरुषी छाया, एक सौ उन्नीस दिवस भाग से निष्पन्न होती है' ऐसा माना है किन्तु संक्षिप्तवाचना पाठ के सूचनानुसार एक सौ बीस दिवस से निष्पन्न होती है। द्वितीय प्रश्नोत्तर में - गुनसठ पौरुषी छाया की निष्पत्ति बावीस हजार दिवस भाग से होती है - ऐसा माना है, किन्तु यह मानना सर्वथा असंगत है, क्योंकि संक्षिप्त वाचना के सूचनापाठ की टीका में एक एक दिवस भाग बढ़ाने का ही सूचन है। तृतीय प्रश्नोत्तर में - प्रश्न ही असंगत है, क्योंकि संक्षिप्त वाचना के सूचना पाठ में अर्द्ध पौरुषी छाया से संबंधित प्रश्न हो तो यहां कहा गया उत्तरसूत्र यथार्थ है। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र १२. पडिहया-छाया १३.खील-छाया १४. पक्ख-छाया १५. पुरओउदया-छाया १६. पुरिम कंठभागुवगयाछाया १७. पच्छिम-कंठ-भागुवगया छाया १८. छायाणुवाइणी-छाया १९. किट्ठाणुवाइणी-छाया २०. छाय-छाया २१. विक्कप्प-छाया २२. वेहास-छाया २३. कड-छाया २४. गोल-छाया २५.पिट्ठओदग्गाछाया। तत्थ णं गोल-छाया अट्टविहा पण्णत्ता, तं जहा - १. गोल-छाया २. अवड्ढ-गोल-छाया ३. गाढ़-गोल-छाया ४. अवड्ढ-गाढ-गोल-छाया ५. गोलवलि-छाया ६. अवड्ढ-गोलावलि-छाया ७. गोलपुंज-छाया ८. अवड्ढ-गोल-पुंज-छाया। १. प्रस्तुत सूत्र में छाया के पच्चीस प्रकार तथा गोल छाया के आठ प्रकार का कथन है। तत्थेत्यादि, तत्र = तासां पंचविंशतिछायानां मध्ये खल्वयं गोल-छाया अष्टविधा प्रज्ञप्ता।' सूर्य-प्रज्ञप्ति की टीका के इस कथन से प्रतीत होता है कि छाया के पच्चीस प्रकारों में 'गोल-छाया' का नाम था और उसके आठ प्रकार भिन्न थे, किन्तु सूर्यप्रज्ञप्ति की '१ आ. स.। २ शा. स.। ३ अ.सु.' इन तीन प्रतियों में छाया के केवल सत्तरह नाम हैं और गोल छाया के आठ नाम हैं। इस प्रकार पच्चीस पूरे नाम लिये गये हैं। सत्तरह नामों में गोल छाया का नाम नहीं है, फिर भी 'तत्थेयादि' पाठ से संगति करके पच्चीस नाम पूरे मानना आश्चर्यजनक है। एक 'ह.ग्र.' प्रति में छाया के पच्चीस नाम तथा गोल-छाया के आठ नाम हैं, जो मूल पाठ के अनुसार हैं। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमप्राभृत [प्रथम प्राभृतप्राभृत] णक्खत्ताणं आवलिया-णिवायजोगो य ३२. प. ता कहं ते जोगे ति वत्थुस्स आवलिया-णिवाए ? आहिए त्ति वएजा। उ. तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीओ पण्ण्त्ताओ, तंजहा - तत्थेगे एवमाहंसु - १. ता सव्वे वि णं णक्खत्ता, कत्तियादिया भरणिपजवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - २. ता सव्वे वि णं णक्खत्ता, महादिया अस्सेस-पन्जवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - ३. ता सव्वे वि णं णक्खत्ता, धणिट्ठादिया सवणपज्जवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - ४. ता सव्वे वि णं णक्खत्ता, अस्सिणी-आदिया रेवईपज्जवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - ५. ता सव्वे विणं णक्खत्ता, भरणीआदिया अस्सीणीपज्जवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। वयं पुण एवं वयामो - ता सव्वे वि णं णक्खत्ता, अभिई आदिया उत्तरासाढा पज्जवसाणा पण्णत्ता, तंजहा - अभिई सवणी जाव उत्तरासाढा। १. जंबुद्दीवे दीवे अभिइवज्जेहिं सत्तावीसाए णक्खत्तेहिं संववहारे वति । - सम. २७, सु. २ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमप्राभृत [ द्वितीय प्राभृतप्राभृत ] णक्खत्ताणं चंदेण जोगकालो ३३. प. ता कहं ते मुहुत्तग्गे आहिए ? ति वएज्जा, उ. ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, [क] अत्थि णक्खत्ते जे णं णव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तट्ठिभाए मुहुत्तस्स चंदेण सद्धिं जोयं जोए । [ख] अत्थि णक्खत्ता जे णं पण्णरस मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति । [ग] अत्थि णक्खत्ता जे णं तीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति । [ख] अत्थि णक्खत्ता जे णं पणयालीसे मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति । [क] प. ता एएंसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, कयरे णक्खत्ते जे णं णव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तट्टिभाए मुहुत्तस्स चंदेणं सद्धिं जोयं जोएंति ? [ख] कयरे णक्खत्ता जे णं पण्णरस मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति ? [ग] कयरे णक्खत्ता जे णं तीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति ? [घ] कयरे णक्खत्ता जे णं पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति ? [क] उ. ता एएंसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, तत्थ जे ते णक्खत्ते, जे णं णव मुहुत्ते, सत्तावीसं च सत्तट्टिभाए मुहुत्तस्स चंदेण सद्धिं जोयं जोति, से णं एगे, अभीयी । [ख] ता एएंसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ता णं, तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं पण्णरस मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, ते णं छ, , तं जहा - १. सतभिसया, २. भरणी, ३. अद्दा, ४. अस्सेसा, ५. साति, ६. जेट्ठा । [ग] ता एसि णं णट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं तीसं मुहुत्तं चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, ते णं णण्णरस तं जहा - १. सवणो, २. धणिट्ठा, ३. पुव्वाभद्दवया, ४. रेवई, ५. अस्सिणी, ६. कत्तिया, ७. मग्गसिरा, ८. पुस्सी, ९. महा, १०. पुव्वाफग्गुणी, ११. हत्थो, १२. चित्ता, १३. अणुराहा, १४. मूलो, १५. पुव्वासाढा। [घ] ता एसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, १. अभिजिणक्खत्ते साइरेगे णव मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ सम. ९ सु. ५ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत - द्वितीय प्राभृतप्राभृत ] [ ७७ तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, ते णं छ, तं जहा - १. उत्तराभद्दवया, २. रोहिणी, ३. पुणव्वसू, ४. उत्तराफग्गुणी, ५. विसाहा, ६. उत्तरासाढा। ___ सूरिय. पा. १०, पाहु. २, सु. ३३ णक्खात्तणं सूरेण जोगकालो ३४. – ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, [क ] अस्थि णक्खत्ते जे णं चतारि अहोरत्ते, छच्च मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति। [ख] अस्थि णक्खत्ता जे णं छ अहोरत्ते, एक्कवीसं च मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति। [ग] अस्थि णक्खत्ता जे णं तेरस अहोरत्ते, बारस य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति। [घ ] अत्थि णक्खत्ता जे णं वीसं अहोरत्ते, तिण्णि य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति। प. [क ] ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, कयरे णक्खत्ते जं चत्तारि अहोरत्ते, छच्च मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति ? [ख] ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, कयरे णक्खत्ते जे णं छ अहोरत्ते, एक्कवीसं च मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति ? [ग] ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, कयरे णक्खत्ता जे णं तेरस अहोरत्ते, बारस य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति ? [घ ] ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, कयरे णक्खत्ताणं जे णं बीसं अहोरत्ते, बारस य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति ? उ. [क ] ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, तत्थ जे ते णक्खत्ते जे णं चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति से णं एगे अभीयी। [ख] ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं छ अहोरत्ते एक्कवीसं च मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति ते णं छ, तं जहा - १. सतभिसया, २. भरणी, ३. अद्दा, ४. अस्सेसा, ५. साति, ६. जेट्ठा। [ग] ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, . तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं तेरस अहोरत्ते दुवालस य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति ते णं पण्णरस तं जहा - १. सवणो, २. धणिट्ठा, ३. पुव्वाभद्दवया, ४. रेवई, ५. अस्सिणी, ६. कत्तिया, ७. मग्गसिरं, ८. पुस्सो, ९. महा, १०. पुव्वाफग्गुणी, ११. हत्थो, १२. चित्ता, १३. अणुराहा, १४. मूलो, १५. पुव्वासाढा। [घ ] ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, उत्थ जे ते णक्खत्ता, जे वीसं अहोरत्ते, तिण्णि य मुहुत्ते, सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति ते णं छ तं जहा - १. उत्तराभद्दवया, २. रोहिणी, ३. पुणव्वसू, ४. उत्तराफग्गुणी, ५. विसाहा, ६. उत्तरासाढा। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमप्राभृत [ तृतीय प्राभृतप्राभृत ] णक्खत्ताणं पुव्वाइभागा खेत्त - कालप्पमाणं च ३५. प. ता कहं ते एवं भागा णक्खत्ता ? आहिया ति वएज्जा, उ. ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, [क] अत्थि णक्खत्ता पुव्वंभागा, समखेत्ता तीसइ मुहुत्ता पण्णत्ता । [ख] अतिथ णक्खत्ता पंच्छभागा, समखेत्ता तीसइ मुहुत्ता पण्णत्ता । [ग] अत्थि णक्खत्ता णत्तंभागा, अवड्ढखेत्ता पण्णरस-मुहुत्ता पण्णत्ता । [घ] अत्थि णक्खत्ता उभयं भागा, विड्ढखेत्ता पणयालीसं मुहुत्ता पण्णत्ता । प. [क] ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, कयरे णक्खत्ता पुव्वं भागा, समखेत्ता, तीसइ मुहुत्ता पण्णत्ता ? [ख] ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, कयरे णक्खत्ता पंच्छभागा, समखेत्ता, तीसइ मुहुत्ता पण्णत्ता ? [ग] ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, कयरे णक्खत्ता णत्तं भागा, अवड्ढखेत्ता, पण्णरस-मुहुत्ता पण्णत्ता ? [घ] तो एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, कयरे णक्खत्ता उभयं भागा, दिवड्ढखेत्ता, पणयालीसं मुहुत्ता पण्णत्ता ? उ. [क] ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, तत्थ जे ते णक्खत्ता पुव्वंभागा, समक्खेत्ता, तीसइ मुहुत्ता, पण्णत्ता, ते णं छ तंजहा - १. पुव्वापोट्ठवया, २. कत्तिया, ३. महा, ४. पुव्वाफग्गुणी, ५. मूलो, ६. पुव्वासाढा । [ख] ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, तत्थ जे ते णक्खत्ता पच्छंभागा समक्खेत्ता तीसइ मुहुत्ता पण्णत्ता ते णं दस, तंजहा - १. अभिई, २. सवणो, ३. धणिट्ठा, ४. रेवई, ५. अस्सिणी, ६. मिगसिरं, ७. पूसो, ८. हत्थो, ९. चित्ता, १०. अणुराहा । [ग] ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, तत्थ जे ते णक्खत्ता णत्तं भागा अवड्ढखेत्ता पण्णरस-मुहुत्ता पण्णत्ता, ते णं छ तंजहा - १. सयभिसया, २. भरणी, ३. अद्दा, ४. अस्सेसा, ५. साती, ६. जेट्ठा । [घ] ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, तत्थ जे ते णक्खत्ता उभयं भागा दिवडूखेत्ता, पणयालीसं मुहुत्ता पण्णत्ता, ,ते णं छ, तंजहा - १. उत्तरापोट्ठवया, २. रोहिणी, ३. पुणवस्सू, ४. उत्तराफग्गुणी, ५. विसाहा, ६. उत्तरासाढा। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमप्राभृत [चतुर्थ प्राभृतप्राभृत] णक्खत्ताणं चंदे। जोगारंभकालो ३६. प. ता कहं ते जोगास्स आई ? आहिए ति वएजा, उ. ता अभियी-सवणा खलु दुवे णक्खत्ता, पच्छाभागा समखित्ता', साइरेगएगूणचत्तालिसइ मुहुत्ता' तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति', तओ पच्छा अवरं साइरेगं दिवसं। एवं खलु अभियी-सवणा दुवे णक्खत्ता एगराइं एगं च साइरेगं दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, जोयं जो एत्ता जोयं अणुपरियट्टति, जोयं अनुपरियट्टिता सायं चंदं धणिट्ठाणं सम्मति। २. ता धणिट्ठा खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइ-मुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, तओ पच्छाराइं अवरं च दिवसं। एवं खलु धणिट्ठा णक्खत्ते एगं च राई एगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं सयभिसयाणं समप्पेइ, १. 'इह अभिजिन्नक्षत्रं न समक्षेत्रं, नाप्यपार्धक्षेत्रं, नापि द्वयर्द्धक्षेत्रं, केवलं श्रवणनक्षत्रेण सह सम्बद्धमुपात्तमित्यभेदोपचारात् तदपि समक्षेत्रमुपकल्प्य समक्षेत्रमित्युक्तम्' २. 'सातिरेका नवमुहूर्ताः अभिजित् त्रिंशन्मुहुर्ताः श्रवणस्येत्युभयमीलने यथोक्तं मुहुर्तपरिमाणं भवति।' ३. 'सायं-विकालवेलायां, इह दिवसस्य कतितमाच्चरमाद् भागादारभ्य यावद्रात्रे कतितमो भागो यावन्नाधापि परिस्फुट-नक्षत्रमण्डलालोकस्तावान् कालविशेषः सायमिति विवक्षितो द्रष्टव्यः' ४. 'इहाभिजिन्नक्षत्रं यद्यपि युगस्यादौ प्रातश्चन्द्रेण सह योगमुपैति, तथापि श्रवणेन सह सम्बद्धमिह तद्विक्षितं, श्रवणनक्षत्रं च मध्याहादूर्ध्वमपसरति दिवसे चन्द्रेण सह योगमुपादत्ते, ततस्तत्साहचर्यात् तदपि सायं समये चन्द्रेण युज्यमानं विवक्षित्वा सामान्यतः सायं चन्द्रेण''सद्धिं जोयं जोएंति' इत्युक्तम्। अथवा युगस्यादिमतिरिच्यान्यदा बाहुल्यंमधिकृत्येदमुक्तं ततो न कश्चिद्दोषः। - टीका ५. 'एतावन्तं कालं योगं युक्त्वा तदनन्तरं योगमनुपरिवर्तलते, आत्मनश्चयावयत इत्यर्थः?' - सूर्यप्रज्ञप्ति की टीका से उद्धृत। ६. 'समक्षेत्र त्रिंशन्मुहूर्तम् 'चन्द्र के साथ किसी भी नक्षत्र का योग, यदि तीस मूहूर्त पर्यन्त रहता है तो वह 'समक्षेत्र-योग' कहा जाता है। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र ३. ता सयभिसया खलु णक्खत्ते णत्तंभागे अवड्डखेत्ते पण्णरस-मुहुत्ते, तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, नो लभइ अवरं दिवसं, एवं खलु सयभिसया णक्खत्ते, एगं राइं च चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं पुव्वपोट्ठवयाणं समप्पेइ, ४. ता पुव्वा-पोटुवया खलु णक्खत्ते पुव्वं भागे' समक्खेत्ते तीसइ-मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, तओ पच्छा अवरं राई, एवं खलु पुव्वा-पोट्टवया णक्खत्ते एगं च दिवसं एगं च राइं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोएत्ता अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं उत्तरापोट्ठव्वयाणं समप्पेइ, ता उत्तरापोटुव्वया खलु णक्खत्ते उभयं भागे दिवड्डखेत्ते पणयालीस-मुहुत्ते , तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, अवरं च राई तओ पच्छा अवरं च दिवसं। एवं खलु उत्तरापोट्ठवया णक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं रेवईणं समप्पेइ, तारेवई खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइ-मुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, तओ पच्छा अवरं दिवस, एवं खलु रेवई णक्खत्ते एगं च राई, एगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं अस्सिणीणं समप्पेइ, ७. ता अस्सिणी खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइ-मुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, तओ पच्छा अवरं दिवसं, १. 'अपार्ध-क्षेत्रं पंचदशमुहूर्तम् ' चन्द्र के साथ किसी भी नक्षत्र का योग, यदि पन्द्रह मुहूर्त पर्यन्त रहता है, तो वह 'अपार्धक्षेत्र-योग' अर्थात् 'आधा क्षेत्र योग' कहा जाता है। २. 'इह पूर्वप्रोष्ठपपदानक्षत्र स्य प्रातश्चन्द्रेण सह प्रथमतया योगः प्रवृत्त इतीदं पूर्वभागमुच्यते।' ३. 'इदं किलोत्तराभद्रपदाख्यं नक्षत्रमुक्तप्रकारेण प्रातश्चन्द्रेण सहयोगमधिगच्छति । केवलं प्रथमान् पंचदश-मुहूर्तान् अधिकानपनीय समक्षेत्रं कल्पयित्वा यदा योगश्चिन्त्यते तदा नक्तमपि योगोऽस्तीत्युभयभागमवसेयम् । ४. 'उत्तरप्रकोष्ठपदानक्षत्रं खलुभयभागं व्यर्धक्षेत्रं पंचचत्वारिंशन्मुहूर्त, तत्प्रथमतया-योगप्रथमतया प्रातश्चन्द्रेण सार्द योगं युनक्ति, तच्च, तथायुक्तं सत् तं सकलमपि दिवसमपरं च रात्रिं ततः पश्चादपरं दिवसं यावद्वर्तते । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत - चतुर्थ प्राभृतप्राभृत ] एवं खलु अस्सिणी पक्खत्ते, एगं च राई, एगं च दिवसं, चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता, सायं चंदं भरणीणं समप्पेइ । ८. ता भरणी खलु णक्खत्ते णत्तं भागे,' अवड्ढखेत्ते पण्णरसमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, नो लभइ अवरं दिवसं, एवं खलु भरणी णक्खत्ते, एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता, पाओ चंदं कत्तियाणं समप्पड़ । ९. ता कत्तिया खलु णक्खत्ते पुव्वं भागे समक्खेत्ते तीसइ-मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, तओ पच्छाराई, एवं खलु कत्तिया णक्खत्ते, एगं च दिवसं एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता, पाओ चंदं रोहिणीणं समप्पेइ । १. 'योगमनुपरिवर्त्य सायं परिस्फुटनक्षत्रमण्डलालोकसमये भरण्याः समर्पयति, इदं च भरणी नक्षत्रमुक्तयुक्त्या रात्रौ चन्द्रेण सइ योगमुपैति ततो नक्तं भागमवसेयम्' २. इसके आगे मूल प्रति में 'संक्षिप्तवाचना' का पाठ इस प्रकार है - - .' रोहिणी जहा उत्तराभद्दवया', १०. ११. मगसिरं जहा धणिट्ठा, १२. अद्दा जह सतभियसा, १३. पुणव्वसू जहा उत्तराभद्दवया, १४. पुस्सी जहा धणिट्ठा, १५. असलेसा जहा सतभियसा, १६. महा जहा पुव्वाफग्गुणी, १७. पुव्वाफग्गगुणी जहा पुव्वाभद्दवया, ८१ १८. उत्तराफग्गुणी जहा पुव्वाभद्दवया, १९. - २०. हत्थो, चित्ता य जहा धणिट्ठा, २१. साती जहा सतभिसया, २२. विसाहा जहा उत्तराभद्दवया, २३. अणुराहा जहा धणिट्ठा, २४. जिट्ठा जहासतभियसा २५. मूलो जहा पुष्वाभद्दवया, २६. पुव्वासाढा जहापुव्वाभद्दवया २७. उत्तरासाढा जहा उत्तराभद्दवया Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र १०. ता रोहिणी खलु णक्खत्ते उभयभागे दिवड्डखेत्ते पणयालीस-मुहुत्ते तप्पढमया पाओ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, अवरं च राई तओ पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु रोहिणी णक्खत्ते, दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोड़त्ता जोयं अणुपरियट्टा, जोयं अणुपरियट्टित्ता, सायं चंदं मिगसरं समप्पेइ । ११. ता मिगसिरे खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, तओ पच्छाराई अवरं च दिवसं, ८२ एवं खलु मिगसिरे णक्खत्ते, एगं च राई एगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टा, जोयं अणुपरियट्टित्ता, सायं चंदं अद्दाए समप्पेइ । १२. ता अद्दा खलु णक्खत्ते नत्तंभागे अवड्ढखेत्ते पण्णरस-मुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जो जोएइ, नो लभइ अवरं दिवसं, एवं खलु अद्दा णक्खत्ते, एगं राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता, सायं चंदं पुणव्वसूणं समप्पेड़ । १३. ता पुणव्वसू खलु णक्खत्ते उभयंभागे दिवड्डखेत्ते पणयालीस-मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, अवरं च राई तओ पच्छा अवरं च दिवसं, एवं खलु पुणव्वसू णक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्ट, जोयं अणुपरियट्टित्ता, सायं चंदं पुस्सस्स समप्पेइ । १४. ता पुस्से खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समखेत्ते तीसइ-मुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, तओ पच्छाराई अवरं च दिवसं, एवं खलु पुस्से णक्खत्ते, एगं च राई एगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जो जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जो अणुपरियट्टित्ता, सायं चंदं असिलेसाए समप्पेइ । १५. ता असिलेसा खलु णक्खत्ते नत्तं भागे अवड्ढखेत्ते पन्नरसमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, नो लभइ अवरं दिवसं, Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत - चतुर्थ प्राभृतप्राभृत] ___८३ एवं खलु असिलेसा णक्खत्ते, एगं राइं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टेइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता, पाओ चंदं मघाणं समप्पेइ। १६. ता मघा खलु णक्खत्ते पुव्वंभागे समक्खेत्ते तीसइ-मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, तओ पच्छा अवरं राई, एवं खलु मघा णक्खत्ते, एगं च दिवसं एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता, पाओ चंदं पुव्वाफग्गुणीणं समप्पेइ। १७. ता पुव्वाफग्गुणी खलु णक्खत्ते पुव्वंभागे समक्खेत्ते तीसइ-मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, तओ पच्छा अवरं राई, एवं खलु पुव्वाफग्गुणी णक्खत्ते, एगं च दिवसं एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टेइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता, पाओ चंदं उत्तराफग्गुणीणं समप्पेइ।.. १८. ता उत्तरा-फग्गुणी खलु णक्खत्ते उभयंभागे दिड्ढखेत्ते पणयालीसइ-मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, अवरं च राइं तओ पच्छा अवरं च दिवसं, एवं खलु उत्तराफग्गुणी णक्खत्ते, दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता, सायं चंदं हत्थं समप्पेइ। १९. ता हत्थे खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, तओ पच्छाराइं अवरं च दिवसं, एवं खलु हत्थणक्खत्ते एगं च राई, एगं च दिवसं.चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता, सायं चंदं चित्ताए समप्पेइ। २०. ता चित्ता खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, तओ पच्छाराई अवरं च दिवसं, एवं खलु चित्ता णक्खत्ते एगं च राई, एगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, . . . Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] जोयं अणुपरियट्टित्ता, सायं चंदं साइए समप्पेइ । २१. ता साई खलु णक्खत्ते नत्तंभागे अवड्ढखेते पण्णरसमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, नो लभइ अवरं दिवसं, एवं खलु साई णक्खत्ते एगं राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोड़त्ता जोयं अणुपरियट्टा, [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र जोयं अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं विसाहाणं, समप्पेइ । २२. ता विसाहा खलु णक्खत्ते उभयभागे दिवड्ढखेते पणयालीस-मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदे सद्धिं जोयं जोएइ अवरं च राई तओ पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु विसाहा णक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोड़त्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं अणुराहाए समप्पेइ । २३. ता अणुराहा खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइ मुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, तओ पच्छाराइं अवरं च दिवसं, एवं खलु अणुराहा णक्खत्ते एगं राई, एगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोइता जोयं अणुपरियट्टइ, जो अणुपरियट्टित्ता, सायं चंदं जिट्ठाए समप्पेड़ । २४. ता जेट्ठा खलु णक्खत्ते नत्तं भागे अवड्ढखेते पण्णरस-मुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, नो लभइ अवरं दिवसं, एवं खलु जिट्ठा णक्खत्ते एगं दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोइता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं मूलस्स समप्पेइ । २५. ता मूले खलु णक्खत्ते पुव्वं भागे समक्खेत्ते तीसइ-मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, तओ पच्छा अवरं च राई, एवं खलु मूलं णक्खत्तं एगं च दिवसं च राई च चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोइता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं पुव्वासाढाणं समप्पेइ । २६. ता पुव्वासाढा खलु णक्खत्ते पुव्वं भागे समक्खेत्ते तीसइ-मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत - चतुर्थ प्राभृतप्राभृत ] सद्धिं जोयं जोएइ, तओ पच्छा अवरं च राई, एवं खलु पुव्वासाढा णक्खत्तं एगं च दिवसं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोड़त्ता जोयं अणुपरियट्टा, [ ८५ जो अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं उत्तरासाढाणं समप्पेइ । २७. ता उत्तरासाढा खलु णक्खत्ते उभयंभागे दिवड्ढखेते पणयालीस मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, अवरं च राई तओ पच्छा अवरं च दिवसं, एवं खलु उत्तरासाढा णक्खते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोड़त्ता जोयं अणुपरियट्टा, जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं अभिई सवाणाणं समप्पेइ । १. सूत्रांक १० से २७ पर्यन्त में मूलपाठ सूर्यप्रज्ञप्ति की टीका से यहाँ उद्धृत किया है। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमप्राभृत [पंचम प्राभृतप्राभृत] णक्खत्ताणं कुलोवकुलाई - ३७. ता कहं ते कुला ( उवकुला, कुलोवकुला)? आहिए ति वएज्जा। तत्थ खलु इमे बारस कुला, बारस उवकुला, चत्तारि कुलोवकुला पण्णत्ता। बारसकुला पण्णत्ता तं जहा - १. धणिट्ठा कुलं २. उत्तराभद्दवया कुलं ३. अस्सिणी कुलं ४. कत्तियाकुलं ५. मिगसिरकुलं ६. पुस्सकुलं ७. महाकुलं ८. उत्तराफग्गुणी कुलं ९. चित्ताकुलं १०. विसाहाकुलं ११. मुलंकुलं १२. उत्तरासाढाकुलं। बारस उवकुला पण्णत्ता तं जहा - १. सवणो उवकुलं २. पुव्वापोट्ठवयाउवकुलं ३. रेवई उवकुलं ४. भरणी उवकुलं ५. रोहिणी उवकुलं ६. पुणव्वसु उवकुलं ७. अस्सेसा उवकुलं ८. पुव्वाफग्गुणी उवकुलं ९. हत्थो उवकुलं १०. साती उवकुलं ११. जेट्ठा उवकुलं १२. पुव्वासाढा उवकुलं । चत्तारि कुलोवकुला पण्णत्ता तं जहा - १. अभियी कुलोवकुलं २. सतभिसया कुलोवकुलं ३. अद्दा कुलोवकुलं ४. अणुराहा कुलोवकुलं। १. सूर्यप्रज्ञप्ति में प्रस्तुत प्रश्नसूत्र खंडित हैं, अत: कोष्ठक के अन्तर्गत 'उवकुला, कुलोवकुला' अंकित करके उसे पूरा किया है, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति वक्ष.७ सूत्र १६१ में, यह प्रश्नसूत्र इस प्रकार है - प्र. कति णं भंते ! कुला ? कति उवकुला ? कति कुलोवकुला पण्ण्त्ता ? उ. गोयमा! बारस कुला बारस उवकुला, चत्तारि कुलोवकुला पण्ण्त्ता। शेष पाठ सूर्यप्रज्ञप्ति के समान है, किन्तु जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के इस प्रश्नोत्तर सूत्र में बारह कुल नक्षत्रों के नामों के बाद कुलादि के लक्षणों की सूचक एक गाथा दी गई है जो सूर्यप्रज्ञप्ति की टीका में भी उद्धृत है और यह गाथा प्रस्तुत संकलन में उद्धृत है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के संकलनकर्ता यदि यह गाथा प्रस्तुत सूत्र के प्रारम्भ में या अन्त में देते तो अधिक उपयुक्त रहती। गाहा - मासाणं परिमाणा, होंति कुला, उवकुला उ हेट्ठिमगा॥ होंति पुण कुलोवकुला, अभियी-सयभिसय-अ६-अणुराहा। - जंबु. वक्ख. ७, सु. १६१ 'किं कुलादीनां लक्षणम्? उच्यते-मासानां परिणामानि-परिसमापकानि भवन्ति कुलानि, कोऽर्थः इह यैर्नक्षत्रैः प्रायो मासानां परिसमाप्तयः उपजायन्ते माससदृशनामानि च तानि नक्षत्राणि कुलानीति प्रसिद्धानि।' 'कुलानामधस्तनानि नक्षत्राणि श्रवणादीनि उपकुलानि, कुलानां समीपमुपकुलं तत्र वर्तन्ते यानि नक्षत्राणि तान्युपचारादुपकुलानि।' 'यानि कुलानामुपकुलानां चाधस्तनानि तानि कुलोपकुलानी।' - जम्बू. टीका. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत - पंचम प्राभृतप्राभृत] [ ८७ दुवालसासु पुण्णमासिणीसु णक्खत्त-संजोग-संखा ३८. प. ता कहं ते पुण्णिमासिणी ? आहिए त्ति वएज्जा? उ. तत्थ खलु इमाओ बारस पुण्णिमासिणीओ, बारस अमावासाओ पण्णत्ताओ तंजहा - १. साविट्ठि, २. पोट्ठवई, ३. आसोया, ४. कत्तिया ५. मग्गसिरी, ६. पोसी, ७. माही, ८. फग्गुणी, ९. चेती, १०. विसाही, ११. जेट्ठामूली, १२. आसाढी। १. प. ता सविट्ठिण्णं पुण्णमासिं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. ता तिण्णि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा - १. अभिई, २. सवणो, ३. धणिट्ठा। २. प. ता पोट्ठवइण्णं पुण्णमासिं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. ता तिण्णि णक्खत्ता जोएंति,तं जहा - १. सतभिसया, २. पुव्वापोट्ठवया, ३. उत्तरापोट्ठवया। ३. प. ता आसोइण्णं पुण्णमासिं कति णक्खत्ता जोएंति ? ___ उ. ता दोण्णि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा - १. रेवती, २. अस्सिणी य। ४. प. ता कत्तिइण्णं पुण्णमासिं कति णक्खत्ता जोएंति ? ___उ. ता दोण्णि णक्खत्ता जोएति, तंजहा - १. भरणी, २.कत्तिया य। ५. प. ता मग्गसिरि पुण्णमासिं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. ता दोण्णि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा - १. रोहिणी, २. मग्गसिरो य। ६. प. ता पोसिण्णं पुण्णमासिं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. ता तिण्णि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा - १. अद्दा, २. पुणव्वसू, ३. पुस्सो। ७. प. ता माहिण्णं पुण्णमासिं कति णक्खत्ता जोएंति? ___उ. ता दोण्णि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा - १. अस्सेसा, २. महा य। ८. प. ता फग्गुणिणं पुण्णमासिं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. ता दोण्णि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा - १. पुव्वाफग्गुणी, २. उत्तराफग्गुणी य। ९. प. ता चित्तिण्णं पुण्णमासिं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. ता दोण्णि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा - १. हत्थो, २. चित्ता य। १०. प. ता विसाहिण्णं पुण्णमासिं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. ता दोण्णि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा - १. साती, २. विसाहा य। ११. प. ता जेट्ठा-मूलिण्णं पुण्णमासि कति णक्खत्ता जोएंति ? ___उ. ता तिण्णि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा - १. अणुराहा, २. जेट्ठा, ३. मूलो। १२. प. ता आसाढिण्णं पुण्णमासिं कति णक्खत्ता जोएंति ? । उ. ता दोण्णि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा - १. पुव्वासाढा, २. उत्तरासाढा य। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमप्राभृत [ छठा प्राभृतप्राभृत ] दुवालसासु पुण्णमासिणीसु कुलाइ - णक्खत्त-जोगसंखा ३९. १. प. ता साविट्ठिण्णं पुण्ण्मं णं किं कुलं जोएइ उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? उ. ताकुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ, १. कुलं जोएमाणे धणिट्ठा णक्खत्ते जोएइ, २. सिया । ३. - २. उवकुलं जोएमाणे सवणे णक्खत्ते जोएइ, ३. कुलोवकुलं जोएमाणे अभिई णक्खत्ते जोएइ, साविट्टिणिं पुण्णमं कुलं वा जोएड़, उवकुलं वा जोएइ कुलोवकुलं वा जोएइ, कुवा, उवकुलेण वा कलोवकुलेण वा जुत्ता साविट्ठी पुण्णिमा जुत्ताति वत्तव्वं सिया । प. ता पोट्ठवइण्णं पुण्णमं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ ? ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ, उ. १. कुलं जोएमाणे उत्तरापोट्ठवया णक्खत्ते जोएइ, २. उवकुलं जोएमाणे पुव्वापोट्ठवया णक्खत्ते जोएइ, ३. कुलोवकुलं जोएमाणे सतभिसया णक्खत्ते जोएइ, पोट्ठवइण्णं पुण्णमं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ कुलोवकुलं वा जोएइ, ' कुलेण वा, उवकुलेण वा कुलोवकुलेण वा जुत्ता पुट्ठवया पुण्णिमा जुत्ता ति वत्तव्वं प. ता आसोइण्णं पुण्णमं किं कुलं जोएइ उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ उ. ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नोलभइ कुलोवकुलं, १. शेषमपि सूत्रं निगमनीयं 'एवं नेयव्वाओ,' जाव आसाढी-पुण्णिमं जुत्तेति वत्तव्वं सिया, णवरं पौषी पौर्णमासी, ज्येष्ठामूली च पौर्णमासीं कुलोपकुलमपि युनक्ति, अवशेषासु च पौर्णमासीषु कुलोपकुलं नास्तीति परिभाव्य वक्तव्याः । सूर्य टीका - Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत - छठा प्राभृतप्राभृत ] १. कुलं जोएमाणे अस्सिणी णक्खत्ते जोएइ, २. उवकुलं जोएमाणे रेवई णक्खत्ते जोएइ, आसोइण्णं पुण्णमं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा, उवकुलेण वा जुत्ता आसोइण्णं पुण्णिमं जुत्तेति वत्तव्वं सिया । ४. प. ता कत्तिइण्णं पुण्णमं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? उ. ता कुलं जोएइ उवकुलं वा जोएइ, नो लभइ कुलोवकुलं, १. कुलं जोएमा कत्तिआ णक्खत्ते जोएइ, २. उवकुलं जोएमाणे भरणी णक्खत्ते जोएइ, [८९ कत्तिइण्णं पुण्णमं कुलेण वा जोएइ, उवकुलेण वा जोएइ, कुलेण वा उवकुलेण वा जुत्ता कत्तिइण्णं पुण्णिमं जुत्तेति वत्तव्वं सिया । प. ता मागसिरी पुण्णिमं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? उ. ता कुलं वा जोएड् उवकुलं वा जोएइ, नो लभइ कुलोवकुलं, १. कुलं जोएमाणे मग्गसिरं णक्खत्ते जोएइ, २. उवकुलं जोएमाणे रोहिणी णक्खत्ते जोएइ, मागसिरी पुण्णिमं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा उवकुलेण वा जुत्ता मागसिरी पुण्णिमं जुत्तेति वत्तव्वं सिया । ६. प. ता पोसिण्णं पुण्णमं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? उ. ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ, १. कुलं जोएमाणे पुस्से णक्खत्ते जोएइ, २. उवकुलं जोएमाणे पुणवस्सू णक्खत्ते जोएइ, ३. कुलोवकुलं जोएमाणे अद्दा णक्खत्ते जोएइ, पोसिण्णं पुण्णिमं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा, उवकुलेण वा, कुलोवकुलेण वा जुत्ता पोसिण्णं पुण्णिमं जुत्तेति वत्तव्वं सिया । प. ता माहिण्णं पुण्णमं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? उ. ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लभइ कुलोवकुलं, १. कुलं जोएमाणे महा णक्खत्ते जोएइ, ७. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र २. उवकुलं जोएमाणे अस्सेसा णक्खत्ते जोएइ, माहिण्णं पुण्णिमं कुलेण वा जोएइ, उवकुलेण वा जोएइ कुलेण वा, उवकुलेण वा जुत्ता माहिण्णं पुण्णिमं जुत्ते त्ति वत्तव्वं सिया। ८. प. ता फग्गुणीणं पुण्मिं किं कुलं जोएइ उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? उ. ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लभइ कुलोवलुलं, १. कुलं जोएमाणे उत्तराफग्गुणी णक्खत्ते जोएइ, २. उवकुलं जोएमाणे पुव्वाफग्गुणी णक्खत्ते जोएइ, फग्गुणीणं पुण्णिमं कुलेण वा जोएइ, उवकलेण वा जोएइ, कलेण वा, उवकुलेण वा जुत्ता फग्गुणीणं पुण्णिमं जुत्तेति वत्तव्वं सिया। ९. प. ता चित्तिण्णं पुण्णिमं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ ? उ. ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लभइ कुलोवकुलं, १. कुलं जोएमाणे चित्ता णक्खत्ते जोएइ, २. उवकुलं जोएमाणे हत्थ णक्खत्ते जोएइ, चित्तिण्णं पुण्णिमं कुलेण वा जोएइ, उवकुलेण वा जोएइ, कुलेण वा, उवकुलेण वा जुत्ता चित्तिण्णं पुण्णिमं जुत्तेति वत्तव्वं सिया। १०. प. ता विसाहिण्णं पुण्णिमं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ ? उ. ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लभइ कुलोवकुलं, १. कुलं जोएमाणे विसाहा णक्खत्ते जोएइ, २. उवकुलं जोएमाणे साती णक्खत्ते जोएइ, विसाहिण्णं पुण्णिमं कुलेण वा जोएइ, उवकुलेण वा जोएइ, कुलेण वा, उवकुलेण वा जुत्ता विसाहिण्णं पुण्णिमं जुत्तेति वत्तव्वं सिया। ११. प. ता जेट्ठा-मूलिण्णं पुण्णिमं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? उ. ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ, १. कुलं जोएमाणे मूले णक्खत्ते जोएइ, २. उवकुलं जोएमाणे जेट्ठा णक्खत्ते जोएइ, ३. कुलोवकुलं जोएमाणे अणुराहा णक्खत्ते जोएइ, Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत - छठा प्राभृतप्राभृत ] सिया । १२. प. ता आसाढिण्णं पुण्णिमं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? उ. ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लभइ कुलोवकुलं, १. कुलं जोएमाणे उत्तरासाढा णक्खत्ते जोएइ, २. उवकुलं जोएमाणे पुव्वासाढा णक्खत्ते जोएइ, आसाढण्णं पुण्णमं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा, उवकुलेण वा, जुत्ता आसाढिण्णं पुण्णिमं जुत्तेति वत्तव्वं सिया । दुवालसासु अमावासासु णक्खत्तजोग-संखा १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ट्ठा - मूलिणं पुण्णमं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा, उवकुलेण वा, कुलोवकुलेण वा जुत्ता जेट्ठा मूलिण्णं पुण्णिमं जुत्तेति वत्तव्वं ८. प. ता साविट्ठि णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. दुण्णि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा- अस्सेसा य मघा य, प. ता पोट्ठवई णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंसि ? उ. दुण्णि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा- पुव्वाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी, प. ता आसोइं णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. दुण्णि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा - हत्थो, चित्ता य, प. ता कत्तिइं णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. दुण्णि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा-साती, विसाहा य, प. ता मग्गसिरिं णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. तिणिण णक्खत्ता जोएंति, तंजहा- अणुराधा, जेट्ठा-मूलो य, प. ता पोसिं णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? ९१ उ. दुण्णि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा- पुव्वासाढा, उत्तरासाढा, प. ता माहिं णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. तिणिण णक्खत्ता जोएंति, तंजहा- १. अभीयी, २. सवणो, ३. धणिट्ठा, प. ता फग्गुणी णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. णि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा - १. सतभिसया, २. पुव्वापोट्ठवया । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र ९. प. ता चेतिं णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. दुण्णि णक्खत्ता जोएंति, तंजहारेवई, अस्सिणी य, १०. प. ता विसाहिं णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. दुण्णि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा-भरणी, कत्तिया रा, ११. प. ता जेट्ठा-मूलिं णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. दुण्णि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा-रोहिणी, मग्गसिरं च, १२. प. ता आसाढिं णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. तिण्णि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा-१. अद्धा, २. पुणव्वसू, ३. पुस्सो, दुवालसासु अमावासासु कुलाइ-णक्खत्त-जोग-संखा - १. प. ता साव४ि णं अमावासं किं कुलं जोएइं, उवकुलं जोएइ कुलोवकुलं जोएइ ? उ. कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ नो लभइ कुलोवकुलं, १. कुलं जोएमाणे महा णक्खत्ते जोएइ, २. उवकुलं जोएमाणे असिलेसा जोएइ, ता सावढेि णं अमावासं कुलं दा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता साविट्ठि असावासा जुत्ता वि वत्तव्वं सिया। २. प. ता पोट्ठवई णं अमावासं किं कुलं जोएइं, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? उ. कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ नो लब्भइ कुलोवकुलं, १. कुलं जोएमाणे उत्तराफग्गुणी जोएइ, २. उवकुलं जोएमाणे पुव्वाफग्गुणी जोएइ, पुट्ठवइंणं अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता पोट्टवया अमावासा जुत्तात्ति वत्तव्वं सिया। ३. प. ता आसोई णं अमावासं किं कुलं जोएई, उवकुलं जोएइ कुलोवकुलं जोएइ ? उ. कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ नो लब्भइ कुलोवकुलं, १. कुलं जोएमाणे चित्ता णक्खत्ते जोएइ, २. उवकुलं जोएमाणे हत्थ णक्खत्ते जोएइ, ता आसोई णं अमावासं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ,' Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत - छठा प्राभृतप्राभृत ] कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता आसोइ असावासा जुत्ता त्ति वत्तव्वं सिया। ४. प. कत्तई णं अमावासं किं कुलं जोएइं, उवकुलं जोएइ कुलोवकुलं जोएइ ? उ. कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ नो लब्भइ कुलोवकुलं, १. कुलं जोएमाणे विसाहा णक्खत्ते जोएइ, २. उवकुलं जोएमाणे साई णक्खत्ते जोएइ, ता कत्तिई णं अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता कत्तिई णं अमावासं जुत्तात्तिवत्तव्वं सिया। ५. प. ता मग्गसिरि णं अमावासं किं कुलं जोएइं, उवकुलं जोएइ कुलोवकुलं जोएइ ? उ. कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ नो लब्भइ कुलोवकुलं, १. कुलं जोएमाणे मूलणक्खत्ते जोएइ, २. उवकुलं जोएमाणे जेट्ठा णक्खत्ते जोएइ, ३. कुलोवकुलं जोएमाणे अणुराहा णक्खत्ते जोएइ, ता मग्गसिरिणं णं अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता कुलोवकुलेण वा जुत्ता, मग्गसिरिं णं अमावासं जुत्तात्तिवत्तव्वं सिया। ६. प. पोषि णं अमावासं किं कुलं जोएइं, उवकुलं जोएइ कुलोवकुलं जोएइ ? उ. कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ नो लब्भइ कुलोवकुलं, १. कुलं जोएमाणे पुव्वासाढा णक्खत्ते जोएइ, २. उवकुलं जोएमाणे उत्तरासाढा णक्खत्ते जोएइ, ता पोषिं णं अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता पोषिणं अमावासा जुत्तात्ति वत्तव्वं सिया। ७. प. ता माहिं णं अमावासं किं कुलं जोएई, उवकुलं जोएइ कुलोवकुलं जोएइ ? उ. कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ कुलोवकुलं वा जोएइ, १. कुलं जोएमाणे अभीयी णक्खत्ते जोएइ, २. उवकुलं जोएमाणे सवणे णक्खत्ते जोएइ, ३. कुलोवकुलं जोएमाणे धणिट्ठा णक्खत्ते जोएइ, Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र ता माहिं णं अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ, . कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता कुलोवकुलेण वा जुत्ता माहिणं अमावासा जुत्तात्ति वत्तव्वं सिया। ८. प. ता फग्गुणिं णं अमावासं किं कुलं जोएइं, उवकुलं जोएइ कुलोवकुलं जोएइ ? उ. कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ नो लब्भइ कुलोवकुलं, १. कुलं जोएमाणे सतभिसया णक्खत्ते जोएइ, २. उवकुलं जोएमाणे पुव्वापोट्ठवया णक्खत्ते जोएइ, ता फग्गुणी अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता फग्गुणिं अमावासा जुतति वत्तव्वं सिया। ९. प. ता चेतिं अमावासं कि कुलं जोएइं, उवकुलं जोएइ कुलोवकुलं जोएइ ? उ. कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ लब्भइ कुलोवकुलं, १. कुलं जोएमाणे रेवती णक्खत्ते जोएइ, . २. उवकुलं जोएमाणे अस्सिणी णक्खत्ते जोएइ, ता चेतिं अमावासं कुलं दा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता चेत्तिं अमावासा जुतति वत्तव्वं सिया। १०.प. ता वेसाहिं अमावासं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ कुलोवकुलं जोएइ ? उ. कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ नो लब्भइ कुलोवकुलं, १. कुलं जोएमाणे भरणि णक्खत्ते जोएइ, २. उवकुलं जोएमाणे कत्तिया णक्खत्ते जोएइ, ता वेसाहिं अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता वेसाहिं अमावासा जुत्तत्ति वत्तव्वं सिया। ११.प. ता जेट्ठामूली अमावासं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ कुलोवकुलं जोएइ ? उ. कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ नो लब्भइ कुलोवकुलं, १. कुलं जोएमाणे रोहिणी णक्खत्ते जोएइ, २. उवकुलं जोएमाणे मग्गसिरे णक्खत्ते जोएइ, ता जेट्ठामूली अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत - छठा प्राभृतप्राभृत ] [ ९५ कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता जेट्ठामूली अमावासा जुत्तत्ति वत्तव्वं सिया। १२.प. ता आसाढिं अमावासं किं कुलं जोएइं, उवकुलं जोएइ कुलोवकुलं जोएइ ? उ. कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ कुलोवकुलं, वा जोएइ, १. कुलं जोएमाणे अद्धा णक्खत्ते जोएइ, २. उवकुलं जोएमाणे पुणवस्सू णक्खत्ते जोएइ, ३. कुलोवकुलं जोएमाणे पुस्से णक्खत्ते जोएइ, ता आसाढिं अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता कुलोवकुलेण वा जुत्ता, आसाठिं अमावासा जुत्तत्ति वत्तव्वं सिया। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ख] दशमप्राभृत [सप्तम प्राभृतप्राभृत] दुवालसासु पुण्णिमासु अमावासासु य चंदेण-णक्खतसंजोगो - ४०. १. प. ता कहं ते सण्णिवाए आहिए त्ति वएज्जा? उ. [क] ता जया णं साविट्ठी पुण्णिमा भवइ, तया णं माही अमावासा भवइ। [ख] ता जया णं माही पुण्णिमा भवइ, तया णं साविट्ठी अमावासा भवइ। २. [क] ता जया णं पुट्ठवइ पुण्णिमा भवइ, तया णं फग्गुणी अमावासा भवइ। ता जया णं फग्ग्णी पुण्णिमा भवइ, तया णं पुट्ठवइ अमावासा भवइ। [क] ता जया णं आसोई पुण्णिमा भवइ, तया णं चेत्ती अमावासा भवइ। [ख] ता जया णं चेत्ती पुण्णिमा भवइ, तया णं आसोई अमावासा भवइ। [क] __ता जया णं कत्तियी पुण्णिमा भवइ, तया णं वेसाही अमावासा भवइ। [ख] ___ता जया णं वेसाही पुण्णिमा भवइ, तया णं कत्तियी अमावासा भवइ। [क] ता जया णं मग्गसिरी पुण्णिमा भवइ, तया णं जेट्ठामूली अमावासा भवइ। [ख] ता जया णं जेट्ठामूली पुण्णिमा भवइ, तया णं मग्गसिरी अमावासा भवइ। [क] ता जया णं पोसी पुण्णिमा भवइ, तया णं आसाढी अमावासा भवइ। [ख] ता जया णं आसाढी पुण्णिमा भवइ, तया णं पोसी अमावासा भवड। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णक्खत्ताणं संठाणं ४१. दशमप्राभृत [ अष्टम प्राभृतप्राभृत ] १. प. ता कहं ते णक्खत्तसंठिई आहिए त्ति वएजा ? ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभीयी णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. गोसिसावलि - संठिए पण्णत्ते, २. प. ता सवणे णक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते ? उ. काहार-संटिए पण्णत्ते, ३. प. ता धणिट्ठा णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. सउणीपलीणग-संठिए पण्णत्ते, ४. प. ता सयभियसा णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. पुप्फोवयारसंठिए पण्णत्ते, ५. प. ता पुव्वापोट्ठवया णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. अवड्ढवाविसंठिए पण्णत्ते, ६. प. ता उत्तरापोट्ठवया णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. अवड्ढवावि-संठिए पण्णत्ते, ७. प. ता रेवई णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. णावासंठिए पण्णत्ते, ८. प. ता अस्सिणी णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. आसक्खंध-संठिए पण्णत्ते, ९. प. ता भरणी णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. भग-संठिए पण्णत्ते, १०.प. ता कत्तिया णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. छुरघरग-संठिए पण्णत्ते, Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ ] ११.प. ता रोहिणी णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. सगडुड्ढि - संठिए पण्णत्ते, १२.प. ता मियसिरा णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. मगसिसावलि-संठिए पण्णत्ते, १३.प. ता अद्दा णक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते ? उ. रुहिरबिंदु-संठिए पण्णत्ते, १४.प. ता पुणव्वणक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. तुला - संठिए पण्णत्ते, १५. प. ता पुस्से णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. वद्धमाण - संठिए पण्णत्ते, १६.प. ता अस्सेसा णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. पडाग - संठिए पण्णत्ते, १७.प. ता महा णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. पागार-संठिए पण्णत्ते, १८. प. ता पुव्वाफग्गुणी णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. अद्धपलियंक- संठिए पण्णत्ते, १९.प. ता उत्तराफग्गुणी णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. अद्धपलियंक - संठिए पण्णत्ते, २०.प. ता हत्थ णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. हत्थ-संठिए पण्णत्ते, २१. प. ता चित्ता णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. मुहफुल्ल - संठिए पण्णत्ते, २२. प. ता साई णक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते ? उ. खीलग-संठिए पण्णत्ते, २३.प. ता विसाहा णक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते ? उ. दामणि- संठिए पण्णत्ते, [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत- अष्टम प्राभृतप्राभृत ] २४.प. ता अणराहा णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. एगावलि-संठिए पण्णत्ते, २५.प. ता जेट्ठा णक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते ? उ. गयदंत - संठिए पण्णत्ते, २६.प. ता मूले णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. विच्छुयलंगोलसंठिए पण्णत्ते, २७.प. ता पुव्वासाढा णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. गयविक्कम - संठिए पण्णत्ते, २८.प. ता उत्तरासाढा णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. सीहनिसाइयसंठिए पण्णत्ते,' १. प. एएसि णं भंते! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभीई णक्खत्ते किंसंठिई पण्णत्ते ? उ. गोयमा ! गोसीसावलिसंठिई पण्णत्ते, गाहाओ - . १. गोसीसावलि, २. काहार, ३ . सउणी, ४. पुप्फोवयार, ५- ६. वावी य। [ जंबु. वक्ख. ७, सु. १६० ९९ He ७. णावा, ८. आसक्खंधग, ९. भग, १०. छुरघरए, ११. अ संगडुद्धी ॥ १२. मिगसीसावली, १३. रुहिरबिंदु, १४. तुला, १५. बद्धमाणग, १६. पडागा । १७. पागारे, १८ - १९. पलिअंके, २० हत्थे, २१. मुहफुल्लए चेव ॥ २२. खीलग, २३. दामणी, २४. एगावली य, २५. गयदंत, २६. विच्छुयलंगुले च ॥ २७. गयविक्कमे य तत्तो, २८. सीहनिसीही य संठाणा ॥ सूर्यप्रज्ञप्ति की वृत्ति में ये गाथाएं उद्धृत हैं। - पूर्वाभाद्रपद - उत्तराभाद्रपद के संस्थान तथा पूर्वाफाल्गुनी-उत्तराफाल्गुनी के संस्थान समान माने गए हैं किन्तु पूर्वाषाढाउत्तराषाढा के संस्थान भिन्न भिन्न माने गए हैं। संस्थानों की इस विभिन्नता को हेतु इस प्रकार है : पूर्व भद्रपदायाः अर्द्धवापीसंस्थानं, उत्तरभद्रपदाया अप्यर्धवापी संस्थानं, एतदर्द्धवापीद्वयमीलनेन परिपूर्णा वापी भवति, तेन सूत्रे वापीत्युक्तम् । पूर्वफल्गुन्या अर्द्धपल्यंकसंस्थान, उत्तरफल्गुन्या अप्यर्धपल्यंक संस्थानं, अत्रापि अर्द्धपल्यंकद्वयमीलनेन परिपूर्णकल्यंको भवति, तेन संख्यान्यूनता न । जंबु. वक्ख. ६, सु. १६० वृत्ति Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमप्राभृत [नवम प्राभृतप्राभृत] णक्खत्ताणं तारग्गसंखा सूत्र ४२-१. प. ता कहं ते तारग्गे आहिए त्ति वएज्जा ? ता एएसिं णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभीई णक्खत्ते कतितारे पण्णते ? उ. तितारे पण्णत्ते, प. सवणे णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. तितारे पण्णत्ते, प. धणिट्ठा णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. पंचतारे पण्णत्ते, प. सतभिसया णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. सततारे पण्णत्ते, १. क-प. एएसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिई णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. गोयमा! तितारे पण्णत्ते, एवं णेयव्वा जस्स जइयाओ ताराओ, इमं च तं तारगां, गाहाओ:तिग-तिग-पंचग-सय-दुग-बत्तीसग-तिगं तह तिगं च। छ, पंचग-तिग-एक्कग-पंचग-तिग-छक्कगं चेव ॥१॥ सत्तग-दुग-दुग-पंचग-एक्केक्कग-पंच-चठ-तिगं चेव। एक्कारसग-चठक्कं, चउक्कं चेव तारग्गं ॥ २॥ - जंबु. वक्ष. ६, सु. १५९ अभिइणक्खत्ते तितारे पण्णत्ते, एवं सवणो, अस्सिणी भरणी, मगसिरे, पूसे, जेट्ठा - ठाणं. अ. ३, उ.३, सु. २२७ अभिइणक्खत्ते तितारे पण्णत्ते, - सम. स.३, सु.९ ठाणं अ.३, उ. ३, सु. २२७ सम. स. ३, सु. ९ क. पंच णक्खत्ता पंचतारा पण्णत्ता, तं जहा - १. धणिट्ठा, २. रोहिणी, ३. पुणव्वसू, ४. हत्थो, ५. विसाहा, - ठाणं अ.५, उ. ३, सु. ४७३ ख. सम. स. ५, सु. १३ । ४. सतभिसयाणक्खत्ते एगसयतारे पण्णत्ते, - सम. स. १००, सु. २ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत- नवम प्राभृतप्राभृत ] १. क. ख. २. क. ख. प. पुव्वापोट्ठवया णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. दुतारे पण्णत्ते, प. उत्तरापोट्ठवया णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. दुतारे पण्णत्ते, ‍ प. रेवई णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. बतीसइतारे पण्णत्ते, प. अस्सिणी णक्खत्ते कतितारे पंण्णत्ते ? उ. तितारे पण्णत्ते, प. भरणी णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. तितारे पण्णत्ते, ५ प. कत्तिया णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. छतारे पण्णत्ते, प. रोहिणी णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. पंचतारे पण्णत्ते, " प. मिगसिरे णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. तितारे पण्णत्ते,' पुव्वाभद्दवयाणक्खत्ते दुतारे पण्णत्ते, सम. स. २, सु. ६ उत्तराभद्दवयाणक्खत्ते दुतारे पण्णत्ते, क. ख. ७. क. ख. ८. क. ख. ६. ७. ८. ९. १०. ११. १२. सम. स. २, सु. ६ रेवणक्खत्ते बत्तीसइ तारे पण्णत्ते, ठाणं, अ. ३. उ. ३, सु. २२७ सम. स. ३, सु. ९ ठाणं, अ. ३. उ. ३, सु. २२७ सम. स. ३, सु. ९ ३. ४. क. ख. ५. क. ख. ६. कत्तिया णक्खत्ते छतारे पण्णत्ते ठाणं अ. ६. सु. ५३९ सम. स. ६, सु. ७ ठाणं अ. ५. उ. ३, सु. ४७३ सम. स. ५, सु. १३ ठाणं अ. ३. उ. ३, सु. २२७ सम. स. ३, सु. ९ ठाणं अ. २. उ. ४, सु. ११० ठाणं अ. २. उ. ४, सु. ११० सम. स. ३२, सु. ५ [ १०१ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र १३. प. अद्धा णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. एगतारे पण्णत्ते, प. पुणव्वसू णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. पंचतारे पण्णत्ते, प. पुस्से णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. तितारे पण्णत्ते, प. अस्सेसा णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. छतारे पण्णत्ते, १७. प. मघा णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. सत्ततारे पण्णत्ते, प. पुव्वाफग्गुणी णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. दुतारे पण्णत्ते, प. उत्तराफग्गुणी णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. दुतारे पण्णत्ते, २०. प. हत्थ णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. पंचतारे पण्णत्ते, अद्धा णक्खत्ते एगतारे पण्णत्ते, ठाणं, अ. १, सु.५५ सम. स. १, सु. २३ ठाणं, अ.५, उ. ३, सु. ४७३ सम. स. ५, सु. १३ ठाणं, अ. ३, उ.३, सु. २२७ सम. स. ३, सु. ९ ठाणं, अ. ६. सु. ५३९ सम. स. ६, सु.७ महा णक्खत्ते सत्ततारे पण्णत्ते, ठाणं, अ. ७., सु. ५८९ सम. स. ७, सु.७ ठाणं अ. २, उ. ४, सु. ११० सम. स. २, सु.६ ठाणं ठा. २, उ. ४, सु. ११० सम. स. २, सु.६ ठाणं, ठा. ५, उ. ३, सु. ४७३ सम. स. ५, सु. १३ १. क. ४. क. ख. ख. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत - नवम प्राभृतप्राभृत] [ १०३ २१. प. चित्ता णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. एकतारे पण्णत्ते, २२. प. साती णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. एकतारे पण्णत्ते, २३. प. विसाहा णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? . उ. पंचतारे पण्णत्ते, २४. प. अणुराहा णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. पंचतारे पण्णत्ते, प. जेट्ठा णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. तितारे पण्णत्ते, २६. प. मूले णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. एगतारे पण्णत्ते, २७. प. पुव्वासाढा णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. चउतारे पण्णत्ते, २८. प. उत्तरासाढा णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? . उ. चउतारे पण्णत्ते, - ठाणं, आ. ४, उ.४, सु. ३८६ १. क. ठाणं, ठा. १, सु. ५५ ख. सम. स. १, सु.५५ ठाणं, ठा. १, सु. ५५ ख. सम. १, सु. २३ ठाणं, ठा. ५, उ. ३, सु. ४७३ ख. सम. स.५, सु. १२ अणुराहा णक्खत्ते चउतारे पण्णत्ते सम. ४, सु.७ ५. क. ठाणं, ठा. ३, उ. ३, सु. २२७ ख. सम. स. ३, सु.९ । मूलनक्खत्ते एक्कारसतारे पण्णत्ते ७. क. ठाणं, ठा. ४, उ. ४, सु. ३८६ ख. सम. स. ४, सु.८ ८. क. ठाणं, ठा. ४, उ. ४, सु. ३८६ ख. सम. स. ४, सु. ९ - सम.११, सु.५ . Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमप्राभृत [ दशम प्राभृतप्राभृत] वासं-हेमंत-गिह-राइंदियाणं ४३ प. १. ता कहं ते णेता आहिए त्ति वएजा ? ता वासाणं पढमं मासं कति णक्खत्तां णेंति ? उ. ता चत्तारि णक्खत्ता णेति, तं जहा - १. उत्तरसाढा, २. अभिई, ३. सवणो, ४. धणिट्ठा। १. उत्तरासाढा चोद्दस्स अहोरत्ते णेइ, २. अभिई सत्त अहो रत्ते णेइ, ३. सवणे अट्ठ अहोरत्ते णेइ, ४. धणिट्ठा एगं अहोरत्तं णेइ, तंसि णं मासंसि चउरंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पादाइं चत्तारि य अंगुलाणि पोरिसी भवइ। प. २. ता वासाणं बितयिं मासं कत्ति णक्खत्ता णेति ? ... .. उ. ता चत्तारि णक्खत्ता णेति, तंजहा – १. धणिट्ठा, २. सतभिसया, ३. पुव्वपोट्ठवया, ४. उत्तरपोट्ठवया। १. धणिट्ठा चोद्दस्स अहोरत्ते णेइ, २. सतभिसया सत्त अहो रत्ते णेइ, ३. पुव्वोपोट्ठवया अट्ठ अहोरत्ते णेइ, ४. उत्तरपोट्ठवया एगं अहोरत्तं णेइ, तंसि णं मासंसि अटुंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पादाइं अट्ठ अंगुलाई पोरिसी भवइ। प. ३. ता वासाणं ततियं मासं कत्ति णक्खत्ता णेति ? । उ. ता तिण्णि णक्खत्ता णेति, तंजहा – १. उत्तरपोट्ठवया, २. रेवई, ३. अस्सिणी, १. उत्तरपोट्ठवया चोद्दस्स अहोरत्ते णेइ, Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत - दशम प्राभृतप्राभृत ] [ १०५ २. रेवई पण्णरस अहोरत्ते णेइ, ३. अस्सिणी एग अहोरत्तं णेइ, तंसि च णं मासंसि दुवालसंगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहत्थाई तिण्णि पयाई पोरिसी भवइ। प. ४. ता वासाणं चउत्थं मासं कत्ति णक्खत्ता णेति ? उ. ता तिण्णि णक्खत्ता णेति, तंजहा - १. अस्सिणी, २. भरणी, ३. कत्तिया, - १. अस्सिणी चउद्दस अहोरत्ते णेइ, २. भरणी पण्णरस अहोरत्ते णेइ, ३. कत्तिया एर्ग अहोरत्तं णेइ, तंसि च णं मासंसि सोलसंगुलाए पोरिए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिण्णि पयाइं चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ। प. १. ता हेमंताणं पढमं मासं कति णक्खत्ता णेति ? उ. ता तिण्णि णक्खत्ता णेंति, तं जहा - १. कत्तिया, २. रोहिणी, ३. संठाणा, १. कत्तिया चउद्दस अहोरत्ते णेइ, २. रोहिणी पण्णरस अहोरत्ते णेइ, ३. संठाणा एगं अहोरत्तं णेइ, तंसि च णं मासंसि वीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिण्णि पयाइं अट्ठ अंगुलाई पोरिसी भवइ। प. २. ता हेमंताणं बितियं मासं कति णक्खत्ता णति ? उ. ता चत्तारि णक्खत्ता णेति, तंजहा – १. संठाणा, २. अद्धा, ३. पुणव्वसू, ४. पुस्सो, १. संठाणा चउद्दस अहोरत्ते णेइ, २. अद्धा सत्त अहोरत्ते णेइ, ३. पुणव्वसू अट्ठ अहोरत्ते णेइ, ४. पुस्से एगं अहोरत्तं णेइ,' तंसि च णं मासंसि वीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहत्थाइं चत्तारि पदाइ पोरिसी भवइ। प. ३. ता हेमंताणं ततियं मासं कति णक्खत्ता णेति ? उ. ता तिण्णि णक्खत्ता णेति, तंजहा – १. पुस्सो, २.अस्सेसा, ३. महा, १. पुस्सो चउद्दस अहोरत्ते णेइ, २. अस्सेसा पंचदस अहोरत्ते णेइ, Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र ३. महा एग अहोरत्तं णेइ, तंसि च णं मासंसि वीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिण्णि पदाइं अटुंगुलाई पोरिसी भवइ। प. ४. ता हेमंताणं चउत्थं मासं कति णक्खत्ता णेति ? उ. ता तिण्णि णक्खत्ता णेति, तंजहा - १. मघा, २. पुव्वाफग्गुणी, ३. उत्तराफग्गुणी, १. मघा चउद्दस अहोरत्ते णेइ, २. पुव्वाफग्गुणी पण्णरस अहोरत्ते णेइ, ३. उत्तराफग्गुणी एग अहोरत्तं णेइ, तंसि च णं मासंसि सोलस अंगुलाई पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिण्णि पयाई चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ। प. १. ता गिम्हाणं पढमं मासं कति णक्खत्ता णेति ? उ. ता तिण्णि णक्खत्ता वंति, तं जहा – १. उत्तराफग्गुणी, २. हत्थो, ३. चित्ता, १. उत्तराफग्गुणी चउद्दस अहोरत्ते णेइ, २. हत्थो पण्णरस अहोरत्ते णेइ, ३. चित्ता एग अहोरत्तं णेइ, तंसि च णं मासंसि दुवालसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहट्ठाई य तिण्णि पयाई पोरिसी भवइ। प. २. ता गिम्हाणं बितयिं मासं कत्ति णक्खत्ता णेति ? उ. ता तिण्णि णक्खत्ता णेति, तंजहा - १. चित्ता, २. साई, ३. विसाहा, १. चित्ता चउद्दस अहोरत्ते णेइ, २. साई पण्णरस अहोरत्ते णेइ, ३. विसाहा एगं अहोरतं णेइ, तंसि च णं मासंसि अटुंगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पयाई अट्ठ अंगुलाई पोरिसी भवइ। प. ३. ता गिम्हाणं ततियं मासं कत्ति णक्खत्ता णेति ? उ. ता तिण्णि णक्खत्ता णेति, तंजहा – १. विसाहा, २.अणुराहा, ३. जेट्ठामूलो, १. विसाहा चउद्दस अहोरत्ते णेइ, २.अणुराहा पण्णरस अहोरत्ते णेइ, ३. जेट्ठामूलो एगं अहोरतं णेइ, Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत - दशम प्राभृतप्राभृत ] [ १०७ तंसि च णं मासंसि चउरंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पयाणि य चत्तारि अंगुलाणि पोरिसी भवइ। प. ४. ता गिम्हाणं चउत्थं मासं कत्ति णक्खत्ता णेति ? उ. ता तिणि णक्खत्ता वंति, तंजहा - १. मूलो, २. पुव्वासाढा, ३. उत्तरासाढा, १. मूलो चउद्दस अहोरत्ते णेइ, २. पुव्वासाढा पण्णरस अहोरत्ते णेइ, ३. उत्तरासाढा एगं अहोरतं णेइ, तंसि च णं मासंसि वट्टाए समचउरंससंठियाए णग्गोधपरिमंडलाए सकायमणुरंगिणीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ। तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहट्ठाइं दो पदाई पोरिसीए भवइ। . Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदमग्गे णक्खत्तजोगसंखा ४४ प. उ. प. दशमप्राभृत [ ग्यारहवा प्राभृतप्राभृत ] ता कहं ते चंदमग्गा आहिए त्ति वएज्जा ? तासि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं - १. अत्थि णक्खत्ता जेणं सया चंदस्स दाहिणेणं जोगं जोएंति, २. अत्थि णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति, ३. अत्थि णक्खत्ता जे णं चंदस्स दाहिणेणऽवि उत्तरेणऽवि जोगं जोएंति, ४. अत्थि णक्खत्ता जेणं चंदस्स दाहिणेणऽवि पमद्दपि जोगं जोएंति, ५. अत्थि णक्खत्ता जे णं चंदस्स सया पमद्दं जोगं जोएंति, ताएएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं १. कयरे णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहिणेणं जोगं जोएंति ? २. कयरे णक्खत्ता जेणं सया चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति ? ३. कयरे णक्खत्ता जे णं चंदस्स दाहिणेणऽवि उत्तरेणऽवि जोगं जोएंति ? ४. कयरे णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहिणेणऽवि पमद्दं जोगं जोएंति ? ५. कयरे णक्खत्ता जे णं चंदस्स सया पमद्दं जोगं जोएंति ? उ. १. ताएएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं - तत्थ जे णं णक्खत्ता सया चंदस्स दाहिणेणं जोगं जोएंति, ते णं छ, तंजहा १. संठाणा, २. अद्धा, ३. पुस्सो, ४. अस्सेसा, ५. हत्थो, ६. मूलो, २. तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति, ते णं बारस, तंजहा - १. अभिई, २. सवणो, ३. धणिट्ठा, ४. सतभिसया, ५. पुव्वभद्दवया, ६. उत्तरभद्दवया, ७. रेवई, ८. अस्सिणी, ९. भरणी, १०. पुव्वफग्गुणी, ११. उत्तरफग्गुणी, १२. साती, ३. तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं चंदस्स दाहिणेणऽवि उत्तरेणऽवि पमद्दं जोगं जोएंति, ते णं सत्त, तं जहा - १. कत्तिया, २. रोहिणी, ३. पुणव्वसू, ४. महा, ५. चित्ता, ६. विसाहा, ७. अणुराहा, Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत - ग्यारहवा प्राभृतप्राभृत] [ १०९ ४. तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं चंदस्स दाहिणेणऽवि पमई जोगं जोएंति, ताओ णं दो आसाढाओ सव्वबाहिरे मंडले जोगं जोएंसु वा, जोएंति वा जोएस्संति वा, ५. तत्थ जे ते णक्खत्ते जे णं सया चंदस्स पमई जोगं जोएइ,सा णं एगा, जेट्ठा। रवि-ससि-णक्खत्तेहिं अविरहियाणं सामण्णाण य चंदमंडलाणं संखा ४५. क. ता एएसिं णं पण्णरसण्हं चंदमंडलाणं - अत्थि चंदमंडला जे णं सया णक्खत्तेहिं अविरहिया, ख. अत्थि चंदमंडला जे णं सया णक्खत्तेहिं विरहिया, ग. अत्थि चंदमंडला जे णं रवि-ससि-णक्खत्ताणं सामण्णा भवंति, घ. अस्थि चंदमंडला जे णं सया आदिच्चेहिं विरहिया. प. क. ता एएसिंणं पण्णरसण्हं चंदमंडलाणं - __ कयरे चंदमंडला जे णं सया णक्खत्तेहिं अविरहिया ? ख. कयरे चंदमंडला जे णं सया णक्खत्तेहिं विरहिया ? । ग. कयरे चंदमंडला जे णं रवि-ससि-णक्खत्ताणं सामण्णा भवंति ? घ. कयरे चंदमंडला जे णं सया आदिच्चेहिं विरहिया ? उ. क. ता एएसिंणं पण्णरसण्डं चंदमंडलाणं - १. प. १. एएसि णं भंते! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं - कयरे णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहिणेणं जोगं जोएंति ? २. कयरे णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति ? ३.कयरे णक्खत्ता जे णं चंदस्स दाहिणेणऽवि उत्तरेणऽवि पमई जोगं जोएंति? ४. कयरे णक्खत्ता जे णं सया दाहिणेणं पमई जोगं जोएंति? ५. कयरे णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स जोगं जोएंति ? १. गोयमा! एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं - तत्थ णं जे ते णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहिणेणं जोगं जोएंति, ते णं छ, तं जहा - १. संठाण, २. अद्ध, ३. पुस्सो, ४. असिलेस, ५. हत्थो, ६. तहेव मूलो अ बाहिरओ बाहिर मंडलस्स छप्पेते णक्खत्ता, २. तत्थ णं जे ते णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति, ते णं बारस, तं जहा - १. अभिई, २. सवणो, ३. धणिट्ठा, ४. सयभिसया, ५. पुव्वभद्दवया,६. उत्तरभद्दवया,७. रेवई,८.अस्सिणी, ९. भरणी, १०. पुव्वफग्गुणी, ११. उत्तरफग्गुणी, १२. साती, ३. तत्थ णं जे ते णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहिणओऽवि उत्तरओऽवि पमई जोगं जोएंति जोगं जोएंति, ते णं सत्त, तं जहा - १. कत्तिया, २. राहिणो, ३. पुणव्वसू, ४. मघा, ५. चित्ता, ६. विसाहा, ७. अणुराहा, ४. तत्थ णं जे ते णक्खत्ता ज णं सया चंदस्स दाहिणओ पमई जोगं जोएंति, ताओ णं दुवे आसाढाओ सव्वबाहिरए ___ मंडले जोगं जोएंसु वा, जोएंति वा, जोएस्संति वा, ५. तत्थ णं जे से णक्खत्ता, जे णं सया चंदस्स जोगं जोएइ सा णं एगा जेट्ठा, - जंबु. वक्ख.७, सु. १५७ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] तत्थ जे ते चंदमंडला जे णं सया णक्खत्तेहिं अविरहिया, णं अट्ठ, तंजा - - १. पढमे चंदमंडले, २. ततिए चंदमंडले, ३. छट्ठे चंदमंडले, ४. सत्तमे चंदमंडले, ५. अट्ठमे चंदमंडले, ६. दसमे चंदमंडले, ७. एकादसे चंदमंडले, ८. पण्णरसमे चंदमंडले, ख. तत्थ जे ते चंदमंडला जे णं सया णक्खत्तेहिं विरहिया, णं सत्त तंजा [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र - १. बितिए चंदमंडले, २. चउत्थे चंदमंडले, ३. पंचमे चंदमंडले, ४. नवमे चंदमंडले, ५. बारसमे चंदमंडले, ६. तेरसमे चंदमंडले, ७. चउद्दसमे चंदमंडले, - ग. तत्थ जे ते चंदमंडला जे णं रवि-ससि णक्खत्ताणं सामण्णा भवंति, ते णं चत्तारि तंजहा १. पढमे चंदमंडले २. बीएचंदमंडले ३. इक्कारसमेचंदमंडले ४. पव्वसमेचंदमंडले, घ. तत्थ जे ते चंदमंडला जे णं सया आदिच्चेहिं विरहिया ते णं पंच तंजहा १. छट्ठे चंदमंडले, २. सत्तमे चंदमंडले, ३. अट्टमे चंदमंडले, ४. नवमे चंदमंडले, ५. दसमे चंदमंडले । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमप्राभृत [बारहवां प्राभृतप्राभृत] णक्खत्ताणं देवया ४६ प. ता कहं ते णक्खताणं देवया आहिए त्ति वएज्जा ? ता एएणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं - अभीई णक्खत्ते किंदेवयाए पण्ण्त्ते ? उ. बंभदेवयाए पण्णत्ते, २. प. ता सवणे णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. विण्हुदेवयाए पण्णत्ते, ३. प. ता धणिट्ठा णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. वसुदेवयाए पण्णत्ते, ४. प. ता सयभिसया णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. वरुणदेवयाए पण्णत्ते, ५. प. ता पुव्वपोट्ठवया णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. अजदेवयाए पण्णत्ते, ६. प. ता उत्तरापोट्ठवया णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. अहिवड्डि देवयाए' पण्णत्ते, ७. प. तारेवई णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. पुस्सदेवयाए' पण्णत्ते, ८. प. ता अस्सिणी णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. अस्सदेवयाए' पण्णत्ते, ९. प. ता भरिणी णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? ___ उ. जमदेवयाए पण्णत्ते, १०.प. ता कत्तिया णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. अग्गिदेवयाए पण्णत्ते, १. अभिवृद्धि, अन्ग्त्र-अहिर्बुध्न इति। २. पूषा-पूषनामको देवो, न तु सूर्यपर्यायस्तेन रेवत्येव पौष्णमिति प्रसिद्धम ३. अश्वनामको देव। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र ११.प. ता रोहिणी णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? ___उ. पयावइदेवयाए' पण्णत्ते, १२.प. ता संठाणा णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. सोमदेवयाएं पण्णत्ते, १३.प. ता अद्दा णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. रुद्ददेवयाए' पण्णत्ते, १४.प. ता पुणव्वसू णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. अदितिदेवयाए पण्णत्ते, १५.प. ता पुस्से णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. बहस्सइ देवयाए पण्णत्ते, १६.पं. ता अस्सेसा णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? ____ उ. सप्पदेवयाए पण्णत्ते, १७.प. ता महा णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. पितिदेवयाए' पण्णत्ते, १८.प. ता पुव्वाफग्गुणी णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. भगदेवयाए पण्णत्ते, १९.प. ता उत्तराफग्गुणी णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? - उ. अज्जम देवयाए पण्णत्ते, २०.प. ता हत्थे णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. सुविया देवयाय पण्णत्ते, २१.प. ता चित्ता णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. तठेदेवयाए" पण्णत्ते, २२.प. ता साती णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. वाउदेवयाए पण्णत्ते, १. प्रजापतिरिति ब्रह्मनामको देवः अयं च ब्रह्मणः पर्यायान् सहते, तेन ब्राह्मामित्यादि प्रसिद्धम्। २. सोमः - चन्द्रस्तेन सौम्यं चान्द्रमसमित्यादि प्रसिद्धम् । ३. रुद्रः - शिवस्तेन रौद्रा कालिनीति प्रसिद्धम्। ४. पितृनामा देवः, ५. अर्यमा - अर्यमनामको देवविशेषः, ६. सविता - सूर्यः, ७. त्वष्टा - त्वष्ट्रनामको देवस्तेन त्वाष्ट्री - चित्रा इति प्रसिद्धम्। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत - बारहवा प्राभृतप्राभृत ] [ ११३ २३.प. ता विसाहा णक्खत्ते' किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. इंदग्गीदेवयाए पण्णत्ते, २४.प. ता अणुराहा णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. मित्तदेवयाए पण्णत्ते, ......... २५.प. ता जेट्ठा णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. इंददेवयाए पण्णत्ते, २६.प. ता मूले णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. णिरइदेवयाए पण्णत्ते, . २७.प. ता पुव्वासाढा णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ?. उ. आउदेवयाएपण्णत्ते, २८.प. ता उत्तरासाढा णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. विस्सदेवयाए पण्णत्ते, १. क - विशाखा - द्विदैवतमिति प्रसिद्धम्। २. नैर्ऋतः - राक्षसस्तेन। ३. आपो - जलनामा देवस्तेन पूर्वाषाढा तोयंमिति प्रसिद्धम्।। ४. विश्वेदेवास्त्रयोदश। क. प. एएसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभीई णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. गोयमा! बम्हदेवया पण्णत्ता, गाहाओ:१. बम्हा, २. विण्हु, ३. वसू, ४. वरूणे, ५. अय, ६. अभिवद्धी, ७. पूसे, ८.आसे, ९. जमे, १९. अग्गी, ११. पयावई, १२. सोमे, १३. रुद्दे, १४. अदिइ॥१॥ १५. बहस्सई, १६. सप्पे, १७. पिऊ, १८. भगे, १९. अजम, २०. सविआ, २१. तट्ठा, २२. वाउ, २३. इंदग्गो, २४. मित्तो, २५. इंदे, २६. निरई, २७. आउ, २८. विस्सा य॥२॥ एवं णक्खत्ताणं एगा परिवाडी णेअव्वा, जाव प. उत्तरासाढा णक्खत्ते णं ऋते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. गोयमा! विस्सदेवया पण्णत्ता, - जंबू. वक्ख.७, सु. १५८ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहुत्ताणं णामाई - ४७. ख. प. ता कहं ते मुहुत्ताणं णामधेज्जा ? आहिए त्ति वएज्जा, उ. एगमेगस्स णं अहोरत्तस्स तीसं मुहुत्ता पण्णत्ता तंजहा गाहाओ: १. रोहे, २. सेते, ३. मित्ते, ४. वायु, ५. सुगीए, ६. अभिचंदे । ७. महिदं, ८. बलव, ९. बंभो, १०. बहुसच्चे, ११. चेव ईसाणे ॥ १ ॥ १२. तट्ठेय, १३. भावियप्पा, १४. वेसमणे, १५. वरुणे य, १६. आणंदे, । १७. विजय ए, १८. वीससेणे, १९. पायावच्चे चेव, २०. उवसमे य॥ २ ॥ २१. गंघव्व, २२. अग्गिवेसे, २३. सयरिसहे, २४. आयवं च, २५. अममे य, । २६. अणवं, २७. च भोम, २८. रिसहे, २९. सव्वट्ठे, ३०. रक्खसे चेव ॥ ३ ॥ गाहाओ : दशमप्राभृत [तेरहवां प्राभृतप्राभृत ] - एतया - ब्रह्म-विष्णु-वरुणादिरुपया परिपाट्या, न तु परतीर्थिकप्रयुक्त - अश्व-यम-दहन - कमलजादिरूपया नेतव्या परिसमदि प्रापणीया । - १. बम्हा, २. विण्डु, ३. अवसू, ४. वरूणे, ५. अय, ६. वुड्ढी, ७. पूस, ८. आस, ९. जमे, १०. अग्गि, ११. पयावइ, १२. सोमे, १३. रुद्दे, १४. अदिति, १५. बहस्सई, १६. सप्पे, ॥ १ ॥ १७. पिउ, १८. भग, १९. अज्जम, २०. सविआ, २१. तट्ठा, २२. वाउ, २३. तहेव, इंदग्गी, .. २४. मित्ते २५. इंदे, २६. निरुई, २७. आठ, २८. विस्सा य बोद्धव्वे ॥ २ ॥ जंबू. वक्ख. ४७, सु. १७४ एक ही आगम में अट्ठावीस नक्षत्र देवताओं के नामों की गाथाएं भिन्न-भिन्न रचना शैली में दो बार आना, विचारणीय प्रश्न है। इसका समाधान बहुश्रुत करें तो जिज्ञासुओं के ज्ञान की वृद्धि हो । १. एगमेगे णं अहोरत्ते तीसमुहुत्ते मुहुत्तग्गेणं पण्णत्ता, एएसि णं तीसाए मुहुत्ताणं तीसं नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा १. रोद्दे, २. सत्ते, ३. मित्ते, ४. वाउ, ५. सुपीए, ६. अभिचंदे, ७. माहिंदे, ८. पलंबे, ९. बंभे, १०. सच्चे, ११. आणंदे, १२. विजए, १३. विस्ससेणे, १४. पायावच्चे, १५. उवसमे, १६. ईसाणे, १७. तट्ठे, १८. भाविअप्पा, १९ वेसमणे, २०. वरुणे, २१. सतरिसमे, २२. गंधव्वे, २३. अग्गिवेसायणे, २४. आतवे, २५. आते, २६. तट्ठवे, २७. भूमहे, २८. रिसभे, २९. सव्वट्टसिद्धे, ३०. रक्खसे । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमप्राभृत [चौदहवां प्राभृतप्राभृत] दिवसराईणं णामाई - ४८. प. ता कहं ते दिवसा ? आहिए त्ति वएज्जा, उ. ता एगमेगस्स णं पक्खस्स पण्णरस पण्णरस दिवसा पण्णत्ता, तंजहा - पडिवया दिवसे, बितिया दिवसे, तइया दिवसे, चउत्थी दिवसे, पंचमी दिवसे, छट्ठी दिवसे, सत्तमी दिवसे, अट्ठमो दिवसे, नवमी दिवसे, दसमी दिवसे, एक्कारसी दिवसे, बारसी दिवसे, तेरसी दिवसे, चउद्दसी दिवसे, पण्णरसे दिवसे, ता एएसि णं पण्णरसण्हं दिवसाणं पण्णरस णामधेजा पण्णत्ता, तंजहा - गाहाओः - ..... १. पुव्वंगे, २. सिद्धमणोरमे, य तत्तो, ३. मणोहरो चेव। ४. जसभद्दे, ५. जसोधर, ६. सव्वकामसमिद्धे ति य॥१॥ ७. इंदे मुद्धाभिसित्ते य, ८. सोमणस, ९. धणंजए, य बोद्धव्वे। १०. अत्थसिद्धे ११. अभिजाए, १२. अच्चासणे, १३. सतंजए॥२॥ . १४. अग्गिवेसे, १५. उवसमे, दिवसाणं णामधेजाई। प. ता कहं ते राईओ पण्णत्ताओ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता एगमेगस्स णं पक्खस्स पण्णरस पण्णरस राईओ पण्णताओ, तंजहा – पडिवाराई, बितियाराई, ततीयाराई, चउत्थीराई, पंचमीराई, छट्ठीराई, सत्तमीराई, अट्ठमीराई, नवमीराई, दसमीराई, एक्कारसीराई, बारसीराई, तेरसीराई, चउस्सीराई, पण्णरसीराई, ता एयासिणं पण्णरसण्हं राईणं पण्णरस जामेधेजा पण्णत्ता, तंजहा - गाहाओः - १. उत्तमा य, २. सुणक्खत्ता, ३. एलावच्चा, ४. जसोधरा। ५. सोमणसा चेव तहा, ६. सिरिसंभूता य बोद्धव्वा ॥१॥ ७. विजया य, ८. वेजयंती, ९. जयंति, १०. अपराजिया य, ११. गच्छा य। १२. समाहारा चेव तहा, १३. तेया य तहा य, १४. अतितेया॥२॥ १५. देवाणंदानिरती, रयणीणं णामधेजाइं। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमप्राभृत [पन्द्रहवां प्राभृतप्राभृत] तिहीणं णामाई - ४९. प. ता कहं ते तिही ? आहिए त्ति वएज्जा, उ. तत्थ खलु इमा दुविहा तिही पण्णत्ता, तं जहा – १. दिवसतिही, २. राईतिही य, प. ता कहं ते दिवस तिही? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता एगमेगस्स णं पक्खस्स पण्णरस पण्णरस दिवसतिही पण्णत्ता तं जहा - १.णंदे, २. भद्दे, ३. जए,४. तुच्छे, ५. पुणे पक्खस्स पंचमी, पुणरवि - ६. णंदे, ७. भहे, ८. जए, ९. तुच्छे, १०. पुण्णे . पक्थ्खस्स दसमी, पुणरवि - ११. णंदे, १२. भद्दे, १३. जए, १४. तुच्छे, १५. पुण्णे पक्खस्स पण्णरस, एवं ते तिगुणा तिहीओ सव्वेसिं दिवसाणं। प. ता कहं मे राईतिहो ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता एगमेगस्स णं पक्खस्स पण्णरस राईतिही पण्णत्ता तं जहा - . १. उग्गवई, २. भोगवई, ३. जसवई, ४. सव्वसिद्धा,५. सुहणामा, पुणरवि - ६. उग्गवई, ७. भोगवई, ८. जसवई, ९. सव्वसिद्धा,१०. सुहणामा, पुणरवि - ११. उग्गवई, १२. भोगवई, १३. जसवई, १४. सव्वसिद्धा,१५. सुहणामा, एए तिगुणा तिहीओ सव्वेसिं राईणं॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमप्राभृत [सोलहवां प्राभृतप्राभृत] णक्खत्ताणं गोत्ता - ५०. प. ता कहं ते गोत्ता? आहिए त्ति वएज्जा, प. १. ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं - अभियी णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? .उ. ता.मोग्गलायणसगोत्ते पण्णत्ते। प. २. सवणे णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते? उ. संखायणसगोत्ते पण्णत्ते। प. ३. धणिट्ठा णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. अग्गित्तावसगोत्ते पण्णत्ते। प. ४. सतभिसया णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. कण्णलोयणसगोत्ते पण्णत्ते। प. ५. पूव्वापोट्ठवया णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. जोउकण्णियसगोत्ते पण्णत्ते। प. ६. उत्तरापोट्ठवया णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. धनंजयसगोत्ते पण्णत्ते। .. प. ७. रेवई णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. पुस्सायणसगोत्ते पण्णत्ते। प. ८. अस्सिणी णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. अस्सादणसगोत्ते पण्णत्ते। प. ९. भरणी णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. भग्गवेससगोत्ते पण्णत्ते। प. १०.कत्तिया णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते? अग्गिवेससगोत्ते पण्णत्ते। 5 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र प. ११.रोहिणी णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. गोतमसगोत्ते पण्णत्ते। प. १२.संठाणा णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. भारद्दायसगोत्ते पण्णत्ते। प. १३.अद्धा णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. लाहिच्चायणसगोत्ते पण्णत्ते। प. १४.पुणव्वसु णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. वासिट्ठसगोत्ते पण्णत्ते। प. १५.पुस्से णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. उज्जायणसगोत्ते पण्णत्ते। प. १६.अस्सेसा णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. • मंडव्वायणसगोत्ते पण्णत्ते। प. १७.मघा णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. पिंगायणसगोत्ते पण्णत्ते। प. १८.पुव्वाफग्गुणी णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. गोवल्लायणसगोत्ते पण्णत्ते। प. १९.उत्तराफग्गुणी णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. स कासवगोत्ते पण्णत्ते। प. २०.हत्थे णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. स कोसियगोत्ते पण्णत्ते। प. २१.चित्ता णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. दब्भियाणसगोत्ते पण्णत्ते। प. २२.साई णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. स चामरच्छसगोत्ते पण्णत्ते। प. २३.विसाहा णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. सुंगायणसगोत्ते पण्णत्ते। प. २४.अणुराहा णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. गोलव्वायणसगोत्ते पण्णत्ते। प. २५.जेट्ठा णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. तिगिच्छायणसगोत्ते पण्णत्ते। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत - सोलहवा प्राभृतप्राभृत] [ ११९ प. २६.मूले णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. कच्चायणसगोत्ते पण्णत्ते। प. २७.पुव्वासाढा णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. वझियायणणसगोत्ते पण्णत्ते। . प. २८.उत्तरासाढा णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. वग्यावच्चसगोत्ते पण्णत्ते। प. एएसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिइणक्खत्ते किंगोत्ते पण्णते? गोयमा! मोग्गलायणसगोत्ते पण्णत्ते, गहाओ - १. मोग्गलायण, २. संखायणे अतह ३. अग्गभाव, ४. कसिणल्ले। ततो अ ५. जा उकण्णे, ६. धणंजए चेव बोद्धव्वे ॥१॥ ७. पुस्सायणे य,८. अस्सायणे य, ९. भग्गवेसे य, १०. अग्गिवेसे य। ११. गोअम, १२. भारदाए, १३. लोहिच्चे चेव, १४. वासिटे ॥२॥ १५. ओमज्जायण, १६. मंडव्यायणे, १७. पिंगायणे य, १८. गोवल्ले। १९. कासव, २०. कोसिय, २१. दब्भिय, २२. चामरच्छा य, २३. सुंगाय॥३॥ २४. गोलव्यायण, २५. तेगिच्छायणे अ, २६. कच्यायणे हवइ मूले। २७. तत्तो अ मज्झियायण, २८. वग्घावच्चे य गोत्ताई॥४॥ -जंबु. वक्ख.७, स. १६० Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णक्खत्ताणं भोयणं कज्जसिद्धी य ५१. प. उ. दशमप्राभृत [ सत्तरहवां प्राभृतप्राभृत ] १. २. ३. ४. ता कहं ते भोयणा ? आहिए त्ति वएज्जा, ता एएसि णं अट्ठावीसाए णं णक्खत्ताणं मज्झे - कत्तियाहिं दधिणा भोच्चा कज्जं साधेंति, राहिणीहिं वसभ-मंसं भोच्चा कज्जं साधेंति, मिगसिरे णं ( संठाणाहिं ) मिग-मंसं' भोच्चा कज्जं साधेंति, अद्धहिं णवणीएणं भोच्चा कज्जं साधेंति, पुणव्वसुणाऽथ घएणं भोच्चा कज्जं साधेंति, पुस्से णं खीरेण भोच्चा कज्जं साधेंति, अस्सेसाए दीवग-मंसं भोच्चा कज्जं साधेंति, महाहिं कसोतिं भोच्चा कज्जं साधेंति, ५. ६. ७. ८. ९. पुव्वाहिं फग्गुणीहिं मेढक-मंसं भोच्या कज्जं साधेंति, १०. उत्तराहिं फग्गुणीहिं णक्खी-मंसं भोच्चा कज्जं साधेंति, ११. हत्थेण वत्थाणीएणं भोच्चा कज्जं साधेंति, १२. चित्ताहिं मुग्ग सूवेणं भोच्चा कज्जं साधेंति, १३. साइणा फलाइं भोच्या कज्जं साधेंति, १४. विसाहा हिं आसित्तियाओ भोच्चा कज्जं साधेंति, १५. अणुराहाहिं मिस्सकूरं भोच्या कज्जं साधेंति, १६. जेट्ठाहिं कोलट्ठिएणं भोच्चा कज्जं साधेंति, १७. मूलेणं मूलापन्नेणं भोच्चा कज्जं साधेंति, १८. पुव्वाहिं आसाढाहिं आमलग-सरीरं भोच्या कज्जं साधेंति, १९. उत्तराहिं आसाढाहिं बिल्लेहिं भोच्चा कज्जं साधेंति, १. राहिणीहिं चसम - मंसं (चमसमंसं ) भोच्चा कज्जं साधेंति, आ. स. समिति से प्रकाशित प्रति के पृष्ठ १५१ पर ( पाठन्तर) है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत- सत्तरहवा प्राभृतप्राभृत ] २०. अभीयिणा पुप्फेहिं भोच्चा कज्जं साधेंति, २१. सवणेणं खीरेणं भोच्चा कज्जं साधेंति, २२. धणिट्ठाहिं जूसेणं भोच्या कज्जं साधेंति, २३. सतभिसयाए तुवरीओ भोच्चा कज्जं साधेंति, २४. पुव्वाहिं पुट्ठवयाहिं कारिल्लएहिं भोच्या कज्जं साधेंति, २५. उत्तराहिं पुट्ठवयाहिं वराहमंसं भोच्चा कज्जं साधेंति, २६. रेवतीहिं जलयर-मंसं भोच्चा कज्जं साधेंति, २७. अस्सिणीहिं तितिर-मंसं वट्टकमंसं वा भोच्चा कज्जं साधेंति, २८. भरणीहिं तलं (तिल) तंदुलकं भोच्या कज्जं साधेंति । १. कुल्माषांस्तिलतण्डुलानपि तथा माषांश्च गव्यं दधि, त्वाज्यं दुग्धमथैणमांसमपरं तस्यैव रक्तं तथा । तद्वत्पायसमेव चाषपललं मार्गं च शाशं तथा, षष्टिवयं च प्रियंग्वपूपमथवा चित्राण्डजान् सत्फलम् ॥ ८४ ॥ कर्म सारिकगोधिकं च पललं शल्यं हविष्यं हयाघृक्षे स्यान्कृसरानमुद्गमपि वा पिष्टं यवानां तथा । मत्स्यान्नं खलु चित्रितान्नमथवा दध्यन्नमेवं क्रमाद्भक्ष्याभक्ष्यमिदं विचार्य मतिमान् भक्षेत्तथाऽऽलोकयेत् ॥ ८५ ॥ [ १२१ - मुहूर्तचिन्तामणि यात्राप्रकरण वस्तुतः इदं सप्तदशं प्राभृतप्राभृतं न भगवता प्रतिपादितं किन्तु केनाऽप्यत्र प्रक्षिप्तमिति प्रतिभाति, नेयं भाषाशैली भगवतो लक्ष्यते, यतोऽत्र सूत्रे कुत्रचित् 'कत्तियाहिं रोहिणीहिं, अद्धाहिं ' इत्यादि तृतीयाबहुवचनं लभ्यते कुत्रचिच्च 'पुणव्वसुणा, पुस्सेणं, अद्दाए' इत्यादि तृतीयैकवचनं लभ्यते । अन्यच भोज्यवस्तुविषये कुत्रचित्तृतीया कुत्रचिद् द्वितीया च । यथा - 'दहिणा भोच्चा, बणीयेण भोच्चा, खीरेण भोच्चा' इति तृतीया, कुत्रविच्च यत्र मांसविषयकथनं तत्र द्वितीया, यथा- 'वसभमंसं भोच्चा, मिगमंसं भोच्चा, दीवगमंसं भोच्चा' इत्यादि, एवमवयवस्थितजल्पनेन ज्ञायते नेदं भगवता प्रसपितमिति । अन्यच्च कतिपयस्थलेषु स्थलचरजलचर - खेचर प्राणिनां मांसभक्षणं कार्यसिद्धौ कारणत्वेन प्रतिपादितं तत्तु नितान्तमसङ्गतमेव, यतः षटकायप्रतिपालकस्य षटकायरक्षणोपदेशतत्परस्य च भगवतो मुखान्नैव मांसभसक्षणविधिर्भवितुमर्हति शास्त्रेषु कुत्रापि नैतादृशी वाणी भगवतः समुपलभ्यते ऽतो निश्चीयते-नेदं भगवदुपदेशकविषयकमिति । अस्तु, अन्यदपि संयुक्तिकं कारणं श्रूयताम् - शास्त्रेषु सर्वत्र नक्षत्राणां गणना अभिजिन्नक्षत्रादारभ्यैव कृता युगस्याद्यदिवसेऽभिजित एवं सद्भवात् । अत्रैव शास्त्रे पूर्व दशमप्राभृतस्य प्रथमे प्राभृतप्राभृते आदावेव सूत्रमिदम् - 'ता कहं ते जोगेति वत्थुस्स आवलियाणिवाए आहिएति वएज्जा, तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु ता सव्वेवि णक्खत्ता, कत्तियादिया भरणीपज्जवसाणा एगे एवमाहंसु ॥ १ ॥ इयमन्यतीर्थिकानां प्रथमा प्रतिपत्तिः, एते कृत्तिकादीनि भरणीपर्यवसानानि नक्षत्राणि मन्यन्ते, एवमन्यतीर्थिकानां पञ्च प्रतिपत्तयः सन्ति । तत्र द्वितीयाः - 'मघादिकानि अश्लेषापर्यवसानानि सर्वाणि नक्षत्राणि इति ' २. तृतीया - धनिष्ठादीनि श्रवणपर्यवसानानि इति ३. चतुर्था अश्विन्यादीनि रेवतीपर्यवसानानि सर्वाणि नक्षत्राणि ४, एके भरण्यादिकानि अश्विनी पर्यवसानानि इति कथयन्ति । ५ । एता पञ्चापि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपा इति कथयित्वा भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति - Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमप्राभृत __ [अठारहवां प्राभृतप्राभृत] एगे जुगे आदिच्च-चंदचारसंखा - ५२. प. क. ता कहं ते चारा ? आहिए त्ति वएजा, उ. तत्थ खलु इमा दुविहा चारा पण्णत्ता, तं जहा - १. आदिच्चचारा य, २. चंदचारा य। प. क. ता कहं ते चंदचारा ? आहिए त्ति वएज्जा, उ. ता पंच संवच्छरिए णं जुगे, १. अभीइ णक्खत्ते सत्तसट्ठिचारे चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ, २. सवणे णक्खत्ते सत्तसट्ठिचारे चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ, एवं जाव, ३-२८. उत्तरासाढा णक्खत्ते सत्तसट्ठिचारे चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ, प. ख. ता कहं ते आइच्चचारा? आहि त्ति वएज्जा, उ. ता पंचसंवच्छरिए णं जुगे, १. अभीई णक्खत्ते पंचचारे सूरेण सद्धिं जोगं जोएइ, एवं जाव, २-२८. उत्तरासाढा णक्खत्ते पंचचारे सूरेण सद्धिं जोगं जोएइ। 'वयं पुण एवं वयामो - सव्वेविणं णक्खत्ता अभिई आइया उत्तरासाढापज्जवसाणा पण्णत्ता, तंजहा - अभिई सवणो जाव उत्तरासाढा॥' इति। अस्य मलयगिरिसूरिणा कृता टीका यथा - युगस्य चादिः प्रवर्तते श्रावणमासि बहुलपक्षे प्रतिपदि तिथौ बालवकरणे अभिजिन्नक्षत्रे चन्द्रेण सह योगमुपागच्छति (सति)। तथा चोक्तम-ज्योतिष्करण्डके - सावण बहुलपडिवए बालवकरणे अभिईनक्खत्ते। सव्वत्थ पढमसमये जुगस्स आइं वियाणाहि ॥ १॥ इति 'सव्वत्थ' सर्वत्रेति भरतैरवते महाविदेहे च। इत्थं सर्वेषामपि कालविशेषाणामादौ चन्द्रयोगमधिकृत्याभिजिन्नक्षत्रस्य वर्तमानत्वादभिजिदादीनि नक्षाणि प्रज्ञप्तानि। इति टीका। अत्र कृत्तिकातो भरणीपर्यवसानानि नक्षत्राणि प्रथमान्यतीर्थिकैः - संमतानि सन्ति, तन्मतानुसारेणेदं- प्राभतप्राभतं दृश्यते । नेदं भगवतो मतमित्यतः स्पष्टं ज्ञायतेऽस्मिन् सप्तदशे प्राभृतप्राभृते भगवतः प्ररूपणा न भवितुमर्हतीत्यलं विसतरेणेति। __ - चन्द्रप्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमप्राभृत [उन्नीसवां प्राभृतप्राभृत] एगसंवच्छरस्स मासा - ५३. प. ता कहं ते मासा ? आहिए त्ति वएजा, उ. ता एगमेगस्स णं संवच्छरस्स बारस मासा पण्णत्ता, तेंसि च दुविहा णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा - १. लोइया, २. लोउत्तरिया य। तत्थ लोइया णामा :१. सावणे, २. भद्दवए, ३. आसोए, ४. कत्तिए, ५. मग्गसिरे, ६. पोसे, ७. माहे, ८. फग्गुणे, ९. चेत्ते, १०. वेसाहे, ११. जेट्टे, १२. आसाढे। लोउत्तरिया णामा :गाहाओ - १. अभिणंदणे, २. सुपइठे य, ३. विजए, ४. पीइवद्धणे। ५. सेजंसे य, ६. सिवेया वि, ७. सिसिरे वि य, ८. हेमवं ॥१॥ ९. नवमे वसंतमासे, १०. दसमे कुसुमसंभवे। ११. एकादसमे णिदाहो, १२. वणविरोही य बारसे ॥२॥ १. जंबु. वक्ख. ७, सु. १५३ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवच्छराणं संखा लक्खणं च ५४. प. ता कहं णं संवच्छरे ? आहिए त्ति वएज्जा, उ. ता पंच संवच्छरा पण्णत्ता, तंजहा - १. णक्खत्त-संवच्छरे, २. जुग-संवच्छरे, ३. पमाणसंवच्छरे, ४. लक्खण-संवच्छरे, ५. सणिच्छर-संवच्छरे । १ णक्खत्तसंवच्छरस्स भेया तस्स कालपमाणं च ५५. दशमप्राभृत [ बीसवां प्राभृतप्राभृत ] १. क. ता णक्खत्तसंवच्छरे णं दुवालसंविहे पण्णत्ते, तंजहा - १. सावणे, २. भद्दवए, ३. आसोए, ४. कत्तिए, ५. मग्गसिरे, ६. पोसे, ७. माहे, ८. फग्गुणीए, ९. चित्ते, १०. वइसाहे, ११. जेट्टे, १२. आसाढे । - २. ख. जं वा बहस्सई महग्गहे दुवालसहिं संवच्छरेहिं सव्वं णक्खत्तमंडलं समाणेइ । जुगसंवच्छरस्स भेया कालपमाणं च १. २. ३. ४. ५. ५६. २. ता जुगसंवच्छरे णं पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा - १. चंदे, २. चंदे, ३. अभिवड्डिए, ४. चंदे, ५. अभिवड्डिए । ता पढमस्स णं चंदसंवच्छरस्स चउवीसं पव्वा पण्णत्ता, दोच्चस्स णं चंदसंवच्छरस्स चउवीसं पव्वा पण्णत्ता, तच्चस्स णं अभिवड्डिय संवच्छरस्स छव्वीसं पव्वा पण्णत्ता, चउत्थस्स णं चंद संवच्छरस्स चउवीसं पव्वा पण्णत्ता, पंचमस्स णं अभिवड्डिय संवच्छरस्स छव्वीसं पव्वा पण्णत्ता, एवामेव सपुव्वावरेणं पंचसंवच्छरिए जुगे एगे चउवीसे पव्वसए भवंतीतिमक्खायं । ३. पमाणसंवच्छरस्स भेया ५७-५८ आइच्चे, ५. अभिवड्डिए, १. ठाणं. ५, उ. ३, सु. ४६० २. ठाणं. ५, उ. ३, सु. ४६० ३. ठाणं. ५, उ. ३, सु. ४६० — तापमाणसंवच्छरे णं पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा १. णक्खत्ते, २. चंदे, ३. उडू, ४. ३ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत - बीसवां प्राभृतप्राभृत ] [ १२५ ४. लक्खणसंवच्छरस्स भेया - ___ता लक्खणसंवच्छरे णं पंचविहे पण्णत्ते तंजहा - १. णक्खत्ते, २. चंदे, ३. उडू, ४. आइच्चे, ५. अभिवड्डिए। ५. सणिच्छरसंवच्छर भेया - ता सणिच्छरसंवच्छरे णं अट्ठावीसइविहे पण्णत्ते, तंजहा - १. अभियी, २. सवणे, ३. धणिट्ठा, ४. सतभिसया, ५. पुव्वापोट्टवया, ६. उत्तरापोट्टवया, ७. रेवइ, ८. अस्सिणी, ९. भरणी, १०. कत्तिय, ११. रोहिणी, १२. संठाणा, १३. अद्दा, १४. पुणवस्सू, १५. पुस्से, १६. अस्सेसा, १७. महा, १८. पुव्वाफग्गुणी, १९. उत्तराफग्गुणी, २०. हत्थे, २१.चित्ता, २२. साई, २३. विसाहा, २४. अणुराहा, २५. जेट्ठा, २६. मूले, २७. पुव्वासाढा, २८. उत्तरासाढा। जं वा संणिच्छरे महग्गहे तीसाए संवच्छरेहिं सव्वं णक्खत्तमंडलं समाणेइ। गाहाओ - णक्खत्तसंवच्छरलक्खणं - समगं णक्खत्ता जोयं जोएंति, समगं उडू परिणमंति। नच्चुण्हं नाइसीए, बहु उदए होइ नक्खत्ते॥१॥ चंदसंवच्छरलक्खणं - ससि समग पुण्णमासिं, जोइं ता विसमचारि णक्खत्ता। कडुओ बहु उदगवओ, तमाहु संवच्छरं चंदं ॥२॥ ३. उडु (कम्म) संवच्छरलक्खणं - विसमं पवालिणो परिणमंति, अणउसु दिति पुष्फफलं। वासं न सम्म वासइ, तमाहु संवच्छरं कम्मं ॥३॥ आइच्चसंवच्छरलक्खणं - पुढवि-दगाणं च रसं, पुष्फ-फलाणं च देइ आइच्चे। अप्पेण वि वासेणं, सम्मं निप्फज्जए सस्सं ॥४॥ अभिवुड्डियसंवच्छरलक्खणं - आइच्चतेयतविया, खण-लव-दिवसा उऊ परिणमंति। पूरेइ रेणु-थलयाई, तमाहु अभिवड्डिय जाण ॥५॥ १. ठाणं. ५, उ. ३, सु. ४६० २. ठाणं. ५, उ. ३, सु. ४६० Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमप्राभृत [इक्कीसवां प्राभृतप्राभृत] णक्खत्ताणं दाराई - ५९. प. ता कहं तेजोइस्स दारा ? आहिए त्ति वएज्जा, उ. तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्ताओ पण्णत्तीओ, तंजहा - तत्थेगे एवमाहंसु - १. ता कत्तियादीया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - २. ता महादीया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु३. ता धणिट्ठादीया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। ___ एगे पुण एवमाहंसु ४. ता अस्सिणीयादीया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। ___एगे पुण एवमाहंसु - ५. ता भरणीयादीया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। १. तत्थ णं जे ते एवमाहंसु - (क) ता कत्तियादीया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तंजहा - १. कत्तिया, २. रोहिणी, ३. संठाणा, ४. अद्दा, ५. पुणवस्सू, ६. पुस्सो, ७. असिलेसा। (ख) महादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, तंजहा - १. महा, २. पुव्वाफग्गुणी, ३. उत्तराफग्गुणी, ४. हत्थो, ५.चित्ता, ६.साई, ७. विसाहा, (ग) अणुराधादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तंजहा - १. अणुराधा, २. जेट्ठा, ३. मूलो, ४. पुव्वासाढा, ५. उत्तरासाढा, ६. अभीइ, ७. सवणो (घ) धणिट्ठायादीया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, तंजहा - १. धणिट्ठा, २. सतभिसया, ३. पुव्वापोट्टवया, ४. उत्तरापोट्टवया, ५. रेवई, ६.अस्सिणी, Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत - इक्कीसवां प्राभृतप्राभृत ] [ १२७ ७. भरणी। २. तत्थ णं जे ते एवमाहंसु - (क) ता महादीया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तंजहा - १. महा, २. पुव्वाफग्गुणी, ३. उत्तराफग्गुणी, ४. हत्थो, ५.चित्ता, ६. साती, ७. विसाहा, (ख) अणुराधादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, तंजहा - १. अणुराधा, २. जेट्ठा, ३. मूले, ४. पुव्वासाढा, ५. उत्तरासाढा, ६. अभीई, ७. सवणे, (ग). धणिट्ठादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तंजहा - १. धणिट्ठा, २. सतभिसया, ३. पुव्वापोट्ठवया, ४. उत्तरापोट्ठवया, ५. रेवई, ६.अस्सिणी, ७. भरणी। (घ) कत्तियादीया सत्त णक्खत्ता उत्तरमदारिया पण्णत्ता, तंजहा - १. कत्तिया, २. रोहिणी, ३. संठाणा, ४. अहा, ५. पुणवस्सू, ६. पुस्सो, ७. अस्सेसा। ३. तत्थ णं जे ते एवमाहंसु - • (क) धणिट्ठादीया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तंजहा - १. धणिट्ठा, २. सतभियसा, ३. पुव्वापोट्ठवया, ४. उत्तरापोट्ठवया, ५. रेवई, ६.अस्सिणी, ७. भरणी। (ख) कत्तियादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, तंजहा - १. कत्तिया, २. रोहिणी, ३. संठाणा, ४. अद्दा, ५. पुणवस्सू, ६. पुस्सो, ७. अस्सेसा। (ग) महादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तंजहा - १. महा, २. पुव्वाफग्गुणी, ३. उत्तराफग्गुणी, ४. हत्थो, ५.चित्ता, ६.साई, ७. विसाहा, (घ) अणुराधादीया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, तंजहा - १.अणुराधा, २.जेट्ठा, ३. मूलो, ४. पुव्वासाढा, ५. उत्तरासाढा, ६. अभीयी,७. सवणो। ४. तत्थ णं जे ते एवमाहंसु - (क) ता अस्सिणी, आदीया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तंजहा - १. अस्सिणी, २. भरणी, ३. कत्तिया ४. रोहिणी, ५. संठाणा, ६.अद्दा, ७. पुणव्वसू, १. (क) कत्तियाईया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, (ख) महाईया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, (ग) अणुराहाईया सत्त णक्खत्ता अबरदारिया पण्णत्ता, (घ) धणिट्ठाइया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, - सम. स. ७, सु. ८, ९, १०, ११ ये समवायांग के जो सूत्र यहां दिये गये हैं वे अन्य मान्यता के सूचक हैं किन्तु इन सूत्रों में कोई ऐसा वाक्य नहीं है जिससे सामान्य पाठक इन सूत्रों को अन्य मान्यता के जान सके। यद्यपि जैनागमों में नक्षत्रमण्डल का प्रथम नक्षत्र अभिजित् है और अंतिम नक्षत्र उत्तरासाढा है, पर इसके अतिरिक्त भिन्न-भिन्न कालों में परिवर्तित नक्षत्रमण्डलों के भिन्न-भिन्न क्रमों का परिज्ञान आगमों के स्वाध्याय के बिना कैसे सम्भव हो? Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र (ख) पुस्सादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, तंजहा - १. पुस्सा, २. अस्सेसा, ३. महा, ४. पुव्वाफग्गुणी, ५. उत्तराफग्गुणी, ६.हत्थो, ७. चित्ता, (ग) साइयाइया सत्त णक्खत्ता पश्चिमदारिया पण्णत्ता, तंजहा - १. साती, २. विसाहा, ३. अणुराहा, ४. जेट्ठा, ५. मूलो, ६.पुव्वासाढा, ७. उत्तरासाढा, (घ) अभिइयादीया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, तंजहा - १. अभिई, २. सवणो, ३. धणिट्ठा, ४. सतभिसया, ५. पुव्वभद्दवया, ६.उत्तरभद्दवया, ७. रेवई, ५. तत्थ णं जे ते एवमाहंसु - (क) ता भरणियादीया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तंजहा - . १. भरणी, २. कत्तिया ३. रोहिणी, ४. संठाणा, ५. अद्दा, ६. पुणव्वसू, ७. पुस्सो। (ख) अस्सेसादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, तंजहा - १. अस्सेसा, २. महा ३. पुव्वाफग्गुणी, ४. उत्तराफग्गुणी, ५. हत्थो, ६. चित्ता, ७. साई। (ग) विसाहादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तंजहा - . १. विसाहा, २. अणुराहा ३. जेट्टा, ४. मूलो, ५. पुव्वासाढा, ६. उत्तरासाढा, ७. अभिई। सवणादीया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, तंजहा - १. सवणो, २. धणिट्ठा, ३. सतभिसया, ४. पुव्वापोट्ठवया, ५. उत्तरापोट्ठवया, ६. रेवई, ७. अस्सिणि। वयं पुण एवं वयामो - (क) ता अभिइयादीया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, तंजहा - १. अभिई, २. सवणो ३. धणिट्ठा, ४. सतभिसया, ५. पुव्वापोट्ठवया, ६. उत्तरापोट्ठवा, ७. रेवई। (ख) अस्सिणीआदीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, तंजहा - १. अस्सिणी, २. भरणी ३. कत्तिया, ४. रोहिणी, ५. संठाणा, ६. अद्दा, ७. पुणवस्सु। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमप्राभृत [ बावीसवां प्राभृतप्राभृत ] णक्खत्ताणं सरूवपरूवणं ६०. प. ता कहं ते णक्खत्तविजए ? आहिए त्ति वएज्जा, उ. ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवसमुद्दाणं सव्वसमुद्दाणं सव्वब्धंतराए सव्वखुड्डाए जाव एगं जोयणसयसहस्सं आयाम - विक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयहस्साइं, सोलससहस्साईं, दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए तिणि य कोसे, अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरस अंगुलाई, अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते । ― क. ता जंबुद्दीवे णं दीवे दो चंदा १. पभासेंसु वा, २. पभासेंति वा, ३. पभासिस्संति वा, ख. दो सूरिया, १. तविंसु वा, २. तवेंति वा, ३. तविस्संति वा, तंजहा ग. छप्पण्णं णक्खत्ता जोयं १. जोएंसु वा, २. जोएंति वा, ३. जोइस्संति वा, १. दो अभीई, २. दो सवणा, ३. दो धणिट्ठा, ४. दो सतभिसया, ५. दो पुव्वा पोट्ठवया, ६. उत्तरापोट्ठवया, ७. दो रेवई, ८. दो अस्सिणी, ९. दो भरणी, १०. दो कत्तिया, ११. दो रोहिणी, १२. दो संठाणा, १३. दो अद्दा, १४. दो पुणवस्सू, १५. दो पुस्सा, १६. दो अस्सेसाओ, १७. दो महाओ, १८. दो पुव्वाफग्गुणी, १९. दो उत्तराफग्गुणी, २०. दो हत्था, २१. दो चित्ता, २२. दो साई, २३. दो विसाहा, २४. दो अणुराधा, २५. दो जेट्ठा, २६. दो मूला, २७. दो पुव्वासाढा, २८. दो उत्तरासाढा । ता एएसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं क. अत्थि णक्खत्ता जे णं णव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तद्विभागे मुहुत्तस्स चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, - ख. अत्थि णक्खत्ता जे णं पण्णरस मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, ग. अत्थि णक्खत्ता जे णं तीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, घ. अत्थि णक्खत्ता जे णं पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, प. क. ता एएसिं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं - - कयरे णक्खत्ता जे णं णवमुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तट्टिभागे मुहुत्तस्स चंदेण सद्धिं जोयं जोति ? Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र ख. कयरे णक्खत्ता जे णं पण्णरस मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति ? ग. कयरे णक्खत्ता जे णं तीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति ? घ. कयरे णक्खत्ता जे णं पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति ? उ. क. ता एएसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं - तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं णव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तसट्ठिभागे मुहुत्तस्स चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, ते णं दो अभीई, ख. तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं पण्णरस मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, ते णं बारस, तंजहा - १. दो सतभिसया, २. दो भरणी, ३. दो अद्दा, ४. दो अस्सेसा, ५. दो साती, ६. दो जेट्ठा। ग. तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं तीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, ते णं तीसं, तंजहा - १. दो सवणा, २. दो धणिट्ठा, ३. दो पुव्वाभद्दवया, ४. दो रेवई, ५. दो अस्सिणी, ६. दो कत्तीया, ७. दो संठाणा, ८. दो पुस्सा, ९. दो महा, १०. दो पुव्वाफग्गुणी, ११. दो हत्था, १२. दो चित्ता, १३. दो अणुराधा, १४. दो मूला, १५. दो पुव्वासाढा, घ. तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोगं जोएंति, ते णं बारस, तंजहा - १. दो उत्तरापोट्ठवया, २. दो रोहिणी, ३. दो पुणवस्सू, ४. दो उत्तराफग्गुणी, ५. दो विसाहा, ६. दो उत्तरासाढा। क. ता एएसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं - अत्थि णक्खत्ता जे णं चत्तारि अहोरत्ते, छच्च मुहुत्ते सूरिएणं सद्धिं जोगं जोएंति, ते णं दो अभीयी, ख. अत्थि णक्खत्ता जे णं छ अहोरत्ते, एगवीसं च मुहुत्ते सूरिएणं सद्धिं जोगं जोएंति, ग. अस्थि णक्खत्ता जे णं तेरप्त अहोरत्ते, बारस य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोगं जोएंति, घ. अत्थि णक्खत्ता जे णं वीसं अहोरत्ते, तिन्नि य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोगं जोएंति, प. क. ता एएसि णं णक्खत्ताणं - ___ कयरे णक्खत्ता जे णं चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते ससूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति ? ख.कयरे णक्खत्ता जे णं छ अहोरत्ते एगवीसं च मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति ? ग. कयरे णक्खत्ता जे णं तेरस अहोरत्ते बारस य मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति ? घ. कयरे णक्खत्ता जे णं वीसं अहोरत्ते तिन्नि य मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति ? उ. क. ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं - तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं चत्तारि अहोरत्ते, छच्च मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोगं जोएंति, ते Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत - बावीसवां प्राभृतप्राभृत ] [ १३१ णं दो अभीई, ख. तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं छ अहोरत्ते एगवीसं च मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोगं जोएंति, ते णं बारस तंजहा - १. दो सतभिसया, २. दो भरणी, ३. दो अद्दा, ४. दो अस्सेसा, ५. दो साती, ६. दो जेट्ठा। ग. तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं तेरस अहोरत्ते, बारस य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोगं जोएंति, ते ___णं तीसं, तंजहा - १. दो सवणा, २. दो धणिट्ठा, ३. दो पुव्वाभद्दवया, ४. दो रेवती, ५. दो अस्सिणी, ६. दो कत्तिया, ७. दो संठाणा, ८. दो पुस्सा, ९. दो महा, १०. दो पुव्वाफग्गुणी, ११. दो हत्था, १२. दो चित्ता, १३. दो अणुराधा, १४. दो मूला, १५. दो पुव्वासाढा, घ. तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं वीसं अहोरत्ते तिण्णि य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोगं जोएंति, ते णं बारस, तंजहा - - १. दो उत्तरापोट्ठवया, २. दो रोहिणी, ३. दो पुणवस्सू, ४. दो उत्तराफग्गुणी, ५. दो. विसाहा, ६.दो उत्तरासाढा। णक्खत्तमंडलाणं सीमाविक्खंभो - ६१. प. ता कहं ते सीमाविक्खंभे? आहिए त्ति वएजा॥ उ. क. ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं - ____ अत्थि णक्खत्ता, जेसि णं छ सया तीसा सत्तसट्ठिभाग तीसइ भागाणं सीमाविक्खंभो, ख. अत्थि णक्खत्ता, जेसि णं सहस्सं पंचोत्तरं सत्तसट्ठिभाग तीसइ भागाणं सीमा-विक्खंभो, ग. अत्थि णक्खत्ता, जेसिणं दो सहस्सा दसुत्तरा सत्तसट्ठिभाग तीसइ भागाणं सीमाविक्खंभो, घ. अत्थि णक्खत्ता, जेसि णं तिसहस्सं पंचदसुत्तरं सत्तसट्ठिभाग तीसइ भागाणं सीमाविक्खंभो, प. क. ता एएसिं णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं - ___ कयरे णक्खत्ता जेसि णं छसया, तीसा सत्तसट्ठिभाग तीसइ भागाणं सीमा-विक्खभो, ख. कयरे णक्खत्ता जेसि णं सहस्सं, पंचोत्तरं सत्तसट्ठिभाग तीसइ भागाणं सीमा-विक्खभो, ग. कयरे णक्खत्ता जेसिणं दो सहस्सा दसुत्तरा सत्तसट्ठिभाग तीसइ भागाणं सीमा-विक्खभो, घ. कयरे णक्खत्ता जेसि णं तिसहस्सं पंचदसुत्तरं सत्तसट्ठिभाग तीसइ भागाणं सीमा विक्खभो, उ. क. ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं - . तत्थ जे ते णक्खत्ता, जेसि णं छ सया तीसा सत्तसट्ठिभाग तीसइ भागे णं सीमाविक्खंभो, ते णं दो अभीई। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र ख. तत्थ जे ते णक्खत्ता, जेसि णं सहस्सं पंचुत्तरं सत्तसट्ठिभाग तीसइ भागे णं सीमा विक्खंभो, ते णं बारस, तंजहा - १. दो सतभिसया, २. दो भरणी, ३. दो अद्दा, ४. दो अस्सेसा, ५. दो साती, ६. दो जेट्ठा। ग. तत्थ जे ते णक्खत्ता, जेसि णं दो सहस्सा दसुत्तरा सत्तसट्ठिभाग तीसइ भागे णं सीमाविक्खंभो, ते णं तीसं, तंजहा - १. दो सवणा, २. दो धणिट्ठा, ३. दो पुव्वाभद्दवया, ४. दो रेवई, ५. दो अस्सिणी, ६. दो कत्तिया,७. दो संठाणा, ८. दो पुस्सा, ९. दो महा, १०. दो पुव्वाफग्गुणी, ११. दो हत्था, १२. दो चित्ता, १३. दो अणुराधा, १४. दो मूला, १५. दो पुव्वासाढा, घ. तत्थ जे ते णक्खत्ता, जेसि णं तिण्णि सहस्सा पण्णरसुत्तरा सत्तसट्ठिभाग तीसइ भागे णं सीमा-विक्खंभो, ते णं बारस, तंजहा - १. दो उत्तरापोट्ठवया, २. दो रोहिणी, ३. दो पुणवस्सू, ४. दो उत्तराफग्गुणी, ५. दो विसाहा, ६. दो उत्तरासाढा। णक्खत्ताणं चंदेण जोगो - ६२. प. क. ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं - किं सया पादो चंदेण सद्धिं जोगं जोएंति ? ख. ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं - किं सया सायं चंदेण सद्धिं जोगं जोएंति ? ग. ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं - ___किं सया दुहा पविसिय पविसिय चंदेण सद्धिं जोगं जोएंति ? उ. क. ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं - न किं पितं जं सया पादो चंदेण सद्धिं जोगं जोएंति, ख.न सया सायं चंदेण सद्धिं जोगं जोएंति ? ग. न सया दुहओ पविसित्ता पविसित्ता चंदेण सद्धिं जोगंजोएंति, णण्णत्थ दोहिं अभिईहिं। ता एएणं दो अभिई पायंचिय पायंचिय चोत्तालीसं चोत्तालीसं अमावासं जोएंति णो चेव णं पुण्णमासिणिं। चंदस्स पुण्णिमासिणीसु जोगो - ६३. तत्थ खलु इमाओ बावष्टुिं पुण्णिमासीओ बावष्टुिं अमावासाओ पण्णत्ताओ, १. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं पुण्णिमासिणिं चंदे कंसि देसंसि जोएइ ? उ. जंसिणं देसंसि चंदे चरिमं बावट्ठि पुण्णिमासिणिं जोएइ ताए तेणं पुण्णिमासिणिट्ठाणाए' १. तस्मात्पूर्णमासीस्थानात्-चरमद्वाषष्टितम - पौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात् परतो मण्डलं, चतुविंशत्यधिकेन शतेन छित्वा विभज्य॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत - बावीसवां प्राभृतप्राभृत ] [ १३३ मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छत्ता बत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता, एत्थ णं से चंदे पढमं पुणिमासिणिं जोएइ, २. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं पुण्णिमासिणिं चंदे कंसि देसंसि जोएइ ? उ. जंसि णं देसंसि चंदे पढमं पुण्णिमासिणिं जोएइ, ताए तेणं पुण्णिमासिणिट्ठाणाए मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता बत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता, एत्थ णं से चंदे दोच्चं पुण्णिमासिणिं जोएइ, ३. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं पुण्णिमासिणिं चंदे कंसि देसंसि जोएइ ? उ. जंसि णं देसंसि चंदे दोच्चं पुण्णिमासिणिं जोएइ ताए ते णं पुण्णिमासिणिट्ठाणाए मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता बत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता एत्थ णं से चंदे तच्चं पुणिमासिणिं जोएइ, ४. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसमं पुण्णिमासिणिं चंदे कंसि देसंसि जोएइ ? उ. जंसि णं देसंसि चंदे तच्चं पुण्णिमासिणिं जोएइ ता पुण्णिमासिणिट्ठाणाए . मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता दोणि अट्ठासीए भागसए' उवाइणावेत्ता, एत्थ णं से चंदे दुवालसमं पुण्णिमासिणिं जोएइ, एवं खलु एएणं उवाएणं ताए ताए पुण्णिमासिणिट्ठाणाए मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता बत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता तंसि तंसि देसंसि तं तं पुण्णिमासिणिं चंदे जोएइ। ५. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं चरमं बावढेि पुण्णिमासिणिं चंदे कंसि देसंसि जोएइ? ___उ. ता जंबुदीवस्स णं दीवस्स पाईण-पडिणाययाए उदीण-दाहिणययाए जीवाए मंडलं चउव्वीसेणं सए णं छेत्ता दाहिणंसि चउब्भामंडलंसि सतावीसं भागे उवाइणाक्ता अठावीसइ भागे वीसहा छेत्ता अठ्ठारसभागे उवारणावेत्ता तिहिं भागेहिं दोहि य कलाहिं पच्चथिमिल्लं चउब्भागमंडलं असंपत्ते एत्थणं चंदे चरिमं बावढेि पुण्णिमासिणिं जोएइ।' १. 'दोण्णि अट्ठासीए भागसए' त्ति, तृतीयस्याः पौर्णमास्याः परतो द्वादशी किल पौर्णमासी नवमी भवति, ततो नवभित्रिंशतो गुणने द्वे शते अष्टाशीत्यधिके भवतः। २. १. 'जंबुद्दीवस्स णमित्यादि' जंबुद्दीपस्य णमिति वाक्यालंकारे द्वीपस्योपरि प्राचीना प्राचीनतया, इह प्राचीनग्रहणेनोत्तरपूर्वा (ईशान) गृह्यते, अपाचीनग्रहणेन दक्षिणापरा, (नैऋत्य)। ततोऽयमर्थः पूर्वोत्तर-दक्षिणापरायतया, एवमुदीचि-दक्षिणायतया, पूर्व-दक्षिणोत्तरापरायतया जीवया प्रत्यंचया दवरिकया इत्यर्थः, मण्डलं चतुर्विंशेन-चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा विभज्य भूयश्चतुर्भिविभज्यते, ततो दाक्षिणात्ये चतुर्भागमण्डले एकत्रिंशद्भागप्रमाणे सप्तविंशतिभागानुपादायाष्टाविंशतितमं च भागं विंशतिथा छित्त्वा तद्गतानष्टादशभागानुपादाय शेस्त्रिभिर्भागैश्चतुर्थस्य भागस्य द्वाभ्यां कलाभ्यां, पाश्चात्यं चतुर्भागमण्डलमसंप्राप्तः अस्मिन् प्रदेशे चन्द्रो द्वाषष्टितमां चरमा पौर्णिमासी परिसमापयति। - टीका Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र सूरस्स पुण्णिमासिणीसु जोगो - .६४. १. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं पुण्णिमासिणिं सूरे कंसि देससि जोएइ ? उ. ता जंसि णं देसंसि सूरे चरिमं बावटुिं पुण्णिमासिणिं जोएइ, ताए पुण्णिमासिणिठाणाए मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता चउणवइं भागे उवाइणावेत्ता एत्थ णं से सूरिए पढमं पुण्णिमासिणिं जोएइ। २. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं पुण्णिमासिणिं सूरे कंसि देसंसि जोएइ ? उ. ता जंसि णं देसंसि सूरे पढमं पुण्णिमासिणिं जोएइ, ताए पुण्णिमासिणिठाणाए मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता चउणवइभागे उवाइणावेत्ता एत्थ णं से सूरिए दोच्चं पुण्णिमासिणिं जोएइ। ३. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं तच्च पुण्णिमासिणिं सूरे कंसि देसंसि जोएइ ? उ. ता जंसि णं देसंसि सूरे दोच्चं पुण्णिमासिणिं जोएइ, ताए पुण्णिमासिणिठाणाए मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता चउणवइभागे उवाइणावेत्ता एत्थ णं से सूरिए तच्चं पुण्णिमासिणिं जोएइ। ४. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसं पुण्णिमासिणिं सूरे कंसि देसंसि जोएइ ? उ. ता जंसि णं देसंसि सूरे तच्चं पुण्णिमासिणिं जोएइ, ताए पुण्णिमासिणिठाणाए मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छत्ता अट्ठछत्ताले भागसए' उवाइणावेत्ता एत्थ णं से सूरिए दुवालसमं पुण्णिमासिणिं जोएइ, एवं खलु एएणं उवाएणं ताए ताए पुण्णिमासिणिट्ठाणाए मंडलं चउव्वीसे णं सएणं छेत्ता चउणवई चउणवई-भागे उवाइणावेत्ता', तंसि तंसि णं देसंसि तं तं पुण्णिमासि णं सूरे जोएइ, ५. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छाराणं चरिमं बावठिं पुण्णिमासिणिं सूरे कंसि देसंसि जोएइ? उ. ता जंबूद्दीवस्स णं दीवस्स पाईण-पडिणाययाए उदीण-दाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता पुरथिमिल्लसि चउब्भागमंडलंसिं सत्तावीसं भागे उवाइणावेत्ता १. 'अट्ठछत्ताले भागसए' त्ति, तृतीयस्या पौर्णमास्याः परतो द्वादशी किल पौर्णमासी नवमी, ततश्चतुर्नवतिर्नवभिर्गुण्यते, जातान्यष्टौ शतानि षट्चत्वारिंशदधिकानि। २. पाश्चात्ययुगचरमद्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिनिबन्धनात् स्थानात् परतो मंडलस्य चतुर्विंशत्यधिक रात प्रविभक्तस्य सत्कानां । चतुर्नवतिचतुर्नवतिभागानामतिक्रमे तस्याः तस्याः पौर्णमास्याः परिसमाप्तिः, ततश्चतुर्नवतिर्द्विषट्या गुण्यते, जातान्यष्टा - पंचाशच्छतानि अष्टाविंशत्यधिकानि, तेषां चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागो ह्रियते लब्धाः सप्तचत्वारिंशत्सकलमंडलपरावर्ताः। - टीका Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत - बावीसवां प्राभृतप्राभृत ] [ १३५ अट्ठावीसइभागं वीसहा छेत्ता अट्ठारसभागे उवाइणावेत्ता तिहिं भागेहिं दोहि य कलाहिं दाहिणिल्लं चउब्भागमंडलं असंपत्ते एत्थ णं सूरिए चरिमं बावड़ेि पुण्णिमासिणिं जोएइ। चंदस्य अमावासासु जोगो ६५. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छाराणं पढमं अमावासं चंदे कंसि देसंसि जोएइ ? उ. ता जंसि णं देसंसि चंदे चरिमं बावढेि अमावासं जोएइ, ताए अमावासट्टाए मंडलं चउव्वीसे णं सएणं छेत्ता बत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता एत्थ णं से चंदे पढम अमावासं जोएइ, एवं जेणेव अभिलावेणं चंदस्स पुण्णिमासिणीओ भणिआओ तेणेव अभिलावेणं अमावासाओ भाणियव्वाओ, तंजहा - विइया, तइया, दुवालसमी। एवं खलु एएणं उवाएणं ताए ताए अमावासाठाणाए मंडलं चउव्वीसे णं सएणं छेत्ता बत्तीसं बत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता, तंसि तंसि देसंसि तं तं अमावासं चंदेण जोएइ, प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छाराणं चरिमं बावठिं अमावासं चंदे कंसि देसंसि जोएइ ? उ. ता जंसि णं देसंसि चंदे चरिम बावठिं पुण्णिमासिणि जोएंति ताए पुण्णिमासिणि ठाणाए ___मंडलं चउव्वीसेणं सएवं छेत्ता सोलस भागे ओसक्कावइत्ता, एत्थणं से चंदे चरिमं वावट्ठि अमावासं जोएइ। सूरस्स अमावासासु जोगो प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छाराणं पढम अमावासं चंदे कंसि देसंसि जोएइ ? उ. ता जंसि णं देसंसि सूरे चरिमं बावटुिं अमावासं जोएइ, ताए अमावाससंठाणाए मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता चउणउइभागे उवाइणावेत्ता, एत्थ णं से सूरे पढमं अमावासं जोएइ, एवं जेणेव अभिलावेणं सूरियस्स पुण्णिमासिणीओ तेणेव अभिलावेणं अमावासाओ १. 'एवमित्यादि' एवमुक्तप्रकारेण येनैवाभिलापेन चन्द्रस्य पौर्णमास्यो भणितास्तेनैवाभिालापेनामावास्या अपि भणितव्याः, तद्यथा - द्वितीया, तृतीया, द्वादशी च ताश्चैवम्। प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं अमावासं चंदे कंसि देसीम जोएइ? उ. ता जसि णं देसंसि चंदे पढमं अमामासं जोएइ, ताओ णं अमावासटाणाओ मंडलं चउवीसेणं सएणं छेत्ता, बत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता, एत्थ णं से चंदे दोच्च अमावासं जोएइ, प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं अमावासं चंदे कंसि देसंमि जोएइ? उ. ता जसि णं देसंसि चंदे दोच्चं अमावासं जोएइ, ताओ अमावासट्ठाणाओ मंडलं चउवीसेणं सएणं छेत्ता, बत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता, एत्थ णं से चंदे तच्चं अमावासं जोएइ, प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसमं अमावासं चंदे कंसि देसंमि जोएइ ? । उ. ता जसि णं देसंसि चंदे अमावासं जोएइ, ताओ णं अमावासट्ठाणाओ मंडलं चउवीसेणं सएणं छेत्ता, दोण्णि अट्ठासीए भागसए उवाइणावेत्ता, एत्थ णं से चंदे दुवालसमं अमावासं जोएइ, Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र * णियव्वाओ, तंजहा - बिइया, तइया, दुवालसमी। एखलु एएणं उवाएणं ताए ताए अमावासट्ठाणाए मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता, च उणउइं चउणउई भागे उवाइणावेत्ता, तंसि तंसि देसंसि तं तं अमावासं सूरिए जोएड्। प. त एएसिणं पंचण्हं संवच्छाराणं चरिमं बावट्ठि अमावासं सूरे कंसि देसंसि जोएइ ? उ. ता जंसि णं देसंसि सूरे चरिमं बावष्टुिं अमावासं जोएइ, ताए पुण्णिमासिणीठाणाए . मंडलं चउव्वीसे णं सएणं छेत्ता सत्तालीसं भागे ओसक्कावइत्ता, एत्थ णं सूरिए चरिमं बावटुिं अमामासं जोएइ। पुण्णिमासिणिसु चंदस्स य सूरस्स य णक्खत्ताणं जोगो ६७. १. क. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छाराणं पढम पुणिमासिणि चंदे केणं णक्खत्ते जोएइ ? उ. ता धणिट्ठाहिं, धणिट्ठाणं तिण्णि मुहुत्ता एगूणवीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता पण्णट्टि चुण्णिया भागा सेसा। ख. प. तं समयं च णं सूरिए केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पुव्वफग्गुणीहिं, पुव्वफग्गुणी अट्ठावीसं मुहुत्ता अट्ठतीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता बत्तीसं चुण्णिया भागासेसा, २. क. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छाराणं दोच्चं पुण्णिमासिणिं चंदे केणं णक्खत्ते जोएइ ? उ. ता उत्तराहिं पोट्टवयाहिं, उत्तराणं पोट्ठवयाणं सत्तावीसं मुहुत्ता चोद्दस य बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तट्टिधा छेत्ता बावटुिं चुणिया भागासेसा। ख. प. तं समयं च णं सूरिए केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ___ उ. ता उत्तराहिं फग्गुणीहिं, उत्तराफुग्गुणीणं सत्तमुहुत्ता तेत्तीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स १. 'एवमित्यादि' एवमुक्तेन प्रकारेण तेमैवाभिलापेन सूर्यस्य पौर्णमास्य उक्तास्तेनैवाभिालापेनामावास्या अपि वक्तव्याः, तद्यथा ___- द्वितीया, तृतीया, द्वादशी च ताश्चैवम् । प. एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं अमावासं सूरे कंसि देसंसि जोएइ ? उ. ता जसिणं देसंसि सूरे पढमं अमावासं जोएइ, ताओ अमावासट्ठाणाओ मंडलं चउवीसेणं सएणं छेत्ता, चउणउई भागे उवाइणावेत्ता, एत्थ णं सूरे दोच्चं अमावासं जोएइ, प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं अमावासं सूरे कंसि देसंसि जोएइ? उ. ता जसि णं देसंसि दोच्च अमावासं जोएइ, ताओ अमावासट्ठाणाओ मंडलं चउवीसेणं सएणं छेत्ता, चउणउइ भागे उवाइणावेत्ता, एत्थ णं सूरे तच्चं अमावास जोएइ, प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसमं सूरे कंसि देसंसि जोएइ? उ. ता जंसि णं देसंसि सूरे तच्चं अमावासं जोएइ, ताओ अमावासट्ठाणाओ मंडलं चउवीसेणं सएणं छेत्ता, अट्ठ छत्ताले अट्ठासीए भागसए उवाइणावेत्ता, एत्थ णं से सरे दुवालसमं अमावासं जोएइ। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत - बावीसवां प्राभृतप्राभृत ] [ १३७ बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता एक्कवीसं चुणिया भागा सेसा। ३. क. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं पुण्णिमासिणिं चंदे केणं णक्खतेणं जोएइ ? उ. ता अस्सिणीहिं, अस्सिणीणं एक्कवीसं मुहुत्ता णव च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं ___ च सत्तट्ठिधा छेत्ता तेवहिँ चुणिया भागा सेसा। ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ___ उ. ता चित्ताहिं, चित्ताणं एक्को मुहुत्तो अट्ठावीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च - सत्तट्ठिधा छेत्ता तीसं चुणियाभागा सेसा। ४. क. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसमं पुण्णिमासिणिं चंदे केणं णक्खतेणं जोएइ? उ. ता उत्तराहिं, आसाढाहिं, उत्तराणं च आसाढाणं छवीसं मुहुत्ता छवीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तट्टिधा छेत्ता, चउप्पण्णं चुण्णिया भागा सेसा, ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? . उ. ता पुणण्वसुणा पुणव्वसुस्स सोलस मुहुत्ता अट्ठ य बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागंच सत्तट्ठिधा छेत्ता वीसं चुणियाभागा सेसा। ५. क. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं चरमं बावष्टुिं पुण्णिमासिणिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ? उ. ता उत्तराहिं, आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरमसमए। ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पुस्से णं पुस्सस्स एगूणवीसं मुहुत्ता तेतालीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं ___च सत्तट्ठिधा छेत्ता तेतीसं चुण्णियाभागा सेसा। अमावासासु चंदस्स य सूरस्स य णक्खत्ताणं जोगो ६८. १. क. प. एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं अमावासं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता अस्सेसाहिं चेव अस्सेसाणं एक्के मुहुत्ते चत्तीलीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तट्टिधा छेत्ता, बावट्टि चुणिया भागा सेसा। ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता अस्सेसाहिं चेव अस्मेसाणं एक्को मुहुत्तो चत्तालीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता, बावटुिं चुण्णिया भागा सेसा। २. क. प. ताएएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं अमावासं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता उत्तराहिं चेव फग्गुणीहिं उत्तराणं फग्गुणीणं चत्तालीसं मुहुत्ता पणतीसं बावट्ठिभागा ___ मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता, पणहिँ चुणिया भागा सेसा। ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र उ. ता उत्तराहिं चेव फग्गुणीहिं उत्तराणं फग्गुणीणं जहेव चंदस्स। ३. क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं अमावासं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता हत्थेणं चेव हत्थस्स चत्तारि मुहुत्ता तीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता, बाव िचुण्णिया भागा सेसा। ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ : उ. ता हत्थेणं चेव हत्थस्स जहेव चंदस्स। क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसमं अमावासं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता अबाहिं चेव अदाणं चत्तारि मुहुत्ता, दस य बावट्ठि भागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च . सत्तट्ठिधा छेत्ता, चउप्पण्णं चुणिया भागा सेसा। ख. प. तं समयं च सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता अद्दाहिं चेव अदाणं जहा चंदस्स। क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं चरिमं बावडिं अमावास चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ? ___ उ. ता पुणव्वसुणा चेव पुणव्वसुस्स बावीसं मुहुत्ता बायालीसं च बासट्ठिभागा मुहुत्तस्स सेसा। ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पुणव्वसुणा चेव, पुणव्वसुस्स जहा चंदस्स। चंदेण य सूरेण य णक्खत्ताणं जोगकालं ६९. १. क. ता जेणं अज णक्खत्तेणं चंदे जोगं जोएइ जंसि देसंसि से णं इमाइं अट्ठ एगूणवीसाइ मुहुत्तसयाइं चउवीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता, बावटुिं चुण्णियाभागे उवाइणावेत्ता पुणरवि से णं चंदे अण्णेणं सरिसएणं चेव णक्खत्तेणं जोगं जोएइ अण्णंसि देसंसि। ख.ता जेणं अज णक्खत्तेणं चंदे जोगं जोएइ, जंसि देसंसि से णं इमाई सोलस अट्ठतीसं मुहुत्तसयाइं अउणापण्णं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता, पणढेिं चुण्णियाभागे उवाइणावेत्ता पुणरवि से चंदे तेणं चेव णक्खत्तेणं जोगं जोएइ अण्णंसि देसंसि। ग. ता जेणं अज णक्खत्तेणं चंदे जोगं जोएइ जंसि देसंसि से णं इमाइं चउपण्ण-मुहुत्तसहस्साई णव य मुहुतसयाई उवाइणावेत्ता पुणरवि से चंदे अण्णेण तारिसएणं णक्खत्तेणं जोगं जोएइ, तंसि देसंसि। घ. ता जेणं अज णक्खतेणं चंदे जोगं जोएइ जंसि देसंसि से णं इमाइं एगलक्खं नव य सहस्सं अट्ठ य मुहुतसए उवाइणावेता पुणरवि से चंदे तेणं णक्खतेणं जोगं जोएइ, तंसि देसंसि। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत - बावीसवां प्राभृतप्राभृत ] [ १३९ २. क. ता जेणं अज णक्खत्तेणं सूरे जोगं जोएइ जंसि देसंसि से णं इमाइं तिण्णि छावट्ठाइं राइंदियसयाइं उवाइणावेत्ता पुणरवि से सूरिए अण्णेणं तारिसएणं चेव णक्खत्तेणं जोगं जोएइ तं देसंसि। ख. ता जेणं अज णक्खत्तेणं सूरे जोगं जोएइ तंसि देसंसि से णं इमाइं सत्त दुतीसं राइंदियसयाई ___ उवाइणावेत्ता पुणरवि से सूरे अण्णेणं चेव तारिसएणं णक्खत्तेणं जोगं जोएइ, तंसि देसंसि। ग. ता जेणं अज णक्खत्तेणं सूरे जोगं जोएइ, जंसि देसंसि से णं इमाइं अट्ठारस तीसाइं राइंदियसयाई उवाइणावेत्ता पुणरवि सूरे तेणं चेव णक्खत्तेणं जोगं जोएइ, तंसि देसंसि। घ. ताजेणं अज णक्खत्तेणं सूरे जोगं जोएइ जंसि देसंसि से णं इमाइं छत्तीसं सट्ठाई राइंदियसयाई उवाइणावेत्ता पुणरवि से सूरे तेणं चेव णक्खत्तेणं जोगं जोएइ तंसि देसंसि। चंद-सूर-गह णक्खत्ताणं गइसमावण्णत्तं ७०. ता जया णं इमे चंदे गइसमावण्णए भवइ, तया णं इयरेऽवि चंदे गइसमावण्णए भवइ। जया णं इयरे चंदे गइसमावण्णए भवइ, तया णं इमेऽवि चंदे गइसमावण्णए भवइ। ता जया णं इमे सूरिए गइसमावण्णए भवइ, तया णं इयरेऽवि सूरिए गइसमावण्णए भवइ। ता जया णं इयरे सूरिए गइसमावण्णए भवइ, तया णं इमेऽवि सूरिए गइसमावण्णए भवइ। एवं गहे वि, णक्खत्ते वि। चंद-सूर-गह णक्खत्ताणं जोगो ता जया णं इमे चंदे जुत्ते जोगे णं भवइ, तया णं इयरेवि चंदे जुत्ते जोगे णं भवइ। ता जया णं इयरे चंदे जुत्ते जोगे णं भवइ, तया णं इमेऽवि चंदे जुत्ते जोगे णं भवइ। एवं सूरेऽवि गहेऽवि णक्खत्तेऽवि। सया वि चंदा जुत्ता जोगेहिं, सया वि सूरा जुत्ता जोगेहिं, सया वि गहा जुत्ता जोगेहिं, सया विणक्खत्ता जुत्ता जोगेहि, दुहओऽवि चंदा जुत्ता जोगेहिं, Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र दुहओऽवि सूरा जुत्ता जोगेहिं, दुहओऽवि गहा जुत्ता जोगेहिं, दुहओऽवि णक्खत्ता जुत्ता जोगेहिं, मंडलं सयसहस्सेणं अट्ठाणउईए सएहि छेत्ता इच्चेस णक्खत्ते खेसपरिभागे, णक्खत्तविजए पाहुडे, त्ति बेमि। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ग्यारहवां प्राभृत पंचण्हं संवच्छराणं, पारंभ-पजवसाणकालं चंद-सूराण-णक्खत्तसंजोगकालं च - ७१. क.१. प. ता कहं ते संवच्छराणादी ? आहिए त्ति वएजा, उ. तत्थ खलु इमे पंच संवच्छरे पण्णत्ते तं जहा - १. चंदे, २. चंदे, ३. अभिवड्डिए, ४. चंदे, ५. अभिवडिए। पढमं चंदसंवच्छरं - ख. १. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमस्स चंदस्स संवच्छरस्स के आदी ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ताजे णं पंचमस्स अभिवड्डियसंवच्छरस्स पजवसाणे, से णं पढमस्स चंदस्स संवच्छरस ___आदी, अणंतरपुरक्खडे समए। ग.. प. ता से णं किं पजवसीए ? आहिए त्ति वएजा। उ. ता जे णं दोच्चस्स चंदसंवच्छरस आदी, से णं पढमस्स चंदसंवच्छरस पजवसाणे, अणंतरपच्छाक्खडे समए। घ. प. तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं छदुवीसं मुहुत्ता, छ दुवीसं च वासट्ठिभागा, मुहुत्तस्स बासट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छित्ता, चउप्पणं चुणिया भागा सेसा। प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पुणण्वसुणा, पुणव्वसुस्स सोलस मुहुत्ता अट्ठ य बासट्ठिभागा, मुहुत्तस्स बासट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता वीसं चुणिया भागा सेसा। बितियं चंदसंवच्छर क. २. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चस्स चंदसंवच्छरस के आदी ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता जे णं पढमस्स चंदसंवच्छरस पनवसाणे, से णं दोच्चस्स चंदसंवच्छरस आदी, अंणंतरपुरक्खडे समए। ख. प. ता से णं कि पजवसिए ? आहिए त्ति वएज्जा। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र उ. ता जे णं तच्चस्स अभिवड्डिय-संवच्छरस आदी, से णं दोच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाक्खडे समए। प. तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पुव्वाहिं आसाढाहिं, पुव्वाणं आसाढाणं सत्त मुहुत्ता, तेवण्णं च वावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता इगतालीसं चुण्णिया भागा सेसा। घ. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पुणव्वसुणा, पुणव्वसुस्स णं बायालीसं मुहुत्ता पणतीसं च बासट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बासट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता सत्त चुण्णिया भागा सेसा। . ततियं अभिवड्ढियं संवच्छरं क. पः ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चस्स अभिवड्डियसंवच्छरस्स के आदी ? आहिए . त्ति वएज्जा। उ. ता जे णं दोच्चस्स चंदसंवच्छरस पज्जवसाणे, से णं तच्चस्स अभिवड्डियसंवच्छरस्स __आदी, अणंतरपुरमक्खडे समए। ख. प. ता से णं किपजवसिए ? आहिए त्ति वएज्जा।। उ. ताजे णं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस आदी, से णं तच्चस्स अभिवडियसंवच्छरस्स पज्जवसाणे ___अणंतरपच्छाक्खडे समए। प. तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता उत्तराहिं आसाढााहिं, उत्तराणं आसाढाणं तेरसमुहुत्ता, तेरस य वावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, ____ बाबट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता सत्तावीसं चुणिया भागा सेसा। घ. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? . उ. ता पुणव्वसुणा, पुणव्वसुस्स दो मुहुत्ता, छप्पण्णं बाबट्ठिभागा, मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं सत्तट्ठिधा छेत्ता सट्ठी चुण्णिया भागा सेसा। चउत्थं चंदसंवच्छरं क. ४. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स के आदी ? आहिए त्ति वएज्जा । उ. ता जे णं तच्चस्स अभिवडिय-संवच्छरस्स पजवसाणे, से णं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स आदी, अणंतरपच्छाक्खडे समए। ख. प. ता से णं किंपज्जवसिए ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता जे णं चरिमस्स अभिवड्डियसंवच्छरस्स आदी, से णं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाक्खडे समए। ग. प. तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? 4 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां प्राभृत ] [ १४३ उ. ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चत्तालीसं मुहुत्ता, चत्तालीसं य बासट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बासट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता चउसट्ठी चुण्णिया भागा सेसा। प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पुणव्वसुणा, पुणव्वसुस्स अउणतीसं मुहुत्ता, एक्कवीसं च बासट्ठिभागा, मुहुत्तस्स, बासट्ठिभागं सत्तट्ठिधा छेत्ता सितालीसं चुण्णिया भागा सेसा। पंचमं अभिवड्ढियं संवच्छरं क. ५. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पंचमस्स अभिवड्डियसंवच्छरस्स के आदी ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता जे णं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस पज्जवसाणे, से णं पंचमस्स अभिवड्वियसंवच्छरस्स आदी, अणंतरपुरक्खडे समए। प. ता से णं किपजवसिए ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता जे णं पढमस्स संवच्छरस्स आदी से णं पंचमस्स अभिवडियसंवच्छरस्स पजवसाणे अणंतरपच्छाक्खडे समए। प. तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता उत्तराहिं आसाढााहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरमसमए। प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पुस्सेणं, पुस्सस्स णं एक्कवीसं मुहुत्ता, तेतालीसं च बावट्ठिभागा, मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं __च सत्तट्ठिधा छेत्ता तेत्तीसं चुणिया भागा सेसा। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां प्राभृत पंचण्हं संवच्छराणं, मासाणं च राइंदिय-मुहुत्तप्पमाणं - ७२. क.१. प. ता कति णं संवच्छरा ? आहिए त्ति वएज्जा? उ. तत्थ खलु इमे पंच संवच्छरा पण्णत्ता तं जहा - १. णक्खत्ते, २. चंदे, ३. उडू, ४. आइच्चे , ५. अभिवड्डिए। पढमं णक्खत्त-संवच्छरं ख. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमस्स णक्खत्तसंवच्छरस्स णक्खत्तमासे तीसइ मुहुत्तेणं तीसइ मुहुत्तेणं अहोरत्तेणं मिजमाणे केवइए राइंदियग्गेणं? आहिए त्ति वएजा। ___ उ. ता सत्तावीसं राइंदियाई एक्कवीसं च सत्तठिभागा राइंदियस्स राइंदियग्गेणं, आहिए त्ति वएज्जा। ग. प. ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं ? आहिए त्ति वएजा? ___उ. ता अट्ठसए एगूणवीसे मुहुत्ताणं, सत्तावीसं च सत्तट्ठिभागे मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गेणं, आहिए त्ति वएज्जा। घ. प. ता एएसि णं अद्धा दुवालसक्खुत्तकडा णक्खत्ते संवच्छरे , ता से णं केवइए राइंदियग्गे __णं? आहिए त्ति वएजा। उ. ता तिण्णि सत्तावीसे राइंदियसए एक्कावन्नं च सत्तट्ठिभागे राइंदियस्स राइंदियग्गे णं आहिए त्ति वएज्जा। ङ प. ता से णं केवइए मुहुत्तग्गे णं ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता णव मुहुतसहस्सा अट्ट य बत्तीसे मुहुत्तसए छप्पन्नं च सत्तट्ठिभागे मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गे णं, आहिए त्ति वएज्जा। बितियं चंदसंवच्छरं २. क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स चंदे मासे तीसइमुहुत्ते णं तीसइमुहुत्ते णं अहोरत्तेणं मिजमाणे केवइए राइंदियग्गे णं ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता एगूणतीसं राइंदियाइं बत्तीसं बासट्ठिभागा राइंदियस्स राइंदियग्गे णं, आहिए त्ति वएजा। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां प्राभृत ] [ १४५ ख. प. ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं ? आहिए त्ति वएज्जा ? उ. ता अट्ठपंचासए मुहुत्ते तेत्तीसंबासट्ठिभागा मुहुत्तग्गेणं, आहिए त्ति वएज्जा। ग. प. ता एस णं अद्धा दुवालसक्खुत्तकडा चंदेसंवच्छरे , ता से णं केवइए राइंदियग्गे णं ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता तिण्णि चउप्पत्रे राइंदियसए दुवालस य बासट्ठिभागा राइंदियग्गे णं आहिए त्ति वएज्जा। घ. प. ता से णं केवइए मुहुत्तग्गे णं? आहिए त्ति वएजा। उ. ता दसमुहुतसहस्साई छच्च पणवीसे मुहुत्तसए पण्णसं च बासट्ठिभागे मुहुत्ते णं, आहिए त्ति वएजा। ततियं उडुसंवच्छरं ३. क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चस्स उडुसंवच्छरस्स उडुमासे तीसइ मुहुत्तेणं, तीसइ मुहुत्ते णं मिजमाणे केवइए राइंदियग्गे णं? आहिए त्ति वएज्जा। . उ. ता तीसं राइंदियाणं राइंदियग्गे णं, आहिए त्ति वएज्जा। ख. प. ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं ? आहिए त्ति वएज्जा ? उ. ता णवमुहुत्तसयाई मुहुत्तग्गे णं, आहिए त्ति वएजा। ग. प. ता एस णं अद्धा दुवालसखुत्तकडा उडू संवच्छरे , ता से णं केवइए राइंदियग्गे णं ? आहिए त्ति वएजा। ____उ. ता तिण्णि सटे राइंदियसए राइंदियग्गे णं आहिए त्ति वएजा। घ. प. ता से णं केवइए मुहुत्तग्गे णं ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता दसमुहुत्तसहस्साइं अट्ठ य सयाई मुहुत्तग्गे णं, आहिए त्ति वएजा। चउत्थं आइच्चसंवच्छरं ४. क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं चउत्थस्स आदिच्चसंवच्छरस्स आइच्चे मासे तीसइ मुहुत्ते णं तीसइमुहुत्तेणं अहोरत्तेणं मिजमाणे केवइए राइंदियग्गेणं? आहिए त्ति वएजा। उ. ता तीसं राइंदियाइं अवद्धभागं च राइंदियस्स राइंदियग्गे णं, आहिए त्ति वएजा। ख. प. ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं ? आहिए त्ति वएज्जा? उ. ता णव पण्णरस मुहुत्तसए मुहुत्तग्गे णं, आहिए त्ति वएज्जा। ग. प. ता एए णं अद्धा दुवालसखुत्तकडा आदिच्चे संवच्छरे , ता से णं केवइए राइंदियग्गे णं? आहिए त्ति वएजा। उ. ता तिनि छावढे राइंदियसए राइंदियग्गे णं आहिए त्ति वएज्जा। घ. प. ता से णं केवइए मुहुत्तग्गे णं ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता दसमुहुत्तस्स सहस्साई णव असीए मुहुत्तसए मुहुत्तग्गे णं, आहिए त्ति वएज्जा। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र पंचम अभिवडियसंवच्छरं ५. क. प. ता एएसि णं पंचण्डं संवच्छराणं पंचमस्स अभिवड्डियसंवच्छरस्स अभिवड्डिए मासे तीसइमुहुतेणं णं अहोरत्तेणं मिजमाणे केवइए राइंदियग्गेणं ? आहिए त्ति वएजा। उ. ता एगतीसं राइंदियाइं एगूणतीसं च मुहुत्ता सत्तरस बासट्ठिभागे मुहुत्तस्स राइंदियग्गे ___णं, आहिए त्ति वएज्जा। ख. प. ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं ? आहिए त्ति वएज्जा ? उ. ता णव एगूणसट्टे मुहुत्तसए सत्तरस बासट्ठिभागे मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गेणं आहिएत्ति वएज्जा। ग. प. ता एस णं अद्धा दुवालसखुत्तकडा अभिवड्डियसंवच्छरे, ता से णं केवइए राइंदियग्गे णं? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता तिणि तेसीए राइंदियसए एक्कतीसं च मुहुत्ता अट्ठारस बासट्ठिभागे मुहुत्तस्स ___ राइंदियग्गे णं आहिए त्ति वएजा। घ. प. ता से णं केवइए मुहुत्तग्गे णं ? आहिए त्ति वएजा। उ. ता एक्कारसमुहुत्तसहस्साइं पंच य एक्कारसमुहुत्तसए अट्ठारस बासट्ठिभागे मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गे णं आहिए त्ति वएज्जा। एगस्स जुगस्स अहोरत्त-मुहुत्तप्पमाणं ७३. क. प. ता केवइयं ते नो-जुगे राइंदियग्गेणं ? आहिए त्ति वएजा। .. उ. ता सत्तरस एकाणउए राइंदियसए, एगूणवीसं च मुहुत्त, सत्तावण्णे बासट्ठिभागे मुहुत्तस्स, बासट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता पणपन्नं चुणिया भागे राइंदियग्गे णं आहिए त्ति वएजा। ख. प. ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं ? आहिए त्ति वएज्जा ? उ. ता तेवण्णमुहुत्तसहसस्साई, सत्त य अउणापन्ने मुहुत्तसए, सत्ताववण्णं बासट्ठिभागे __ मुहुत्तस्स, बासट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता पणपण्णं चुणिया भागा मुहुत्ते णं, आहिए त्ति वएजा। ग. प. ता केवइये णं ते जगपत्ते राइंदियग्गे णं? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता अट्ठतीसं राइंदियाइं दस य मुहुत्ता, चत्तारि य बासट्ठिभागे मुहुत्तस्स बासट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता दुवालस चुणिया भागे राइंदियग्गे णं, आहिए त्ति वएज्जा। घ. प. ता से णं केवइए मुहुत्तग्गे णं ? आहिए त्ति वएजा। उ. ता एक्कारस पण्णासे मुहुत्तसए, चत्तारि य बासट्ठिभागे मुहुत्तस्स, बासट्टेभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता दुवालस चुण्ण्यिा भागे मुहुत्तग्गे णं, आहिए त्ति वएजा। ङ प. ता केवइयं जुगे राइंदियग्गेणं ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता अट्ठारस तीसे राइंदियसए राइंदियग्गे णं आहिए त्ति वएज्जा। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां प्राभृत ] [ च. प. ता से णं केवइए मुहुत्तग्गे णं ? आहिए त्ति वएज्जा । उ. ता चउप्पण्णं मुहुत्तसहस्साइं णव य मुहुत्तसयाइं मुहुत्तग्गे णं, आहिए त्ति वएज्जा । पंचण्हं संवच्छराणं पारंभ-पज्जवसाणकालस्स समत्तपरूवणं १४७ छ. प. ता से णं केवइए बासट्टिभागं मुहुत्तग्गे णं ? आहिए त्ति वएज्जा । उ. ता चोत्तीसं सयसहस्साइं अट्ठावीसं च बासट्ठि भागमुहुत्तसए बासट्टिभाग मुहुत्तग्गे णं, आहिए ति वज्जा । ७४. १. क. प. ता कया णं एए आदिच्च-चंद संवच्छरा समादीया समपज्जवसिया ? आहिए त्ति वएज्जा ? उ. ता सट्ठि एए आदिच्चमासा बासट्ठि एए य चंदमासा । एस णं अद्धा छखुत्तकडा दुवालसभयिता तीसं एए आदिच्चसंवच्छरा, एक्कीतीसं एए चंदसंवच्छरा, तया णं एए आदिच्च- चंद- संवच्छरा समादीया समपज्जवसिया आहिए त्ति वएज्जा । ख. प. ता कया णं एए आदिच्च उडु-चंद-णक्खत्ता-संवच्छरा समादीया समपज्जवसिया ? आहिए ति वएज्जा ? उ. ता सट्ठि एए आदिच्चा मासा एगट्ठि एए उडुमासा, बासट्ठि एए चंदमासा, सत्तट्ठि एए णक्खत्तमासा । एस णं अद्धा दुवालस खुत्तकडा दुवालसभयिता सट्ठि एए आइच्या संवच्छरा, एगट्ठि एए उड्डु संवच्छरा, बासट्ठि एए चंदा संवच्छरा, सत्तट्ठि एए णक्खत्ता संवच्छरा । तया णं एए आइच्य-उड्डु-चंद - णक्खत्ता संवच्छरा समादीया समपज्जवसिया ? आहिए त्ति वएज्जा ? - ग. प. ता कया णं एए अभिवड्ढिय आइच्च उडु-चंद - णक्खत्ता-संवच्छरा समादीया. समपज्जवसिया ? आहिए त्ति वएज्जा ? उ. ता सत्तावण्णं मासा, सत्त य अहोरत्ता, एक्कारस य मुहुत्ता, तेवीसं बासट्ठि भागामुहुत्तस्स एए अभिवड्ढिया मासा, सट्ठि एए आइच्यामासा, एगट्ठि एए उडुमासा बासट्ठि एए चंदमासा सत्तट्ठि एए णक्खत मासा । एस णं अद्धा छप्पण्ण-सयखुत्तकडा दुवालस भयिता सत्त सया चोयाला, एए णं अभिवड्ढिया संवच्छरा, सत्तसया असीया, एए णं आइच्या संवच्छरा, सत्तसया तेणउया, एए णं उडु संवच्छरा, अट्ठसत्ता छल्लुत्तरा, एए णं चंदा संवच्छरा । एकसतरी अट्ठसया एए णं णक्खता संवच्छरा । तया णं एए अभिवड्ढिय - आइच्च उडु - चंद-णक्खत्ता संवच्छरा समादीया Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] समपज्जवसिया, आहिए त्ति वएज्जा ? २. ताणयट्टयाए णं चंदे संवच्छरे तिण्णि चउप्पण्णे राइंदियसए, दुवालस य बासट्टिभागे राइंदियस्स, आहिए त्ति वएज्जा । ३. ता अहातच्चे णं चंदे संवच्छरे तिण्णि चउप्पण्णे राइंदियसए, पंच य मुहुत्ते पण्णासं च बासट्ठि भागे मुहुत्तस्स, आहिए त्ति वएज्जा । उडूणं णामाई कालप्यमाणं च ७५. [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र तत्थ खलु इमे छ उडू पण्णत्ता, तंजहा - १. पाउसे, २. वरिसारत्ते, ३. सरते, ४. हेमंते, ५. वसंते, ६. गिम्हे । ता सव्वे वि णं एए चंद-उडू दुवे दुवे मासा तिचउप्पण्णसएणं तिचउप्पण्णसएणं आयाणेणं गणिज्जमाणा साइरेगाई एगूणसट्ठि एगूणसट्ठि राइंदियाई राईदियग्गेणं' आहिए त्ति वएज्जा । अवम- अइरित्तरत्ताणं संखा त हेउं च तत्थ खलु इमे छ ओमरत्ता पण्णत्ता, तंजहा - १. तइए पव्वे, २. सत्तमे पव्वे, ३. एक्कारसमे पव्वे, ४. पण्णरसमे पव्वे, ५. एगूणवीसइमे पव्वे, ६. तेवीसइमे पव्वे । तत्थ खलु इमे छ अतिरत्ता पण्णत्ता, , तंजहा - १. चउत्थे पव्वे, २. अट्टमे पव्वे, ३. बारसमे पव्वे, ४. सोलसमे पव्वे, ५. वीसइमे पव्वे, ६. चउवीसइमे पव्वे । गाहा छच्चेव य अइरत्ता, आइच्याओ हवंति माणाई । छच्चेव ओमरत्ता, चंदाहिं हवंति माणाई ॥ १ ॥ वासिक्कियासु आउट्टियासु चंदेण सूरेण य णक्खत्त जोगकालो ७६. तत्थ खलु इमाओ पंचवासिकीओ, पंच हेमंतीओ आउट्टीओ पण्णत्ताओ । १ क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पंढम वासिक्किं आउट्टिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता अभिइणा अभिइस्स पढमसएणं । ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पूसेणं, पूसस्स एगूणवीसं मुहुत्ता तेतालीसं च बावट्टिभागा मुहुत्तस्स बावद्विभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तेत्तीसं चुण्णिया भागा सेसा । २. क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं वासिक्किं आउट्टिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? १. ठाणं, ६, सुं. ५२६ २. चंदस्स णं संवच्छरस्स एगमेगे उ ऊ एगूणसट्ठि राइंदियाई राइंदियग्गेणं पण्णत्ता । ३. क. पर्वणि पक्षे। यहां पर्व-पक्ष का पर्यायवाची है। ख. ठाणं ६, सु. ५२४ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां प्राभृत ] [ १४९ उ. ता संठाणाहिं, संठाणाणं एक्कारस मुहुत्ते, एगूणतालीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावद्विभार्ग ___च सत्तट्ठिधा छेत्ता, वेपण्णं चुण्णिया भागा सेसा। ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ___ उ. ता पूसे णं, पूसस्स णं तं चेव, जं पढमाए। ३. क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं वासिक्किं आउट्टि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ? उ. ता विसाहाहिं, विसाहा णं तेरस मुहुत्ता, चउप्पण्णं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता, चत्तालीसं चुण्णिया भागा सेसा। ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ___ उ. ता पूसे णं, पूसस्स णं तं चेव, जं पढमाए। ४. क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं च चउत्थं वासिक्किं आउट्टि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ? उ. तारेवईहिं, रेवईणं पगवीसं मुहुत्ता बत्तीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता, छत्तीसं चुण्णिया भागा सेसा। ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पूसे णं, पूसस्स णं तं चेव, जं पढमाए। ५. क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं च पंचम वासिक्किं आउट्टि चंदे केणं णक्खत्ते णं जोएइ? उ. ता पुव्वाहिं, फग्गुणीहिं पुव्वाफग्गुणीणं बारसमुहुत्ता सत्तालीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता तेरस चूणिया भागा सेसा। ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पूसेणं, पूसस्स तं णं चेव, जं पढमाए। हेमंतियासु आवट्टियासु चंदेण सूरेण य णक्खत्तजोगकालो ७७.१. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं हेमंति-आउट्टि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता हत्थेणं, हत्थस्स णं पंचमुहुत्ता पण्णासं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता सzि चुणिया भागा ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता उत्तराहिं आसाढाहिं उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए। २. क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं हेमंति आउट्टि चंदे केणं णक्खतेणं जोएइ ? उ. ता सतभिसयाहिं, सतभिसयाणं दुन्नि मुहुत्ता अट्ठावीसं च बावट्ठिभागा मुहुतस्स, बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिया छेता छेतालीसं च चुणिया भागा सेसा। ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खतेणं जोएइ ? उ. ता उत्तराहिं आसाठाहिं उत्तराणं आसाठाणं चरिमसमए। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र ३. क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं हेमंति आउट्टि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ? उ. ता पूसे णं, पुसस्स एगूणवीसं मुहुत्ता तेतालीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तेत्तीसं च चुण्णिया भागा सेसा। ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? - उ. ता उत्तराहिं, आसाढाहिं उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए। ४. क. प. एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं चउत्थिं हेमंति आउट्टिं चंदे केणं णक्खत्ते जोएइ ? उ. ता मूलेणं, मूलस्स छ मुहुत्ता, अट्ठावन्नं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता वीसं चुण्णिया भागा सेसा। ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता उत्तराहिं आसाढाहिं उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए। ५. क. प. एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पंचमं हेमंति आउट्टि चंदे केणं णक्खतेणं जोएइ ? उ. ता कत्तियाहि , कत्तियाणं अट्ठारस मुहुत्ता, छत्तीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं सत्तट्टिधा छेत्ता च चुणिया भागा सेसा। ____ ख. प. तं समयं च सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता उत्तराहिं आसाढाहिं उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए। जोगाणं चंदेण सद्धिं जोग-परूवणं ७८. तत्थ खलु इमे दसविहे जाए पण्णत्ते, तं जहा १. वसभाणु जोए, २. वेणुयाणु जोए ३. मंचे जोए, ४. मंचाइमंचे जोए ५. छत्ते जोए, ६. छत्ताइ छत्ते जोए ७. जअणद्धे जोए, ८. घणसंमद्दे जोए ९. पीणिए जोए, १०. मंडुकप्पुते जोए १.प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं छत्ताइच्छत्तं जोयं चंदे कंसि देसंसि जोएइ ? उ. ता जंबुद्दीवस्स दीवस्स, __पाईण-पडिणीआययाए,उदीण-दाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छित्ता दाहिणपुरथिमिल्लसि चउभागमंडलंसि सत्तावीसं भागे उवाइणावेत्ता अट्ठावीसइभागं वीसधा छेत्ता अट्ठारसभागे उवाइणावेत्ता तिहिं भागेहिं दोहिं कलाहिं दाहिण-पुरथिमिल्लं चउब्भागमंडलं असंपत्ते एत्थ णं से चंदे छत्तातिच्छत्तं जोयं जोएइ। उप्पिं चंदो, मज्झे णक्खत्ते, हेट्ठा आइच्चे। २.प. तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता चित्ताहिं चरमसमए। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां प्राभृत ख. चंदमसोवड्ढोऽवड्ढी ७९. प. ता कहं ते चंदमसो वड्डोऽवड्डी ? आहिए त्ति वएज्जा? उ. ता अट्ठ पंचातीसे मुहुत्तसते तीसं च बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स। क. ता दोसिणापक्खाओ अंधगारपक्खं अयमाणे चंदे चत्तारि बायालसए, छत्तालीसं च बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स जाइं चंदे रजइ, तंजहा - पढमाए पढम भागं बितियाए बितियं भागं जाव पण्णरसीए पण्णरसमं भाग, चरमसमए चंदे रत्ते भवइ, अवसेसे समए चंदे रत्ते य विरत्ते य भवइ, इयण्णं अमावासा, एत्थं णं पढमे पव्वे अमावासे ता अंधगारपक्खो, ता णं दोसिणापक्खं अयमाणे चंदे चत्तारे बायाले मुहुत्तसए छत्तालीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स जाइं चंदे विरजइ, तंजहा - पढमाए पढमं भागं बितियाए बितियं भागं जाव पण्णरसीए पण्णरसमं भागं, चरिमसमए चंदे विरत्ते भवइ, अवसेससमए रत्ते य, विरत्ते य भवइ, इयण्णं पुण्णमासिणी, एत्थं णं दोच्चे पव्वे पुण्णिमासिणी। एगयुगे पुण्णिमासिणीओ अमावासो ८०. प. तत्थ खलु इमाओ बावढेि पुण्णिमासिणीओ बावटुिं अमावासाओ पण्णत्तओ, बावठिं एते कसिणा रागा, बावठिं एते कसिणा विरागा, एते चउव्वीसे पव्वसए, एते चउव्वीसे कसिण-राग-विरागसए, जावइयाणं पंचण्हं संवच्छराणं समया एगे णं चउव्वीसेणं समयसएगुणगा, Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र एवइया परित्ता असंखेजा देस-राग-विराग सया भवंतीतिमक्खाया, ता अमावासाओ णं पुण्णिमासिणी चत्तारि बायाले मुहुत्तसए छत्तालीसं बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स आहिए त्ति वएज्जा, ता पुण्णिमासिणीओ णं अमावासा चत्तारि बायाले मुहुत्तसए छत्तालीसं बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स आहिए त्ति वएज्जा, ता अमावासाओ णं अमावासा अट्ठपंचासीए मुहुत्तसए तीसं च बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स आहिए त्ति वएज्जा, ता पुण्णिमासिणीओ णं पुण्णिमासिणी अटुं पंचासीए मुहुत्तसए तीसं बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स आहिए त्ति वएजा, एस णं एवइए चंदे मासे, एस णं एवइए सगले जुगे। चंदाइच्च अद्धमासे चंदाइच्चाणं मंडलचारं ८१. क. प. ता चंदेण अद्धमासेणं चंदे कइ मंडलाइं चरइ ? ___उ. ता चउद्दस चउब्भागमंडलाइं चरइ एगं च चउवीससयभागं मंडलस्स। ख. प. ता आइच्चेणं अद्धमासेणं चंदे कइ मंडलाई चरइ ? उ. ता सोलस मंडलाइं चरइ, सोलसमंडलचारी तया अवराई खलु दुवे अट्ठकाई जाइं चंदे केणड असामण्णगाई सयमेव पविद्वित्ता पविद्वित्ता चारं चरड। ग. प. कयराइं खलु दुवे अट्ठगाई जाई चंदे केणइ असामण्णगाई सयमेव पविद्वित्ता पविट्ठित्ता चारं चरइ ? उ. इमाई खलु ते दुवे अट्ठगाई जाइं चंदे केणइ असामएणगाई सयमेव पविट्ठित्ता पविट्ठित्ता चारं चरइ तं जहा - १. निक्खममाणे चेव अमावासंते णं, २. पविसमाणे चेव पुण्णिमासिंतेणं, एयाइं खलु दुवे अट्ठगाइं जाइं चंदे केणई असामण्णगाइं सयमेव पविट्ठित्ता पविट्ठित्ता चारं चरइ। पढमे चंदायणे ता पढमा पढमायणगए चंदे दाहिणगए भागाए पविसमाणे सत्त अद्धमंडलाइं जाइं चंदे Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां प्राभृत ] [१५३ दाहिणाए भागाए पविसमाणे चारं चरइ, प. कयराइं खलु ताई सत्त अद्धमंडलाइं जाइं चंदे दाहिणाए भागाए पविसमाणे, चारं चरइ ? उ. इमाइं खलु ताई सत्त अद्धमंडलाइं जाइं चंदे दाहिणाए भागाए पविसमाणे चारं चरइ, तं जहा - १. बिइए अद्धमंडले, २. चउत्थे अद्धमंडले, ३. छठे अद्धमंडले, ४. अट्ठमे अद्धमंडले, ५. दसगे अद्धमंडले, ६. बारसमे अद्धमंडले ७. चउदसमे अद्धमंडले। एयाइं खलु ताई सत्त अद्धमंडलाइं जाइं चंदे दाहिणाए भागाए पविसमाणे चारं चरइ, सा पढमायणगए चंदे उत्तराए भागाए पविसमाणे छ अद्धमंडलाइं तेरस य सत्तट्ठिभागाइं अद्धमंडलस्य जाई चंदे उत्तराए भागाए पविसमाणे चारं चरई, प. कयराइं खलु ताई छ अद्धमंडलाइं तेरस य सत्तट्ठिभागाइं अद्धमंडलस्य जाइं चंदे उत्तराए __ भागाए पविसमाणे चारं चरइ? उ. इमाइं खलु ताई छ अद्धमंडलाइं तेरस य सत्तट्टिभागाइं अद्धमंडलस्स जाइं चंदे उत्तराए भागाए पविसमाणे चारं चरइ, तंजहा - १. तईए अद्धमंडले, २. पंचमे अद्धमंडले, ३. सत्तमे अद्धमंडले, ४. नवमे अद्धमंडले, ५. एकारसमे अद्धमंडले, ६. तेरसमे अद्धमंडले पण्णरसमंडलस्स तेरस सत्तट्टिभागाइं, एताई खलु ताई छ अद्धमंडलाइं तेरस य सत्तट्टिभागाइं अद्धमंडलस्स जाइं चंदे उत्तराए भागाए पविसमाणे चारं चरइ, एयावया च पढमे चंदायणे समत्ते भवइ दोच्चे चंदायणे .. ताणक्खत्ते अद्धमासे नो चंदे अद्धमासे, चंदे अद्धमासे नो णक्खत्ते अद्धमासे, Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र प. ताणक्खत्ताओ अद्धमासाओ ते चंदे चंदेणं अद्धमासेणं किमधियं चरइ? उ. ता एगं अद्धमंडलं चरइ,चत्तारि य सत्तट्टिभागाइं अद्धमंडलस्स सत्तट्टिभागं एगतीसाए छेत्ता णव भागाई, ता दोच्चायण्गए चंदे पुरच्छिमाए भागाए णिक्खममाणे सत्त चउप्पणाई जाइं चंदे परस्स चिन्नं पडिचरइ,सत्त तेरसगाई जाइं चंदे अप्पणा चिण्णं चरइ, ता दोच्चायणगए चंदे पच्चत्थिमाए भागाए णिक्खममाणे छ चउप्पण्णइं जाइं चंदे परस्स चिण्णं पडिचरइ,छ तेरसगाइं चंदे अप्पणो चिण्णं पडिचरइ, अवरगाइं खलु दुवे तेरसगाई जाइं चंदे केणइ असामन्नगाई सयमेव पविट्टित्ता पविट्टित्ता चारं चरइ, प. कयराइं खलु ताई दुवे तेरसगाई जाइं चंदे केणइ असामण्णगयाई सयमेव पविट्टिता पविट्टिता चारं चरइ? उ. इमाइं खलु ताई दुवे तेरसगाई जाइं चंदे के गइ असामण्णगयाइं सयमेव पविट्टिता पविट्टिता चारं चरइ, १. सव्वबभंतरे चेव मंडले, २. सव्वबाहिरे चेव मंडले, एयाणि खलु ताणि दुवे तेरसगाई जाइं चंदे केणइ असामण्णगयाइं सयमेव पविट्टिता पविट्टित्ता चारं तरइ, एयवया दोच्चे चंदायणे समत्ते भवइ। तच्चे चंदायणे ताणक्खते मासे नो चंदे मासे, चंदे मासे नो णक्खते मासे, प. ताणक्खत्ताए मासाए चंदे चंदेण मासेणं किमधिय चरइ? उ. ता दो अद्धमंडलाइं चरइ,अट्ट य सत्तट्टि भागाइं अद्धमंडलस्स,सत्तट्टिभागं च एकतीसधा छेत्ता अट्टारस भागाई, ता तच्चायणगए चंदे पच्चत्थिमाए भागाए पविसमाणे बाहिराणंतरस्स पच्चथिमिल्लस्स अद्धमंडलस्स इगयालीसं सत्तट्टिअभागाइं जाइं चंदे अप्पणो,परस्स य चिन्नपडिचरइ, तेरस सत्तट्टिभागाइं जाइं चंदे परस्स चिण्णं पडिचरइ, Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां प्राभृत ] तेरस सत्तट्ठिभागाइं चंदे अप्पणो परस्स च चिण्णं पडिचरइ, एयाक्या बाहिराणतरे पच्चथिमिल्ले अद्धमंडले समत्ते भवइ। तच्चायणगए चंदे पुरथिमाए भागाए पविसमाणे बाहिर तच्चस्स पुरथिमिल्लस्स अद्धमंडलस्स इगयालीसं सत्तट्टिभागाइं जाइं चंदे अप्पणो परस्स य चिण्णं पडिचरइ, तेरस सत्तट्टिभागाइं जाइं चंदे परस्स चिण्णं पडियरइ, तेरस सत्तट्टिभागाइं जाइं चंदे अप्पणो परस्स य चिण्णं पडियरइ, एयावया बाहिरतच्चे पुरथिमिल्ले अद्धमंडले समत्ते भवइ, ता तच्चायणगए चंदे पच्चत्थिमाए भागाए पविसमाणे बाहिर चउत्थस्स पच्चत्यिमिल्लस्स अद्धमंडलस्स अटठसत्तट्टिभागाइं,सत्तट्ठिभागं च एक्कतीपधा छेता अटठारस भागाइं जाई चंदे अप्पणो परस्स य चिण्णं पडियरइ, एयावया बाहिर चउत्थ पच्चत्थिमिल्ले अद्धमंडले समत्ते भवइ, एंव खलु चंदेण मासेणं चंदे तेरस चउप्पण्णगाई दुवे तेरसगाई जाई चंदे परस्स चिण्णं पडियरइ, तेरस तेरसंगाई जाइं चंदे अप्पणो चिण्णाइं पडियरइ, दुवे इगयालीसगाई दुवे तेरसगाई, अटठ सत्तट्टिभागाइं सत्तट्टिभागं च एक्कतीसधा छेत्ता अटठारसभागाइं जाइं चंदे अप्पणो परस्स य चिण्णं पडियरइ,. अवराई खलु दुवे तेरसगाई जाइं चंदे केणइ असामन्नगाई सयमेव पविट्टित्ता पविट्टिता चारं चरइ, इच्चेसो चंदमासो अभिगमण-णिक्खमण-वुड्डि-णिव्वुड्डि-अणवट्टिय-संठाणसंठिईविउव्वणगिड्डिपत्ते चंदे देवे चंदे देवे,आहिए त्ति वएज्जा। ܀܀ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां प्राभृत दोसिणा अंधयारस्स य बहुत्तकारणं ८२. क. १. प. ता कता ते दोसिणा बहू आहितेंति वदेज्जा ? उ. ता दोसिणापक्खे णं दोसिणा बहू आहितेति वदेज्जा । २. प. ता कहं ते दोसिणापक्खे दोसिणा बहू आहितेति वदेज्जा ? उ. ता अंधकारपक्खाओ णं दोसिणा बहू आहितेति वदेज्जा । ३. प. ता कहं ते अंधकारपक्खाओ णं दोसिणापक्कखे दोसिणा बहू आहितेति वदेज्जा ? उ. ता अंधकारपक्खाओं णं दोसिणापक्खं अयमाणे चंदे चत्तारि बायाले मुहुत्तसते छत्तालीस च बावट्टिभागे मुहुत्तस्स जाई चंदे विरज्जति, तंजहा पढमाए पढमं भागं बिदियाए बिदियं भागं जाव पण्णरसीए पण्णरसं भाग । एंव खलु अंधकारपक्खाओ णं दोसिणापक्कखे दोसिणा बहू आहिताति वदेज्जा । ४. प. ता केवतिया णं दोसिणापक्खे दोसिणा बहू आहिताति वदेज्जा ? उ. ता परित्ता असंखेज्जा भागा। - ख. १. प. ता कता ते अंधकारे बहू आहितेति वदेज्जा ? उ. ता अंधकारपक्खे णं अंधकारे बहू आहितेति वदेज्जा, २. प. ता कहं ते अंधकारपक्खे णं अंधकारे बहू आहितेति वदेज्जा ? उ. ता दोसिणापक्खाओ अंधकारपक्खे णं अंधकारे बहू आहितेति वदेज्जा ? ३. प. ता कहं ते दोसिणापक्खाओ अंधकारपक्खेणं अंधकारे बहू आहितेति वदेज्जा ? उ. ता दोसिणापक्खाओ णं अंधकारपक्खं अयमाणे चंदे चत्तारि बायाले मुहुत्तसते छत्तालीसं च बावट्टिभागे मुहुत्तस्स जाई चंदे रज्जति, तंजहा- पढमाए पढमं भागं बितियाए बितियं भागं जाव पण्णरसं भागं, एंव खलु दोसिणापक्खाओ णं अंधकारपक्खे अंधकारे बहू आहितेति वदेज्जा । ४. प. ता केवतिए णं अंधकारपक्खे अंधकारे बहू आहितेति वदेज्जा ? उ. परित्ते असंखेज्ज भागे । १. 'सूर्यप्रज्ञप्ति प्राभृत १३, सूत्र ७९ और सूर्यप्रज्ञप्ति प्रा. १४ सूत्र ८२' इन दोनों सूत्रों का फलितार्थ समान है । अन्तर इतना ही है कि सूत्र ७९ में 'चन्द्र की हानि - वृद्धि' का कथन है। सूत्र ८२ में 'चन्द्रिका तथा अन्धकार की अधिकता' का कथन है । किन्तु चन्द्र की हानि - वृद्धि से ही चन्द्रिका एवं अन्धकार की अधिकता होती है। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ प्राभृत चंद-सूर-गह-णक्खत्त-ताराणं गइपरूवणं प. ता कहं ते सिग्धगई? आहिए त्ति वएजा। उ. ता एएसि णं चंदिम -सूरिय-गहगण-णक्खत्त-तारारूवाणं चंदेहितो सूरे सिग्घगईं, सूरेहितो गहा सिग्घगई, गहेहितो णक्खत्ता सिग्घगई, णक्खत्तेहितो तारा सिग्घगई, सव्वप्पगई चंदा सव्वसिग्घगई तारा। १. प. ता एगमेगेणं मुहुत्तेणं चंदे केवइयाइं भागसयाइं गच्छइ? उ. ता जं जं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तस्स तस्स मंडलपरिक्खेवस्स सत्तरस अडसट्टि भागसए गच्छइ,मंडल सयसहस्से णं अट्टाणउइ सएहिं छत्ता छेत्ता। २. प. ता एगमेगेणं मुहुत्तेणं सूरिए केवइयाइं भागसयाई गच्छइ? उ. ताजं जं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ,तस्स तस्स मंडल-परिक्खेवस्स अट्टारस तीसे - भागसए गच्छइ,मंडलं सयसहस्से णं अट्टाणउइसएहिं छेत्ता छेत्ता। ता एएसि णं चंदिम-सूरिय-गह-णक्खत्त-तारारूवाणं कयरे कयरेहिंतो सिग्घगई वा मंदगई वा? उ. ता चंदेहिंतो सूरा सिग्घगई, सूरेहिंतोगहा सिग्घगई, गहे हिंतो णक्खत्ता सिग्घई, सव्वप्पगई चंदा, सव्वसिग्घगई तारा। २. ग्रहों की गति का निरूपण मूल पाठ में नहीं है। ग्रहों की गति के संबंध में टीकाकार का स्पष्टीकरण - ग्रहास्तु वक्रानुवक्रादिगतिभावतोऽनियतगतिप्रस्थानास्ततो न तेषामुक्तप्रकारेण गतिप्रमाणप्ररूपणा कृता, उक्तं च गाहाओचंदेहिं सिग्घयरा, सूरा सूरेहिं होंति णक्खत्ता। अणिययगइपत्थाणा, हवंसि सेसा गहा सव्वे ॥१॥ अट्ठारस पणतीसे, भागसए गच्छइ मुहुत्तेणं। नक्खत्तं चंदो पुण, सत्तरससए उ अडसढे ॥२॥ अट्ठारस भागसए, तीसे गच्छइ रती मुहुत्तेण। नक्खत्तसीमछेदो, सो चेव इहं पि णायव्वो॥३॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] ३. प. ता एगमेगेणं मुहुतेणं णक्खत्ते केवइयाई भागसयाइं गच्छइ ? उ. ताजं जं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तस्स तस्स मंडल परिक्खेवस्स अट्टारस पणतीसे भागसए गच्छइ,मंडल सयसहस्से णं अट्टाणउइँसएहिं छेत्ता छेत्ता । " चंद सूर-णक्खताणं विसेसगइपरूवणं ८४ [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र १. प. ता जया णं चंदं गइसमावण्णं सूरे गइसमावण्णे भवइ, से णं गइमायाए के वइयं विसेसेइ ? उ. बावट्टिभागे विसेसेइ । २. प. ता जया णं चंदं गइसमावण्णं णक्खते गइसमावण्णे भवइ, से णं गइमायाए के वइयं विसेसेइ ? उ. ता सत्तट्टि भागे विसेसेइ । ३. प. ता जया णं सूरं गइसमावणं णक्खते गइसमावण्णे भवइ, से णं गइमायाए के वइयं विसेसेइ ? उ. ता पंच भागे विसेसेइ । चंदस्स-णक्खत्ताण य जोगगइपरूवणं ता जया णं चंदे गइसमावण्णं अभिई णक्खत्ते णं गइसमावण्णे पुरत्थिमाए भागाए समासाएइ समासाइत्ता णवमुहुत्ते सतावीसं च सत्तसट्टिभागे मुहुत्तस्स चंदेण सद्धि जोग जोएइ, जोगं जोएता जोगं अणुपरियट्टइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता, जोगं विप्पजहड़ विगयजोगी यावि भवइ, ता जया णं चंदं गइसमावण्णं सवणे णक्खत्ते गइसमावण्णे पुरत्थिमाए भागाए समासाएइ, समासाइत्ता तीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धि जोगं जोएइ, जोगं जोएत्ता जोगं अणुपरियट्टइ जोगं अणुपरियट्टित्ता जोंग विप्पजहइ विगयजोगी यावि भवइ । एंव एएणं अभिलावेण णेयव्वं, पण्णरसमुहुत्ताइं, तीसइमुहुत्ताइं पणयालीसमुहुत्ताइं । भाणियव्वाइं जाव उत्तरासाढा, चंदस्स गहाण य जोग-गइकालपरूवणं ८४. ता जया णं चंद गइसमावणं गहे गइसमावण्णे पुरत्थिमाए भागाए समासाएइ, पुरत्थिमाए भागाए समासाइत्ता चंदेण सद्धि जोगं जोए नोगं जोएत्ता जोगं अणुपरियट्टइ, जोगं अणुपरियट्टिता जोगं विप्पजहइ, विगयजोगी यावि भवइ । सूरस्स णक्खत्ताण य जोग- गइकालपरूवण ता जया णं सूरं गइसमावण्णं अभिइणक्खत्ते गइसमावण्णे पुरम्थिमाए भागाए समासाएइ १. 'ताराओं की गति सबसे अधिक है' ऐसा मूल पाठ में कथन है किन्तु गति के प्रमाण का कथन नहीं है, टीकाकार ने भी इस संबंध में कुछ नहीं कहा है। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ प्राभृत ] [ १५९ पुरत्थिमाए भागाए समासाइत्ता, चत्तारा अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते सूरेणं सद्धि जोगं जोएइ, जोगं जोएत्ता जोगं अणुपरियट्टइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता जागं विप्पजहइ, विगयजोगी यावि भवइ, एवं छ अहोरत्ता एक्वीसं मुहुत्ता य, तेरस अहोरत्ता बारस मुहुत्ता य, वीसं अहोरत्ता तिण्णि मुहुत्ता य सव्वे भणियव्वा जाव - ता जया णं सूरं गइसमावण्णं उत्तरासाढा णक्खते गइसमावण्णे पुरत्थिमाए भागाए समासाएइ, पुरत्थिमाए भागाए समासाइत्ता वीसं आहरत्ते तिण्णि य मुहुत्ते सुरेण सद्धि जोगं जोएइ, जोगं जोएत्ता जोगं अणुपरियट्टइ, जोगं अणुपरियट्टिता जोगं विप्पजहइ, विगयजोगी यावि भवइ । सूरस्स गहाण य जोग - गइकालपरूवणं ता जया णं सूरं गइसमावण्णं गहे गइसमावण्णे पुरत्थिमाए भागाए समासाएइ, पुरत्थिमाए भागाए समासाइत्ता सूरेण सद्धि जोगं जोएइ, जोगं जोएत्ता जोगं अणुपरियट्टइ, जोगं अणुपरियट्टिता जोगं विप्पजहइ विगयजोगी यावि भवइ । क-णक्खत्तमासे चंदस्य सूरस्स, णक्खत्तस्स य मंडलचारं ८५. णक्खत्ताइसु पंचसु मासेसु चंदस्स सूरस्स णक्खत्तस्स च मंडलचारसंखा ] १. प. ता णक्खत्तेणं मासेणं चंदे कइ मंडलाई चरइ ? उ. ता तेरस मंङलाई चरड़, तेरस य सत्तट्टिभागे मंडलस्स । २. प. ता णक्खत्तेणं मासेणं सूरे कइ मंडलाई चरइ ? उ. ता तेरस मंडलाई चरइ, चोत्तालीसं च सत्तट्टिभागे मंडलस्स । ३. प. ता णक्खत्तेणं मासेणं णक्खत्ते कइ मंडलाई, चरइ ? उ. ता तेरस मंडलाई चरइ, अद्धसेत्तालीस च सत्तट्टिभागे मंडलस्स ख - चंदमासे चंदस्स सूरस्स णक्खत्तस्स य मंडल चारं १. प. ता चंदेणं मासेणं चंदे कइ मंडलाई चरइ ? उ. ता चोद्दस्स चउभागाइं मंडलाई चरइ, एगं च चउवीससयं भागं मंडलस्स । २. प. ता चंदेणं मासेणं सूरे कइ मंडलाई चरइ ? उ. ताणण्णरस चउभागूणाई मंडलाई चरइ, एगं च चउवीससयं भागं मंडलस्स । ३. प. ता चंदेणं मासेणं णक्खत्ते कइ मंडलाई चरइ ? उ. ता पण्णरस चउभागूणाई मंडलाई चरइ, छच्च चउवीससयं भागे मंडलस्स । ग- उडुमासे चंदस्स सूरस्स णक्खत्तमासस्स य मंडलचारं १. प. ता उडुणा मासेणं चंदे कइ मंडलाई चदइ ? उ. ता चोद्दस मंडला चरइ तीसं च एगट्टिभागे मंडलस्स । २. प. ता उडणा मासेणं सूरे कइ मंडलाई चरइ ? Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र उ. ता पण्णरस मंडलाई चरइ। ३. प. ता उडुणा मासेणं णक्खत्ते कइ मंडलाइं चरइ ? उ. ता पण्णरस मंडलाइं चरइ,पंच य बावीस सयभागे मंडलस्स। घ- आइच्चमासे चंदस्स,सूरस्स णक्खत्तस्स य मंडलचारं १. प. ता आइच्चेणं मासेणं चंदे कइ मंडलाइं चरइ ? उ. ता चोइस्स मंडलाइं चरइ,एक्कारस पण्णरस य भागे मंडलस्स। २. प. ता आइच्चेण मासेणं सूरे कइ मंडलाइं चरइ। उ. ता पण्णरस चउभागाहिगाई मंडलाइं चरइ। . ३. प. ता आइच्चेणं मासेणं णक्खत्ते कइ मंडलाइं चरइ ? उ. ता पण्णरस चउभागाहिगाई मंडलाइं चरइ पंचतीसं च चउवीससयभाग मंडलाई चरइ। ङ - अभिवड्डियमासे चंदस्स सूरस्स णक्खत्तस्स य मंडलचारं १. प. ता अभिवड्डिएणं मासेणं चंदे कइ मंडलाइं चरइ ? ___उ. ता पण्णरस मंडलाइं चरइ,तेसीइं छलसीयभागे मंडलस्स। २. प. ता अभिवडिढएणं मासेणं सूरे कइ मंडलाइं चरइ? ___उ. ता सोलस मंडलाइं चरइ,तिहिं भागेहिं ऊणगाइं दोहिं अडयालेहिं सएहि मंडलंछित्ता। ३. प. ता अभिवड्डिढएणं मासेणं णक्खत्ते कइ मंडलाइं चरइ? । ___ उ. ता सोलस मंडलाइं चरइ सेयालीसएहिं भागेहिं अहियाहिं चोद्दसहिं अट्टासीएहिं मंडलंछेत्ता। एगमेगे अहोरत्ते चंद-सूर-णक्डखत्ताणं मंडलचारं ८६.१. प. ता एगमेगेणं अहोरत्तेणं चंदे कइ मंडलाइं चरइ? उ. ता एगं अद्धमंडल चरइ,एक्कतीसेहिं भागेहिं ऊणं णवहिं पण्णरसेहिं सएहिं अद्धमण्डल छेत्ता। २. प. ता एगमेगेणं अहोरत्तेणं सूरे कइ मंडलाई चरइ? उ. ता एगं अद्धमंडलं चरइ। ३. प. ता एगमेगेणं अहोरत्तेणं णक्खत्ते कइ मंडलाइं चरइ? उ. ता एगं अद्धमंडलं चरइ,दोहिं भागेहिं अहियं सत्तहिं बतीसेहिं सएहिं अद्धमंडल छेत्ता। एगमेगे मंडले चंद-सूर-णक्खत्ताणं अहोरत्ते चारं १. प. ता एगमेगं मंडलं चंदे कतिहिं अहोरत्तेहि चरइ? उ. ता दोहिं अहोरत्तेहिं चरइ,एकतीसेहिं भाएहिं अहिएहिं चउहिं चोयालेहिं सएहि राइंदिएहिं छेत्ता । २. प. ता एगमेगं मंडलं सूरे कतिहिं अहोरत्तेहिं चरइ ? Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ प्राभृत ] [ १६१ उ. ता दोहिं अहोरत्तेहिं चरइ। ३. प. ता एगमेगं मंडलं णक्खत्ते कतिहिं अहोरत्तेहिं चरइ ? उ. ता दोहिं अहोरत्तेहिं चरइ,दोहिं भागेहिं ऊणेहिं तिहिं सत्तसट्टहिं सएहिं राइंदिएहिं छेत्ता। एगमेगजुगे चंद-सूर-णक्खत्ताणं मंडलचारं १. प. ता जुगे णं चंदे कइ मंडलाइं चरइ ? उ. ता अट्ठचुलसीए मंडलसए चरइ। २. प. ता जुगे णं सुरे कइ मंडलाइं चरइ ? उ. ता णव-पण्णरसमंडलसए चरइ। ३. प. ता जुगे णं णक्खत्ते कइ मंडलाइं चरइ ? उ. ता अट्ठारस पणतीसे दुभागमंडलसए चरइ। इच्चेसा मुहुत्तगई रिक्ख-उडमास-राइंदिय-जुगमंडल-पविभत्ती सिग्धगई वत्थ आहिए त्ति बेमि। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ प्राभृत दोसणाइयाण लक्खणा ८७. १ प. ता कहं ते दोसिणालक्खणा ? आहिए त्ति वएजा ? उ. ता चंदलेसाइ य दोसिणाइ य । २ प. दोसिणाइ य चंदलेसाइ य के अट्ठे, किंलक्खणे ? उ. ता एगट्ठे एगलक्खणे । १ प. ता कहं ते सूरलेस्सालक्खणो ? आहिए त्ति वएजा ? उ. ता सूरलेस्साइ य आयवेइ य । २ प. ता सूरलेस्साइ य, आयवेइ य के अट्ठे किंलक्खणे ? उ. ता एगट्ठे, एगलक्खणे १ प. ता कह ते छायालक्खणे? आहिए त्ति वएज्जा । उ. ता छायाइ य, अंधकाराइ य । २ प. ता छायाइ य अंधकाराइ य के अट्ठे किंलक्खणे? उ. ता एगट्ठे एगलक्खणे । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ प्राभृत चंद-सूरियाणं चवणोववाया ८८.. प. ता कहं ते चवणोववाया, आहिए त्ति वएजा? उ. तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ तंजहा - तत्थ एगे एवमाहंसु१. ता अणुसमयमेव चंदिम-सूरिया अण्ण चंयति अण्णे उववजंति, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - २. ता अणुमुहुत्तमेव चंदिम-सूरिया अण्णे चयंति अण्णे उववजंति। १. 'एवं जहा हिट्ठा तहेव जावेत्यादि - एवं उक्तेन प्रकारेण यथा अधस्तात् षष्ठे प्राभृते पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयस्तथैवात्रापि वक्तव्याः यावत् अणुओसप्पिणि- - उस्सप्पिणिमेवेत्यादि चरमसूत्रम्। ताश्चैवं भणिवव्याःएगे पुण एवमाहंसुःता अणुराइंदियमेव चंदिम-सूरिया अण्णे चयंति, अण्णे उववज्जति, आहिए त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंस, एगे पुण एवमाहंसु - ४. ता अणुपक्खमेव चंदिम-सूरिया अण्णे चयंति, अण्णे उववजंति, आहिए त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, ___एगे पुण एवमाहंसु - ५. ता अणुमासमेव चंदिम-सूरिया अण्णे चयंति, अण्णे उववजंति, आहिए त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ६. ता अणु-उउमेव एगे पुण एवमाहंसु - ७. ता अणु-अयणमेव, एगे पुण एवमाहंसु - ८. ता अणु-संवच्छरमेव, एगे पुण एवमाहंसु - ९. ता अणुजुगमेव, एगे पुण एवमाहंसु (शेष टिप्पणियां अगले पृष्ठ पर) Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] ३ - २४. एवं जहेव हेट्ठा तहेव जाव' २५. एगे पुण एवमाहंसु ता अणुओसप्पिणी, उस्सपिणीमेव चंदिम-सूरिया अण्णे चयंति, अण्णे उववज्नंति, १०. ता अणुवाससयमेव, पुण एवमाहंसु . ११. ता अणुवाससहस्समेव एगे पुण एवमाहंसु १२. ता अणु वाससयस्सहस्समेव, एगे पुण एवमाहंसु - १३. ता अणुपुव्वमेव, - - पुण एवमाहंसु १४. ता अणुपुव्वयमेव एगे पुण एवमाहंसु १५. ता अणुपुव्वसहस्समेव, एगे पुण एवमाहंसु - १६. ता अणुपुव्वसयसहस्समेव, पुण एवमाहं १७. ता अणुपलिओवमेव, एगे पुण एवमाहंसु १८. ता अणुपलिओवमसयमेव, एगे पुण एवमाहंसु १९. ता अणुपलिओवमसहस्समेव, एगे पुण एवमाहंसु - - - - २०. ता अणुपलिओवमसयसहस्समेव, एगे पुण एवमाहंसु २१. ता अणुसागरोवमेव, एगे पुण एवमाहंसु - २२. ता अणुसागरोवमसयमेव, एगे पुण एवमाहंसु - २३. ता अणुसागरोवमसहस्समेव एगे पुण एवमाहंसु - २४. ता अणुसागरोवमसयसहस्समेव । पंचविशतितमं प्रतिपत्तिसूत्रं तु साक्षादेव सूत्रकृता दर्शितम् तदेवमुक्ताः परतीर्थिक प्रतिपत्तयः । [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र - • टीका. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ प्राभृत ] [ १६५ एगे एवमाहंसु। वयं पुण एवं व्यामो - ता चंदिम-सूरियाणं देवा महिड्डिया, महाजुईया-महाबला, महाजसा, महासोक्खा, महाणुभावा। वर खत्थधरा, वरमल्लधरा, वरगंधघरा, वराभरणधरा, अव्वोछित्तिणयट्ठयाए काले अण्णे चयंति, अण्णे उववति, चवणोववाया आहिए त्ति वएजा। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ प्राभृत चंदाइच्चाइणं भूमिभागाओ उड्ढत्तं ८९. प. ता कहं ते उच्चत्ते आहितेति वदेजा ? उ. तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवत्तिओ, पण्णत्ताओ, तंजहा - तत्थेगे एवमाहंसु - १. तो एगं जोयणसहस्स सूरे उड्ढे उच्चत्तेणं, दिवड्ढं चंदे, एगे एवमासु। एगे पुण एवमाहंसु - २. ता दो जोयणसहस्साई सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं, अड्डातिजाई चंदे, एगे एवमाहंसु। ___ एगे पुण एवमाहंसु - ३. ता तिन्नि जोयणसहस्साई सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं, अधुट्ठाई चंदे, एगे एवमाहंसु। ___ एगे पुण एवमाहंसु - ४. ता चत्तारि जोयणसहस्साइं सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं, अद्धपंचमाई चंदे, एगे एवमाहंसु। ___एगे पुण एवमाहंसु - ५. ता पंच जोयणसहस्साइं सूरे उड्ढे उच्चत्तेणं, अद्धछट्ठाई चंदे, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - ६. ता छ जोयणसहस्साई सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं, अद्धसत्तमाई चंदे, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - ७. ता सत्तजोयणसहस्साइं सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं, अद्वट्ठमाइं चंदे, एगे एवमाहंसु। __एगे पुण एवमाहंसु - ८. ता अट्ठ जोयणसहस्साई सूरे उड्ढे उच्चत्तेणं, अद्धनवमाइं चंदे, एगे एवमाहंसु। ___ एगे पुण एवमाहंसु - ९. ता नवजोयणसहस्साइं सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं, अद्धदसमाइं चंदे, एगे एवमाहंसु। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ प्राभृत ] [ १६७ एगे पुण एवमाहंसु - १०.ता दसजोयणसहस्साई सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं, अद्धएक्कारस चंदे, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - ११.ता एक्कारस जोयणसहस्साइं सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं, अद्धबारस चंदे, एगे एवमाहंसु। एते णं अभिलावेणं णेतव्वं - १२.बारस सूरे, अद्धतेरस चंदे, १३. तेरससूरे अद्धचोद्दस चंदे, १४. चोइस सूरे अद्धपण्णरसचंदे, १५. पण्णरस सूरे अद्धसोलस चंदे, १६.सोलस सूरे, अद्धसत्तरस चंदे, १७. सत्तरस सूरे अद्धअट्ठारस चंदे, १८. अट्ठारस सूरे __ अद्धएकोणवीसं चंदे, १९. एकोणवीसं सूरेअद्धवीसं चंदे, २०.वीसं सूरे, अद्धएक्कवीसं चंदे, २१. एक्कवीसं सूरे, अद्धबावीसं चंदे, २२.बावीसं सूरे, अद्धतेवीसं चंदे, २३. तेवीसं सूरे, अद्ध चउवीसं चंदे, २४.चउवीसं सूरे अद्धपणवीसं चंदे, __एगे पुण एवमाहंसु - २५.ता पणवीस जोयणसहस्साई सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं, अद्वछव्वीसं चंदे, एगे एवमाहंसु। वयं पुण एवं वदामो - ता इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ सत्तणउइ जोयणसए उड्ढे उप्पतित्ता हेट्ठिल्ले ताराविमाणे चारं चरति जाव ता चंदविमाणातो णं वीसं जोयणाई उड्ढे उप्पतित्ता उवरिल्लते तारारूवे चारं चरति। एवामेव सपुव्वावरेणं दसुत्तरं जोयणसतं बाहल्ले तिरियमसंखेजे जोतिसविसए जोतिसचारं चरति आहितेति वदेजा। ताराणं अणुत्ते तुल्लत्ते कारणाई ९०. ता अस्थि णं चंदिम-सूरियाणं देवाणं - हिटुंपि' तारारूवा अणुंपि, तुल्ला वि, समंपि तारारूवा अणुंपि तुल्ला वि, १. जंबु. वक्ख.७ सु. १६२ हिट्ठ पित्ति - क्षेत्रापेक्षया अधस्तना अपि तारारूपविमानाधिष्ठातारो देवास्तेऽपिचंद्र-सूर्याणां देवानां द्युतिविभवादिकमपेक्षय केचिदणवोऽपि भवंति, केचित्तुल्या अपि। २. 'सममवि त्ति - चंद्रविमानैः सूर्यविमानैश्च क्षेत्रापेक्षयासमश्रेण्यापि।' Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र उप्पिंपि' तारारूवा अणुंपि, तुल्ला वि। प. ता कहं ते चंदिम-सूरियाणं देवाणं - हिटुंपि तारारूवा अणुंपि, तुल्ला वि, समंपि तारारूवा अणुंपि तुल्ला वि, उप्पिंपि तारारूवा अणुंपि, तुल्ला वि। उ. ता जहा जहा णं तेसि णं देवाणं तव-णियम-बंभचेराई उस्सियाई भवंति - तहा तहा णं तेसिं देवाणं एवं भवंति, तंजहा - अणुंत्ते वा, तुल्लत्ते वा। . ता एवं खलु चंदिम-सूरियाणं देवाणं - हिट्ठपि तारारूवा अणुंपि, तुल्ला वि, समंपि तारारूवा अणुंपि, तुल्ला वि, उप्पिंपि तारारूवा अणुंपि, तुल्ला वि। चंदस्स गह-णक्खत्त-ताराणं परिवारो ९१. प. क. ता एगमेगस्स णं चंदस्स देवस्स केवइया गहा परिवारो पण्णत्तो ? ख. केवइया णक्खत्ता परिवारो पण्णत्तो ? ग. केवइया तारा परिवारो पण्णत्तो ? उ. क. ता एगमेगस्स णं चंदस्स देवस्स अट्ठासीइगहा परिवारो पण्णत्तो, . ख. अट्ठावीसं णक्खत्ता परिवारो पण्णत्तो, ग. गाहा - छावट्ठि सहस्साइं, णव चेव सयाई पंचुत्तराई। एगससीपरिवारो, तारागणकोडिकोडीणं॥ परिवारो पण्णत्तो। १. 'उप्पिं पि त्ति चंद्रविमानानां सूर्यविमानानां चोपर्यपि।' २. ता जहजत्यादि ...यैः प्राग्भवे तपोनियम - ब्रह्मचर्याणि मंदानि कृतानि ते तारारूपविमानाधिष्ठातृ-देवभव-मनुप्राप्ताश्चन्द्रसूर्यदेवेभ्यो धुति-विभवादिकमपेक्ष्य हीना भवंति। यैस्तुभवान्तरे तपोनियम-ब्रह्मचर्याणि अत्युत्कटान्यासेवितानि ते तारारूपविमानाधिष्ठातृरूपदेवत्वमनुप्राप्ता द्युतिविभवादिकमपेक्ष्य चंद्र-सूर्यैर्देवः सह समाना भवन्ति न चैतदनुपपन्नम्। ___ दृश्यन्ते हि मनुष्यलोकेऽपि केचिजन्मान्तरोपचिततथाविधपुण्यप्राग्भारा राजत्वमनुप्राप्ता अपि राज्ञा 6 तुल्य विभवा इति। ३. जम्मू. वक्ख.७, सु. १६३ ४. क. 'एगमेगस्स णं चंदिम-सूरियस्स अट्ठसीए अट्ठसीइ महग्गहा परिवारो पण्णत्तो।' - सम.८८, सु. १ ख. प. एगमेगस्स णं चंदिम-सूरियस्स .... (शेष टिप्पणियां अगले पृष्ठ पर) Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ प्राभृत ] [ १६९ मंदरपव्वयाओ लोइतचारं ९२. १ प. ता मंदरस्स णं पव्वयस्स णं केवइयं अबाहाए जोइसे चारं चरइ ? ___उ. ता एक्कारस एक्कवीसे जोयणसए अबाहाए जोइसे चारं चरइ।१ लोअंताओ जोइसठाणं प. लोअंताओ णं केवइयंअबाहाए जोइसे पण्णत्ते ? उ.. ता एक्कारस एक्कारे जोयणसए अबाहाए जोइसे पण्णत्ते।२ णक्खत्ताणं अब्भंतराइं चारं ९३. १ प. ता जंबुद्दीवे णं दीवे ___कयरे णक्खत्ते सव्वब्भंतरिल्लं चार चरइ ? २ प. कयरे णक्खत्ते सव्वबाहिरिल्लं चारं चरइ ? • ३ प. कयरे णक्खत्ते सव्वुवरिल्लं चारं चरइ ? ४ प. कयरे णक्खत्ते सव्वहेट्ठिल्लं चार चरइ ? १ उ. अभिई णक्खत्ते सव्वब्भंतरिल्लं चार चरइ। उ. गाहाओ - अट्ठासीतिं च गहा, अट्ठावीसं च होइ णक्खत्ता। एगससीपरिवारो, एत्तो ताराण वोच्छामि ॥ छावट्ठीसहस्साइं, णव चेव सयाई पंचसयराइं। एगससीपरिवारो, तारागणकोडिकोडीणं ॥ - - जीवा.प.३, उ. २, सु.१९४ ग. जीवाभिगम प्रति. ३, उ.२, सू. १९४ में - 'चन्द्र और सूर्य दोनों के संयुक्त प्रश्नोत्तर हैं। मूल में प्रश्नसूत्र का केवल प्रतीक है और उत्तर के रूप में दो गाथाएँ हैं।' टीका में -'प्रश्नसूत्र का यह प्रतीक है - एगमेगस्स णं भंते! चंदिम-सूरियस्येत्यादि इस प्रतीक के संबंध में टीकाकार का स्पष्टीकरण यह है - 'एकैकस्य भदन्त ! चंद्र-सूर्यस्य' अनेन च पदेन यथा नक्षत्रादीनां चंद्रः स्वामी तथा सूर्योऽपि, तस्यापीन्द्रत्वात् .... ....... इह भूयान् पुस्तकेषु वाचनाभेदो गलितानि च सूत्राणि बहुषु पुस्तकेषु ततो यथावस्थितवाचनाभेदप्रतिपत्यर्थ गलितसूत्रोद्धरणार्थ चैवं सुगमान्यपि विवियन्ते ..... १. सम. स. ११, सु. ३ क. सम. स. ११, सु. २ ख. जम्बु. वक्ख.७, सु. १५४ 'सर्वाभ्यन्तरं सर्वेभ्यो मण्डलेभ्योऽभ्यन्तरः सर्वाभ्यन्तरः अनेन द्वितीयादि-मण्डलचारसुदासः' 'यद्यपि सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारीण्यभिजिदादिद्वादशनक्षत्राण्यभिहितानि, तथापीदं शेषैकादशनक्षत्रापेक्षया मेरु दिशि स्थितं सत् चारं चरतीति सर्वाभ्यन्तरचारीत्युक्तम्'। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र . २ उ. मूले णक्खत्ते सव्वबाहिरिल्लं चारं चरइ।' ३ उ. साई णक्खत्ते सव्वुवरिल्लं चारं चरइ। ४ उ. भरणी णक्खत्ते सव्वहेछिल्लं चार चरइ। चंद-सूर-गह-णक्खत्तविमाणाणं संठाणाई ९४. प. ता चंदविमाणे णं किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. ता अद्धकविट्ठग-संठाणसंठिए सव्वफालियामए अब्भुगयमूसियपहसिए विविह-मणि-रयण भत्तिचित्ते, वाउ य-विजय-वेजयंतीपडागा छत्ताइछत्तकलिए, तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे, जालंतररयण-पंजरुम्मीलियव्व मणिकणगथूभियागे, वियसिय-सयवत्तपुंडरीय-तिलयरयणद्धचंदचित्ते, अंतो बहिं च सण्हे, तवणिजबालुगापत्थडे सुहफासे सस्सिरीयरूवे पासाईए दरिसणिजे अभिरूवे पडिरूवे। एवं सूरविमाणे, गहविमाणे, नक्खत्तविमाणे ताराविमाणे।' 'सर्वबाह्य-सर्वतो नक्षत्रमण्डलिकाया बहिश्चारं चरति'। 'यद्यपि पंचदशमण्डलाबदिश्चारीणि मृगशिरःप्रभृतीनि षड् नक्षत्राणि पूर्वाषाढोत्तराषाढयोश्चतुर्णातारकाणां मध्ये द्वे द्वे च तारे उक्तानि, तथाप्येतदपरबहिश्चारिनक्षत्रापेक्षया लवणदिशि स्थितं सच्चारं चरतीति सर्वबहिश्चारीत्युक्तम्।' क. 'दशोत्तरशतयोजनरूपे ज्योतिश्चक्रबाहल्ये यो नक्षत्राणां क्षेत्रविभागश्चतुर्योजनप्रमाणस्तदपेक्षयोक्तनक्षत्रयोः . क्रमेणाधस्तनोपरितनभागो ज्ञेयो।' इस टिप्पण में उद्धृत उद्धरण जम्बू. वक्ख.७, सू. १६५ टीका के हैं। ख.जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के सूत्र १६५ के समान यह सूर्यप्रज्ञप्ति का सूत्र भी है। गाहाओअद्धकविट्ठागारा उदयत्थमणमि कहं न दीसंति, ससि-सूराण विमाणा, तिरियक्खेत्तट्ठियाणं च ? उत्ताणद्धकविट्ठागारं, पीढं तदुवरिं च पासाओ। वट्टालेखेण तओ, समवटें दूरभावाओ॥ जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणेन विशेषणावत्यामाक्षपपुरस्सरमुक्तम् ॥ 'यदि चन्द्रविमानमुत्तानीकृतार्द्धमात्रकपित्थफलसंस्थानसंस्थितं तत उदयकाले अस्तमयकाले वा, यदि वा तिर्यक् परिभ्रमत् पौर्णमास्यां कस्मात्तदर्धक पित्थफलाकारं नोपलभ्यन्ते ?' कामं शिरस उपरि वर्तमानं वर्तुलमुपलभ्यते अर्धकपित्थस्य उपरि दूरमवस्थापितस्य परभागादर्शनतो वर्तुलतया दृश्यमानत्वात् उच्यते। इहार्द्धकपित्थफलाकारं चन्द्रविमानं न सामस्त्येन प्रतिपत्तव्यं, किन्तु तस्य चन्द्रविमानस्य पीठं, तस्य च पीठस्योपरि चन्द्रदेवस्य ज्योतिश्चक्रराजस्य प्रासादः स च प्रासादस्तथा कथंचनापि व्यवस्थितो यथा पीठेन सह भूयान् वर्तुलाकारो भवति, स च दूरभावादेकान्ततः समवृत्ततया जनानां प्रतिभासते, ततो न कश्चिद्दोषः॥ - सूर्य. टीका, जंबु. वक्ख. ७, सु. १२५ ४. Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ प्राभृत ] चंद-सूर-गह-णक्खत्त ताराविमाणाणं आयाम-1 म- विक्खंभ-परिक्खेव - बाहल्लाई प. क. ता चंदविमाणे णं के वइयं आयाम - विक्खंभेण ? - ख. केवइयं परिक्खेवेणं ? ग. के वइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? उ. क. ता छप्पण्णं एगट्टिभागे जोयणस्स आयाम - विक्खंभेणं । ख. तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं । ग. अट्ठावीसं एगट्टिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं पण्णत्ते । प. क. ता सूरविमाणे णं केवइयं आयाम - विक्खंभेणं ? ख. केवइयं परिक्खेवेणं । ग. के वइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? उ. क. ता अडयालीसं एगद्विभागे जोयणस्स आयाम - विक्खंभेण । ख. तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं । ग. चउव्वीसं एगट्टिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं पण्णत्ते । प. क. ता गहविमाणे णं केवइयं आयाम - विक्खंभेणं ? ख. केवइयं परिक्खेवेणं ? ग. केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? उ. क. ता अद्धजोयणं आयाम - विक्खंभेण । ख. तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं । १. प. क. चंदमंडले णं भंते । केवइयं आयाम - विक्खंभेणं ? ख. केवइयं परिक्खेवेणं ? ग. केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? उ. क. गोयमा ! छप्पन्न एगसट्ठि भाए जोअणस्स आयाम विक्खंभेणं, ख. तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, ग. अट्ठावीसं च एगसट्ठिभाए जोयणस्स बाहल्लेणं, पण्णत्ते । चंदमंडले णं एगसट्ठिविभाग- विभाइए समंसे पण्णत्ते । इस सूत्र से यह स्पष्ट है कि चन्द्रविमान और चन्द्रमण्डल एक ही है। जंबु. वक्ख. ७, सु. १४५ - सम. ६१, सु. ३ [ १७१ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र ग. कोसं बाहल्लेणं पण्णत्ते। प. क. ताणक्खत्तविमाणे णं केवइयं आयाम-विक्खंभेणं ? ख. केवइयं परिक्खेवेणं। ग. केवइयं बाहल्लेणं? उ. क. ता कोसं आयाम-विक्खंभेण। ख. तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं। ग. अद्धकोसं बाहल्लेणं पण्णत्ते। प. क. ता ताराविमाणे णं केवइयं आयामविक्खंभेणं ? ___ख. केवइयं परिक्खेवेणं ? __'ग. केवइयं बाहल्लेणं? उ. क. ता अद्धकोसं आयामविखंभेण। ख. तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं। ग. पंचधणुसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ते। चंद-सूर-गह-णक्खत्त ताराणं विमाणपरिवहणं प. ता चंदविमाणे णं कइ देवसाहस्सीओ परिवहति ? उ. सोलस देवसाहस्सीओ परिवहन्ति, तंजहा - १. प. क. चंदविमाणे णं भंते ! केवइयं आयाम-विक्खंभेणं ? केवइयं बाहेल्लेणं? उ. छप्पण्णं खलु भाए-विछिण्णं चंदमडलं होई। अट्ठावीसं भाए बाहल्लं तस्स बोद्धव्यं ॥१॥ अडयालीसं भाए, विच्छिण्णं सूरमंडलं होइ।। चवीसं खलु भाए, बाहल्लं तस्स बोद्धव्वं ॥ २॥ दो कोसे अ गहाणं, णक्खत्ताणं तुहवइ तस्सद्धं । तस्सद्धं ताराणं, तस्सद्धं चेव बाहल्ले ॥३॥ - जंबु. वक्ख.७, सु. १६५ 'एकस्य प्रमाणागुंलयोजनस्यैकपष्टिभागीकृतस्य षट्पंचाशता भागैः समुदितैर्यवत्प्रमाणं भवति, तावत्प्रमाणोऽस्य विस्तारः' 'वृत्तवस्तुनः सदृशायाम-विष्कम्भात्' परिक्षेपस्तु स्वयमभ्यूह्यः वृत्तस्य सविशेषस्त्रिगुणः परिधिरिति प्रसिद्धः। । यह स्पष्टीकरण जंबुद्वीपप्रज्ञप्ति के वृत्तिकार ने ऊपर लिखित सूत्र का दिया है। ख. यद्यपि जीवा. प. ३, उ. २, सू. १९७ प्रश्नोत्तरात्मक सूत्र हैं किन्तु उसमें 'भंते 'गोयमा' का प्रयोग अधिक है। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ प्राभृत ] १. प. उ. पुरत्थिमेणं सीहरूवधारीणं चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवहंति, दाहिणेणं गयरूवधारीणं चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवहंति, पच्चभिमेणं वसभरूवधारीणं चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवहंति, उत्तरेणं तुरगरूवधारीणं चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवर्हति । एवं सूरविमाणं पि, प. ता गहविमाणे णं कइ देवसाहस्सीओ परिवहंति ? उ. ता अट्ठ देवसाहस्सीओ परिवहन्ति, तंजहा - पुरत्थिमेणं सिंहरूवधारीणं देवाणं दो देवसाहस्सीओ परिवहंति, एवं जाव - उत्तरेणं तुरगरूवधारीणं देवाणं दो देवसाहस्सीओ परिवहंति । प. ता णक्खतविमाणे णं कइ दिवसाहस्सीओ परिवहंति ? उ. ता चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवहंति तंजहा - पुरत्थिमेणं सीहरूवधारीणं देवाणं एक्का देवसाहस्सी परिवहड़, एवं जाव - उत्तरेणं तुरगरूवधारीणं देवाणं एक्का देवसाहस्सी परिवहइ । प.. ता ताराविमाणे णं कइ देवसाहस्सीओ परिवहंति ? ता दो देवसाहस्सीओ परिवहंति, तं जहा [ १७३ पुरत्थिमेणं सीहरूवधारीणं देवाणं पंचदेवसया परिवहंति, एवं जाव - उत्तरेणं तुरगरूवधारीणं देवाणं पंचदेवसया परिवर्हति । चंदविमाणे णं भंते! कति देवसाहस्सीओ परिवहंति ? गोयमां! सोलस देवसाहस्सीओ परिवहंति । चंदविमाणस्स णं पुरत्थिमेणं, सेआणं, सुभगाणं, सुप्पभाणं, संखतल- विमल-निम्मल-दधिषण- गोखीरफेण-रयणणिगरप्पभासाणं, थिर-लट्ठपट्ट वट्ट - पीवर सुसिलिट्ठ - विसिट्ठ- तिक्खदाढा - विडंबिअ-मुहाणं, रंतुप्पलपत्त-मउय-सूमालतालु जीहाणं, महु-गुलिअ - पिंगलक्खाणं, पीवरवरोरु- पडिपुण्ण-विउल-खंधाणं, Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र मिउ-विसय-सुहुम-लक्खण-पसत्थ-वरवण्ण-केसरसटोवसोहिआणं, ऊसिअ-सुनमिअ-सुजाय-अप्फोडिअ-लंगूलाणं, वइरामय-णक्खाणं, वइरामय-दाढाणं, वइरामय-दंताणं, तवणिज-जीहाणं, तवणिज-तालुआणं, तवणिज-जुत्त-जोत्तगसुजोइआणं कामगमाणं, पीइगमाणं, मणोगमाणं, मणोरमाणं, अभिजिअगईणं, अमिअ-बल-वीरिअ-पुरिसक्कार-परक्कमाणं, महया अप्फोडिअ-सीहणाय-बोल-कलकल-रवेणं महुरेणं मणहरेणं पूरेता अंबरं, दिशाओ य सोभयंता, चत्तारि देवसाहस्सीओ सीहरूवधारीणं पुरिथिमिल्लं वाहं वहंति, चंदविमाणस्स णं दाहिणेणं, सेआणं, सुभगाणं, सुप्पमाणं, संखतल-विमल-णिम्मल-दधिषण-गोखीरफेण-रयय-णिगरप्पगासगाणं, वइरामयकुंभयुगल-सुट्ठिअ-पीवर-वरवइरसोंड-वट्टिअ-दित्त-सुरत्त, पउमप्पगासाणं, अब्भुण्णय-मुहाणं, तवणिज्ज-विसालकण्णचंचल-चलंत-विमलुजलाणं, महुवण्ण-भिसंत-णिद्ध-पत्तल-णिम्मल-तिवण्ण-मणि-रयण-लोयणाणं, अब्भुग्गय-मउल-मल्लिआधवलसरिससंठिय-णिवण्णदढ-कसिण-फालिआमय-सुजाय-दंतमुसलोवसोभिआणं, कंचणकोसी-पविट्ट-दंताग-विमल-मणि-रयण-रुइल-पेरंत-चित्तरूवग-विराइआणं, तवणिज्ज विसाल तिलगप्पमुह परिमण्डियाणं णाणामणि रयण मुद्ध गेविज्ज बद्ध गलयवर भूषणाणं वेरूलिप विचिंत दण्ड निम्मल बइरामय तिक्खलट्ठ अंकुस कुंभजुयलयंतरोडिआणं, तवणिज्ज-सुबद्ध-कच्छ-दप्पिअ-बलुद्धराणं, विमल-घण-मंडल-वइरामय-लालाललियतालणं, णाणामणि-रयण-घंट-पासग-रजतमय-बद्ध-रज्जु-लंबिय-घंटाजुयल-महुरसरमणहराणं, अल्लीण-पमाणजुत्त-वट्टिअ-सुजाय-लक्खण-पसत्थ-रमणिज्ज-वालगत्तपरिपुंछणाणं, उवचिअ-पडिपुण्ण-कुम्म-चलण-लहु विक्कमाणं, अंकामयणक्खाणं, तवणिज्ज-जीहाणं, तवणिज्जतालुआणं, तवणिज्ज-जोत्तग-सुजोइआणं, कामगाणं, पीइगाणं, मणोगमाणं, मनोरमाणं, अमियगईणं, अमिय-बल-वीरिय-पुरिसक्कारपरक्कमाणं, महया-गंभीर-गुलगुलाइतरवेणं महुरेणं मणहरेणं, पूरेता अंबरं, दिसाओ य सोभयंता, चत्तारि देवसाहस्सीओ गयरूवधारीणं देवाणं दक्खिणिल्लं वाहं परिवहंति, चंदविमाणस्स णं पच्चत्थिमेणं, सेआणं, सुभगाणं, सुप्पभाणं, चल-चवल-ककुह-सालीणं, घण-निचिअ-सुबद्ध-लक्खणुण्णयईसिआणय-वसभोट्ठाणं, चंकमिअ-ललिअ-पुलिअ-चलचवल-गव्विअ-गईणं, सन्नतपासाणं संगतपासाणं सुजायपासाणं, पीवरवट्रिअ-सुसंठिअ-कडीणं, ओलंब-पलंब-लक्खण-पमाणजुत्त-रमणिज्ज-वालगंडाणं समखुरवालिधाणाणं, समलिहिअ-सिंग-तिक्खग्ग-संगयाणं, तणु-सुहुम-सुजाय-णिद्ध-लोमच्छवीणं, उवचिअ-मंसल-विसाल-पडिपुण्ण-खंध-पएस-सुंदराणं, वेरुलिअ-भिसंत-कडक्ख-सुनिरिक्खणाणं, जुत्तप्पमाण-पहाणलक्खण-पसत्थ-रमणिज-गग्गर-गल्ल-सोभियाणं, Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ प्राभृत ] घरघरग-सुसद्द-बद्ध-कंड- परिमंडियाणं, णाणामणि- कणग-रयणघंटिआ वेगच्छिग-सुकयमालिआणं, वरघंटा-गलय-मालुज्जल-सिरिघराणं, पउमुप्पल - सगल - सुरभि - माला - विभूसिआणं, वरखुराणं, विविहक्खुराणं, फालिआमय-दंताणं, तवणिज्ज-जीहाणं, तवणिज्जतालुआणं, तवणिज्ज-जोत्तग-सुजोइआणं, कामगमाणं, पीइगमाणं, मणोगमाणं, मनोरमाणं, अमियगईणं, अमिय-बलवीरिय- पुरिसक्कारपरक्कमाणं महया गज्जीअ - गंभीर-रवेणं, महुरेणं मणहरणं, पूरें ता अंबरं, दिसाओ य सोभंता, चत्तारि देवसाहस्सीओ वसहरूवधारीणं देवाणं पच्चत्थिमिल्लं वाहं परिवहंति, चंदविमाणस्स णं उत्तरेणं आणं, सुभगाणं, सुप्पभाणं, वरमल्लिहायणाणं तरमल्लिअच्छाणं चंचुच्चिअ सेआणं, ललिअ - पुलिअ चलचवल- चंचलगईणं, ललंतलाम - गललाय - वरभूसणाणं, सन्नयपासाणं संगतपासाणं सुजायपासाणं, पीवरवट्टिम - सुसंठिअ-कडीणं, ओलंब- पलंब-लक्खण- पमाणजुत्त-रमणिज्ज- वालपुच्छाणं, तणुसुहुम-सुजाय- णिद्ध-लोमच्छविहराणं, मिठविसय- सुहुम- लक्खण-पसत्थ-वित्थिण्ण-केसरवालिहराणं, ललंत - थासग - ललाड - वरभूसणाणं, मुहमण्डग - ओचूलग- चामर-थासग परिमण्डिअ - कडीणं, तवणिज्ज - खुराणं, तवणिज्ज - जीहाणं, तवणिज्ज- तालुआणं, तवणिज्ज-जोत्तग-सुजोइआणं, कामगमाणं पीइगमाणं, मणोगमाणं, मणोरमाणं, अमिअगईणं, अमिअ- बलवीरिअ पुरिसक्कारपरक्कमाणं, [ १७५ महया गजिअ महुरेणंरवेणं, गंभीर-मणहरेणं पूरेंता अंबरं, दिसाओ य सोभयंता, चत्तारि देवसाहस्सी ओवस हरूवधारीणं देवाणं पच्चत्थिमिल्लं वाहं परिवहंति, चंद विमाणस्स णं उत्तरेणं सेआणं सुभगाणं, सुप्पमाणं तरमल्लिअच्छाणं चंचुच्चिअ - सेयाणं, ललिअ - पुलिअ - चलचवल- चंचलगईणं, ललंतलाम-गललाय - वरभूसणाणं, जंबु. वक्ख. ७, सु. १६८ - Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र जोइसियाणं सिग्घ-मंदगइपरूवणं ९५. प. सा एएसि णं चंदिम-सूरिय-गह-णक्खत्त-तारा-रूवाणं कयरे कयरेहिंतो सिग्घगई वा, मंदगई वा? उ. चंदेहितो सूरा सिग्यगई, सूरेहिंतो गहा सिग्घगई, गहेहिंतो णक्खत्ता सिग्घगई, णक्खत्तेहिंतो तारा सिग्घगई, सव्वप्पगई चंदा, सव्वसिग्घगई तारा।' जोइसियाणं अप्प-महिड्ढिपरूवणं प. ता एएसि णं चंदिम-सूरिय-गह-णक्खत्त-तारारूवाणं कयरे कयरेहितो अप्पड्डिया वा महिड्डिया वा? ता ताराहिंतो महिड्ढिया णक्खत्ता, णक्खत्तेहिंतो महिड्ढिया गहा। गहेहिंतो महिड्ढिया सूरा, सूरेहिंतो महिड्ढिया चंदा, सव्वप्पड्ढिया तारा, सव्वमहिड्ढिया चंदा। ताराणं अबाहा अंतरपरूवणं प. ता जंबुद्दीवे णं दीवे तारारूवस्स तारारूवस्स य एस णं केवइए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? उ. दुविहे अंतरे पण्णत्ते तंजहा - १. वाघाइमे य, २. निव्वाघाइमे य। क. तत्थ णं जे से वाघाइमे, से णं जहण्णेणं दोण्णि डावढे जोयणसए। उक्कोसेणं, बारस जोयणसहस्साइं दोण्णि बायाले जोयणसए तारारूवस्स य तारारूवस्स य अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। १. क. ख. सूत्र ८३ और इस सूत्र में साम्य है। जंबु. वक्ख.७, सु. १६९ जंबु. वक्ख.७, सु. १७० Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ प्राभृत ] [ १७७ ख. तत्थ णं जे से णिव्वाघाइमे से णं जहण्णेणं पंच घणुसयाई, उक्कोसेणं अद्धजोयणं तारारूवस्स य तारारूवस्स य अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। चंदस्स अग्गमहिसीओ देवीपरिवारविउव्वणा य प. ता चंदस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरण्णो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ? उ. ता चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तंजहा - १. चंदप्पभा, २. दोसिणाभा, ३. अच्चिमाली, ४. पभंकरा। तत्थ णं एगमेगाए देवीए चत्तारि देवीसाहस्सीपरिवारो पण्णत्तो। प. पभू णं ताओ एगमेगा देवी अण्णाइं चत्तारि चत्तारि देवीसहस्साइं परिवार विउव्वित्तए ? उ. पभू णं ताओ एगमेगा देवी देवीसाहस्सीपरिवारं विउव्वित्तए। एवामेव सपुव्वावरेणं सोलसदेवीसहस्सा पण्णत्ता, से त्तं तुडिए। प. ता पभू णं चंदे जोइसिंदे जोइसराया चंदवडिंसए विमाणे सभाए सुहम्माए तुडिएणं सद्धिं ___ दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए? उ. णो इणढे समठे। प. ता कहं ते णो पभू जोइसिंदे जोइसराया चंदवडिंसए विमाणे सभाए सुहम्माए तुडिएणं सद्धिं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए ? उ. क. ता चंदस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरण्णो चंदवडिंसए विमाणे सभाए सुहम्माए माणवएसु चेइयखंभेसु वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु बहवे जिणसकहाओ संणिक्खित्ताओ चिट्ठति। ताओ णं चंदस्स जोइसिंदस्स जोइसरण्णो अण्णेसिं च बहूणं जोइसियाणं देवाण य, देवीण य अच्चणिज्जाओ वंदणिजाओ पूयणिज्जाओ सक्कारणिज्जाओ सम्माणणिजाओ, कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पजुवासणिजाओ। एवं खलु णो पभू चंदे जोइसिंदे जोइसराया चंदवडिंसए विमाणे सभाए सुहम्माए तुडिएण सद्धिं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए। ख. पभू णं चंदे जोइसिंदे जोइसराया चंदवडिंसए विमाणे सभाए सुहम्माए चंदंसि सीहासणंसि चाहिं सामाणियसाहस्सीहि, चउहिं, अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं, तिहिं परिसाहिं, सत्तहिं अणिएहिं, सत्तहिं अणियाहिवईहिं, सोलसहिं आयरक्ख-देव-साहस्सीहिं, अण्णेहि य बहूहिं जोइसिएहिं देवेहिं १. जंबु. वक्ख. ७, सु. १७१ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र देवीहि य सद्धिं संपरिवुडे, महथाहयणट्ट-गीय-वाइय-तल-ताल-तुडिय-घण-मुइंग पडुप्पवाइय-रवेणं, दिव्वाई भोग-भोगाई भुंजमाणे विहरित्तए केवलं परिवारणिड्ढीए। सूरस्स अग्गमहिसीओ देवीपरिवारविउव्वणा य प. ता सूरस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरण्णो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ? उ. ता चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तंजहा - १. सूरप्पभा, २. आतवा, ३. अच्चिमाली, ४. पभंकरा। सेसं जहा चंदस्स, णवरं सूरवडेंसए विमाणे जाव नो चेव णं मेहुणवत्तियाए। जोइसियाणं देवाणं ठिई ९८. प. ता जोइसियाणं देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? उ. ता जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमं, उक्कोसेणं पलिओवमं, वाससयसहस्सब्भहियं । प. ता जोइसिणी णं देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? उ. ता जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमं, ___ उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पण्णासाए वाससहस्सेहिं अब्भहियं । प. ता चंदविमाणे णं देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? उ. ता जहन्नेणं चउब्भागपलिओवमं, ___ उक्कोसेणं पलिओवमं, वाससयसहस्सब्भहियं । प. ता चंदविमाणे णं देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? उ. ता जहन्नेणं चउब्भागपलिओवमं, उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पण्णासए वाससहस्सेहिं अब्भहियं। प. ता सूरविमाणेणं देवाणं केवइयं काल ठिईपण्णता ? उ. ता जहन्नेणं चउब्भाग पलिओवयं, उक्कोसेणं पलिओवयं वास सयसहस्समब्भहियं। प. ता सूरविमाणे णं देवीणं केवायं कालं ठिई पपणत्ता ? उ. ता जहन्नेणं चउब्भागपलिओवमं, ___ उक्कोसेणं अद्ध पलिओवमं पंचहिं वाससएहि अब्भहियं । प. ता गहविमाणे णं देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? 4A Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ प्राभृत ] [ १७९ उ. ता जहन्नेणं चउब्भागपलिओवमं, उक्कोसेणं पलिओवमं। प. ता गहविमाणे णं देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? उ. ता जहन्नेणं चउब्भागपलिओवमं, उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं। प. ताणक्खत्तविमाणे णं देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? उ. ता जहन्नेणं चउब्भागपलिओवमं, उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं । प. ता णक्खत्तविमाणे णं देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? उ. ता जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमं, . उक्कोसेणं चउब्भागपलिओवमं । प. ता ताराविमाणे णं देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? उ. ता जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमं, उक्कोसेणं चउब्भागपलिओवमं । प. ता ताराविमाणे णं देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? उ. ता जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमं, उक्कोसेणं साइरेगअट्ठभागपलिओवमं ।' जोइसियाणं अप्प-बहुत्तं प. ता एएसि णं चंदिम-सूरिय-गह-णक्खत्त-ताराणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा विसेसाहिया वा? उ. ता चंदा य, सूरा य एएणं दोवि तुल्ला, सव्वत्थोवा णखत्ता, संखिजगुणा गहा, संखिजगुणा तारा। १. जंबु. वक्ख. ७, सु. १७३ २. जंबु. वक्ख. ७, सु. १७५ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवाँ प्राभृत चंद-सूर-णक्खत्त-ताराणं परिमाणं . १००. प. ता कइ णं चंदिम-सूरिया सव्वलोयं ओभासंति, उज्जोएंति, तति, पभासेंति ? आहिए त्ति वएजा। उ. तत्थ खलु इमाओ दुवालस पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ तंजहा - तत्थेगे एवमाहंसु१. ता एगे चंदे एगे सूरे सव्वलोयं ओभासइ, उज्जोएइ, तवेइ, पभासइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - २. ता तिण्णिी चंदा, तिण्णिी सूरा सव्वलोयं ओभासेंति उज्जोएंति, तवेंति, पभासेति, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु - ३. ता अट्ठ चंदा अट्ठ सूरा सव्वलोयं ओभासेंति जाव पभासेंति एगे एवमाहंसु। एएणं अभिलावेणं णेयव्वं, ४. सत्त चंदा, सत्त सूरा, ५. दस चंदा, दस सूरा, ६. बारस चंदा, बारस सूरा, ७. बायालीसं चंदा, बायालीसं सूरा, ८. बावत्तरी चंदा, बावत्तरी सूरा, ९. बायालीसं चंदसयं बायालीसं सूरसयं, १०.बावत्तरं चंदसयं बावत्तरं सूरसयं, ११.बायालीसं चंदसहस्सं बायालीसं सूरसहस्सं, १२.बावत्तरं चंदसहस्सं, बावत्तरं सूरसहस्सं, सव्वलोयं ओभासंति उजोएंति तवेंति, पभासेंति एगे एवमाहंसु, Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवाँ प्राभृत ] [ १८१ - वयं पुण एवं वयामो - जम्बूहीवो-जंबुद्दीवे जोइसियपरिमाणं ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवसमुदाणं सव्वब्भंतराए सव्वखुड्डाए जाव एग जोयणसयसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साई, सोलस सहस्साई, दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए, तिण्णि य कोसे, अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई, अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते। १ प. जंबुद्दीवे दीवे - केवइया चंदा पभासिंसु वा, पभासिंति वा पभासिस्संति वा ? २ प. केवइया सूरा तविंसु वा, तवेंति वा तविस्संत्ति वा ? ३ प. केवइया गहा चारं चरिंसु वा, चरंति वा चरिस्संति वा ? ४ प. केवइया णक्खत्ता जोयं जोइंसु वा, जोएंति वा जोइस्संति वा ? ५ प. केवइया तारागणकोडि-कोडीओ सोभं सोभेसु वा, सोभंति वा सोभिस्संति वा? १ उ. ता जंबुद्दीवे दीवे - दो चंदा पभासेंसु वा, पभासिंति वा, पभासिस्संति वा। २ उ. दो सूरिया तविंसु वा, तवेंति वा, तविस्संति वा। ३ उ. छावत्तरि गहसयं चार चरिंसु वा, चरंति वा, चरिस्संति वा। ४ उ. छप्पण्णं णक्खत्ता जोयं जोएंसु वा जोएंति वा, जोइस्संति वा। ५ उ. एगं सयसहस्सं तेत्तीसं च सहस्सा णव सया पण्णासा तारागणकोडिकोडीणं सोभं सोभेसु वा, सोभंति वा, सोभिस्संति वा। गाहाओ - दो चंदा दो सूरा, णक्खत्ता खलु हवंति, छप्पणा। छावत्तरं गहसयं, जंबुद्दीवे विचारीणं॥ एगं च सयसहस्सं तेत्तीसं खलु भवे सहस्साइं। णव य सया पण्णासा, तारागणकोडिकोडीणं॥ लवणसमुद्दो ता जंबुद्दीवं दीवं लवणे नामं समुद्दे वट्टे वलयाकारसंठाणसंठिए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठइ। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र प. ता लवणे णं समुद्दे किं समचक्कवालसंठिए विसमचक्वालसंठिए ? उ. ता लवणसमुद्दे समचक्कवालसंठिए, नो विसमचक्वालसंठिए। प. ता लवणसमुद्दे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं, केवइयं परिक्खेवेणं ? आहिए त्ति वएजा। उ. ता दो जोयणसयसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं, पण्णरस जोयणसयसहस्साई एक्कासीयं च सहस्साइं सयं च एगूणचालीसं किंचि विसेसूणं परिक्खेवेणं । गाहा - पण्णरस सयसहस्सा, एक्कासीयं सयं च ऊतालं। किंचि विसेसेणूणो, लवणोदहिणो परिक्खेवो॥ १ प. ता लवणसमुद्दे - केवइया चंदा पभासिंसु वा, पभासिंति वा, पभासिस्संति वा ? २ प. केवइया सूरा तविंसु वा, तविंति वा तविस्संत्ति वा ? ३ प. केवइया गहा चारं चरिंसु वा, चरंति वा चरिस्संति वा ? ४ प. केवइया णक्खत्ता जोगं जोइंसु वा, जोएंति वा जोइस्संति वा ? ५ प. केवइया तारागणकोडि-कोडीओ सोभं सोभेसु वा सोभंति वा सोभिस्संति वा ? १ उ. ता लवणसमुद्दे चत्तारि चंदा पभासिंसु वा, पभासिंति वा, पभासिस्संति वा। २ उ. चत्तारि सूरिया तविंसु वा, तविंति वा, तविस्संति वा। ३ उ. तिण्णि बावण्णा महग्गहसया चारं चरिंसु वा चरंति वा, चरिस्संति वा। ४ उ. बारस णक्खत्तसयं जोगं जोएंसु वा जोएंति वा, जोइस्संति वा। ५ उ. दो सयसहस्सा सत्तटुिं च सहस्सा णव य सया तारागणकोडिकोडीणं सोभं सोभेंस वा सोभंति वा. सोभिस्संति वा। गाहाओ चत्तारि चेव चंदा, चत्तारि य सूरिया लवणतोए। बारस णक्खत्तसयं, गहाण तिण्णेव बावण्णा॥ दोच्चेव सयसहस्सा, सत्तढेिं खलु भवे सहस्साइं। णव य सया लवणजले, तारागणकोडिकोडीणं॥ धायईसंडदीवे ता लवणसमुदं धायईसंडे णामं दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठइ। प. ता धायईसंडे णामं दीवे किं समचक्कवालसंठिए विसमचक्कवालसंठिएं ? उ. ता धायईसंडे णामं दीवे समचक्कवालसंठिए, नो विसमचक्कवालसंठिएं। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवाँ प्राभृत ] [ १८३ प. धायईसंडे णं दीवे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता चत्तारि जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं ईयालीसं जोयणसयसहस्साइं दस य ___ सहस्साइं णव य एगट्टे जोयणसए किंचि विसेसूणं परिक्खेवेणं, आहिए त्ति वएज्जा गाहा १ प. धायइसंडे दीवे - धायइसंड परिरओ ईयाल दसूत्तरा सयसहस्सा। ___णव य सया एगट्ठा, किंचि विसेसेण परिहीणा॥ केवइया चंदा पभासेंसु वा, पभासिंति वा, पभासिस्संति वा ? २ प. केवइया सूरिया तवेंसु वा, तविंति वा, तविसिस्संति वा ? ३ प. केवइया गहा चारं चरिंसु वा, चरंति वा चरिस्संति वा ? ४ प. केवइया णक्खत्ता जोगं जोइंसु वा, जोएंति वा जोइस्संति वा ? ५ प. केवइया तारागणकोडाकोडीओ सोभं सोभेसु वा, सोभंति वा सोभिस्संति वा ? १ उ. बारस चंदा पभासेंसु वा, पभासिंति वा, पभासिस्संति वा। २ उ. बारस सूरिया तवेंसु वा, तविंति वा, तविसिस्संति वा। ३ उ. एगं छप्पण्णं महग्गहसहस्सं चार चरिंसु वा, चरंति वा, चरिस्संति वा। ४ उ. तिण्णिं छत्तीसा णक्खत्तसया जोगं जोएंसु वा, जोएंति वा, जोइस्संति वा। ५ उ. गाहाओ - अद्वैव सय सहस्स, तिण्णि सहस्साइं सत्त य सयाई। एगससीपरिवारो, तारागणकोडिकोडीणं॥ चउवीसं ससि-रविणो, णक्खतसया य तिण्णि छत्तीसा। एगं च गहसहस्सं, छप्पणं धायईसंडे॥ अद्वैव सयसहस्सा, तिण्णि सहस्साई सत्त य सयाई धायइसंडे दीवे, तारागण कोडिकोडीणं॥ कालोए समुद्दे ता धायईसंडं णं दीवं कालोए णामं समुद्दे वट्टे वलयाकारसंठाणसंठिए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइ। प. ता कालोए णं समुद्दे किं समचक्कवालसंठिए विसमचक्वालसंठिए ? उ. ता कालोए णं समुदेसमचक्कवालसंठिए, नो विसमचक्वालसंठिए। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र .. प. ता कालोए णं समुद्दे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं, केवइयं परिक्खेवेणं ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता कालोए णं समुद्दे अट्ठ जोयणसयसहस्साई चक्कवालविखंभेणं, पण्णत्ते। एक्काणउई जोयणसयसहस्साइं सत्तरिं च सहस्साई छच्च पंचुत्तरे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, आहिए त्ति वएजा। गाहा - एक्काणउई सयसहस्सं, सत्तरि सहस्साई परिरओ तस्स। आहियाई छच्च पंचुत्तराई, कालोदधि वरस्स॥ १ प. ता कालोए णं समुद्दे - __केवइया चंदा पभासिंसु वा, पभासिंति वा, पभासिस्संति वा ? २ प. केवइया सूरा तविंसु वा, तवेंति वा तविस्संत्ति वा ? ३ प. केवइया गहा चारं चरिंसु वा, चरंति वा चरिस्संति वा ? ४ प. केवइया णक्खत्ता जोगं जोइंसु वा, जोएंति वा जोइस्संति वा? - ५ प. केवइया तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोभेसु वा सोभंति वा सोभिस्संति वा ? १ उ. ता कालोए णं समुद्दे बायालीसं चंदा पभासेंसु वा, पभासिंति वा, पभासिस्संति.वा। २ उ. बायालीसं सूरा तवेंसु वा, तवेंति वा, तविस्संति वा। ३ उ. तिन्नि सहस्सा छच्च छन्नउया महग्गहसया चारं चरिंसु वा चरंति वा, चरिस्संति वा। ४ उ. एक्कारस छावत्तरा णक्खत्तसया जोगं जोइंसु वा जोएंति वा, जोइस्संति वा। ५ उ. अट्ठावीसं सयसहस्साइं, बारस सहस्साइं नव य सयाई पण्णासा तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोभेसु वा, सोभंति वा, सोभिस्संति वा। गाहाओ - बायालीसं चंदा, बायालीसं च दिणकरादित्ता। कालोदहिमि एए, चरति संबद्धलेसागा॥ णक्खत्तसहस्सं, एगमि छावत्तरं च सतमण्णे। छच्चसया छण्णउया, महग्गह, तिण्णि य सहस्सा॥ अट्ठावीसं सयसहस्सं, बारस य सहस्साई। णवयसया पण्णासा, तारागण कोडिकीडीणं॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवाँ प्राभृत ] [ १८५ पुक्खरवरदीवे ता कालोयं णं समुदं पुक्खरवरे णाम दीवे वट्टे वलयाकारसंठाणसंठिए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठइ। प. ता पुक्खरे णं दीवे किं समचक्कवालसंठिए विसमचक्वालसंठिए ? उ. ता पुक्खरवरे णं दीवे समचक्कवालसंठिए, नो विसमचक्वालसंठिए। प. ता पुक्खरवरे णं दीवे केवइयं समचक्कवालविक्खंभेणं ? केवइयं परिक्खेवेणं ? उ. ता सोलस जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं। एगा जोयणकोडी बाणउइं च सयसहस्साई अउणावनं च सहस्साइं अट्ठ चउणउए जोयणसए परिक्खेवेणं, आहिए त्ति वएज्जा। गाहा - कोडी बाणउई खलु, अउणाणउइं भवे सहस्साई। __अट्ठसया चउणउया, परिरओ पोक्खरवरस्स॥ १. प. ता पुक्खरवरे णं दीवे - केवइया चंदा पभासिंसु वा, पभासिंति वा, पभासिस्संति वा ? २ प. केवइया सूरा तविंसु वा, तवेंति वा तविस्संत्ति वा ? ३ प. केवइया गहा चारं चरिंसु वा, चरंति वा चरिस्संति वा ? ४ प. केवइया णक्खत्ता जोगं जोइंसु वा, जोएंति वा जोइस्संति वा ? ५ प. केवइया तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोभेंसु वा सोभंति वा सोभिस्संति वा ? १ उ. ता चोयालं चंदसयं पभासेंसु वा, पभासिंति वा, पभासिस्संति वा। २ उ. चोंयालं सूरियाणं सयंतविंसु वा, तवेंति वा, तविस्संति वा। ३ उ. बारस सहस्साइं छच्च बाबतरा महग्गहसया चारं चरिंसु वा, चरन्ति वा, चरिस्संति वा। ४ उ. चत्तारि सहस्साइं बत्तीसं च णक्खता जोगं जोइंसु वा, जोयंति वा, जोइस्संति वा। ५ उ. छण्णउइसयसहस्साई, चोयालीसं सहस्साइं चतारि य सयाई तारागणकोडिकोडीणं सोभं सोभेसु वा, सोभेति वा, सोभिस्संति वा। गाहाओ चत्तालं चंदसयं, चत्तालं चेव सूरियाण सयं। पोक्खरवरदीवम्मि य, चरंति एए पभासंता॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र चत्तारि सहस्साइं, बत्तीसं चेव हुंति णक्खत्ता। छच्च सया बावत्तरं, महग्गहा बारह सहस्सा॥ छण्णउइ सयसहस्सा, चोत्तालीसं खलु भवे सहस्साई। चत्तार य सया खलु, तारागण कोडि कोडी णं॥ माणुसुत्तरे पव्वए ता पुक्खरवरस्स णं दीवस्स बहुमझदेसभाए माणुसुत्तरे णामं पव्वए पण्णत्ते, वट्टे वलयाकारसंठाणसंठिए जे णं पुक्खरवरं दीवं दुहा विभयमाणे विभयमाणे चिट्ठइ, तंजहा - १. अब्भिंतरपुक्खरद्धं च, २. बाहिरपुक्खद्धरद्धं च। अभिंतर-पुक्खरद्धे प. ता अभिंतर-पुक्खरद्धे णं किं समचक्कवालसंठिए, विसमचक्कवालसंठिए ? उ. ता समचक्कवालसंठिए, नो विसमचक्कवालसंठिए। प. ता अब्भिंतर-पुक्खरद्धे णं केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता अट्ठ जोयणसयसहस्साइं चक्कवालविक्खंभे णं, एक्का जोयण कोडी बायालीसं च सयसहस्साई तीसं च सहस्साई दो अंउणापण्णे जोयणसए परिक्खेवेणं, आहिए त्ति वएज्जा, 'अद्वैव सयसहस्सा अभिंतरपुक्खरस्स विक्खंभो।" १. प. ता अब्भिंतरपुक्खरद्धे णं केवइया चंदा पभासेंसु वा, पभासिंति वा, पभासिस्संति वा? २ प. केवइया सूरा तवेंसु वा, तवेंति वा तविस्संत्ति वा ? ३ प. केवइया गहा चारं चरिंसु वा, चरंति वा चरिस्संति वा ? ४ प. केवइया णक्खत्ता जोगं जोइंसु वा, जोएंति वा जोइस्संति वा ? ५ प. केवइया तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोभेंसु वा सोभंति वा सोभिस्संति वा? १ उ. बावत्तरिं चंदा पभासेंसु वा, पभासिंति वा, पभासिस्संति वा। २ उ. बावत्तरि सूरिया तवेंसु वा, तवेंति वा, तविस्संति वा। ३ उ. छ महग्गहसहस्सा तिन्नि सए य छत्तीसा चारं चरेंसु वा, चरंति वा, चरिस्संति वा। ४ उ. दोण्णि सोला णक्खत्तसहस्सा जोगं जोएंसु वा जोएंति वा, जोइस्संति वा। १. ये गाथा के प्रारम्भ के दो पद हैं। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवाँ प्राभृत ] ५ उ. अडयालीसं सयसहस्सा, बावीसं च सहस्सा दोण्णि य सया तारागणकोडिकोडीणं सोभं सोभेंसु वा सोभंति वा, सोभिस्संति वा । गाहाओ - पुक्खरवरदीवड्ढे बावत्तरं च चंदा बावत्तरिमेव दिणकरादित्ता । चरंति एए पभासेंता ॥ तिणि सया छत्तीसा, छचच सहस्सा महग्गहाणं तु । सोलाई दुवे सहस्साइं ॥ णक्खत्ताणं तु भवे, बावीसं खलु भवे सहस्साइं । तारागणकोडिकोडीणं ॥ अडयालसयसहस्सा, दो य सय पुक्खरद्धे, समयक्खेत्ते • प. ता समयक्खेत्ते णं केवइयं आयाम - विक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं ? आहिए त्ति वएज्जा । उ. ता पणयालीसं जोयणसयसहस्साइं आयाम - विक्खंभेणं एगा जोयणकोडी, बायालीसं च सयसहस्साइं दोण्णि य अडणापण्णे जोयणसए विक्खंभेणं आहिए त्ति वएज्जा, गाहा पणयाल सय सहस्सा, समयखेत्तस्स विक्खंभो । कोडी बायालीसं, सहस्स दुसया य अउणपण्णासा । समयखेत्तस्स परिरओ, एमेव य पुक्खरद्धस्स ॥ १. प. ता समयखेत्ते णं केवइया चंदा पभासेंसु वा, पभासिंति वा, पभासिस्संति वा ? २ प. केवइया सूरा तवेंसु वा, तवेंति वा तविस्संत्ति वा ? ३ प. केवइया गहा चारं चरिंसु वा, चरंति वा चरिस्संति वा ? ४ प. केवइया णक्खत्ता जोगं जोइंसु वा, जोएंति वा जोइस्संति वा ? ५ प. केवइया तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोभेंसु वा सोभंति वा सोभिस्संति वा ? - १८७ - १ उ. ता बत्तीस चंदसयं पभासेंसु वा, पभासिंति वा, पभासिस्संति वा । २ उ. बत्तीस सूरसयं तवेंसु वा, तवेंति वा, तविस्संति वा । ३ उ. ता एक्कारस सहस्सा छच्च सोलस महग्गहसया चारं चरिसु वा, चरंति वा, चरिस्संति वा । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र ४ उ. ता तिण्णि सहस्सा छच्च छण्णउया णक्खत्तसया जोगं जोईसु वा जोएंति वा, जोइस्संति वा। ___ ५ उ. ता अट्ठासीई सयसहस्साइं चत्तालीसं च सहस्सा सत्त य सया तारागणकोडिकोडीणं सोभं सोभेसु वा, सोभंति वा, सोभिस्संति वा। गाहाओ - बत्तीसं चंदसयं, बत्तीसं चेव सूरियाण सरां। सयलं माणुसलोयं चरंति एए पभासेंता॥ एक्कारस य सहस्सा, छप्पिय सोला महग्गहाणं तु। छच्च सया छण्णउया णक्खत्ता तिण्णि य सहस्सा॥ अट्ठासीइ चत्ताइं, सय सहस्साई मणुयलोगंमि। सत्त य सया अणूणा, तारागणकोडिकोडीणं॥ एसो तारापिंडो, सव्वसमासेण मणुयलोगंमि। बहिया पुण ताराओ, जिणेहिं भणिया असंखेजा॥ एवइयं तारगं, जं भणियं माणुसंसि लोगंमि। चारं कलंबुया-पुप्फसंठियं जोइसं चरइ॥ रवि ससि गह णक्खत्ता, एवइया आहिया मणुयलोए। जेसिंणामागोत्तं, न पागया, पण्णवेहिति॥ जोइसियाणं पिडगाई - छावढेि पिडगाई, चंदाइच्चाण मणुयलोगंमि। दो चंदा दो सूरा, य हुंति एक्केकए पिडए॥ छावट्टि पिडगाई, महागहाणं मणुयलोगंमि। छावत्तरं गहसयं, होइ एक्केकए पिडए॥ छावढेि पिडगाई णक्खत्ताणं तु मणुयलोगंमि। छप्पण्णं णक्खत्ता हुंति एक्केक्कए पिडए॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवाँ प्राभृत ] जोइसियाणं पंतीओ गाओ - - चत्तारि य पंतीओ, चंदाइच्चाण मणुयलोगंमि । छावट्ठि छावट्ठि च, हवइ एक्केक्किया पंती ॥ छावत्तरं गहाणं, पंतिसयं हवंति मणुयलोगंमि । छावट्ठि छावट्ठि च हवइ एक्केक्किया पंती ॥ छप्पन्नं पंतीओ, णक्खत्ताणं तु मणुयलोगंमि । छावट्ठि छावट्ठि हवइ एक्केक्किया पंती ॥ जोइसियाणं मंडला गाहाओ पदाहिणवत्त मंडला सव्वे । ते मेरुमणुचरंता, अणवट्टिय जोगेहिं, चंदा सूरा गहगणा य ॥ णक्खत्त- तारागाणं, अवट्ठिया, मंडला मुणेयव्वा । तेऽवि य पदाहिणावत्तेमेव मेरुं अणुचरंति ॥ जोइसियाणं मंडलसंकमणं - 'रयणिकर- दिणकराणं, उद्धं च अहेव संकमो नत्थि । मंडलसंकमणं पुण, सब्धंतर - बाहिरं तिरिए ॥ जोइसाणं चारं सुह- दुहस्स निमित्तकारणं - रयणिकर- दिणकराणं, णक्खत्ताणं महग्गहाणं च । चारविसेसेण भवे, सुह- दुक्खविही मणुस्साणं ॥ जोइसियाणं तावक्खेत्तं तेसिं पविसंताणं तावक्खेत्तं तु वड्ढए णिययं । तेणेव कमेण पुणो, परिहायइ निक्खमाणाणं ॥ तेंसि कलंबुयापुप्फसंठिया हुंति तावक्खेत्तपहा । अंतो य संकुडा बाहिं वित्थडा चंद-सूराणं ॥ [ १८९ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र चंदस्स परिवुड्डि-परिहाणी - गाहाओ - केणइ वड्डइ चंदो ? परिहाणी केण हुंति चंदस्स ? कालो वा जोण्हो वा ? केणऽणुभावेण चंदस्स? किण्हं राहुविमाणं णिच्चं चंदेण होइ अविरहियं । चउरंगुलमसंपत्तं, हिच्चा चंदस्स तं चरइ॥ बावष्टुिं बावढेि, दिवसे दिवसे तु सुक्कपक्खस्स। जं परिवड्डइ चंदो, खवेइ चेव काले णं॥ पण्णरसइ भागेण य चंदं पण्णरसमेव तं वरइ। पण्णरसइ भागेण य, पुणोऽवि तं चेव वक्कमइ॥ एवं वड्ढइ चंदो, परिहाणी एव होइ चंदस्स। कालो वा जोण्हो वा, एवष्णुभावेण चंदस्स॥ अणवट्ठिया अवट्ठिया वा जोइसिया - गाहाओ - अंतोमणुस्स खेत्ते, हवंति चारोवगा उ उववण्णा। पंचविहा जोइसिया, चंदा सूरा गहगणा य॥ तेण परं जे सेसा, चंदाइच्च-गह-तार-णक्खत्ता। णत्थि गई णवि चारो, अवट्ठिया ते मुणेयव्वा॥ अड्ढाइजेसु दीव-समुद्देसु जोइसियाणं पमाणं - गाहाओ - एवं जंबुद्दीवे, दुगुणा, लवणे चउग्गुणा हुँति। लावणगा य तिगुणिया, ससि-सूरा धायइसंडे॥ दो चंदा इह दीवे, चत्तारि य सायरे लवणतोए। धायइसंडे दीवे, बारस चंदा य सूरा य॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवाँ प्राभृत ] माणुसणगस्स बहिया जोइसियाणं पमाणं गाहाओ - - धायइसंडप्पभिइस्स, उद्दिट्ठा तिगुणिया भवे चंदा । आइल्लचंद सहिया, अणंतराणंतरे खेत्तेग॥ रिक्खग्गह- तारागग्गं, दीव-समुद्दे जहिच्छसी णाउं । तस्ससीहिं तग्गुणियं, रिक्ख-ग्गह-तारग्गं तु ॥ बहिया उ माणुसणगस्स चंद-सूराणऽवट्ठिया जोण्हा । चंदा अभिईजुत्ता, सूरा पुण हुंति पुस्सेहिं ॥ माणुसनगम्प बहिया जोइसियाणं अंतरं - - गाहाओ - चंदाओ सूरस्स य, सूरा चंदस्स अंतरं होई । पण्णाससहस्साइं तु जोयणाणं अणूणाईं ॥ सूरस्स य सूरस्स य, ससिणो ससिणो य अंतरं होई । बाहिं तु माणुसनगस्स जोयणाणं सयसहस्सं । सूरतरिया चंदा, चंदंतरिया य दिणयरा दित्ता । . चित्ततरलेसागा, सुहलेसा मंदलेसा य ॥ 1 [१९१ माणुसनगस्स बहिया एगससीपरिवारो - गाहाओ - अट्ठासीइंच गहा, अट्ठावीसं च हुंति णक्खत्ता णं । एगससी परिवारो, एत्तो ताराण वोच्छामि ॥ छावट्ठि सहस्साइं णव चेव सयाइंपंचसयराइं । एगससी परिवारो, तारागण कोडिकोडीणं ॥ अंतोमणुस्सखेत्ते जोइसियाणं उड्ढोववण्णगाइपरूवणं - प. अंतो भणुस्सखेत्ते जे चंदिम-सूरिया गह णक्खत्त- तारारूवा ते णं देवा किं उड्ढोववण्णगा, कप्पोववण्णगा, विमाणोववण्णगा, चारोववण्णगा, चारद्वितिया, गतिरतिया गतिसमावण्णगा ? उ. ता ते णं देवा नो उड्ढोववण्णगा, नो कप्पोववण्णगा, विमाणोववण्णगा, चारोववण्णगा, Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र नो थारट्ठईया गइरइया गइसमावण्णा । उड्ढामुह-कलंबु अपुप्फसंठाणसंठिएहिं जोयणसाहस्सिएहिं तावक्खेत्तेहिं साहस्सिएहिं बाहिराहि य वेडव्वियाहिं परिसाहिं महयाहयणट्टगीयवाइय-तंती तल-ताल-तुडिय- घणमुइंग-पडुप्पवाइयरवेणं, महया उक्किट्ठ सीहणादबोलकलकलरवेणं, अच्छं पव्वयरायं पयाहिणावत्तमंडलचारं मेरुं अणुपरियट्ठेति । पुव्वइंदस्स चवणाणंतरं अण्णइंदस्स उववज्जणं पं. ता तेंसि णं देवाणं जाहे इंदे चयइ से कयमिदाणिं पकरेइ ? उ. ता चत्तारि पंच सामाणिया देवा तं ठाणं उवसंपज्जित्ताणं विहरंति जाव अण्णे इत्थ इंदे उववण्णे भवइ । प. ता इंदठाणे णं केवइएणं कालेणं विहरियं पण्णत्तं ? उ. ता जहण्णेणं इक्कं समयं उक्कोसेणं छम्मासे । माणुसखेत्तस्स बहियाजोइसियाणंउड्ढोववण्णगाइपरूवणं - प. ता बहिया णं माणुरसखेत्तस्स जे चंदिमसूरिया गहगण - णक्खत्त-तारारूवा ते णं देवा किं उड्ढोववण्णगा, कप्पोववण्णगा, विमाणोववण्णगा, चारोववण्णगा, चारड़िया, गइरईया गइसमावण्णगा ? उ. ता ते णं देवा नो उड्ढोववण्णगा, नो कप्पोववण्णगा, विमाणोववण्णगा, नो चारोववण्णंगा, चारद्विइया नो गइरइया, नो गइसमावण्णा । पगिट्ठगसंठाणसंठिएहिं जोयणसयसाहस्सिएहिं तावक्खेत्तेहिं सयसाहस्सिएहिं बाहिराहिं वेउव्वियाहिं परिसाहिं महयाहय-णट्ट-गीय - वाइय-तंती तल-ताल-तुडिय - घणमुइंग-पडुप्पवाइयरवेणं, महया उक्किट्ठ सीहणाद- बोलकलकलरवेणं, दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरड़ । सुहलेसा मंदलेसा मंदायवलेसा, चित्तंतरलेसा, अण्णऽण्ण सभोगाढाहिं लेसाहिं कूडा इव ठाणठिया ते पदेसे सव्वओ समंता ओभासंति उज्जोवेंति तवेंति पभासेंति । प. ता तेंसि णं देवाणं जाहे इंदे चयइ, से कहमिदाणिं पकरेइ ? उ. ता चत्तारि पंच सामाणिया देवा तं ठाणं उवसंपजित्ताणं विहरंति, जाव अण्णे इत्थ इंदे उववण्णे भवइ । प. ता इंदठाणे णं केवइएणं कालेणं विरहियं पण्णत्ते । उ. ता जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासे । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवाँ प्राभृत ] [ १९३ सेसाणं दीव-समुद्दाणं आयामाह १०१. ता पुक्खरवरंणं दीवं पुक्खरोदे णामं समुद्दे वट्टे वलयाकारसंठाणसंठिए सव्वओ समंत्ता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठइ। प. ता पुक्खरोदे णं समुद्दे किं समचक्कवालसंठिए विसमचक्कवालसंठिए ? उ. ता समचक्कवालसंठिए नो विसमचक्कवालसंठिए । प. ता पुक्खरोदे णं समुद्दे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं ? केवइयं परिक्खेवेणं ? आहिए त्ति वएज्जा? उ. ता संखेजाई जोयणसहस्साइं आयामविक्खंभेणं, संखेजाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं आहिए त्ति वएजा। प. ता पुक्खरोदे णं समुद्दे केवइया चंदा पभासेंसुवा, जाव केवइया तारागण-कोडिकोडीओ सोभं सोभिस्संति वा। उ. ता पुक्खरोदे णं समुद्दे संखेज्जा चंदा पभासेंसु वा जाव संखेजाओ तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोभिस्संति वा। एवं एएणं अभिलावेणं - १. वरुणवरे दीवे, २. वरुणोदे समुद्दे, १. खीरवरे दीवे, २. खीरोदे समुद्दे, १. घयवरे दीवे, २. घयोदे समुद्दे, १. खोयवरे दीवे, २. खोयोदे समुद्दे, १. नंदीसरवरे दीवे, २. नंदीसरे समुद्दे, १. अरुणे दीवे, २. अरुणोदे समुद्दे, १. अरुणवरे दीवे, २. अरुणवरोदे समुद्दे, १. अरुणवरोभासे दीवे, २. अरुणवरभासोदे समुद्दे, १. कुडले दीवे, २. कुडलोदे समुद्दे, १. कुडलवरे दीवे, २. कुडलवरोदे समुद्दे, १. कुडलवरोभासे दीवे, २. कुडलवरभासोदे समुद्दे। सव्वेसिं विक्खंभ-परिक्खेवो जोइसाइं च पुक्खरोदसागरसरिसाई। ता कुडलवरभासोदं समुदं रुयए दीवे वट्टे वलयाकारसंठाणसंठिए, सव्वओ समंता संपरिक्खित्ताणं Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र चिट्ठइ। प. ता रुयए णं दीवे समचक्कवालसंठिए, विसमचक्कवालसंठिए ? उ. ता समचक्कवालसंठिए, नो विसमचक्कवालसंठिए।। प. ता रुयए णं दीवे केवइयं समचक्कवालविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं? उ. ता असंखेज्जाई जोयणसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं, असंखेजाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं आहिए त्ति वएज्जा, प. तारुयए णं दीवे केवइया चंदा पभासेंसु वा जाव केवइया तारागणकोडिकोडीओ सोभं सो.सु सोभिस्संति वा? उ. तारुयए णं दीवे असंखेजा चंदा पभासेंसु वा जाव असंखेजाओ तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोभिस्संति वा। एवं रुयगोदे समुद्दे, १. रुयगवरे दीवे, २. रुयगवरोदे समुद्दे। १. रुयगवरोभासे दीवे, २. रुयगवरभासोदे समुहे। एवं तिपडोयारा दीवे-समुद्दा णायव्वा, जाव, १. सूरे दीवे, २. सूरोदे समुद्दे, १. सूरवरे दीवे, २. सूरवरोदे समुद्द, १. सूरवरोभासे दीवे, २. सूरवरभासोदे समुद्दे। सव्वेसिं विक्खंभ-परिक्खेवो जोइसाइं रुयगवरदीवसरिसाई। ता सूरवरोभासोदं णं समुदं देवे णामं दोवे वट्टे वलायाकारसंठाणसंठिए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइ। प. ता देवे णं दीवे किं समचक्कवालसंठिए विसमचक्कवालसंठिए ? उ. ता समचक्कवालसंठिए नो विसमचक्कवालसंठिए । प. ता देवे णं दीवे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं? आहिए त्ति वएज्जा । उ. ता असंखेज्जाइं जोयणसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं असंखेजाइं जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं आहिए त्ति वएज्जा। प. ता देवेणं दीवे केवइया चंदा पभासेंसु वा जाव केवइया तारागण-कोडिकोडीओ सोभं सोभिस्संति वा। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवाँ प्राभृत ] [ १९५ उ. ता देवे णं दीवे असंखेज्जा चंदा पभासेंसु वा जाव असंखेज्जाओ तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोभिस्संति वा । एवं देवोदे समुद्दे - १. जागे दीवे, २. णागोदे समुद्दे, १. जक्खे दीवे, २. जक्खोदे समुद्दे, १. भूए दीवे, २. भूओदे समुद्दे, १. सयंभूरमणे दीवे, २. सयंभूरमणे समुद्दे । सव्वेसिं विक्खंभ-परिक्खेवे जोइसाइं देवदीवसरिसाई । ܀ 담은 믿음 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदिम-सूरियाणं अणुभावो १०२. प. ता कहं ते अणुभावे ? आहिए त्ति वएज्जा । वा । वा । बीसवाँ प्राभृत उ. ता तत्थ खलु इमाओ दो पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तंजहा १. तत्थेगे एवमाहंसु - ता चंदिम-सूरिया णं नो जीवा, अजीवा, - नो घणा, झूसिरा, नो बादरबोंदिधरा कलेवरा । नत्थि णं तेंसि १. उट्ठाणेइ वा, २. कम्पेड़ वा, ३. बलेइ वा, ४. वीरिएड वा, ५. पुरिसक्कारपरक्कमेइ नो विज्जु लवंति, नो असणिं लवंति, नो घणियं लवंति । अहे य णं बादरे वाउकाए संमुच्छड़, संमुच्छित्ता विज्जुं पि लवंति, असणिं पि लवंति, थणियं पि लवंति 'एगे एवमाहंसु' । १. एगे पुण एवमाहंसु - ता चंदिम-सूरिया णं - - - जीवा, नो अजीवा, घणा, नो झूसिरा, बादरबोंदिधरा नो कलेवरा । अत्थि णं तेंसि १. उट्ठाणेइ वा, २. कम्मेइ वा, ३. बलेइ वा, ४. वीरिएड वा, ५. पुरिसक्कारपरक्कमेइ विज्जुं पि लवंत, असणिं पि लवंति, थणियं पि लवंति, 'एगे एवमाहंसु' । वयं पुण एवं वयामो ता चंदिम-सूरिया णं देवाणं महिड्डिया, महज्जुइया, महब्बला, महाजसा, महासोक्खा, महाणुभागा Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ प्राभृत ] वरवत्थधरा, वरमल्लधरा, वराभरणधरा अवोछित्तिणयट्टयाए अन्ने चयंति, अन्ने उववज्जंति । राहु-कम्मपरूवणं १०३. प. ता कहं ते राहुकम्मे ? आहिए त्ति वएजा ? उ. तत्थ खलु इमाओ दो पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ तं जहा एत्थेगे एवमाहंसु - १. अत्थि णं से राहु देवे जे णं चंदं वा सूरं वा गिण्हइ, 'एगे एवमाहंसु' । एगे पुण एवमाहंसु - २. नत्थि णं से राहू देवे जे णं चंदं वा सूरं वा गिण्हइ, एगे एवमाहंसु । तत्थ जे ते एवमाहंसु - अथ से राहू देवे जे णं चंदं वा सूरं वा गिण्हइ, से एवमाहंसु - ता राहूणं देवे चंदं वा सूरं वा गेण्हमाणे - १. बुद्धतेणं गिण्हित्ता, बुद्धतेणंमुयइ, २. बुद्धतेणं गिहित्ता, मुद्धतेणंमुयइ, ३. मुद्धतेणं गिहित्ता, बुद्धतेणंमुयइ, ४. मुद्धतेणं गिण्हित्ता, मुद्धतेणंमुयइ, १. वामभुयंतेणं गिहित्ता, वामभुयंतेणं मुयइ, २. वामभुयंतेणं गिण्हित्ता, दाहिणभुयंतेणं मुयइ, ३. दाहिणभुयंतेणं गिण्हित्ता, वामभुयंतेणं मुयइ, ४. दाहिणभयंतेणं गिण्हित्ता, दाहिणभुयंतेणं मुयइ ॥ - [१९७ तत्थ जे ते एवमाहंसु - ता नत्थां से राहू देवे जे णं चंदं वा, सूरं वा गेण्हइ, ते एवमाहंसु - तत्थ णं इमे पण्णरसकसिणपोग्गला, पण्णत्ता, तंजहा - १. सिंघाणए, २. जडिलए, ३. खरए, ४. खतए, ५. अंजणे, ६. खंजणे, ७. सीतले, ८. हिमसीतले, ९. केलासे, १०. अरुणाभे, ११. परिज्जए, १२. णभसूरए, १३. कविलिए, १४. पिंगलए, १५. राहू । ता जया णं एए पण्णरस कसिणा कसिणा पोग्गला सया चंदस्स वा सूरस्स वा लेसाणुबद्धचारिणो भवति, तया णं माणुसलोयंसि माणुसा एवं वयंति - 'एवं खलु राहू चंदं वा सूरं वा गेण्हइ, एवं ता जया णं एए पण्णरस कसिणा कसिणा पोग्गला णो सया चंदस्स वा सुरस्स वा लेसावुबद्धचारिणो भवंति णो Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र खलु तया माणुसलोयंसि माणुसा एवं वयंति - ‘एवं खलु राहु चंद वा सूरं वा गेण्हइ, ते एवमाहंसु।' वयं पुण एवं वयामो - ता राहू णं देवे महिड्डीए महज्जुइए महब्बले महायसे महासोक्खे महाणुभावे, वरवत्थधरे, वरमल्लधरे, वराभरणधारी। राहुस्स णव णामाई ता राहुस्स णं देवस्स णव णामधेजा पण्णत्ता, तंजहा – १. सिंघाडए, २. जडिलए, ३. खरए, ४. खेत्तए, ५. ढड्डरे, ६. मगरे, ७. मच्छे, ८. कक्छभे, ९. कण्णसप्पे। राहुस्स विमाणा पंचवण्णा ता राहुस्स णं देवस्स विमाणा पंचवण्णा पण्णत्ता, तंजहा – १. किण्हा, २. नीला, ३. लोहिया, ४. हालिद्दा, ५. सुक्किल्ला। अत्थि कालए राहुविमाणे खंजणवण्णाभे पण्णत्ते। अत्थि नीलए राहुविमाणे लाउयवण्णाभे पण्णत्ते। अत्थि लोहिए राहुविमाणे मंजिट्ठामण्णाभे पण्णत्ते। अत्थि हालिइए राहुविमाणे हालिद्दावण्णाभे पण्णत्ते। अस्थि सुक्किल्लए राहुविमाणे भासरासिवण्णाभे पण्णत्ते। ता जया णं राहू देवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा, विउव्वेमाणे वा, परियारेमाण वा, चंदस्स वा, सूरस्स वा लेस्सं पुरथिमेणं आवरित्ता पच्चत्थिमेणं वीईवयइ, तया णं पुरथिमेणं चंदे वा सूरे वा उवदंसेइ पच्चत्थिमेणं राहू। ता जया णं राहू देवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा, विउव्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा, चंदस्स वा, सूरस्स वा लेस्सं दाहिणेणं आवरित्ता उत्तरेणं वीईवयइ, तया णं दाहिणेणं चंदे वा सूरे वा उवदंसेइ उत्तरेणं राहू। एएणं अभिलावेणं पच्चत्थिमेणं आवरित्ता पुरत्थिमेणं वीईवयइ, उत्तरेणं आवरित्ता दाहिणेणं वीईवयई। ता जया णं राहू देवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा, विउव्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा, चंदस्स वा सूरस्स वा लेसं दाहिणपुरथिमेणं आवरित्ता उत्तरपच्चत्थिमेणं वीईवयइ, तया णं दाहिणपुरथिमेणं चंदे वा सूरे वा उवदंसेइ, उत्तरपच्चत्थिमेणं राहू।। ता जया णं राहू देवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा, विउव्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा चंदस्स वा सूरस्स वा लेसं दाहिणपच्चत्थिमेणं आवरित्ता उत्तरपुरस्थिमेणं वीईवयइ, तया णं दाहिणपच्चत्थिमेणं Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ प्राभृत ] [ १९९ चंदे वा, सूरे वा उवदंसेइ उत्तरपुरस्थिमेणं राहू। एएणं अभिलावेणं उत्तरपच्चत्थिमेणं आवरेत्ता दाहिणपुरस्थिमेणं वीईवयई, उत्तरपुरस्थिमेणं आवरेत्ता दाहिणपच्चत्थिमेणं वीईवयइ। . ता जया णं राहू देवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउव्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा चंदस्स वा सूरस्स वा लेसं आवरेत्ता पासेणं वीईवयइ, तया णं माणुसलोयंसि मणुस्सा एवं वयंति - 'राहुणा चंदे वा, सूरे वा गहिए।' ता जया णं राहू देवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणेवा विउव्वेमाणे वा, परियारेभाणे वा चंदस्स वा सूरस्स वा लेस्संआवरेता पासेणं वीईवयइ तया णं माणुसलोयंति मणुस्सा एव वयतिं 'चंदेण वा, सूरेण वा राहुस्स कुच्छी भिण्णा।' ता जया णं राहू दवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा, विउब्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा, चंदस्स वा, सूरस्स वा लेसं आवरेत्ता पच्चोसक्कइ तया णं माणुसलोयंसि मणुस्सा एवं वयंति - 'राहुणा चंदे वा, सूरे वा वंते।' ता जया णं राहू देवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा, विउव्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा, चंदस्स वा, सूरस्स वा लेसं आवरेत्ता मज्झं मझेणं वीईवयइ, तया णं माणुसलोयंसि मणुस्सा एवं वयंति - 'राहुणा चंदे वा, सूरे वा विइयरिए।' ता जया णं राहू देवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा, विउव्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा, चंदस्स वा, सूरस्स वा लेसं आवरेत्ता अहे अपक्खिं सपडिदिसिं चिट्ठइ, तया णं माणुसलोयंसि मणुस्सा एवं वयंति - 'राहुणा चंदे वा सूरे वा घत्थे।' राहुस्स दुविहत्तं प. कइविहे णं राहू पण्णत्ते ? उ. दुविहे पण्णत्ते, तंजहा - ता धुवराहू य पव्वराहू य। क. तत्थ णं जे से धुवराहू से णं बहुलपक्खस्स पाडिवए पण्णरसइ भागेणं भागं चंदस्स लेसं आवरेमाणे आवरेमाणे चिट्ठइ, तंजहा - पढमार पढमं भागं, जाव पण्णरसमीए पण्णरसमं भाग। चरमे समए चंदे रत्ते भवइ, अवसेसे समए चंदे रत्ते य, विरत्ते य भवइ। तमेव सुक्कपक्खे उवदंसेमाणे उवदंसेमाणे चिट्ठइ, तंजहा - पढमाए पढमं भाग, जाव पण्णरसमीए पण्णरसमं भागं। चरमे समए चंदे विरत्ते य भवइ, Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र अवसेसे समए चंदे रत्ते य, विरत्ते य भवइ। ख. तत्थ णं जे ते पव्वराहू से जहण्णेणं छण्हं मासाणं, उक्कोसेणं बायालीसाए मासाणं चंदस्स, अडयालीसाए संवच्छराणं सूरस्स। चंदस्स ससी-अभिहाणं १०४. प. ता कहं ते चंदे ससी चंदे ससी आहिए ? ति वएज्जा। उ. ता चंदस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरण्णो मियंके विमाणे कंता देवा, कंताओ देवीओ, कताई आसण-सयण-खंड-भंड-मत्तोवगरणाइं। अप्पणा वि णं चंदे देवे जोइसिंदे जोइसराया सोमे कंते सुभे पियदसणे सुरूवे। ता एवं खलु चंदे ससी, चंदे ससी आहिए त्ति वएज्जा। सूरस्स आइच्चाभिहाणं प. ता कहं ते सूरिए आइच्चे सूरिए आइच्चे आहिए ? त्ति वएज्जा। उ. ता सूरादीया समयाइ वा आवलियाइ वा आणापाणूइ वा थोवइ वा, जाव उस्सपिणी, ओसप्पिणीइ वा। ता एवं खलु सूरे आइच्चे सूरे आइच्चे आहिए त्ति वएजा। चंद-सूराईणं काम-भोगपरूवणं १०५. प. ता चंदस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरण्णो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ? उ. ता चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तंजहा - १. चंदप्पभा, २. दोसिणाभा, ३. अच्चिमाली, ४. पभंकरा। जहा हेट्ठा तं चेव जाव णो चेव णं मेहुणवत्तियं । एवं सूरस्स वि णेयव्वं। प. ता चंदिम-सूरिया जोइसिंदा जोइसरायाणो केरिसे कामभोगे पच्चुणुभवमाणा विहरंति ? उ. ता से जहाणामए केई पुरिसे, पढमजोव्वणुट्ठाणबलसमत्थे, पढमजोव्वणुट्ठाणबलसमत्थाए भारियाए सद्धिं, अचिरवत्तविवाहे, अत्थत्थी अत्थगवेसणयाए सोलसबासविप्पवसिए, से णं ततो लद्धढे कयकजे अणहसमग्गे पुणरवि णियगधरं हव्वमागए, Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ प्राभृत ] [ २०१ पहाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पवेसाई मंगलाई वत्थाई पवरपरिहिए, अप्प-महग्घाभरणालंकियसरीरे, मणुण्णं थालीपाकसुद्धं अट्ठारसवंजणाउलं भोयणं भुत्ते समाणे, तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अंतो सचित्तकम्मे , बाहिरओ दूमियघट्ठमढे विचित्तउल्लोअ-चिल्लियतले बहुसमसुविभत्तभूमिभाए, मणिरयणपणासियंधयारे। कालागुरू-पवरकुंदुरुक्क-तुरुक्क धूव-मघमघेतगंधुद्धयाभिारामे सुगंधवरगंधिए, गंधवट्टिभूए, तंसि तारिसगंसि सयणिजसि दुहओ उण्णए मझे णयगंभीरे उभओ सालिंगणवट्टिए, उभओ पण्णत्तगंडबिब्बोयणे, सुरम्भे गंगापुलिण बालुआ उद्दाल सालिसए सुविरइयरयताणे, ओयविय खोमियरणोमदुगूलपट्ट पडिच्छायणे रंतसुसंवुडे, __. सुरम्मे आईणग-रूय-बूर-णवणीय-तूलफासे, सुगंधवर-कुसुमचुण्ण-सयणोवयारकलिए, ताए तारिसाए भारियाए सद्धिं सिंगारागारचारुवेसाए संगत-हसित-भणित-चिट्ठित संलाव-विलासणिउणजुत्तोवयारकुसलाए अणुरत्ताविरत्ताए मणोऽणुकूलाए सद्धिं एगंतरतिपसत्ते अण्णत्थ कत्थई मणं अकुव्वमाणे इठे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणे विहरिज्जा। ..... प. ता से णं पुरिसे विउसमणकालसमयंसि केरिसए सायासोक्खं पच्चणुभवमाणे विहरइ ? उ. उरालं समणाउसो। ता तस्स णं पुरिसस्स कामभोगेहिंतो एत्तो अणंतगुणविसिट्ठतरा चेव वाणमंतराणं देवाणं कामभोगा, वाणमंतराणं देवाणं काम-भोगेहितो अणंतगुणविसिट्ठतरा चेव असुरिंदवज्जियाणं भवणवासीणं देवाणं कामभोगा, असुरिंदवजियाणं देवाणं काम-भोगेहिंतो एत्तो अणंतगुणविसिट्ठतरा चेव असुरकुमाराणं इंदभूयाणं देवाणं कामभोगा, असुरकुमाराणं देवाणं काम-भोगेहितो अणंतगुणविसिट्ठतरा चेव गहगण-णक्खत्त-तारा-रूवाणं कामभोगा, गहगण-णक्खत्त-तारारूवाणं काम-भोगेहितो अणंतगुणविसिद्रुतरा चेव चंदिम-सूरियाणं देवाणं कामभोगा, ता एरिसए णं चंदिम-सूरिया जोइसिंदा जोइसरायाणो कामभोगे पच्चुणुभवमाणा विहरंति। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठासीई महग्गहा १०६. तत्थ खलु इमे अट्ठासीई महग्गहा पण्णत्ता, तंजहा - १. इंगालए, २ . वियालए, ३. लोहियक्खे, ४. सणिच्छरे, ५. आहुणिए, ६. पाहुणिए, ७. कणे, ८. कणए, ९. कणकणए, १०. कणवियाणए, ११. कणसताणए । १२. सोमे, १३. सहिए, १४. अस्सासणे, १५. कज्जोयए, १६. कब्बडए, १७. अयकरए, १८. दुंदभए, १९. संखे, २०. संखवण्णे, २१. संखवण्णाभे, २२. कंसे । २३. कंसवण्णे, २४. कंसवण्णाभे, २५. णीले, २६. णीलोभासे, २७. रुप्पी, २८. रुप्पोभासे, २९. भासे, ३०. भासरासी, ३१. तिले, ३२. तिलपुप्फवण्णे, ३३. दगे । ३४. दगपंचवण्णे ३५. काले, ३६. काकंधे, ३७. इंदग्गि, ३८. धूमकेऊ, ३९. हरी, ४०. पिंगले, ४१. बुहे, ४२. सुक्के ४३. बहस्सई, ४४. राहु । ४५. अगत्थी, ४६. माणवगे, ४७. कासे, ४८. फासे, ४९. धूरे, ५०. पमुहे, ५१. वियडे, ५२. विसंधि, ५३. णियल्ले, ५४. पयल्ले, ५५. जडियाइल्ले । ५६. अरुणे, ५७. अग्गिल्लए, ५८. काले, ५९. महाकाले, ६०. सोत्थिय, ६१. सोवत्थिए, ६२. वद्धमाणगे, ६३. पलंबे, ६४. णिच्चालोए, ६५. निच्चुज्जोए, ६६. सयंपभे । ६७. ओभासे, ६८. सेयंकरे, ६९. खेमंकरे, ७०. आभंकरे, ७१. पभंकरे ७२. अपराजिए, ७३. अरए, ७४. असोगे, ७५. वीयसोगे, ७६. विमले, ७७. वियत्ते । ७८. वितथे, ७९. विसाले, ८०. साले, ८१. सुव्वए, ८२. अनियट्टी, ८३. एगजडी, ८४. दुजडी, ८५. करकरिए, ८६. रायग्गले, ८७. पुप्फकेऊ, ८८. भावकेऊ' । १. स्थानांग अ. २, उ. ३, सू. ९५ में जंबूद्वीप के दो चन्द्रों दो सूर्यों के ८८ ग्रहों की संख्या दो दो की दी गई है। 처음 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगहणीगाहाओ १. इंगालए, २. वियालए, ३. लोहि यक्खे, ४. सणिच्छ रे चेव । ५.. आहुणिए, ६. पाहु णिए, ७-११. कणगसनामा उ पंचेव ॥ २. १२. सोमे , १३. सहिए, १४. आसासणे, १५. क जोवए य, १६. कब्बडए। १७. अयक रए, १८. दुंदुहए, १९-२१. संखसनामाओ तिन्नेव ॥ ३. २२-२४. तिनेन कं सनामा, २५-२६. णीला, २७-२८. रुप्पो य होति चत्तारि। २९-३०. भास, ३१-३२.तिलपुष्फवण्णे, ३३-३४. दग-पणवण्णे य, ३५. काय, ३६. काकंधे॥ • ४. ३७. इंदग्गि, ३८. धूमके ऊ, ३९. हरि, ४०. पिंगलए, ४१. बुहे य, ४२. सुक्के य। ४३. बहस्सई, ४४. राहु, ४५. अगत्थी, ४६. माणवए, ४७. कास, ४८. फासे य॥ ५. ४९. धूरे, ५०. पमुहे, ५१. वियडे, ५२. विसंधि, ५३. णियले, ५४. तहा पयल्ले य। ५५. जडियाइलए, ५६. अरुणे, ५७. अग्गिल्ल, ५८. काले, ५९. महाकाले य॥ ६. ६०. सोत्थिय, ६१. सोवत्थिय, ६२. वद्धमाणगे, ६३. तहा पलं बे य। .६४. णिचालोए, ६५. णिच्च जोए, ६६. सयंपभे , ६७. चेव ओभासे ॥ ७. ६८. से यंकर , ६९. खेमंकर, ७०. आभंकर, ७१. पभंकरे व बोद्धव्वे । __७२. अरए, ७३. विरए य तहा, ७४. असोगे, ७५. वीयसोगे य॥ ८. ७६. विमल, ७७. वितत्त, ७८. वितथे, ७९. विसाल, ८०. तह साल, ८१. सुव्वए चेव। ८२. अनियट्टी, ८३. एगजडी य, ८४. होइ बिजडी य बोद्धव्वे ॥ ९. ८५. क र क रए, ८६. रायग्गल, ८७. बोद्धव्वे पुप्फ, ८८. भावके ऊ य। - अट्ठासीई गहा खलु णेयव्वा आणुपुव्वीए॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७. उवसंहारो इह एस पाहुडत्था, अभव्वजणहिययदुल्लाहा इणमो। उक्कित्तिया भगवई, जोइसरायस्स पण्णत्ती॥ एस गहियाऽवि संता, थद्धे गारविय माणि-पडिणीए। अबहुस्सए ण देया, तविवरीए भवे देया॥ सद्धा-धिति-उट्ठाणुच्छहह-कम्म-बल-विरिय-पुरिसकारेहिं। जो सिक्खिओऽवि संतो, अभायणे पक्खिवेजाहिं॥ सो पवयण-कुल-गण-संघबाहिरो ण्णण-विणय-परिहीणो। अरहंत-थेर-गणहरमेरं किर होइ वोलीणो॥ तम्हा धितिउट्ठाणुच्छाह कम्म-बल-विरियसिक्खिणाणं। धारेयव्वं णियमा ण य अविणएसु दायव्वं ॥ वीरवरस्स भगवओ, जर-मरण-किलेस-दोसरहियस्स। वंदामि विणयपणओ, सोक्खुप्पाए सया पाए॥ ॥ सूरियपण्णत्ती समत्ता॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयथविरपणीयं चंदपण्णत्तिसुत्तं नमो अरिहंताणं॥ जयइ नव-नलिण-कुवलय-वियसिय-सयवत्त-पत्तलदलच्छो। वीरो गइंद-मयगल-सललिय-गयविक्कमो भयवं॥१॥ नमिऊण असुर-सुर-गरुल-भुयग-परिवंदिए गणेकिलेसे। अरिहे सिद्धायरिय-उवज्झाए सव्वसाहू य॥२॥ फुड-विगड-पागडत्थं, वुच्छं पुव्व-सुय-सार-नीसंदं। सुहुमं . गणिणोवइटें, जोइस-गणरापपण्णतिं ॥३॥ नामेण इंदभूइति गोयमो वंदिऊण तिविहेणं। पुच्छइ जिणवर वसहं जोइसरास्स पण्णतिं ॥४॥ कड़ मंडलाइ वच्चइ १, तिरिच्छा किं च गच्छई २। ओभासइ केवइयं ३, सेयाइ किं ते संठिई ४॥५॥ कहिं पडिहया लेसा ५, कहं ते ओयसंठिई ६। के सूरियं वरयते ७, कहं ते उदयसंठिई ८॥६॥ कइकट्ठा पोरिसीच्छाया ९, जोगेत्ति किं ते आहिए १०। किं ते सवच्छराणाई ११, कइ संवच्छराइ य १२॥७॥ कहं चंदमसो वुड्डी १३, कया ते दो (जो) सिणा बहू १४। के सिग्घगई वुत्ते १५, किं ते दो (जो) सिणलक्खणं १६॥८॥ चयणोववाय १७, उच्चत्ते १८, सूरिया कइ आहिया १९।। अणुभावे केरिसे वुत्ते २०, एवमेयाइं वीसई॥९॥ सूत्र १ वड्डोवड्डी १, मुहुत्ताण-मद्धमंडलसंठिई २। के ते चिण्णं परियरइ ३, अंतरं किं चरंति य ४॥१०॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र ओगाहइ केवइयं ५, केवइयं च विकंपइ ६। मंडलाण य संठाणे ७, विक्खंभो ८, अट्ठ पाहुडा॥११॥ सूत्र २ छप्पंच य सत्तेव य, अट्ठ य तिनि य हवंति पडिवत्ती। पढमस्स पाहुडस्स उ, हवंति एयाओ पडिवत्ती॥१२॥ सूत्र ३ पडिवत्तीओ उदए, अदुव अत्थमणेसु य। भेयघाए कण्णकला, मुहुत्ताण गईइ य॥१३॥ निक्खममाणे सिग्घगई, पविसंते मंदगईइ य। चुलसीइसयं पुरिसाणं, तेसिं च पडिवत्तीओ॥१४॥ उदयम्मि अट्ठ भणिया, भेयग्याए दुवे च पडिवत्ती। चत्तारि मुहुत्तगईए, होति तइयम्मि पडिवत्ती॥ १५॥ सूत्र ४ आवलिय १, मुहुत्तग्गे २, एवंभागा ३ य, जोगस्सा ४। कुलाइं ५, पुण्णमासी ६ य, संनिवाए ७ य संठिई ८॥१६॥ तारग्गं ९, चणेता य, १०, चंदमग्गत्ति ११ यावरे। देवताणं य अज्झयणा १२, मुहुत्ताणं नामया १३ इय॥१७॥ दिवसा राई य वुत्ता १४ य, तिहि १५, गोत्ता १६भोयणाणि य १७। आइच्चचार १८, मासा १९ य, पंच संवच्छरा २० इय॥१८॥ जोइसस्स य दाराई २१, नक्खतविचए २२ विय। दसमे पाहुडे एए, बावीसं पाहुड-पाहुडा॥१९॥ सूत्र ५ तेणं कालेणं तेणं समएणं मिहिला णामं णयरी होत्था रिद्धस्थिमियसमिद्धा पमुइयजणजाणवया जाव पासादीया, वण्णओ॥१॥ तीसे णं मिहिलाए णयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए एत्थ णं माणिभद्दे णामं चेइए होत्था चिराईए, वण्णओ॥२॥ तीसे णं मिहिलाए णयरीए जियसत्तूणामं राया, धारिणी देवी, वण्णओ॥३॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं तंमि माणिभद्दे चेइए सामी समोसढे, परिसा णिग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया जाव राया जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए॥४॥ सूत्र ६॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंदभूई णामं अणगारे गोयमगोत्ते णं सत्तुस्सेहे जाव पजुवासमाणे एवं वयासी ॥ सूत्र ७॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र ] [ २०७ प. ता कहं ते वड्ढोवड्ढी मुहुताणं आहितेत्ति वदेज्जा ? उ. गोयमा! ता अट्ठ एगूणवीसे मुहुत्तसते सत्तावीसं च सत्तट्ठिभागो मुहुत्तस्स आहितेत्ति वदेजा। ॥ सूत्र ८॥ जाव ................. इय एस पागडत्थ, अभव्वजणहियय-दुल्लभा इणमो। उक्कित्तिया भगवती जोइसरायस्स पण्णत्ती॥१॥ एस गहियावि संती, थद्धे गारवियमाणपडिणीए। अबहुस्सुए ण देया, तविवरीए भवे देया॥२॥ (सद्धा) धिइउट्ठाणुच्छाह-कम्मबलविरिय-पुरिसकारेहि। जो सिक्खिओवि संतो, अभायणे परिक्खविजाहि॥३॥ सो पवयण-कुल-गण-संघबाहिरो णाणविणय-परिहीणो। अरहंत-थेरगणहरमेरं किर होइ वोलीणो॥४॥ तम्हा धिइउट्ठाणुच्छाह-कम्मबलवीरियसिक्खियं नाणं। धारेयव्वं णियमा, ण य अविणएसु दायव्वं ॥५॥ वीरवरस्स भगवतो, जरमरण-किलेस-दोसरहियस्स। वंदामि विणयपणतो सोक्खुप्पाए सया पाए॥६॥ सूत्र १०७ ॥ वीसइमं पाहुडं समत्तं॥ ॥ चंदपन्नत्ती समत्ता॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट श्री सूर्य-चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र का गणित विभाग सूत्रसंख्या. ८ मुहूर्त के परिमाण की हानि - वृद्धि : नक्षत्रमास के मुहूर्त का परिमाण एक युग के अहोरात्र १८३० होते हैं। एक युग के नक्षत्रमास की संख्या ६७ है। एक नक्षत्र मास के दिवस १८३० : ६७ करने से २७ दिन २१/६७ मुहूर्त प्रमाण होता है। वह इस प्रकार - ६७) १८३० (२७ १३४ ४९० ४६९ २१ २१/६७ के मुहूर्त करने के लिये ३० से गुणा करने पर २१४३० = ६३० होते हैं। उनको ६७ से भाग देने पर (६३०:६७) ९ मुहूर्त २७/६७ भाग होते हैं । अर्थात् नक्षत्रमास २७ दिवस ९ मुहूर्त २७/६७ भाग होता है। उसके मुहूर्त करने पर २७४३० = ८१० होते हैं। उनमें ९ जोड़ने से ८१९ होते हैं । अतएव नक्षत्रमास के मुहूर्तों की संख्या ८१९ । २७/६७ होती है । सूर्यमास के मुहूर्तों की संख्या एक युग के दिवस १८३० हैं और एक युग के सूर्यमास ६० हैं । सूर्यमास के दिवस करने के लिये १८३० को ६० से भाग देने पर ३० दिन और ३०/६० होंगे। उनके मुहूर्त करने के लिये सूर्यमास के दिनों को ३० 'गुणा करने पर ३०x३० = ९०० होते हैं और ३०/६० को ३० से गुणा करने पर ३०x३० : ६० करने पर १५ मुहूर्त होते हैं। इनको ९०० में जोड़ने पर ९१५ मुहूर्त होते हैं । अर्थात् सूर्यमास के मुहूर्तों की संख्या ९१५ होती है। चन्द्रमास के मुहूर्तों की संख्या एक युग के चन्द्रमास ६२ होते हैं और एक युग के दिवस १८३० हैं । चन्द्रमास के दिन बनाने के लिये १८३० : ६२ करने से २९ दिन ३२ / ६२ प्राप्त होते हैं। इनके मुहूर्त बनाने के लिये ३० से गुणा करने पर २९×३०=८७० होंगे और ३२ / ६२४३० करने पर ९६० / ६२ होंगे एवं मुहूर्त के रूप में १५ मुहूर्त ३०/६२ होंगे । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ] इस संख्या को पूर्वोक्त ८७० में मिलाने पर ८८५ मुहूर्त पूर्ण एवं ३० / ६२ मुहूर्त की संख्या होगी । कर्ममास के मुहूर्तों की संख्या एक युग में ३० दिन का कर्ममास होता है। उसके मुहूर्त बनाने के लिये ३० से गुणा करने पर ३०×३०=९०० होते हैं। यह कर्ममास के मुहूर्तों की संख्या है। मास १ नक्षत्रमास २ सूर्यमास ३ चन्द्रमास ४ कर्ममास ॥ प्रथम प्राभृत का आठवां सूत्र समाप्त ॥ सूत्र संख्या ९, १०, ११ ३६६ रात्रि - दिवस का प्रमाण सूर्य ३६६ दिवस में १८४ मंडल में संचार करता है । - सूत्र [ २०९ सर्वाभ्यंतरमंडल के सर्वबाह्य मंडल में गमन करने पर एवं सर्वबाह्य मंडल के सर्वाभ्यंतर मंडल में गमन करने पर सूर्य को (३६६ रात्रि दिवस) लगते हैं । - सूत्र सं. ९ रात्रि - दिवस की हानि - वृद्धि का प्रमाण सं. १० मुहूर्तों की संख्या _८११x२७/६७ मु. ९१५ मु. ८८५ । ३०/६२ मु. ९०० मु. सूर्य ३६६ दिवस में सर्वाभ्यन्तरमंडल में से सर्वबाह्यमंडल में, सर्वबाह्यमंडल में से सर्वाभ्यंतर मंडल में परिक्रमा करता है। सर्वाभ्यंतर मंडल में से सर्वबाह्य मंडल तक १८३ दिवस में परिक्रमा करता है। जब सूर्य सर्वाभ्यंतर मंडल में होता है तब १८ मुहूर्त का दिन एवं १२ मुहूर्त की रात्रि होती है। सर्वाभ्यंतर मंडल में से सर्वबाह्य मंडल तक जाने में १८३ दिन होते हैं और उस समय में ६ मुहूर्त की हानि - वृद्धि होती है । एक दिवस में मुहूर्त के २ / ६१ भाग की वृद्धि हानि होती है। अर्थात् दिवस के परिमाण में मुहूर्त के २/६१ भाग की हानि होती है और रात्रि के परिमाण में मुहूर्त के २/६१ भाग की वृद्धि होती है । सूर्य जैसे जैसे बाह्यमंडल की ओर गमन करता है वैसे वैसे दिवस के परिमाण में हानि और रात्रि के परिमाण में वृद्धि होती है । सूर्य जब सर्वबाह्यमंडल में वर्तमान होता है तब १२ मुहूर्त का दिन और १८ मुहूर्त की रात्रि होती है । सूर्य जैसे-जैसे सर्वाभ्यंतर मंडल की तरफ गमन करता है वैसे-वैसे दिन में वृद्धि और रात्रि में हानि होती है । प्रथम ६ मास में दिवस घटता है और रात्रि बढ़ती है। दूसरे ६ मास में दिवस बढ़ता है और रात्रि Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र घटती है। हानि-वृद्धि का प्रमाण मुहूर्त के २/६१ भाग जितना होता है। - सूत्र ११ ॥ प्रथम प्राभृत का प्रथम प्राभृत-प्राभृत समाप्त ॥ तृतीय प्राभृत-प्राभृत में 'सयमेगं चोयालं' गाथा अपूर्ण होने से अर्थ नहीं कर सकते हैं। शेष व्यवच्छेद है । इस प्रकार श्री अमोलक ऋषि जी ने सूर्यप्रज्ञप्ति की भाषा में लिखा हैतथा टीकाकार मलयगिरिकृत टीका से भी यथार्थ गणित १४४ आता नहीं है। जिनके ध्यान में गणित की प्रक्रिया हो, यदि वे बताने की कृपा करेंगे तो श्रुतसेवा मानी जायेगी। ॥ प्रथम प्राभृत का तृतीय प्राभृत-प्राभृत समाप्त ॥ सूत्र १५ दो सूर्यों के (भरत और एरवत के ) संचरण समय में परस्पर अंतर __संचरण करते समय दोनों सूर्यों के बीच प्रत्येक मंडल में ५ योजन ३५/६१ भाग अंतर होता है। जब दोनों सूर्य सर्वाभ्यन्तरमंडल में वर्तमान हों तब दोनों सूर्यों के बीच ९९६४० योजन अंतर होता है। जम्बू द्वीप क्षेत्र एक लाख योजन के विष्कम्भ वाला है। प्रत्येक सूर्य १८० योजन अवगाहन करके संचार करता है। ___ १००००० योजन में से दोनों सूर्य का अवगाहन क्षेत्र १८० और १८० योजन कुल मिला कर ३६० योजन कम करने पर ९९६४० योजन शेष रहते हैं । जो सर्वाभ्यन्तरमंडल में वर्तमान दोनों सूर्यों का अंतर होता है। १८४ सूर्यमंडल के १८३ अंतर होते हैं और एक मंडल का दूसरे मंडल तक २ योजन ४८/६१ भाग का अंतर होता है। अत: जब सूर्य एक मंडल से दूसरे मंडल में जाता है तब दोनों ओर के मंडल के अंतर २ योजन ४८/६१ और २ योजन ४८/६७ का जोड़ करने पर ५ योजन ३५/६१ भाग होता है। सर्वबाह्यमंडल में वर्तमान दोनों सूर्यों का परस्पर अंतर दोनों सूर्यों की अपेक्षा प्रतिमंडल ५ योजन ३५/६१ भाग अनन्तर पूर्व में बताया है। सर्वआभ्यन्तर मंडल से सर्वबाह्यमंडल १८३ वां होता है । १८३ को ५ योजन ३५/६१ से गुणा करने पर ३४३४° इस प्रकार १०२० योजन अन्तर आता है । इस १०२० योजन अंतर को ९९६/४० में मिलाने पर १००६६० योजन होता है। जो सर्वबाह्यमंडल में वर्तमान दो सूर्यों का परस्पर अंतर है। - सूत्र १५ ॥ प्रथम प्राभृत का चौथा प्राभृत-प्राभृत समाप्त ॥ एक अहोरात्र में सूर्य का संचरण-क्षेत्र सूर्य एक अहोरात्र में २ योजन ४८/६१ भाग संचरण करता है। सूर्य १८३ दिवस में ५१० योजन Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ] संचरण करता है, जिससे एक दिवस में २ योजन ४८ /६१ भाग संचरण करता I १८३ मंडल का १८३ दिवस में सूर्य संचरण करता है। एक दिवस में एक मंडल में संचार करता है । सूर्य के सर्वमंडलों का संचरण क्षेत्र ५१० योजन का है। एक मंडल का एक दिवस का संचरण २ योजन ४८/ ६१ भाग होता है । - सूत्र १८ ॥ प्रथम प्राभृत का छठा प्राभृत-प्राभृत समाप्त ॥ सूत्र २० प्रत्येक मंडल का विष्कम्भ-आयाम जब सूर्य सर्वाभ्यंतरमंडल में हो तब १ लाख योजन का ४८ / ६१ भाग बाहल्य से ९९६४० योजन आयाम विषकम्भ से ३१५०८९ योजना परिक्षेप से संक्रमण करता है तब १८ मुहूर्त का उत्कृष्ट दिवस और जघन्य १२ मुहूर्त की रात्रि होती है । जब सूर्य सर्वाभ्यन्तरमंडल के अनन्तरवर्ती मंडल में संक्रमण करता है तब एक योजन का ४८ / ६१ भाग बाहल्य ९९६४५ योजन ३५/६१ भाग आयाम विष्कम्भ से, ३१५१०७ योजन किंचित विशेष न्यून परिक्षेप से चार (गति) करता है। तब दिवस और रात्रि का प्रमाण सर्वाभ्यन्तरमंडल के समान ही होता है । सर्वाभ्यन्तरमंडल में आयाम-विष्कम्भ का प्रमाण [ २११ एक सूर्य १८० योजन अवगाहन करके गति करता है । जम्बू द्वीप के दोनों सूर्य की अपेक्षा ३६० योजन अवगाहना जम्बूद्वीप क्षेत्र के १ लाख योजन प्रमाण में से कम करने पर ९९६४० योजन रहते हैं । जो सर्वाभ्यन्तरमंडल का आयाम - विष्कम्भ है । सूत्र २० सर्वाभ्यन्तरमंडल का परिक्षेप सर्वाभ्यन्तरमंडल का परिक्षेप (३१५०८९) योजन है। वह इस प्रकार है (सर्वाभ्यन्तरमंडल का विष्कम्भ ) २x१० इस सूत्र से परिक्षेप का विचार करने पर निम्नप्रकार से होगा । ) (९९६४०) २x१० )९९२८१२९६००×१० ) ९९२८१२९६००० ९९२८१२९६००० Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ ३१५०८९ योजन परिक्षेप ३ + ३ ६१ +8 ६२५ +4 ६३००८ + 6 ६३०१६९ +९ ९२२८१२९६००० ९ ० ६१ ३१८१ ३१२५ ००५६२९६० ५०४०६४ ०५६८९६०० ५६७१५२१ [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र ६३०१७८ ००१८०७९ उक्त प्रकार से गणित करने पर सर्वाभ्यंतरमंडल का परिक्षेप ३१५०८९ योजन होता है और १८०७९ शेष रहते हैं । प्रत्येक मंडल का परिक्षेप प्रत्येक मंडल में ५ योजन ३५ / ६१ भाग आयाम - विष्कंभ में वृद्धि होती है। तदनुसार सर्वाभ्यंतरमंडल के अनन्तरवर्ती मंडल का आयाम विष्कंभ ९९६४५ योजन ३५ / ६१ भाग है । प्रत्येक मंडल का परिक्षेप निकालने के लिये (जानने के लिये) ५ योजन के इकसठिया भाग करने पर ५६१ = ३०५ आते हैं । उनमें ३५ भाग और मिलाने पर ३४० होते हैं । परिक्षेप निकालने की विधि ( विष्कंभ का ) x १० ) (३४०) २x१० ) ११५६००×१० ) ११५६००० १०७५ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ] १) ११५६००० १ १ २०७ ०१५६० ७ १४४९ [ २१३ २१४५०१११०० ५ १०७२५ २१५० ००३७५ १०७५ के योजन बनाने के लिये ६१ से भाग देने पर [ १०७५ / ६१] १७ योजन ३८ /६१ आएंगे। प्रत्येक मंडल में १७ योजन ३८ /६१ भाग परिक्षेप बढ़ता है। प्रत्येक परिमंडल का परिक्षेप व्यवहार से १८ योजन और निश्चय से १७ योजन ३८/६१ भाग है । प्रत्येक मंडल का परिक्षप में १८ योजन मिलाने पर दूसरे मंडल का परिक्षेप होता है। ऐसा करने पर सूर्य संक्रमण करता-करता सर्वबाह्य मंडल में आता हैतब आयाम विष्कंभ १००६६० होता है । सर्वबाह्य मंडल का परिक्षेप ३१८३१४.८६९ है । व्यवहार से ६१८३१५ होता है । सर्वबाह्य मंडल का आयाम - विष्कंभ-परिक्षेप निकालने की विधि प्रत्येक मंडल में ५ योजन ३५ / ६१ भाग बढ़ता है जिससे सर्वबाह्य मंडल में कितनी वृद्धि होगी ? परिमंडल १८३ होने से ५ योजन ३५ / ६१ भाग से गुणा करने पर १८३ मंडल ४५ योजन = ९१५ योजन होते हैं। ३५ भाग × १८३ मंडल = ६४०५ होते हैं। इनके योजन बनाने के लिये ६४०५ को ६१ से भाग देने पर १०५ योजन आते हैं। पूर्वोक्त ९१५ योजन में १०५ योजन मिलाने से १०२० योजन होते हैं । सर्वाभ्यंतरमंडल के आयाम ९९६४० योजन में १०२० योजन जोड़ने से सर्वबाह्यमंडल का १००६६० योजन आयाम होता है। सर्वबाह्य मंडल का परिक्षेप ३१८३१५ योजन है। जिसको प्राप्त करने की विधि इस प्रकार है सर्वबाह्यमंडल का परिक्षेप निकालने की विधि परिक्षेप निकालने के लिये । ) (आयाम) २x१० ) (१००६००) २×१० ) १०१३२४३५६००×१० - Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र ३१८३१४.८६९ योजन परिक्षेप ) । ३ १०१३२४३५६००० سه س م ११३ ५२२४ ५०२४ ६३६३ ०२००३५ १९०८९ ६३६६१ ००९४६६० ६३६६२४ ६३६६१ ३०९९९०० २५४६४९६ ६३६६२७८ ०५५३४०४०० ५०९३०३०४ ६३६६२९६६ ०४४१००९६०० ३८१९७५७९६ ६३६६२९७२९ ५९०३३८०४०० ९ ५६२९६६७५६१ इस प्रकार ८६९ हजार से कम है, परन्तु 'अर्धादूर्ध्वमेकं ग्राह्यम्' इस न्याय से ३१४ के स्थान पर ३१५ ग्रहण किये हैं । इस प्रकार सर्वबाह्यमंडल का परिक्षेप ३१८३१५ योजन (व्यवहार से) होता है। सर्वाभ्यंतरमंडल का परिक्षेप ३१५०८९ योजन है। पूर्व में बताई गई रीति से प्रत्येक मंडल के परिक्षेप | १७ योजन ३८/६१ भाग की वृद्धि होती है तो १८३ मंडल में कितने योजन परिक्षेप की वृद्धि होती है ? १८३ मंडलx१७ योजन = ३१११ योजन होते हैं। १८३ मंडलx३८ (योजन का भाग) करने पर ६९५४ भाग आयेंगे। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ] ६९५४ भाग के योजन करने के लिये ६१ से भाग देने पर ११४ योजन होंगे। ३१११ योजन में ११४ योजन मिलाने पर ३२२५ योजन १८३ परिमंडल की परिक्षेप वृद्धि होती है । सर्वाभ्यंतरमंडल के परिक्षेप ३१५०८९ योजन में ३२२५ योजन के मिलाने पर सर्वबाह्य मंडल का परिक्षेप ३१८३१४ होगा । इस सूत्र के मूल पाठ में ३१८३१५ योजन सर्वबाह्यमंडल का परिक्षेप कहा है । वह व्यवहार से समझना चाहिये। क्योंकि पूर्व में प्रत्येक मंडल का परिक्षेप निकालने पर ३७५ शेष बढ़ते हैं । उनको १८३ मंडल से गुणा करने पर ६८६२५ आते हैं। इस संख्या को २१५० से भाग देने पर ३१ आते हैं । जो ६१ अर्धभाग की अपेक्षा विशेष होने से व्यवहार से पूर्ण मानकर ३१८३१५ कहे हैं । कै सूत्र २.३ सूर्य की प्रत्येक मंडल में प्रतिमुहूर्त्त की गति प्रत्येक मंडल का अंतर २ योजन ४८ / ६१ भाग है। दोनों सूर्य के मंडल का अन्तर ५ योजन ३५ / ६१ भाग है। सर्वमंडल का क्षेत्र ५१० योजन है । सूत्र २० ॥ प्रथम प्राभृत का अष्टम प्राभृत-प्राभृत समाप्त ॥ [ २१५ - अर्थात् २ अहोरात्र में दोनों सूर्य १ मंडल की परिक्रमा पूर्ण करते हैं । प्रत्येक मुहुर्त की सूर्य की विशेष गति इस सूत्र ज्ञात की जा सकती है - - १ मुहूर्त्त की गति = मंडल की परिधि / २ अहोरात्र के मुहूर्त्त १ अहोरात्र के ३० मुहूर्त्त के अनुसार २ अहोरात्र के ६० मुहूर्त्त होते हैं । सर्वाभ्यंतरमंडल की परिधि ३१५०८९ योजन है । सर्वाभ्यंतरमंडल की परिक्रमा दोनों सूर्य ६० मुहूर्त में पूर्ण करते हैं । सूर्य जब मंडल में संक्रमण करता है तब अपनी एक विशेष गति से संक्रमण करता है । भरतक्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र के दोनों सूर्य अपनी विशिष्टगति से संक्रमण करके ६० मुहूर्त्त में १ मंडल की परिक्रमा पूर्ण करते हैं । सर्वाभ्यंतरमंडल में सूर्य की १ मुहूर्त्त की गति सर्वाभ्यंतरमंडल की परिधि / ६० मुहूर्त्त =१ मूहूर्त्त की गति । ३१५०८९ योजन/ ६० मूहूर्त्त = ५२५१ योजन २९/६० भाग सूर्य की १ मुहूर्त की गति है । प्रत्येक मंडल की परिधि में व्यवहार से १८ योजन का अंतर होता है। अर्थात् सर्वाभ्यंतर मंडल की परिधि में १८ योजन मिलाने पर सर्वाभ्यंतरमंडल के अनन्तरवर्ती दूसरे में उसको परिधि आती है। तदनुसार Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र दूसरे मंडल की परिधि में १८ योजन मिलाने पर तीसरे मंडल की परिधि आती है। इस प्रकार प्रत्येक मंडल की परिधि ज्ञात की जा सकती है। प्रत्येक मंडल में सूर्य की एक मुहूर्त में कितनी गतिवृद्धि होती है, यह जानने के लिये इस सूत्र का उपयोग करना चाहिये - प्रत्येक मंडल में परिधि की वृद्धि / ६० मुहूर्त। प्रत्येक मंडल में १८ योजन परिधि में वृद्धि होती है। उसे ६० मुहूर्त से भाग देने पर १ मुहूर्त में होने वाली गतिवृद्धि प्राप्त होगी। १८ योजन प्रत्येक मंडल की परिधि में होने वाली वृद्धि /६० मुहूर्त =१८/६० योजन मुहूर्त में गति में वृद्धि होती है। सूर्य के दृष्टिपथ क्षेत्र का अंतर ज्ञात करने की विधि उस-उस मंडल में विद्यमान सूर्य दृष्टिपथ के क्षेत्र का अंतर ज्ञात करने के लिये निम्नलिखित सूत्र का उपयोग करना चाहिये - सूर्य की उस-उस मंडल में एक मुहूर्त की गति ४ दिनमान का अर्धभाग। सर्वाभ्यंतर मंडल में सूर्य के दृष्टिपथ क्षेत्र का प्रमाण ४७२६३ योजन २१/६० भाग है । उसको जानने के लिये उपर्युक्त सूत्र का उपयोग करने पर - ५२५१ योजन २९/६० भाग। (सर्वाभ्यतरमंडल में सूर्य की एक मुहूर्त की गति) x ९ मुहूर्त (दिनमान का अर्धभाग) _ ३१५०८९४९ २८३५८०१ ६० = ४७२६३ योजन २१/६० भाग सर्वाभ्यंतर मंडल में सूर्य का दृष्टिपथ क्षेत्र है। सर्वाभ्यंतर मंडल में सूर्य का दृष्टिपथ क्षेत्रप्रमाण जानने की दूसरी विधि उस-उस मंडल की परिधि दिनमान का अर्धभाग ६० उस-उस मंडल की परिधि दिनमान का अर्धभाग ६० ३१५०८९४९ ६० Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ] [ २१७ =२८३५८०१ ६० -४७२६३ योजन २१/६० भाग सर्वाभ्यन्तरमंडल में सूर्य का दृष्टिपथ क्षेत्र है। सर्वबाह्यमंडल में सूर्य का दृष्टिपथ क्षेत्र का प्रमाण सर्वबाह्यमंडल में सूर्य की एक मुहूर्त की गति सर्वबाह्यमंडल की परिधि मंडल की परिक्रमा करते हुए लगता समय - - ६० मुहूर्त ३१८३१५ योजन = ५३०५ योजन १५। ६० भाग १ मुहूर्त में सूर्य की गति। सर्वबाह्यमंडल में सूर्य का दृष्टिपथ क्षेत्रप्रमाण ज्ञात करने के लिये निम्नलिखित सूत्र का उपयोग करना चाहिये - सर्वबाह्यमंडल में सूर्य की १ मुहूर्त में गति ४ दिनमान का अर्धभाग = ३१८३१५४६ मुहूर्त दिनमान का अर्धभाग ६० = १९०९८९० ६० = ३१८३१ योजन ३०।६० भाग सर्वबाह्यमंडल में दृष्टिपथ क्षेत्र का प्रमाण। द्वितीय विधि - परिधिxदिनमान का अर्धभाग ६० = ३१८३१५४६ ६० = १९०९८९० ६० . = ३१८३१ योजन ३० । ६० भाग सर्वबाह्यमंडल में दृष्टिपथ क्षेत्र का प्रमाण १ - उस-उस मंडल में सूर्य की १ मुहूर्त की गति निकालने के लिये उस-उस मंडल की परिधि को Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र ६० से भाग देने पर १ मुहूर्त की गति प्राप्त होती है। २ - दृष्टिपथ क्षेत्र का प्रमाण निकालने के लिये १ मुहूर्त की गति को (सूर्य की) दिनमान के अर्धभाग से गुणा करने पर जो लब्धि आये वह दृष्टिपथ क्षेत्र का प्रमाण जानना चाहिये। - सूत्र २३ ॥ दूसरा प्राभृत समाप्त ॥ सूत्र २४ सूर्य द्वारा प्रकाशमान क्षेत्र का प्रमाण ___जब सूर्य सर्वाभ्यंतर मंडल में वर्तमान होता है तब जंबूद्वीप के कल्पित पांच चक्रवाल में से डेढ भाग प्रकाशित करता है और एक भाग अप्रकाशित होता है। जम्बूद्वीप में वर्तमान दोनों सूर्य की अपेक्षा पांच चक्रवाल में से तीन भाग प्रकाशित करते हैं और दो भाग अप्रकाशित होते हैं । अर्थात् जम्बूद्वीप के कल्पित पांच भाग में से तीन भाग दिन होता है और दो भाग रात्रि होती है। ___ जम्बूद्वीप के ३६६ भाग की कल्पना करने पर १ भाग (चक्रवाल) के ७३२ भाग होते हैं , ३ चक्रवाल के २१९६ भाग होते हैं । अर्थात् ३६६० भाग में से २१९६ भाग का दिवस होता है १४६४ भाग रात्रि होती है, अथवा दोनों सूर्य ६० मुहूर्त में १ मंडल की परिक्रमा पूर्ण करते हैं । जम्बूद्वीप के ५ चक्रवाल की कल्पना करने पर १ चक्रवाल १२ मुहूर्तात्मक होता है । १२ मुहूर्त का काल जम्बूद्वीप के ३६६० भाग की कल्पना में ७३२ भागात्मक होता है। सर्वाभ्यंतर मंडल से सूर्य जब सर्वबाह्यमंडल की ओर गमन करता है तब प्रतिमंडल में अहोरात्र में २। ६१ भाग हानि-वृद्धि होती है। . सर्वाभ्यंतरमंडल को कम करने पर सर्वबाह्यमंडल १८३ वां आता है। जिससे १८३४२ करने पर ३६६/६१ भाग की हानि-वृद्धि अहोरात्र में होती है। अर्थात् ६ मुहूर्त दिवस में हानि और रात्रि में वृद्धि होती है । दोनों सूर्य की अपेक्षा १२ मुहूर्त की हानि वृद्धि होती है। सर्वबाह्यमंडल में सूर्य एक भाग प्रकाशित करता है और डेढ़ भाग अप्रकाशित रहता है। पूर्व में बताये गये अनुसार एक-एक सूर्य की अपेक्षा १ भाग दिवस और डेढ़ भाग रात्रि रहती है। दोनों सूर्य की अपेक्षा २ भाग दिवस और ३ भाग रात्रि होती है। सर्वाभ्यंतर मंडल में ३ भाग दिवस और २ भाग रात्रि हाती है। सर्वबाह्यमंडल में २ भाग दिवस और ३ भाग रात्रि होती है। १ भाग १२ मुहूर्तात्मक जानना चाहिये Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ] [ २१९ जम्बूद्वीप के ५ चक्रवाल की परिकल्पना करने पर १ चक्रवाल १२ मुहूर्तात्मक होता है। क्योंकि दानों सूर्य की अपेक्षा ६० मुहूर्त का काल ५ भागात्मक होता है। ॥ तीसरा प्राभृत समाप्त। - सूत्र २४ समाप्त ॥ सूत्र २५ तापक्षेत्र की संस्थिति तापक्षेत्र संस्थिति की आभ्यंतर-बाह्य का परिक्षेप ९४८६ योजन ९/१० भाग है। उसका गणित निम्न प्रकार है - परिक्षेप .. - ) (आयाम)२ - १० ) (विष्कम्भ)२ x १० (उसका विष्कम्भ)२ - १० (१००००)२५१० )१००००००००x१० ) १००००००००० ३१६२२०७७६ - ) १००००००००० १०० ६१ ३९०० ३७५६ ६३२२ ०१४४०० १२६४४ ६३२४२ ०१७५६०० १२६४८४ ६३२४४७ ०४९११६०० ४४२७१२९ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र ६३२४५४७ ०४८४४७१०० ४४२७१८२९ ६३२४५५४६ ०४२७५२७१०० ३७९४७३२७६ ६३२४५५५२ ४८०५३८२४ ७७६ एक हजार के अर्धभाग (५००) की अपेक्षा अधिक है। 'अर्द्धादूर्ध्वमेकं ग्राह्यम्' के विधान से पूर्व संख्या गिन कर व्यवहार से ३१६२३ योजन बतलाये हैं। उनके तिगुने करने से ९४८६९ होते हैं । उनको १० से भाजित करने पर-९४८६ योजन ९/१० भाग सर्वाभ्यन्तर तापक्षेत्र संस्थिति की सर्वाभन्तर-बाहा का परिमाण है। जम्बूद्वीप के परिक्षेप से सर्वबाह्य बाहा का परिमाण ‘परिक्षेप = (विष्कम्भ)४१० जम्बूद्वीप का परिक्षेप प्रसिद्ध है। उसे ३ से गुणा करके १० से भाग देने पर ९४८६८ योजन ४/१० होते हैं। जम्बूद्वीप का परिक्षेप ३१६२२७ योजन, ३ गव्यूति १२८ योजन और १३/ अंगुल है । परन्तु व्यवहार से ३१६२२८ योजन मान कर इसे गुणा करने पर ९४८६८४ योजन होते हैं। उनको १० से भाग देने पर ९४८६८ योजन ४/१० भाग सर्वबाह्य बाहा का परिमाण होता है। उत्तर-दक्षिण दिशा से ताप क्षेत्र का आयाम आयाम = उत्तर-दक्षिण दिशा का अंतर विष्कम्भ = पूर्व-पश्चिम दिशा का अंतर तापक्षेत्र का आयाम परिमाण ७८३३३ योजन १/३ भाग है। मेरुपर्वत में जम्बूद्वीपपर्यन्त ४५००० योजन है। लवण समुद्र के विस्तार का छठा भाग ३३३३३.३३३ योजन है। दोनों का जोड़ करने पर ताप क्षेत्र का आयाम परिमाण ७८३३३.३३३ योजन होता है। अन्धकार संस्थिति की सर्वाभ्यन्तर बाहा का परिमाण अन्धकार संस्थिति को सर्वाभ्यन्तर बाहा का परिमाण ६३२४ योजन ६/१० भाग है। मेरुपर्वत के परिक्षेप को २ से गुणा कर १० से भाजित करने पर ६३२४६ योजन होते हैं। उन्हें १० से भाग देने पर ६३२४ योजन ६/१० अंधकार संस्थिति की सर्वाभ्यन्तर बाहा आती है। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ] [ २२१ लवणसमुद्र की निकटवर्ती जम्बूद्वीप तक की अंधकार संस्थिति की सर्वबाह्य बाहा जम्बूद्वीप की परिधि के २ से गुणा कर १० से भाग देने पर सर्वबाह्य बाहा का परिमाण प्राप्त होता है। जम्बूद्वीप की परिधि ३१६२२८ योजन है। उसे २ से गुणा करने पर ६३२४५६ योजन होते हैं। जिन्हें १०६३२४५ योजन ६/१० भाग सर्वबाह्य बाहा का परिमाण होता है। अन्धकार संस्थिति की लम्बाई तापमान की लम्बाई जितना जाननी चाहिये। सर्वाभ्यन्तरमंडल में जो तापमान की स्थिति है वह सर्वबाह्य मंडल में अन्धकार की स्थिति जानना चाहिये। सर्वाभ्यन्तरमंडल में जो अन्धकार की स्थिति है वह सर्वबाह्यमंडल में ताप की स्थिति जानना चाहिये। अर्थात् सर्वबाह्यमंडल में तापमान की आभ्यान्तर बाहा ६३२४ योजन ६/१० भाग है। सर्वबाह्य बाहा ६३२४५ योजन ६/१० भाग है । तापमान की लम्बाई ७८३३३.३३३ योजन है। अन्धकार की संस्थिति सर्वबाह्य मंडल में आभ्यान्तर बाहा ९४८६ योजन ९/१० भाग है। शेष बाहा ९४८६८ योजन ४/१० भाग है। अन्धकार संस्थिति की लम्बाई ७८३३३.३३३ योजन है। - सूत्र २५ समाप्त ॥ चतुर्थ प्राभृत समाप्त ॥ सूत्र ३३ दसवें प्राभृत का दूसरा प्राभृत-प्राभृत ___ अहोरात्र के ६७ भाग की कल्पना करना चाहिये। अहोरात्र के ६७ भाग नक्षत्र संख्या चन्द्र के साथ नक्षत्रनाम में से भाग संख्या योग मुहूर्त ९ मु. २७/६७ अभिजित ३३ भाग १/२ १५ मु. शतभिषा, भरणी, आद्रा, अश्लेषा स्वाति, ज्येष्ठा ६७ १५ ३० मु. श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वा, भा० रेवती, अश्विनी, कृतिका मृगशिर, पुष्य, मघा, पू० फा० हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल, पूर्वाषाढ़ा १०० भाग १/२ ४५ मु. उ० भा० रोहिणी पुन० उ. फा. विशाखा, उत्तराषाढ़ा० Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र मुहूर्त उपर्युक्त कोष्ठक नक्षत्र का चंद्र के साथ कितने मुहूर्त का योग होता है, यह बतलाने के लिये है। नक्षत्रों का सूर्य के साथ योग नक्षत्र संख्या सूर्य के साथ योग नक्षत्रों का नाम दिवस अभिजित शतभिषा, भरणी, आद्रा, आश्लेषा, स्वाति, ज्येष्ठा श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वा, भा. रेवती, अश्विनी कृतिका, मृगशिर, पुष्य, मघा; पू. फा. हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल, पूर्वाषाढ़ा २०३ उ. भा., रोहिणी, पुनर्वसु, उ. फा., विशाखा, उ. षाढ़ा। जो नक्षत्र चन्द्रमा के साथ १ दिवस के ६७ भाग में से अथवा उससे विशेष जितने भाग गमन करता है, उसके पाँचवें भाग प्रमाण सूर्य के साथ दिवस और मुहूर्त के परिमाण से गमन करता है। जैसे कि अभिजित नक्षत्र चन्द्र के साथ २१ । ६७ भाग गमन करता है तो सूर्य के साथ कितना गंमन करता है ? यह जानने के लिये २१ भाग को ५ से भाग देने पर ४ दिवस १ । ५ भाग मुहूर्त आते हैं। १।५ मुहूर्त निकालने के लिये ३० से गुणा करने पर ६ मुहूर्त आते हैं। जिसका आशय यह हुआ कि अभिजित नक्षत्र सूर्य के साथ ४ दिवस ६ मुहूर्त योग करता है। इस प्रकार अन्य स्थान पर भी समझना चाहिये। १५ मुहूर्त चन्द्र के साथ योग करने पर नक्षत्र का सूर्य के साथ योगकाल शतभिषा नक्षत्र चन्द्र के साथ १ दिवस के ६७ भाग में से ३३% भाग योग करता है, तो सूर्य के साथ कितने दिवस और कितने मुहूर्त योग करता है ? अतः ६ दिवस ७ । १० मुहूर्त सूर्य के साथ योग करता है। १. के मुहूर्त जानने के लिये ३० से गुणा करने पर २१ मुहूर्त आते हैं । अर्थात् शतभिषा नक्षत्र का सूर्य के साथ ६ दिवस और २१ मुहूर्त योग होता है। इसी प्रकार अन्य नक्षत्रों के लिये जानना चाहिये। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ] [ २२३ ३० मुहूर्त चन्द्र के साथ योग करने पर नक्षत्र का सूर्य के साथ योगकाल श्रवण नक्षत्र के साथ एक दिवस के ६७ भाग योग करता है तो सूर्य के साथ कितने समय योग करता सूर्य के साथ होने वाले योग का समय जानने के लिये चन्द्र के साथ होने वाले योग के समय को ५ से भाग देने पर जो भाज्य-भाजक भाव से उपलब्ध होता है वह नक्षत्र का सूर्य के साथ का योगकाल समझना चाहिये। ६७५ = १३, दिवस २।५ के मुहूर्त निकालने के लिये ३० से गुणा करने पर १२ मुहूर्त होते हैं । अतएव उस प्रकार से १३ दिवस १२ मुहूर्त अन्य नक्षत्र के साथ भी सूर्य का योगकाल जानना चाहिये। ४५ मुहूर्त चन्द्र के साथ योग करने पर नक्षत्र का सूर्य के साथ योगकाल उत्तर भाद्रपद नक्षत्र चन्द्र के साथ २०१ भाग योग करता है। उसका सूर्य के साथ कितने समय योग होता है, यह समझने के लिये ५ से भाग देने पर २०१४ करने पर २०१ आयेगा। उनके दिवस बनाने पर २० दिवस और ३ मुहूर्त समय होंगे। जो उत्तरभाद्रपद नक्षत्र का सूर्य के साथ योगकाल है। - सूत्र ३४ समाप्त . . ॥ दसवें प्राभृत का दूसरा प्राभृत-प्राभृत समाप्त ॥ सूत्र ४० पूर्णिमा और अमावस्या का चन्द्र योग को अधिकार कर सन्निपात पूर्णिमा कुल नक्षत्र उपकुल नक्षत्र कुलोपकुल नक्षत्र श्रावणी माघ धनिष्ठा श्रवण अभिजित भाद्रपदी फाल्गुनी उ. भाद्रपद पू. भाद्रपद शतभिाषा अश्विनी चैत्री अश्विनी रेवती कार्तिक वैशाखी कृत्तिका . भरणी मार्गशीर्षी जेष्ठा मृगशिर रोहिणी पौषी आषाढ़ी पुष्य पुनर्वसु माध्वी श्रावणी आश्लेषा फाल्गुनी उ. फाल्गुनी पू. फाल्गुनी चैत्री अश्विनी चित्रा हस्त १०. वैशाखी कार्तिकी विशाखा स्वाति अमावस्या २. نی نی आद्रा و मघा भाद्रपदी Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र मूल अनुराधा ११. ज्येष्ठा १२. आषाढी मार्गशीर्षी पौषी उ. षाढ़ा ज्येष्ठा पू. षाढ़ा - सूत्र ४० समाप्त ॥ दशम प्राभृत का सातवाँ प्राभृत-प्राभृत समाप्त ॥ दशम प्राभृत का दसवाँ प्राभृत-प्राभृत दक्षिणायन १. r in मास श्रावण भाद्रपद आसौज कार्तिक मार्गशीर्ष पौष पौरुषी २ पाद ४ अंगुल २ पाद ८ अंगुल ३ पाद ३ पाद ४ अंगुल ३ पाद ८ अंगुल ४ पाद वृद्धि ४ अंगुल ८ अंगुल १ पाद १ पाद ४ अंगुल १ पाद ८ अंगुल २ पाद x j w उत्तरायण मास वृद्धि माघ पौरुषी ३ पाद ८ अंगुल ३ पाद ४ अंगुल फाल्गुन ३ पाद ४ अंगुल ८ अंगुल १ पाद १ पाद ४ अंगुल १ पाद ८ अंगुल २ पाद वैशाख ज्येष्ठ २ पाद ८ अंगुल २ पाद ४ अंगुल २ पाद आषाढ़ - सूत्र ४३ समाप्त ॥ दशम प्राभृत का दसवाँ प्राभृत-प्राभृत समाप्त ॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ] दसवें प्राभृत का २२ (बाइसवाँ ) प्राभृत-प्राभृत सूत्र ६२ सीमाविष्कम्भ भाग ६३० १००५ २०१० ३०१५ ५६ (नक्षत्र के नाम दसवें प्राभृत के दूसरे प्राभृत - प्राभृत में देखें) १ अहोरात्र के ६७ भाग की कल्पना करना चाहिये । नक्षत्र संख्या २ अर्धक्षेत्र नक्षत्र १२ समक्षेत्र नक्षत्र ३० द्व्यर्धक्षेत्र नक्षत्र १२ सूत्र ७२ : बारहवाँ प्राभृत संवत्सरों का प्रमाण हैं । संवत्सर पाँच प्रकार के कहे गये हैं। - ६७ भागात्मक है। [ १. नक्षत्र संवत्सर, २. चन्द्र संवत्सर, ३. ऋतु संवत्सर, ४. आदित्य संवत्सर, ५. अभिवर्धित संवत्सर । नक्षत्र मास में २७ दिवस २१ / ६७ मुहूर्त्त होते हैं। नक्षत्र मास ११९ मुहूर्त्त २७/ १. नक्षत्र संवत्सर २२५ नक्षत्र का नाम दो अभिजित दो शतभाषा यावत् दो ज्येष्ठा दो श्रवण यावत् दो पूर्वाषाढ़ा दो उत्तराभाद्रपद यावत् दो उत्तराषाढ़ा सूत्र ६२ समाप्त. नक्षत्र संवत्सर के दिवस कितने ? - ३२७ दिवस ५१ / ६७ भाग होते हैं। नक्षत्र संवत्सर ९८३२ मुहूर्त्त ५५/६७ भागांत्मक है । १८३०x३० ६७ १ युग के ६७ नक्षत्र होते हैं । १ युग के १८३० दिवस होते हैं । नक्षत्र मास के दिवस ज्ञात करने के लिये १८३० को ६७ से भाग देने पर २७ दिवस २१ / ६७ भाग आते = नक्षत्र मास के मुहूर्त्त जानने के लिये १ दिवस के ३० मुहूर्त से नक्षत्र मास के दिवसों को गुणा करने पर मुहूर्तों की संख्या प्राप्त होगी - ५४९०० ६७ ८१९ मुहूर्त्त २७/६७ भाग नक्षत्र संवत्सर के दिवस ज्ञात करने के लिये नक्षत्रमास के दिवसों को १२ से गुणा करना चाहिये । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र १८३०४१२ २१९६० - = ६७ ३२७ मुहूर्त ५१/६७ भाग ६७ . नक्षत्र संवत्सर के दिवस होते हैं। नक्षत्रसंवत्सर के मुहूर्त बनाने के लिये नक्षत्रसंवत्सर के दिवसों को ३० से गुणा करना चाहिये। ऐसा करने पर २१९६०४३०-६५८८००-९८३२ मुहूर्त ५६/६७ भाग नक्षत्र संवत्सर के मुहूर्त हैं। २. चन्द्रसंवत्सर चन्द्रमास के २९ दिवस ३२/६२ मुहूर्त हैं। चन्द्रमास ८८५ मुहूर्त ३०/६० भागात्मक है। चन्द्रसंवत्सर ३५४ दिवस १२/६२ मुहूर्तात्मक है। चन्द्रसंवत्सर १०६२५ मुहूर्त ५०/६२ भागात्मक है। १ युग के चन्द्रमास ६२ हैं। १ युग के दिवस १८३० हैं। १ चन्द्रमास के दिवस जानने के लिये १८३० को ६२ से भाग देना चाहिये। १८३० ६२ = २९ दिवस ३२/६२ मुहूर्त होते हैं। चन्द्रमास के मुहूर्त जानने के लिये चन्द्रमास के दिवसों की संख्या को ३० से गुणा करना चाहिये - १८३०४३० -५४९०० - ८८५ मुहूर्त ३०/६२ भाग होते हैं। ६२ चन्द्रसंवत्सर के दिवस जानने के लिये चन्द्रमास के दिवसों को १२ से गुणा करना चाहिये। १८३०x१२ - २१९६० - ३५४ दिवस १२/६२ मुहूर्तात्मक चन्द्रसंवत्सर होता है। ६७ ६७ चन्द्रसंवत्सर के मूहूर्त जानने के लिये वर्ष के दिवसों को ३० से गुणा करना चाहिये। २१९६०४३० - ६५८८०० - १०६२५ मुहूर्त ५०/६२ भाग होते हैं। ६२ २. ऋतुसंवत्सर १ युग के ऋतुमास ६१ हैं। १ ऋतुमास के दिवस ३० हैं। १ ऋतुमास के मुहूर्त ९०० हैं। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ] [ २२७ १ ऋतुवर्ष के दिवस ३६० हैं। १ ऋतुवर्ष के मुहूर्त १०८०० हैं। २. आदित्यसंवत्सर १ युग के आदित्यमास ६० हैं। १ आदित्यमास के ३० दिवस हैं। १ आदित्यमास के ९१५ हैं। १ आदित्यसंवत्सर के ३६६ दिवस हैं। १ आदित्यसंवत्सर के १०९८० मुहूर्त होते हैं। २. अभिवर्धितसंवत्सर १ अभिवर्धित मास के ३१ दिवस २९ मुहूर्त १७/६२ भाग होते हैं । १ अभिवर्धित मास के ९५९ मुहूर्त १७/६२ भाग । १ अभिवर्धित संवत्सर के ३८३ दिवस २१ मुहूर्त १८/६२ भाग होते हैं। १ अभिवर्धित संवत्सर के ११५११ मुहूर्त १८/६२ भाग होते हैं। - सूत्र ७२ समाप्त सूत्र ७३ नो युग के अहोरात्र का प्रमाण वासठिया भाग चूर्णित भाग १. नक्षत्रसंवत्सर ३२७ २२ ५१ ५५/६७ २. चन्द्रसंवत्सर ३५४ ३.ऋतुसंवत्सर ३६० ४. आदित्यसंवत्सर ३६६ ५. अभिवर्धितसंवत्सर ३८३ २१ १७९१ १ ५७ ५५/६७ नो युग के मुहूर्त १७९१४३०-५३७३०+१९-५३७४९.५७ ५५/६७ चूर्णित भाग। नो युग में कितने दिवस मिलाने पर युग पूर्ण होता है ? - ३८ दिवस १० मुहूर्त : भाग १२/६७ चूर्णित भाग मिलाने से युग पूर्ण होता है। दिवस 3 5 x x x x x x | Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूर कितने मुहूर्त मिलाने से युग के मुहूर्त पूर्ण होते हैं ? ३८४३०-१०४१+१०-११ मुहूर्त ११५० मुहूर्त ' भाग १२/६७ चूर्णित भाग मिलाने पर युग के मुहूर्त पूर्ण होते हैं। युग के दिवस कितने ? १८३० दिवस। युग के मुहूर्त कितने ? १८३०४३०-५४९०० मुहूर्त। ५४९०० मुहूर्त के कितने वासठिया भाग होते हैं ? ५४९००४६२= ३४०३८०० वासठिया भाग। - सूत्र ७३ समाप्त ॥ बारहवाँ प्राभृत समाप्त ॥ सूत्र ७९ तेरहवां प्राभृत चन्द्रमा की हानि-वृद्धि शुक्लपक्ष में वृद्धि होती है और कृष्णपक्ष में हानि होती है। शुक्लपक्ष में ४४२ मुहूर्त ४६/६२ भाग की वृद्धि होती है। कृष्णपक्ष में ४४२ मुहूर्त ४६/६२ भाग की हानि होती है। चन्द्रमास का प्रमाण एवं चन्द्रमास के मुहूर्तों का प्रमाण सूत्र ७२ के अनुसार जानना चाहिये। शुक्लपक्ष में ४४२ मुहूर्त ४६/६२ भाग हैं। कृष्णपक्ष में ४४२ मुहूर्त ४६/६२ भाग हैं । एकपक्ष १४ दिवस ४७/६२ भागात्मक है। - सूत्र ७९ समाप्त। सूत्र ८० १ युग में ६२ पूर्णिमा और ६२ अमावस्या होती हैं। अमावस्या और पूर्णिमा तक ४४२ मुहूर्त ४६/६२ भाग होते हैं। पूर्णिमा से अमावस्या तक ४४२ मुहूर्त ४६/६२ भाग होते हैं। पूर्णिमा से पूर्णिमा तक ८८५ मुहूर्त ३०/६२ भाग होते हैं । अमावस्या से अमावस्या तक ८८५ मुहूर्त ३०/६२ भाग होते हैं। - सूत्र ८० समाप्त । ॥ तेरहवाँ प्राभृत समाप्त ॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ] सूत्र ८३ पन्द्रहवाँ प्राभृत एक मुहूर्त्त में चन्द्र की गति एक मुहूर्त में चन्द्र उस-उस मंडल के १७६८ भाग गति करता है । एक युग के अर्धमंडल १७६८ हैं । १ युग १८३० दिवस हैं । दो अर्धमंडल अर्थात् एक मंडल की परिक्रमा चन्द्र कितने रात्रि - दिवस में पूर्ण करता है ? यह ज्ञात करने के लिये - १८३० दिवस x २ अर्धमंडल ३६६० १७६८ भाग १७६८ = २ दिवस १२४ / १७६८ भाग आते हैं। १२४/१७६८ भाग के मुहूर्त्त बनाने के लिये उन्हें ३० से १२४×३० ३७२० ४६५ = २२१×१०९८०० १३७२५ = - १७६८ १७६८ २२१ = २ दिवस २ मुहूर्त्त २३ / २२१ भाग में चन्द्र १ मंडल पूर्ण करता है । एक मुहूर्त्त की गति कितनी ? ६२ मुहूर्त्त २३/२२१ भाग में चन्द्र १०९८०० भाग (मंडल का परिक्षेप) गति करता है तो एक मुहूर्त की गति जानने के लिये २४२६५८०० १३७२५ 'गुणा करने पर १७६८ भाग चन्द्र १ मुहूर्त्त में १७६८ भाग गमन करता है । सूर्य एक मुहूर्त में १८३० भाग गति करता है । सूर्य दो दिवस में १ मंडल पूर्ण करता है । अर्थात् ६० मुहूर्त्त में १०९८०० भाग गमन करता है । एक मुहूर्त में कितने भाग गमन करता है ? [२२९ - Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र १०९८०० १८३० ६० सूर्य एक भाग में १८३० भाग गमन करता है। नक्षत्र एक मुहूर्त में १८३५ भाग गमन करता है। मुहूर्त जानने के लिये १ मंडल का संक्रमणकाल निकालना जरूरी है। १८३५ अर्धमंडल पूर्ण करने में १८३० दिवस लगते हैं। दो अर्धमंडल पूर्ण करने में कितने दिवस लगते हैं ? २४१८३° = १ दिवस १८२५/१८३५ मुहूर्त १८३५ १८२५ भाग के मुहूर्त बनाने के लिये १८२५४३० - १८७५ २९ मुहूर्त ३०७/३६७ आते हैं। अर्थात् नक्षत्र को १ मंडल पूर्ण करने में १ दिवस २९ मुहूर्त ३०७/३६७ भाग समय लगता है। अर्थात् ५९ मुहूर्त में ३०७/३६७ भाग समय लगता है। अर्थात् ५९ मुहूर्त में १०९८०० भाग परिक्षेप करता है। एक मुहूर्त में कितने भाग परिक्षेप करेगा? १८३५ ५९३०७ ३६७ २१९६० ३६७ ३६७४१०९८०० २१९६० = १८३५ भाग एक मुहूर्त में गमन करता है। सूर्य-चन्द्र की गति में क्या विशेषता है ? सूर्य-चन्द्र की अपेक्षा ६२ भाग विशेष गमन करता है। सूर्य १८३० - चन्द्र १७६८ = ६२ भाग जब चन्द्र गति समापन्न हो तब नक्षत्र की गति से क्या विशेष है ? नक्षत्र ६७ भाग विशेष गति करता है। क्योंकि नक्षत्र १८३५ भाग गमन करता है। चन्द्र १७६८ भाग गमन करता है। नक्षत्र १८३५ - चन्द्र १७६८ = ६७ भाग अधिक गमन करता है। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ] [ २३१ सूत्र ८५ नक्षत्रमास में चन्द्र कितने मंडल गति करता है ? चन्द्र एक नक्षत्रमास में १३ मंडल १३/६७ भाग गति करता है । इसका कारण यह है कि एक युग के नक्षत्रमास ६७ हैं। चन्द्रमंडल ८८४ है। ६७ नक्षत्रमास में ८८४ चन्द्रमंडल चन्द्रगति करता है। एक नक्षत्रमास में कितने मंडल गति करता है ? । ८८४ ५ ६७ = १३ मंडल १३/६७ भाग गति करता है। नक्षत्रमास में सूर्य कितने मंडल गति करता है ? १३ मंडल ४४/६७ भाग गति करता है। एक युग के ६७ नक्षत्रमास में ९१५ सूर्यमंडल की गति करे तो एक मास में कितने मंडल गति करता है? ११५ - १३ मंडल ४४/६७ भाग गति करता है। नक्षत्रमास में नक्षत्र कितने मंडल गति करता है ? एक युग के ६७ नक्षत्रमास में १८३५ अर्धमंडल गति करता है। १८३५ = २७ अर्धमंडल २६/६७ भाग उनके मंडल बनाने पर २ से भाग देने पर १६३५ : २ = १३ १६। मंडल चन्द्रमास में चन्द्र कितने मंडल गति करता है ? १२४ पर्व में ८८४ मंडल गति करता है। २ पर्व में कितने मंडल गति करता है ? २४८८४ १७६८ १२४ - १२४ - १४४ १४ मंडल तथा पन्द्रहवें मंडल के ३२/१२४ भाग। चन्द्र मास में सूर्य कितने मंडल गति करता है ? १५ मंडल में चौथा भाग न्यून तथा १२४ भाग का एक अंश। १४ मंडल तथा पन्द्रहवें मंडल के ९४/१२४ भाग। वह किस प्रकार से? Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र १२४ पर्व में ९१५ सूर्यमंडल गति करता है तो २ पर्व में कितने सूर्य मंडल गति करता है ? २४९१५ . १८३० . १४७ १२४ - १२४ - १० १२४ मंडल गति करता है। चन्द्रमास में नक्षत्र कितने मंडल गति करता है ? १४ मंडल तथा पन्द्रहवें मंडल के ३४भाग। १२४ पर्व में १८३५ नक्षत्र अर्धमंडल गति करता है। तो दो पर्व में कितने नक्षत्र अर्धमंडल गति करता है ? २४१८३५ ३६७० १२४ - १२४ - २९ १२४ दो अर्धमंडल का एक मंडल होता है तो दो से भाग देने पर - ३६७०२.४ मंडल तथा ९९/१२४ भाग। १२४ = १४ मंडल तथा ऋतुमास में चन्द्र कितने मंडल गति करता है ? ६१ कर्ममास में ८८४ चन्द्रमंडल गति करता है। तो कर्ममास में कितने चन्द्रमंडल गति करेगा? ८८४ ___ ६१. ३० १४ - ६१ १४ मंडल तथा पंद्रहवें मंडल के ३०/६१ भाग। ऋतुमास में सूर्यकितने मंडल की गति करता है ? ६१ कर्ममास में ९१५ सूर्यमंडल गति करता है। १ कर्ममास में कितने सूर्यमंडल गति करेगा ? ९१५ - = ६१ १५ मंडल गति करता है। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ] ऋतुमास में नक्षत्र कितने मंडल गति करता ? १२२ ऋतुमास में १८३५ नक्षत्रमंडल गति करता है । तो एक ऋतुमास में कितने नक्षत्रमंडल गति करेगा ? १८३५ १२२ ८८४ ६० सूर्यमास में चन्द्र कितने मंडल गमन करता है ? ६० सूर्यमास में ८८४ चन्द्रमंडल गति करता है । तो एक सूर्यमास में कितने चन्द्रमंडल गति करेगा ? १५ ९१५ ६० १४ १८३५ १२० ५ १२२ १४ मंडल पन्द्रहवें मंडल का ११/१५ भाग । सूर्यमास में सूर्य कितने मंडल गमन करता है ? ६० सूर्यमास में ९१५ सूर्यमंडल गमन करता है । तो एक सूर्यमास में कितने सूर्यमंडल गमन करेगा ? १५ ११ १५ १५ १५ मंडल गमन करता है । ६० १५ मंडल १/४ भाग । सूर्यमास में नक्षत्र कितने मंडल गमन करता है ? १२० सूर्यमास में १८३५ नक्षत्रमंडल गमन करता है। तो एक सूर्यमास में कितने नक्षत्रमंडल गमन करेगा ? ३५ १२० मंडल १५ मंडल १६ वें के ३५ / १२० भाग । [ २३३ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र अभिवर्धित मास में चन्द्र कितने मंडल गमन करता है ? एक युग के अभिवर्धित मास ५७३, हैं। क्योंकि एक अभिवर्धित मास के मुहूर्त पर्व में बताये गये अनुसार - ९५९३७ मुहूर्त का एक मास। ९५९४६२+१७ - ५१६७५ युग के मुहूर्त १८३०४३० - ५४९०० मुहूर्त। उनके ६२ भाग करना चाहिये। ५४९००४६२ = ३४०३८०० भाग। ५९४७५/६२ मुहूर्त का एक अभिवर्धित मास होता है। ५४९०० मुहूर्त के कितने मास होंगे? ५४९००४६२ ३४०३८०० ५९४७५ ५९४७५ "५९४७५ ५७.३ (४७७५ से छेद चलता है।)। ५७ १३७२५ ५७ अभिवर्धित मास ३/१३ भाग। ५७, अभिवर्धित मास में ८८४ चन्द्रमंडल गमन करता है। तो एक अभिवर्धित मास में कितने चन्द्रमंडल गमन करेगा? ५७,३ - ७४४/१३ होते हैं। ७४४/१३ अभिवर्धित मास में कितने चन्द्रमंडल गमन करेगा? ८८४४१३ ११४९२ . १५ ७४४ ७४४ १८५ १५ मंडल चन्द्र गति करता है। ८३/१८६ भाग। अभिवर्धितमास में सूर्य कितने मंडल गमन करता है। एक युग के अभिवर्धित मास ७४४/१३ हैं, उनमें ९१५ सूर्यमंडल गति करता है तो एक अभिवर्धित मास में सूर्य कितने मंडल गमन करेगा? ९१५४१३ ११८९५ . १५२४५ ७४४ = ७४४- १५२४८ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ] [ २३५ १५ मंडल तथा १६ वें मंडल में ३ भाग न्यून। अभिवर्धित मास में नक्षत्र कितने मंडल गमन करता है ? एक युग के ७४४/१३ अभिवर्धित मास हैं । उसमें १८३५/२ मंडल गमन करता है। तो एक अभिवर्धित मास में नक्षत्र कितने मंडल गमन करेगा ? १३४१८३५ २३८५५ ४७ . २४७४४ -१४८८ - १६ मण्डल परिभ्रमण करेगा। __ - सूत्र ८५ समाप्त। सूत्र ८६ प्राभृत १५ चन्द्र रात्रि में कितने मण्डल परिभ्रमण करता है ? एक युग के अहोरात्र १८३० हैं। उनमें १७६८ अर्धमण्डल गति करता है। तो एक अहोरात्र में कितने अर्धमंडल गति करेगा ? १७६८ ८८४ - ९१५ एक अर्धमंडल के ३१ भाग न्यून गति करता है। १८३० सूर्य एक अहोरात्र में कितने अर्धमंडल गति करता है ? एक युग के दिवस १८३० हैं, उनमें १८३० अर्धमंडल गति करता है । तो एक अहोरात्र में कितने अर्धमंडल गति करेगा? १८३० - १ अर्धमंडल गति करेगा। नक्षत्र कितने अर्धमंडल गति करता है ? . एक युग के दिवस १८३० हैं । उनमें १८३५ अर्धमंडल गति करता है । तो एक अहोरात्र में कितने अर्धमंडल गति करेगा? १८३५ = १ अर्धमंडल ५/१८३० भाग गति करता है। एक मंडल गति करने पर चन्द्र को कितना समय लगता है ? ८८४ मंडल गति करने पर चन्द्र को १८३० दिवस लगते हैं तो एक मंडल की गति करने पर कितने दिवस लगेंगे? १८३० Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र १८३० , = २ ३१ र -- = दो दिवस और ३१/४४२ भाग में एक मंडल गति करता है। ८८४ एक मंडल सूर्य कितने रात्रि-दिवस में गमन करता है। ९१५ मंडल गति करने पर सूर्य को १८३० दिवस लगते हैं, तो एक मंडल की गति करने पर कितने दिवस लगते हैं ? १८३० = २ अहोरात्र ९१५ नक्षत्र कितने दिवस में एक मंडल गति करता है ? १८३५/२ मंडल गति करने पर नक्षत्र को १८३० दिवस लगते हैं तो एक मंडल की गति करने पर नक्षत्र को कितने दिवस लगेंगे? १८३० ७३२ ३६५ १८३५४ २ - 380 = १ ३६८ दो अहोरात्र में दो भाग कम एक अहोरात्र के ३६७ भाग। युग में चन्द्र कितने मंडढल गति करता है ? चन्द्र एक मुहूर्त में मंडल के १०९८०० भाग में से १७६८ भाग गति करता है । युग के मुहूर्त एक मुहूर्त में १७६८/१०९८०० गति करता है। तो ५४९०० मुहूर्त में कितनी गति करेगा? ५४९०० १०९1०० १०५८-१०९८०० ९७०६३२०० = ८८४ 14 . = ८८४ मंडल गति करता है। युग में सूर्य मंडलों की संख्या ? Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ] करेगा? करेगा ? अर्थात् एक युग में सूर्य कितने मंडल गति करता है ? सूर्य एक मुहूर्त्त में १८३० / १०९८०० भाग गति करता है तो ५४९०० मुहूर्त्त में कितनी गति ५४९००×१८३० १०९८०० युग में नक्षत्रों की संख्य ? ९१५ मण्डल गति करता है। . अर्थात् एक युग में नक्षत्र कितने मंडल गति करता है ? नक्षत्र एक मुहूर्त्त में १८३५/१०९८०० भाग गति करता है तो ५४९०० मुहूर्त में कितनी गति १८३५ ५४९००×१८३५ १०९८०० २ ९१७ मंडल १/२ भाग गति करेगा । = [ २३७ = ९१७ मंडल # Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - २ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र सूत्र २० व २४ सूरमंडलस्स आयाम-विक्खंभो परिक्खेवो बाहल्लं च प. सूरमंडले णं भंते! केवइयं आयाम-विक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? उ. गोयमा! सूरमंडले अडयालीसं एगसट्ठिभाए जोयणस्स आयाम-विक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं चउवीसं एगसट्ठिभाए जोयणस्स बाहल्लेणं पण्णत्ते। - जंबु. वक्ख.७, सु. १३० जंबुद्दीवे सूरिया पडुप्पन्नं खेत्तं ओभासंति प. जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे सूरिया किं तीयं खेत्तं ओभासंति, पडुपन्नं खेत्तं ओभासंति, अणागयं खेत्तं ओभासंति? गोयमा! नो तीयं खेत्तं ओभासेंति, पडुपनं खेत्तं ओभासेंति, नो अणागयं खेत्तं ओभासेंति। प. तं भंते! किं पुढें ओभासेंति, अपुढें ओभासेंति ? उ. गोयमा! पुढें ओभासेंति, नो पुढं ओभासेंति जाव। प. तं भंते! किं एगदिसिं ओभासेंति, छद्दिर्सि ओभासेंति ? १. (क) सूरमंडले णं अडयालीसं एगसट्ठिभाए जोयणस्स विक्खंभेणं पण्णत्ते, - सम. ४८, सु. ३ (ख) सूरमंडलं जोयणे णं तेरसहिं एगट्ठिभाएहिं जोयणस्स ऊणं पण्णत्तं, - सम. १३, सु.८ २. यावत् पद से संग्रहीत सूत्र प. तं भंते ! किं ओगाढं ओभासेंति, अणोगाढं ओभासेंति ? गोयमा! ओगाढं ओभासेंति, नो अणोगाढं ओभासेंति, प. तं भंते ! किं अणंतरोगाढं ओभासेंति, परंपरोगाढं ओभासेंति ? उ. गोयमा! अणंतरोगाढं ओभासेंति, नो परंपरोगाढं ओभासेंति, प. तं भंते ! किं अणुं ओभासेंति, बायरं ओभासेंति ? गोयमा! अणुं पि ओभासेंति, बायरं पि ओभासेंति, तं भंते ! किं उड्ढे ओभासेंति, तिरियं ओभासेंति अहे ओभासेंति? उ. गोयमा! उड्ढे पि, तिरियं पि, अहे वि ओभासेंति। प. . तं भंते ! किं आई ओभासेंति, मज्झे ओभासेंति अंते ओभासेंति ? उ. गोयमा! आई पि, मज्झेवि, अंते वि ओभासेंति, तं भंते ! किं सविसए ओभासेंति, अविसए ओभासेंति ? ___ गोयमा! सविसए ओभासेंति, नो अविसए ओभासेंति, (क्रमशः) Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ ] [ २३९ उ. गोयमा! नो एगदिसिं ओभासेंति, नियमा छद्दिसिं ओभासेंति। विया. स.८, उ.८, सु. ३९, ४० जंबुद्दीवे सूरिया पडुप्पन्नं खेत्तं उज्जोवेति । प. जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे सूरिया किं तीयं खेत्तं उजोवेंति पडुप्पन्नं खेत्तं उज्जोवेंति, अणागयं खेत्तं उज्जोवेंति ? उ. गोयमा! नो तीये खेत्तं उजोवेंति, पडुप्पन्नं खेत्तं उज्जोवेंति, नो अणागयं खेत्तं उजोवेंति, एवं तवेंति, एवं भासंति जाव नियमा छद्दिसिं भासंति। ___जंबुद्दीवे सूरियाणं ताव खेत्तं पमाणं - विया. स.८, उ.८,सु. ४१-४२ प. जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे सूरिया केवइयं खेत्तं उड्ढं तवंति ? केवइयं खेत्तं अहे तवंति ? केवइयं खेत्तं तिरियं तवंति? उ. गोयमा! एगं जोयणसयं उड्ढं तवंति, अट्ठारसजोयणसयाई अहे तवंति, सीयालीसं जोयणसहस्साई दोण्णि तेवढे जोयणसए एक्कवीसं च सट्ठिभाए जोयणस्स तिरियं तवंति। - विया स. ८, उ.८, सु. ४५ प. तं भंते ! आणुपुव्विं ओभासेंति, नो अणाणुपुव्विं ओभासेंति ? उ. गोयमा! आणुपुट्विं ओभासेंति, नो अणाणुपुव्विं ओभासेंति, प. तं भंते ! कइ दिसिं ओभासेंति ? उ. गोयमा! नियमा छद्दिसिं ओभासेंति, -विया. स.८, उ.८, सु. ३९ टिप्पण [प.तं भंते ! किं एगदिसिं ओभासेंति, सद्दिर्सि ओभासेंति ? उ. गोयमा! नो एगदिसिं ओभासेंति, नियमा छद्दिसिं ओभासेति।] (पाठान्तर) १.जंबु. वक्ख.७, सु, १३७ २.जंबु. वक्ख.७, सु. १३७ ३. (क) जंबु. वक्ख. ७, १३९ (ख) सूरिय. पा. ४, सु. २५ सूर्य के विमान से सौ योजन ऊपर शनैश्चर ग्रह का विमान है और वहीं तक ज्योतिष चक्र की सीमा है, अत: इससे ऊपर सूर्य का तापक्षेत्र नहीं है। ४. जंबुद्वीप के पश्चिम महाविदेह से जयंतद्वार की ओर लवणसमुद्र के समीप क्रमश: एक हजार योजन पर्यन्त भूमि नीचे है, इस अपेक्षा से एक हजार योजन तथा मेरु के समीप की समभूमि से ८०० योजन ऊँचा सूर्य का विमान है, ये आठ सौ योजन संयुक्त करने पर अठारह सौ योजन सूर्य विमान से नीचे की ओर का तापक्षेत्र है, अन्य द्वीपों में भूमि सम रहती है। इसलिये वहां सूर्य का नीचे का तापक्षेत्र केवल आठ सौ योजन का है। अठारह सौ योजन नीचे की ओर के तापक्षेत्र के और सौ योजन ऊपर की ओर के तापक्षेत्र के, इन दोनों संख्याओं के संयुक्त करने पर १९०० योजन का सूर्य का तापक्षेत्र है। ५. यहां तिरछे तापक्षेत्र का कथन पूर्व-पश्चिम दिशा की अपेक्षा से कहा गया है, अर्थात् उत्कृष्ट इतनी दूरी पर स्थित सूर्य मानव चक्षु से देखा जा सकता है। उत्तर में १८० योजन न्यून पैंतालास हजार योजन तथा दक्षिणदिशा में द्वीप में १८० योजन और लवणसमुद्र में तेंतीस हजार तीन सौ तेतीस योजन तथा एक योजन के तृतीय भाग संयुक्त दूरी से सूर्य देखा जा सकता है। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल (स्व. आचार्यप्रवर श्री आत्मारामजी म. द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र से उद्धृत) स्वध्याय के लिये आगमों में जो समय बताया गया है, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए। अनध्यायकाल में स्वाध्याय वर्जित है। मनुस्मृति आदि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं। इसी प्रकार अन्य आर्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय माना जाता है। जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वरविद्या संयुक्त होने के कारण, इनका भी आगमों में अनध्यायकाल वर्णित किया गया है, जैसे कि - दसविधे अंतलिक्खिते असज्झाए पण्णत्ते, तं जहा - उक्कावाते, दिसिदाघे, गजिते, विजुते, निग्घाते, जुवते, जक्खालित्ते, धूमिता, महिता, रयउग्घाते। दसविहे ओरालिते असज्झातिते, तं जहा - अट्ठी, मंसं, सोणिते, असुतिसामंते, सुसाणसामंते, चंदोवराते, सूरोवराते, पडने, रायवुग्गहे, उवस्सयस्स अंतो ओरालिए सरीरगे। - स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान १० नो कप्पति निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा चउहिं माहापाडिवएहिं सज्झायं करित्तए, तं जहा - आसाढपाडिवए, इंदमहापाडिवए, कत्तअपाडिवए सुगिम्हपाडिवए। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा, चउहिं संझाहिं सज्झायं करेत्तए, तं जहा – पडिमाते, पच्छिमाते मज्झण्हे, अड्ढरत्ते। कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीण वा, चाउक्कालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा - पुव्वण्हे अवरण्हे, पओसे, पच्चूसे। - - स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान ४, उद्देशक २ उपर्युक्त सूत्रपाठ के अनुसार, दस आकाश से सम्बन्धित, दस औदारिक शरीर से सम्बन्धित, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदा की पूर्णिमा और चार संध्या, इस प्रकार बत्तीस अनध्याय माने गए हैं, जिनका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसे - आकाश सम्बन्धी दस अनध्याय १. उल्कापात-तारापतन - यदि महत् तारापतन हुआ है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्रस्वाध्याय नहीं करना चाहिए। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल ] [ २४१ २. दिग्दाह – जब तक दिशा रक्तवर्ण की हो अर्थात् ऐसा मालूम पड़े कि दिशा में आग सी लगी है तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। ३. गर्जित - बादलों के गर्जन पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे। ४. विद्युत - बिजली चमकने पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे। किन्तु गर्जन और विद्युत का अस्वाध्याय चातुर्मास में नहीं मानना चाहिए। क्योंकि वह गर्जन और विद्युत प्रायः ऋतु-स्वभाव से ही होता है। अतः आर्द्रा से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता। ५. निर्घात - बिना बादल के आकाश में व्यन्तरादिकृत घोर गर्जना होने पर, या बादलों सहित आकाश में कड़कने पर दो प्रहर तक अस्वाध्याय काल है। ६. यूपक - शुक्लपक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया को संध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक कहा जाता है। इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। . ७. यक्षादीप्त - कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े-थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है वह यक्षादीप्त कहलाता है। अतः आकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। ८. धूमिका-कृष्ण - कार्तिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गभमास होता है। इसमें धूम्र वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुंध पड़ती है। वह धूमिका-कृष्ण कहलाती है। जब तक यह धुंध पड़ती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। ९. मिहिकाश्वेत – शीतकाल में श्वेत वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुंध मिहिका कहलाती है। जब तक गिरती रहे, तब तक अस्वाध्यायकाल है। १०. रज-उद्घात – वायु के कारण आकाश में चारों ओर धूलि छा जाती है। जब तक यह धूलि फैली रहती है, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उपरोक्त दस कारण आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं। औदारिक शरीर सम्बन्धी दस अनध्याय ११-१२-१३. हड्डी, मांस और रुधिर - पंचेन्द्रिय तिर्यंच की हड्डी, मांस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से यह वस्तुएँ उठाई न जाएँ तब तक अस्वाध्याय है। वृत्तिकार आस-पास के ६० हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं। इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि, मांस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है। विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन-रात का होता है। स्त्री के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन तक। बालक एवं बालिका के जन्म का अस्वाध्याय क्रमशः सात एवं आठ दिन Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ] [ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र पर्यन्त का माना जाता है। १४. अशुचि - मल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है। १५. श्मशान – श्मशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है। १६. चन्द्रग्रहण - चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य आठ, मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। .. १७. सूर्यग्रहण - सूर्यग्रहण होने पर भी क्रमशः आठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल माना गया है। १८. पतन - किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्रपुरुष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अथवा जब तक दूसरा अधिकारी सत्तारूढ न हो, तब तक शनैः शनैः स्वाध्याय करना चाहिए। १९. राजव्युद्ग्रह - समीपस्थ राजाओं में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक और उसके पश्चात् भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें। २०. औदारिक शरीर - उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेवर पड़ा रहे, तब तक तथा १०० हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पड़ा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिये। अस्वाध्याय के उपरोक्त १० कारण औदारिकशरीर सम्बन्धी कहे गये हैं। २१-२८. चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा - आषाढ-पूर्णिमा, आश्विन-पूर्णिमा, कार्तिकपूर्णिमा और चैत्र-पूर्णिमा ये चार महोत्सव हैं। इन पूर्णिमाओं के पश्चात् आने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं। इनमें स्वाध्याय करने का निषेध है। . २९-३२. प्रातः, सायं, मध्याह्न और अर्धरात्रि - प्रातः सूर्य उगने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे। सूर्यास्त होने से एक घड़ी पहले तथा एक घड़ी पीछे। मध्याह्न अर्थात् दोपहर में एक घड़ी आगे और एक घड़ी पीछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ी आगे तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगमप्रकाशन समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों की शुभ नामावली हास्तम्भ १. श्री सेठ मोहनमलजी चोरड़िया, मद्रास २. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, सिकन्दराबाद ३. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर ४. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरड़िया, बैंगलोर ५. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग ६. श्री एस. किशनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास ७. श्री कंवरलालजी बैताला, गोहाटी ८. श्री सेठ खींवराजजी चोरड़िया मद्रास ९. श्री गुमानमलजी चोरड़िया, मद्रास १०. श्री एस. बादलचन्दजी चोरड़िया, मद्रास ११. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरड़िया, मद्रास १२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास १३. श्री जे. अन्नराजजी चोरड़िया, मद्रास १४. श्री एस. सायरचन्दजी चोरड़िया, मद्रास १५. श्री आर. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी चोरड़िया, मद्रास १६. श्री सिरेमलजी हीराचन्दजी चोरड़िया, मद्रास १७. श्री जे. हुक्मीचन्दजी चोरड़िया, मद्रास सम्भ सदस्य १. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपुर २. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर ३. श्री तिलोकचंदजी, सागरमलजी संचेती, मद्रास ४. श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, कटंगी ५. श्री आर. प्रसन्नचन्दजी चोरड़िया, मद्रास ६. श्री दीपचन्दजी चोरड़िया, मद्रास ७. श्री मूलचन्दजी चोरड़िया, कटंगी ८. श्री वर्द्धमान इण्डस्ट्रीज, कानपुर ९. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग संरक्षक १. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली २. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजी मूथा, पाली ३. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी मेहता, मेड़ता सिटी ४. श्री श. जड़ावमलजी माणकचन्दजी बेताला, बागलकोट ५. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर ६. श्री मोहनलालजी नेमीचन्दजी ललवाणी, चांगाटोला ७. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरड़िया, मद्रास ८. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगाटोला ९. श्रीमती सिरेकुँवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगनचन्दजी झामड़, मदुरान्तकम् श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा (KGF) जाड़न १०. ११. श्री थानचन्दजी मेहता, जोधपुर १२. श्री भैरूदानजी लाभचन्दजी सुराणा, नागौर १३. श्री खूबचन्दजी गादिया, ब्यावर १४. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया, ब्यावर १५. श्री इन्द्रचन्दजी बैद, राजनांदगांव १६. श्री रावतमलजी भीकमचन्दजी पगारिया, बालाघाट १७. श्री गणेशमलजी धर्मीचन्दजी कांकरिया, टंगला १८. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर १९. श्री हरकचन्दजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर २०. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचन्दजी लोढ़ा, चांगाटोला २१. श्री सिद्धकरणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोला Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास ७. श्री बी. गजराजजी बोकडिया, सेलम २३. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजी बालिया, ८. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली अहमदाबाद ९. श्री के. पुखराजजी बाफणा, मद्रास २४. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तलेसरा, पाली १०. श्री रूपराजजी जोधराजजी मूथा, दिल्ली २५. श्री रतनचन्दजी उत्तमचन्दजी मोदी, ब्यावर ११. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, २६. श्री धर्मीचन्दजी भागचन्दजी बोहरा, झूठा रायपुर २७. श्री छोगामलजी हेमराजजी लोढ़ा डोंडीलोहारा १२. श्री नथमलजी मोहनलालजी लूणिया, २८. श्री गुणचंदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी चण्डावल २९. श्री मूलचन्दजी सुजानमलजी संचेती, जोधपुर १३. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, ३०. श्री सी. अमरचन्दजी बोथरा, मद्रास कुशालपुरा ३१. श्री भंवरलालजी मूलचन्दजी सुराणा, मद्रास १४. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर ३२. श्री बादलचंदजी जुगराजजी मेहता, इन्दौर १५. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर . ३३. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन १६. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर ३४. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, अजमेर १७. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया, जोधपुर ३५. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, १८. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर बैंगलोर १९. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर ३६. श्री भंवरीमलजी चोरडिया, मद्रास २०. श्रीमती सुन्दरबाई गोठी धर्मपत्नीश्री ताराचंदजी ३७. श्री भंवरलालजी गोठा, मद्रास गोठी, जोधपुर ३८. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, आगरा २१. श्री रायचन्दजी मोहनलालजी, जोधपुर ३९. श्री घेवरचंदजी पुखराजजी भुरट, गोहाटी २२. श्री घेवरचन्दजी रूपराजजी, जोधपुर ४०. श्री जबरचन्दजी गेलड़ा, मद्रास २३. श्री भंवरलालजी माणकचंदजी सुराणा, मद्रास ४१. श्री जड़ावमलजी सुगनचन्दजी, मद्रास २४. श्री जंवरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी, ४२. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास ४३. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, मद्रास २५. श्री माणकचंदजी किशनलालजी, मेड़तासिटी ४४. श्री लूणकरणजी रिखबचंदजी लोढ़ा, मद्रास २६. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर ४५. श्री सूरजमलजी सजनराजजी महेता, कोप्पल २७. श्री जसराजजी जंवरीलालजी धारीवाल, जोधपुर १. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसी, मेड़तासिटी २८. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर २. श्रीमती छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर २९. श्री नेमीचंदजी डाकलिया मेहता, जोधपुर ३. श्री पूनमचन्दजी नाहटा, जोधपुर ३०. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर ४. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, ३१. श्री आसूमल एण्ड कं. , जोधपुर विल्लीपुरम् ३२. श्री पुखराजजी लोढा, जोधपुर ५. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर ३३. श्रीमती सुगनीबाई धर्मपत्नी श्री मिश्रीलालजी ६. श्री विजयराजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर सांड, जोधपुर ब्यावर Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. श्री बच्छराजजी सुराणा, जोधपुर ६३. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजी मोदी, भिलाई ३५. श्री हरकचन्दजी मेहता, जोधपुर ६४. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा। ३६. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेडतिया. जोधपर ६५. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर ३७. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, जोधपुर ६६. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गुलेच्छा राज३८. श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया, जोधपुर नांदगाँव ३९. श्री मांगीलालजी चोरड़िया, कुचेरा ६७. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई ४०. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई . ६८. श्री भंवरलालजी डूंगरमलजी कांकरिया, ४१. श्री ओकचंदजी हेमराजजी सोनी, दुर्ग भिलाई ६९. श्री हीरासलालजी हस्तीमलजी देशलहरा, ४२. श्री सूरजकरणजी सुराणा, मद्रास ४३. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग भिलाई ४४. श्री पुखराजजी बोहरा.(जैन टान्सपोर्ट कं)- •६०. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ. दल्ली-राजहरा जोधपुर ७१. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजी बाफणा, ब्यावर ४५. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना ७२. श्री गंगारामजी इन्दचंदजी बोहरा, कुचेरा ४६. श्री प्रेमराजजी मीठालालजी कामदार, बैंगलोर ७३. श्री फतेहराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, ४७. श्री भंवरलालजी मूथा एण्ड सन्स, जयपुर कलकत्ता ४८. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर ७४. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भुरट, कलकत्ता ४९. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला, ७५. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर मेटूपलियम ७६. श्री जवरीलालजी शांतिलाली सुराणा, बोलारम ५०. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुल्ली ७७. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया ५१. श्री आसकरणजी जसराजजी पारख, दुर्ग ७५. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली ५२. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई ७९. श्री माणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला ३. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, ८०. श्री चिम्मिनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढा, ब्यावर . मेड़तासिटी ८१. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गौहाटी ५४. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर ८२. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठन ५५ श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर ८३. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, ५६. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर कुचेरा। ५७. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर ८४. श्री मांगीलालजी मदनलालजी चोरडिया, ५८. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़ता- भैरूंदा सिटी ८५. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा ५९. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर ८६. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जंवरीलालजी ६०. श्री मांगीलालजी प्रकाशचन्दजी रूणवाल, कोठारी, गोठन ८७. श्री सरदारमलजी एण्ड कम्पनी, जोधपुर ६१. श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया कलां ८८. श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, ६२. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर जोधपुर मैसूर Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९. श्री पुखराजजी कटारिया, जोधपुर ११२. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर । ९०. श्री इन्द्रचन्दजी मुकनचन्दजी, इन्दौर ११३. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर. ९१. श्री भंवरलालजी बाफना, इन्दौर ११४. श्री भूरमलजी दुलीचंदजी बोकड़िया, मेड़ता९२. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर सिटी ९३. श्री बालचन्दजी अमरचन्दजी मोदी, ब्यावर ११५. श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली २४. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी, बैंगलोर ११६. श्रीमती रामकुंवरबाई धर्मपत्नी श्री चांदमलजी ९५, श्रीमती कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी स्वः लोढा. बम्बई ____श्री पारसमलजी ललवाणी, गोठन . . ११७. श्री मांगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर ९६. श्री अखेचन्दजी लूणकरणजी भण्डारी, १४८. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद कलकत्ता ११९. श्री भीखमचन्दजी माणकचन्दजी खाबिया, ९७. श्री सुगनचन्दजी संचेती, राजनांदगांव (कुडालोर)मद्रास ९८. श्री प्रकाशचंदजी जैन, नागौर १२०. श्रीमती अनोपकुंवर धर्मपत्नी श्री चम्पालालजी ९९. श्री कुशालचंदजी रिखबचन्दजी सुराणा, . संघवी, कुचेरा बोलारम १२१. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला १००. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, १२२. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता ___ कुचेरा १२३. श्री भीखमचन्दजी गणेशमलजी चौधरी, k०१. श्री गूदड़मलजी चम्पालालजी, गोठन धूलिया k०२. श्री तेजराजजी कोठारी, मांगलियावास १२४. श्री पुखराजी किशनलालजी तातेड़, १०३. श्री सम्पतराजजी चोरड़िया, मद्रास सिकन्दराबाद k०४. श्री अमरचंदजी छाजेड़, पादु बड़ी १२५. श्री मिश्रीलालजी सजनलालजी कटारिया, १०५. श्री जुगराजजी धनराजजी बरमेचा, मद्रास सिकन्दराबाद २०६. श्री पुखराजजी नाहरपलजी ललवाणी, मद्रास १२६. श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, k०७. श्रीमती कंचनदेवी व निर्मला देवी, मद्रास . बगड़ीनगर k०८. श्री दुलेराजजी भंवरलालजी कोठारी, कुशाल- १२७. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, बिलाड़ा k०९. श्री भंवलालजी मांगीलालजी बेताला, डेह १२८. श्री टी. पारसमलजी चोरड़िया, मद्रास ९१०. श्री जीवराजजी भंवरलालजी चोरड़िया, भैरुंदा १२९. श्री मोतीलालजी आसूलालजी बोहरा एण्ड ११. श्री मांगीलालजी शांतिलालजी रूणवाल, कं., बैंगलोर हरसोलाव १३०. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ 00 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर द्वारा प्रकाशित आगम-सूत्र नाम अनुवादक-सम्पादक आचारांगसूत्र [दो भाग श्री चन्द्र सुराना 'कमल' उपासकदशांगसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री (एम. ए. पी-एच. डी.) ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल अन्कृद्दशांगसूत्र साध्वी दिव्यप्रभा (एम. ए., पी-एच. डी) अनुत्तरोववाइयसूत्र साध्वी मुक्तिप्रभा (एम. ए., पी-एच. डी) स्थानांगसूत्र पं. हीरालाल शास्त्री समवायांगसूत्र पं. हीरालाल शास्त्री सूत्रकृतांगसूत्र श्री चन्द्र सुराना 'सुराणा' विपाकसूत्र अनु. पं. रोशनलाल शास्त्री सम्पा, पं. शोभाचन्द भारिल्ल नन्दीसूत्र अनु. साध्वी उमरावकुंवर 'अर्चना' सम्पा. कमला जैन 'जीजी' एम. ए. औपपातिकसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [चार भाग] श्री अमरमुनि राजप्रश्नीयसूत्र वाणीभूषण रतनमुनि, सं. देवकुमार जैन प्रज्ञापनासूत्र [तीन भाग] जैनभूषण ज्ञानमुनि प्रश्नव्याकरणसूत्र अनु. मुनि प्रवीणऋषि सम्पा, पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल उत्तराध्ययनसूत्र श्री राजेन्द्रमुनि शास्त्री निरयावलिकासूत्र श्री देवकुमार जैन दशवैकालिकसूत्र महासती पुष्पवती आवश्यकसूत्र महासती सुप्रभा (एम. ए. पीएच. डी.) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री अनुयोगद्वारसूत्र उपाध्याय श्री केवलमुनि, सं. देवकुमार जैन, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र सम्पा. मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' जीवाजीवाभिगमसूत्र [दो भाग] श्री राजेन्द्र मुनि निशीथसूत्र मुनिश्री कन्हैयालाल जी 'कमल', श्री तिलोकमुनि त्रीणिछेदसूत्राणि मुनिश्री कन्हैयालाल जी 'कमल', श्री तिलोकमुनि श्री कल्पसूत्र (पत्राकार) उपाध्याय मुनि श्री प्यारचंद जी महाराज श्री अन्तकृद्दशांगसूत्र (पत्राकार) उपाध्याय मुनि श्री प्यारचंदजी महाराज विशेष जानकारी के लिये सम्पर्कसूत्र आगम प्रकाशन समिति श्री ब्रज-मधुकर स्मृति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर-३०५९०१ दि डायमण्ड जुबिली प्रेस, अजमेर 9431898