Book Title: Samyaktva Sara Shatak
Author(s): Gyanbhushan Maharaj
Publisher: Digambar Jain Samaj
Catalog link: https://jainqq.org/explore/010540/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. TFIC tries to address these needs too. Our intent is to aid all these repositories and digitization projects and is in no way to undercut them. For more information about our mission and our fair use guidelines, please visit our website. Note that we provide this book and others because, to the best of our knowledge, they are in the public domain, in our jurisdiction. However, before downloading and using it, you must verify that it is legal for you, in your jurisdiction, to access and use this copy of the book. Please do not download this book in error. We may not be held responsible for any copyright or other legal violations. Placing this notice in the front of every book, serves to both alert you, and to relieve us of any responsibility. If you are the intellectual property owner of this or any other book in our collection, please email us, if you have any objections to how we present or provide this book here, or to our providing this book at all. We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ by फ्र श्री वीतरागाय नमः Besisha Baschh सम्यक्त्वसार शतक लेखक:श्री १०५ तुल्लक ज्ञानभूषण जी महाराज declals at a disa Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -नं जयतु शासन | श्री सम्यक्त्व सार शतक रचयिता:क्षुल्लक श्री १०५ श्री ज्ञानभूषण जी महाराज प्रकाशक श्री.दिगम्बर जैन समाज, हिसार । पुस्तक मिलने का पता:मैनेजर- श्री दिगम्बर जैन पञ्चायती मन्दिर कलां, हिसार । प्रथमावृत्ति प्रति म १००० श्री वीर निर्वाण संवत् २४८२ कार्तिक शुक्ला १५ Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m : T Fe MAHARA सम्यक्त्वसार-शतक के रचयिताश्री १०५ क्षुल्लक श्री ज्ञान भूपण (पं० भूरामल) जी महाराज Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादर समर्पण दूषित वातावरण वाले घनघोर कालमें भी सूर्य के समान यथार्थ मार्ग को प्रदर्शित करने वाले प्रातः स्मरणीय, जगद्वन्ध, दिगम्बर परमर्पि, गुरुवर्य, प्राचार्य श्री १०८ श्रीचीरसागर जी महाज के करकमलों में मैं यह सम्यक्त्वसारशतक सादरे समरर्पित कर रहा है। जिसे स्वीकार करते हुये आप (गुरु महाराज) मुझ अल्पज्ञ को शुभाशिर्वाद प्रदान करें ताकि मैं आगे भी इसी प्रकार से सरस्वती जिनवाणी की सेवा कर सकू कार्तिक शुक्ला १५ आपका चरण सेवक-ज्ञानभूपण Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रस्तावना · प्रस्तुत पुस्तक - सम्यक्त्वसार शतक के लेखक है हमारे श्रद्धेय क्षुल्लक जी श्री १०५ श्री ज्ञानभूषण ( पं० भूरामल जी महाराज | जिन का जन्म - राजस्थानके 'राणोली' (जयपुर) ग्राम हुवा है। आपकी पूज्य माता जी का नाम श्री घृनवलि देवी और पिता जी का नाम श्री चतुर्भुज जी है । आप खण्डेलवाल वैश्य जाति से सम्बन्ध रखते हैं । हमारे इस प्रन्थ के कर्ता यद्यपि वैसे तो कुमार ब्रह्मचारी हैं । परन्तु आपने १८ वर्ष की अवस्था में अध्ययनकाल में ही नियम पूर्वक ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर लिया था । आजसे आठ वर्ष पूर्व आपने गृह त्यागकर श्री गम्बर जैनाचार्य श्री १०८ श्री वीरसागर जी के संघ में प्रवेश किया । आप संस्कृत के. तथा जैनागम के भी बड़े प्रकाण्ड पण्डित है, अतः आप संघ में रहते हुये उपाध्याय का कार्य करते रहे है । दो वर्ष से आपने क्षुल्लक की दीक्षा धारण की है । आप का अधिकतर समय, अध्ययन और अध्यापनमे ही व्यतीत होता है । आप स्वभाव से सरल परिणामी होने के कारण लोकप्रिय हैं। जहां कहीं भी आपका चतुर्मास होता है वहां त्यागियों तथा श्रावकों के पठन पाठन मे तथा ग्रन्थ के लिखने में ही आपका विशेष समय व्यतीत होता है। आप जैन-धर्म के मर्म को अच्छी तरह से समझे हुवे हैं और उसका उपदेश भी बड़े सरल शब्दों व्याख्या करते हुये किया करते हैं । आपके उपदेश से हर एक प्राणी - जो जैन दर्शन को नहीं जानता है Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह भी पूरा लाभ उठाता है । आप संस्कृत की कविता करने मे बड़े सिद्धहस्त हैं। आपने "जयोदय, वीरोदय, सुदर्शनोदय भद्रोदय, दयोदय और हिन्दी छन्दोबद्ध समयसार आदि कई अन्यों की रचना की हैं उनमें से जयोदय-काव्य तो श्री वीरसागर संघ की ओर से प्रकाशित हो लिया है शेप ग्रन्थ अभी अप्रकाशत हैं। आपके इस सम्यक्त्वसार अन्य की संस्कृत सरससुबोध और चित्ताकर्पक भी है उस पर भी आपने इस की हिन्दी मे टीका करके तो सोने में सुगन्धवाली कहावत करदी है । अन्य का विपय तो नाम से ही सुस्पष्ट है। जिनशासन में सन्यक्त्व के महत्व पर विशेप जोर दिया गया है । सामान्य गृहस्थ से लेकर बड़े से बड़े त्यागी- जब तक कि उनकी आत्मा में सम्यक्त्व का उदय नहीं होता, तब तक उनका गार्हस्थ्य एवं त्याग निरर्थक ही है । यही बात इस ग्रन्थ मे एक शतक लोकों में क्तलाई गई है । ग्रन्थकार ने इस ग्रन्थको ऐसे सुन्दर ढंगसे लिखा है कि मानवमात्र इसको पढ कर लाभ उठा सकता है। प्रारम्भमे ही बतलायागया है कि सम्यक्त्व आत्माकी वास्तविक अवस्या का नाम है, उसी को धर्म कहते हैं । वह सम्यग्दर्शनज्ञान और चारित्र के भेद से तीन भागों में विभक्त होता है। सातवे श्लोक में बतलाया है कि-संसारी प्राणी की अहवा और ममता करना ही उसका पागलपन है, भूल है, खोटापन या बिगाड़ है, इसी को जैनागम में मिथ्यात्व कहा गया है। १९ वे श्लोक मे बतलाया गया है कि जीव जब राग द्वेषमय बनता है वो स्वयमेव पुद्गलवर्गणायें भी उसके लिये कर्मरूप बन जाती हैं। आगे चल कर तीसवें श्लोक मे- सम्यग्दर्शन Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने पर जीव की कैसी धारणा होती है उसको बतलाते हुये लिखा गया है कि- सम्यग्दष्टिजीव ऐसा विश्वास करता है कि मेरी आत्मा इस शरीर मे होकर भी इस शरीर से भिन्न है और सच्चिदानन्दस्वरूप है । ५१ वे श्लोक मे लिखा है कि सम्यग्दृष्टिजीव का - जो जैसा करता है वह वैसा स्वयं भरता है, इस प्रकार का अटल विश्वास होता है । फिर ५२ वे श्लोक मे बतलाया है कि- तत्वार्थ का ठीक ठीक श्रद्धन होना सग्यग्दर्शन, ठीक ठीक जानना सम्यग्ज्ञान और तत्वार्थ के प्रति उपेक्षाभाव होना सो सम्यक् चारित्र है। जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, सम्बर, निर्जरा और मोक्ष इस तरह से तत्व सात होते है । सम्यग्दृष्टि जीव को तत्वो का ठीक श्रद्धान होता है । अतः आत्मा और शरीर को जुदाजुदा देखता है शरीर को जड और आत्मा को ज्ञानमय मानता है । ऐसा ही अपने व्यवहार में लाता है, अतः सात वेदनीय के उदय में हर्ष तथा च श्रसात वेदनीय के उदय में शोक नहीं करता । समताभाव रखता है । उसका प्राणीमात्र के प्रति प्रेमभाव रहता है । और उसकी कषाय बहुत मन्द होती है । इस प्रकार आदरणीय क्षुल्लक जी महाराज ने इस ग्रन्थ में भली भांति स्पष्ट कर दिखाया है । जैन समाज हिसार का पुण्य का उदय था कि श्री चुल्लक जी महाराज ने वीर निर्वाण संम्बत् २४८२ में चतुर्मास हिसार में किया और हिसार समाज की प्रेरणा पर आपने इस प्रन्थ को लिख कर प्रकाशित करने की अनुमति प्रदान की, इस अहोभाग्य समझती है। देवकुमार जैन सम्पादक - मातृभूमि, हिसार के लिये यहां की जैनसमाज अपना 'महावीरप्रसाद जैन एडवोकेट Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री वीतरागाय नमः * अथ समक्त्व सार शतकं - - सम्यक्त्व सूर्योदय भूम्टतेऽह मधिश्रितोऽस्मिप्रणतिसदेह । यतः प्रलीयेत तमोविधात्री भयङ्करासाजगतोऽथरात्रिः ॥१॥ अर्थात्- सम्यक्त्य रूप सूर्य का जहां पर उदय होता है उस उदयाचल पर्वत के लिये मैं (पं० भूरामल) हर समय प्रणाम करने को तत्पर हूँ। जिस सम्यक्त्व के उदय होने से अन्धकार को फैलाने वाली और डर उत्पन्न करने वाली वह मिथ्यात्वरूप रात्रि इस दुनियां पर से यानी प्राणिमात्र के दिल पर से विलकुल विलीन हो जाती है। __यहां पर सम्यक्त्व को सूर्य और जिस आत्मा में वह प्रगट होता है उसे पर्वत बतलाया गया है तथा उस के लिये नमस्कार किया गया है । इस का कारण यह है कि सम्यक्त्व हो जाने पर श्रात्मा में एक प्रकार का अद्भुत सहज प्रकाश प्रगट होता है जिससे यह आत्मा इसके साथ हो रहने वाले अनादि कालीन ढब्यूपन को त्याग कर सहज स्वाभाविक प्रभुत्व Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को प्राप्त कर लेता है । एवं वह इतर सर्व साधारण के लिये नम्रता पूर्वक चल कर पर्वत के समान स्वीकार्य हो लेता है। तथा सूर्य के न होने से अन्धकारमय रात्रि होती है ताकि कोई भी ठीक मार्ग नहीं पाता एवं डरपोक हो कर अकर्मण्य हो रहता है, वैसे ही सम्यक्त्व के न होने से यह संसारी जीव भूल में पड़ कर दिग्भ्रान्त होते हुये भयभीत बन रहा है। हमारे आगम प्रन्यो में भय-इस लोक भय, परलोक भय, वेदना भय, अरक्षा भय, अगुप्ति भय, मरण भय, और अकस्माद्धय के भेद से सात प्रकार का बतलाया गया है । जिसके कि फंदे में यह संसारी जीव फसा हुआ है । परन्तु सम्यक्त्वशाली आत्मा उससे किलकुल रहित होता है वह कैसे सो बताते हैं - संसारी जीव-अपने वर्तमान शरीर को तो इहलोक और आगे प्राप्त होने वाले शरीर को परलोक समझता है अतः वह सोचता है कि यह दृश्यमान इतर सब लोग न मालूम मेरा (इस शरीर का) क्या बिगाड़ करदें ऐसा तो इस लोक का भय इसे बना रहता है। और परलोक में न मालूम क्या होगा इस प्रकार आगे का भय बना रहता है। परन्तु आत्मानुभवी सम्यक्त्वी जीव समझता है कि मेरा लोक तो चेतन्य मात्र है वह तो मेरा मेरे साथ है उस पर किसी का कोई चारा नहीं चल सकता । उसके सिवाय और सब परलोक है उससे वस्तुतः मेरा कोई लेन देन सम्बन्ध नहीं है फिर डर कैसा कुछ भी नहीं । शारीरिक विकार का नाम वेदना है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.) संसारी जीव इस शरीर को आप रूप या अपना मानता है इस लिये इसमें वात पितादि की हीना धिकता से गड़बड़ होती है तो इस जीव को दुःख होता है अतः डरता है परन्तु सम्यक्त्वी जीव तो आत्मा को शरीर से बिलकुल भिन्न अनुभव करता है | अतः शरीर के विगाड़ में उसका कोई भी बिगाड़ नही फिर उसे डर ही क्या कुछ नहीं। मोही जीव धन, मकान वगेरह को छापने मान कर उन्हें बनाये रखना चाहता है शोचता है कि इन्हे कोई चौर, लुटेरा लेजायगा तो मैं क्या करूंगा, उससे मैं इन्हे कैसे बचा सकूंगा, मेरी खुद की तो इतनी शक्ति नहीं है और दूसरा मेरा कोई सहायक नहीं है जो कि मेरी रक्षा करे एवं ऐसा कोई गुप्त स्थान भी नही है जहां पर कि मैं इन्हें छुपा कर रक्खू इत्यादि । किन्तु निर्मोही वैराग्यशाली जीव के विचार मे सिवाय आत्मज्ञान के उसका और कुछ होता ही नही, ज्ञानको कोई चुरा नही सकता है न कोई उसका कुछ विगाड़ कर सकता है बल्कि उसकी आत्मा मं तो दूसरा कोई कभी प्रवेश ही नही कर सकता फिर उसे डर कैसा | संसारी जीव अपने शरीर की उपज को अपना जन्म और उसके नाश को अपना मरण मानता है जो कि श्रवश्यंभावी है अतः हर समय भयभीत बना रहता है । किन्तु निर्मोही जीव के अनुभव में तो उसकी आत्मा अजर अमर है उसका कभी मरण हो नही सकता वह तो सदा स्वयं जीवनमय है अतः उसे मरण का भय भी क्यों हो । अज्ञानी Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारी प्राणी को अकारण अनोखी नई चीज के पैदा होने का चानचक भय हुआ करता है वह सोचता रहता है कि न जाने किस समय क्या कोई नया बबाल खड़ा हो जाये ताकि मुझे कष्ट मे पड़ना पड़े, किन्तु ज्ञानी वैराग्यशाली के ज्ञान मे वे बुनियादी नई चीज न तो कोई कभी हुई और न हो ही सकती है जो कुछ होता है वह अपने सहायक कारण क्लाप को लेकर उपादान के अनुसार हुया करता है ज्ञान का काम जो कि सबको जाना करता है, सिर्फ उसे जानने का है उससे उस का कोई भी विगाड़ सुधार नहीं है । इस प्रकार जो समझदार है जिसके अन्तरंग में सञ्चा प्रकाश है उसे इस भूतल पर किसी भी तरह का कोई भी डर नही वह निर्भय हो रहता है। किन्तु जो अज्ञानी है भूल खा रहा है उसके लिये डर ही डर है जैसी कि लोकोक्ति भी है शोकस्थान सस्राणि भयस्थान ज्ञतानि च । दिवसे दियसे मूढ़ माविश्यन्ति न पण्डितं ॥२॥ अतः उस सम्यक्त्व रत्न का आदर करना ही स्वहितपी का कार्य है इस लिए रस सम्यक्त्व का ही हम आगे वर्णन करते हैंसम्यक्त्वमेवानुवदामि ताद्विपत्पयोधेस्तरणाय नाव: समं समन्तादुपयोगि एतदस्मादृशां साहजिकश्रियऽतः । ___अर्थात्- सम्यक्त्व जो है वही इस विपत्तियो के समुद्र संसार से तेर कर के पार होजाने के लिये नौका के समान है Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) - - - - - समय अकेले अर्जुन के पास उर्वसी (इन्द्र अप्सरा) सोलह सिंगार करके गई थी तो अर्जुन ने पूछा- हे माता अर्धरात्रि समय यहां आनेका क्या कारण हुवा, उर्वसी ने कहा- हेवीर तुमसे तुम्हारे जैसा पुत्र लेने आई हूँ । तव अर्जुन ने उसको नानाप्रकार से समझाकर उसके पैरों में मस्तक टेक दिया और नम्रभाव से बोला-हे माता जी मुझ कुन्तीपुत्र को अपना स्वधर्म का पुत्र समझलो । हे श्रोतागणों ! फिर वहां से वह उर्वसी लज्जित होकर चली गई । हे देवी देवतावो आपलोगो के लिये क्या यह प्रत्यक्षप्रमाण नहीं है, हां मौजूद है जब कि तुम श्रेष्ठ शरीरधारी सच्चे सन्त गुरुवों के पास जावांगे वो वह आपका विषयवासनाओं से मन हटा देंगे। सतगुरु वैद्य वचन विश्वासा। मंयम यह न विपय की श्राशा ।। अर्थात- सत् गुरु रूपी वैद्य के वचनो में पूर्ण विश्वास जो कर लेते है उनकी विषय वासनावो का परित्याग कराकर के जन्म मरण के चक्कर से छुड़ा देते हैं। सचिव वैद्य गुरु तीन जो-प्रिय वोलें भय आस । राजधर्म तन तीन कर-होय वेगही नास ।। अर्थान्- राजा का मन्त्री वैध और सत् गुरु यह वीनी यदि उनके भय से तथा प्रसन्नता के भय या लाभ की आशा Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) से जैसा वो कहते हैं वैसा ही वो करते हैं तो राजा का राज्य मरीज का शरीर शिष्य का धर्म वेग ही नाश हो जाता है । अतः सत्गुरुदेव और वैद्य, मन्त्री निर्भय बोला करते है अथवा शिक्षा देते हैं। अब मैं आगे सुपुत्र शिक्षा लिख रहा हॅू पिताधर्याः माता स्वर्गी पिता ही परम तयः | पितरि प्रीतिमायन प्रियन्ते सर्व देवताः ॥ अर्थात्- जो पुत्र माता पिता की सेवा अथवा उनकी आज्ञा से ही स्वर्ग प्राप्त करता है इस लिये माता पिता की सेवा करना ही परम तप है जो अपने माता पिता की आज्ञा पालन करता है उससे सम्पूर्ण देवता प्रसन्न रहते है और वह आनन्दपूर्वक क्लेशी से छूट कर यश कीति पाता है । प्रमाण | जैसे भगवान् श्रीराम जी ने अपने माता पिता की आज्ञा पालन की थी उनका नाम यश कीर्ति जब तक सूर्य चांद रहेगे तव तक उनका नाम अमर रहेगा । यह सनातनधर्म है । जैसेभगवान श्रीराम ने अपनी पत्नी सती सीता से शुद्ध प्रेम ही किया था जो कि सारी उमर में एक ही सन्तान को पैदा किया था वैसे ही आपको अपनी पत्नीस शुद्ध प्रम करनेवाले अपनी पत्नी की सदा सम्मति लेने वाले अपनी स्त्री को सदा प्रसन्न रखने वाले अपनी स्त्री को सदा सन्तोष से रखने वाले की की सदा शुद्ध आज्ञा पालन करने वाले अपनी स्त्री को दयाधर्म Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीति विचार पर चलाने वाले अपनी बी को शुद्ध भावना से प्रसन्न करने वाले अपने इप्टदेव के नेत्री में दर्शन करने वाले अपने इष्टदेव को रोम २ मे वसाने वाले अपने सतगुरुदेव को सच्चे दिल से तन, मन, धन, प्राण अर्पण करने वाले चलते फिरते सोते जागते खाते पीते बोलते आदि सब काम करते हुये भी अपने सतगुरुदेव इष्टदेव मे पूर्ण स्थिति रखने वाले दुराचार को मिटाकर सदाचार में दृढ रहने वाले क्योकि यह शरीर बार बार नहीं प्राम होता है पर विचार करो कि इस संसार को वेद शास्त्री ने अनादिकाल से बतलाया है और इसके भोग भी अनादिकाल से चले आरहे हैं और तभी से आपने पति पत्नी बन कर चौरासीलाख योनियों में भोग ही तो भोगे पर विचार करो कि आप पति पत्नी को कभी सन्तोप भी हुवा, आपको इन चौरासी लाख योनियों में सुख शान्ति नहीं मिली तो क्या इस मनुष्ययोनी में मिल सकती है नहीं मिल सकती। प्रेमी पाठको यह मनुष्य योनी केवल भोगो के लिये नहीं मिली यह तो भोगोंको खत्म करने के लिये मिली है। आप विचार करके देखो कि आपके यह भोग विपय खुजली के समान हैं जैसे २ खुजली को खुजावोगे वैसे ही खुजली आपको प्रिय मालूम होगी, परन्तु खुजाते रहने से उसमें कौह (जखम) होजाते हैं फिर बड़ा कप्ट होता है यही आपके विषय भोगने का हाल है। जैसे २ विपय भोगों को भोगते हो दिन रात वैसे ही खुजली की तरह दिन व दिन विपयभोग धढते ही जाते हैं Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - जो कि जखम या कोह खुजली मे पड़जाते है उसी प्रकार विषय भोगने से चौरासीलाख योनियों में महाघोर नरक कुत्ती सूकरी की तरह आना जाना पड़ता है यही जखम दुस्तर है और भी जो विचारे विषय भोग जो हैं वो विष का भी विप है परन्तु विष के खाने से तो मनुष्य को एक ही बार मरना पड़ता है मगर विपय भोगनेसे वार २ जन्म मरण आवागमन के चकरम आना जाना पड़ता है इससे आपको जहांतक होसके विषय और विश्नों का परित्याग करते रहो, जितना २ परित्याग करते रहोगे उतने ही प्रभू सच्चिदानन्द धन परब्रह्म परमात्मा के पास पहुंच जावोगे । अथवा उसको ही प्राप्त करलोगे, क्योंकि प्रभू जो है सो निर्विपय है ऐसे ही आपको भी निर्विपय होना चाहिये कि आपको अखण्ड सुख शान्ति मिल जावेगी और आप इस संसार से छूट कर परमानन्द अमरपद की नित्य प्राप्ति हो जावेगी । फिर आप मेहरवानी करके मेरे इस अनुभव तथा लेखको रोजाना पाठ किया करें अथवा ध्यान किया करे यह गुदरीवाले की वाणी पर विश्वास करना यह मेरी विनती प्रार्थना है स्त्री-पुरुपों से । क्यों कि यह मनुष्य योनि तो भोगो के लिये नही मिलती है यह तो मोगों का खातमा करने के लिये मिलती है सो भी गुरुवो की कृपादृष्टि सत्संग अनुभवी की शरण में जाकरके उस ईश्वर तथा उस परब्रह्म अथवा अपने इष्टदेव की प्राप्ति कर मकते हो और सत्गुरुदेव की शरण भी लेली उनके सत्संग में भी गये परन्तु Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ) उचर- ठीक है द्रव्यता के रूपमे सभी द्रव्य अनाद्यनिधन हैं न तो कोई भी द्रव्य किसी के द्वारा पैदा ही किया हुआ है और न कभी वह नष्ट ही होगा। अतः न तो कोई द्रव्य किसी द्रव्य का कार्य ही है और न कारण ही, क्योंकि कार्य-कारणता पर्याय दृष्टि में होती है । हरेक द्रव्य में उस गुण की पूर्वपर्याय का नाश और उत्तर पर्याय का उत्पाद होता रहता है। पर्याय अर्थपर्याय और व्यञ्जन पर्याय के भेद से दो प्रकार की होती है। प्रतिसमय सूक्ष्म सदृश परिणमन होता रहता है उसका नाम अर्थ पर्याय है वह सहज होती रहती है । परन्तु द्रव्यत्वगुण के परिवर्तन रूप जो व्यञ्जन पर्याय होती है वह पर द्रव्य सापेक्ष ही होती है देखो कि हरेक पुद्गल परमाणु में उमके रूप रस गन्ध और स्पर्श गुण का परिणमन सहज स्वतन्त्र होता रहता है परन्तु वही स्कन्धरूपता में दूसरे परमाणु के संयोग विना नही आता । मतलब भिन्न भिन्न दो परमाणुवों में जो स्कन्धपना आता है वह उनमे परम्पर एक दूसरे के द्वारा ही आता है इसको कौन समझदार स्वीकार नहीं करेगा । दो परमाणु मिल कर जो स्कन्ध बना वह उनकी रक य्यञ्जन पर्याय हुई व्यञ्जनपर्याय को ही कार्य कहते हैं जो कि उपादान और निमित्त विशेप देनों की सहयोगिता से होता है अन्यथा नही होता ऐसा हमारे हरेक आचार्य बतलागये हैं। तथा मोक्षमार्ग-प्रकाश ' के अधिकार दो पृष्ठ ६३ में पं० टोडरमल जी लिखते हैंकि निमित्त न वने तो न पलटे । अर्थात्- निमित्त न होवे वो Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) कार्य नही होता है । तथा ऐसा ही अनुभव में भी आता है । फिर भी जो लोग - निमित्त न मिले तो कार्य नही होता ऐसी मान्यता मिथ्या है, ऐसा कहते हैं उनकी वे ही जाने जैन शासन से तो उनका कोई समर्थन होता नही है । शंका- जैनागम मे लिखा है कि:- क्रमभाविन: पर्यायाः अर्थात् पर्यायें एक के बाद एक क्रमशः होती हैं । जिस गुण की जिस समय जो पर्याय होनी है वही होती है । तब फिर अगर निमित्त न मिले तो वह कार्य (पर्याय) न हो यह कहना कैसे बन सकता है । उत्तर- यह तो ठीक है कि द्रव्य में उस द्रव्य के सभी गुण सदा एक साथ रहने वाले होते हैं परन्तु उसकी सभी पर्याये अथवा उसके एकगुण की भी सभी पर्याये एक साथ नहीं होतीं भिन्न भिन्न काल मे होती हैं क्रमवार उपजती है । किन्तु क्रम भी दो तरह का होता है एक अनुक्रम दूसरा व्यपक्रम । जैसे कि बालकपन के बाद युवापन और युवापन के बाद बृद्धपन चाता है यह तो अनुक्रम हुवा किन्तु जो दान्तों का गिरपड़ना या बालों का सफेद होना वृद्धपन में होता है । वह किसी किसी के कारण विशेष से जवानी में ही हो जाता है और किसी के वृद्ध अवस्था में भी नही होता । वृद्ध अवस्था में होने वाली दृष्टि की मन्दता किसी के जवानी में ही हो जाती है और फिर वृद्ध अवस्था के समय वापिस दिखने लगजाता है यह व्युत्क्रम हुआ करता है। एक रेलगाडी के वीस डब्बे अपनी साधारण Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११ ) - व्यवस्था में एक के बाद एक अनुक्रम से लोहे की पटरी पर ठीक निश्चित रूप में चलते रहते हैं मगर जब सामने से दूसरी गाड़ी आकर टकराती है तो उसका कोई डन्वा आगे वाला पीछे और पीछे वाला आगे हो लेता है एवं काई इवर उधर हो गिर पड़ता है यह सब व्युत्क्रम उस गाडी की टकरावण रूप निमित्त विशेष से ही होता है । एक प्रामके गाछ पर आम दश दिन में पकने वाले होते हैं उन्हीं को तोड़ कर पाल में दे दिये जायें तो वे तीन चार दिन में ही उस पाल की विशेष गरमी से पक कर तैयार हो जाते है ऐसा हमारे आगम मे भी बतलाया है । तथा जो आम पेड पर लगा हुआ है कच्चा है कुछ दिनों में पकने वाला है उस पर एक सर्प ने आकर विप उगल दिया तो वह आम चट पट अपने हरेपन को त्याग कर पीला एवं अपने कठोरपन को उलांघ कर पिलपिला बन जाता है मगर उसका स्वाद जैसा समय पर पकने से होने वाला था वैसा न हो कर कुछ और ही तरह का होता है इस प्रकार का यह व्युत्क्रम निमित्त विशेप से ही होता है।। शंका मान लिया कि द्वीपायन के निमित्त से द्वारिका नष्ट हुई मगर सर्वज्ञ भगवान् श्री नेमिनाथ ने तो बतलादिया था कि अमुक समय पर नष्ट होगी उस समय ही वह नष्ट हुई क्यों कि उस द्वारिकारूप स्कन्ध के पुद्गल परमाणुवोंमे तादृश परिणमन होनेवाला था सोही हुवा उत्तर- श्री नेमिनाथ स्वामी ने जैसे यह बतलाया था कि Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारिका अमुक समय जलेगी वैसे ही यह भी तो बतलाया था जो कि द्वीपायन के द्वारा जलेगी बस तो वह कार्य जैसा श्री नेमिनाथ स्वामी ने कहा था उसी समय हुवा किन्तु हुवा द्वीपायनरूप निमित्त के द्वारा उसके आने से। शा-ठीक निमित्त उपस्थित होता है सही किन्तु कुछ करता नहीं है कार्य तो अपनी उपादान शक्ति से ही होता है जैसे कि ज्ञान होता है वह जानता है किन्तु करता नही वैसे ही हरेक कार्य के समय निमित्त होता है। उत्तर- भैया जी क्या कहते हो जरा शोचो तो सही देखो कि श्री महावीर भगवान् ने ज्ञान को हरेक वस्तु का एवं हरेक कार्य के होने का ज्ञायक कहा है जानने वाला वतलाया है वह जानता है सब चीजों को, कर्ता किसी को भी नही है ठीक है किन्तु निमित्त को दो कारण बतलाया है, कार्य के होने में जैसे कि उपादान कारण होता है वैसे ही निमित्त भी कारण होता है और उन दोनों से ही कार्य बनता है। उपादान तो कार्यरूप में आता है और निमित्त उसे कार्यरूपमे लाता है । अर्थात्-निमित्त विशेष के प्रभाव से उसके दवाव मे आकर ही, उपादान जो है वह कार्यरूपता को स्वीकार करता है यही वस्तु का वस्तुत्व है यही जैन शासन कहता भी है । याद रहे कार्य नाम विकार का है न कि सहज सदृश सूक्ष्म परिणमन का । अब ऐसा न मानकर अगर-निमित्त कारण उपादान में कुछ नहीं करता न वह सहायता मदद ही करता है और न किसी प्रकार का प्रभाव ही Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) डालता है ऐसा मानते हुये सिर्फ उपादान के भरोसे पर ही कार्य होना मान लिया जावे जैसा कि अपनी वस्तु विज्ञानसार कान जी लिखने हैं और जैसा कि तुम समझ रहे हो तो फिर इसमे सबसे बड़ा भारी दोष तो यह था उपस्थित होगा कि यह जो संसार में विचित्रता दीख रही है वह नहीं होनी चाहिए क्योंकि द्रव्यत्वके नाते सभी जीवात्मायें समान हैं सभी अनादिकाल से एक साथ है सबके गुण भी समान है और उन की पर्याय निश्चितक्रम से किसी भी प्रकार के व्युत्क्रम बिना एक अनुक्रम से होती हैं फिर यहां विचित्रता का क्या काम । सब की एकसी दशा सदा काल एक साथ ही होनी चाहिए। यही बात पुद्गल परमाणुवी के बारे मे भी है। सभी पुद्गल परमाणु शाश्वत नित्य हैं पुद्गल द्रव्यत्वेन एकसे ही हैं उन गुण भी स्पर्श रस गन्ध और वर्ण सब एकसे हैं और पर्याये उनकी मवकी ठीक अनुक्रम से ही होती हैं फिर ये अनेक प्रकार के स्कन्धादि क्यों हुये तथा क्यों हो रहे हैं । नहीं होने चाहिये। फिर तो एक ब्रह्म द्वितीयं नास्ति वाली ब्रह्मवादियों की कहावत के समान जैन मत के हिसाब से भी द्वे वस्तुनी तृतीयं नास्ति यह कहावत चरितार्थ होनी चाहिये। फिर यन्ध मोक्ष संयोग वियोग जन्म मरण इसलोक परलोक और पुण्य पापादि की चर्चा पर हड़ताल फेर देनी पड़ेगी । अतः मानना ही चाहिये कि जो भी कार्य होता है वह उपादान और निमित्त कारण इन दोनों के अधीन हुवा करता है। उपादान से तो होता है Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) - - -- - - और निमित्त के द्वारा होता है। निमित्त भिन्न भिन्न प्रकार का होता है अतः कार्य भी अनेक भांति का वनता है यही जैन दर्शन की मान्यता है। शा- जैन दर्शन में दो नय है एक व्यवहार और दूसरा निश्चय नय । सो श्राप जो कुछ कह रहे हैं वह व्यवहार नय का पक्ष है व्यवहार नय में निमित्त जरूर है परन्तु कान जी ने जो कुछ कहा है वह निश्चय नय से बतलाया है निश्चय नय में तो कार्य अपने अपने उपादान से ही होता है क्योंकि निश्चय नय तो स्वाधीनता का वर्णन करने वाला है वह निमित्त की तरफ क्यों ध्यान दे पराधीनता में क्या जावे। उत्तर-निश्चय नय से अगर कहा जावे तो वहां तो प्रथम तो कारण कार्यपन है ही नहीं क्योंकि निश्चय नय तो सामान्य को विषय करने वाला है जहां कि न तो कोई चीज उत्पन्न ही होती है और न नष्ट ही जैसा कि-नासतो विद्ययतेभावो नाभावोविछतसतः । निश्चयाकिन्तु पर्यायनयात्तावपिवस्तुनि ॥१॥ इसमें बतलाया है। हां अगर निश्चय नय विशेष से भी कहा जाये तो वहां कारण कार्यपन माना जरूर है और वहां उपादान को ही कारण माना है निमित्त को नहीं यह भी सही है क्योकि उसकी दृष्टि में निमित्त होता ही नहीं वह न तो अभिन्न को विषय करने वाला है अतः उपादान को ही जानता है जैसा द्रव्य संग्रह में बतलाया है कि निश्चय नय से आत्मा अपने भावों का ही कर्ता है अर्थात् अभिन्न रूप मे उसके भाव उससे ही होते Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - हैं और से नहीं । सो ठीक ही है क्योंकि निमित्त भिन्न चीज है जिसको कि निश्चय नय देखता ही नहीं है। फिर यह कहना कैसा कि निश्चय नय में निमित्त होता तो है जरूर परन्तु कुछ करता नहीं है। निमित्त तो है सो व्यवहार नय का विषय है तो उसकी दृष्टि में वह कार्य का करने वाला भी है। जैसे मान लो हमको स्याही बनानी है तो जिस के पास काजल है वह कहता है कि मेरेपास काजल है लो इससे स्याही बनेगी। दूसरे ने कहा लो मेरे पास वीजावोल है इससे स्याही बनेगी। तीसरे ने कहा लो मेरे पास नीलाथोथा है इससे स्याही बनेगी। चौथे ने कहा लो मेरे पास केले के थम्भ का स्वरस है इससे स्याही बनेगी। पांचवें ने कहा लो मेरे पास में घोटना है सो इस घोटने से स्याही बनेगी। स्याही वन गई अव काजल वाला तो कहता है यह स्याही मेरे काजल से धनी है । वीजावोल वाला कहता है कि यह मेरे वीजावोल से बनी है इत्यादि इसी प्रकार घोटने वाला कहता है कि मेरे घोटने से यह स्याही धनी है सभी अपने अपने कारण से उसे बनी हुई बताते हैं सो ठीक ही है । काजल वाला जो कहता है कि यह स्याही मेरे काजल से बनी है उससे अगर पूछा जावे कि यह काजल से ही धनी है या और कोई चीजसे भी तो इसपर वह कहता है कि मेरे काजल से जरूर वनी है और कुछ मुझे मालूम नहीं यहां तक तो ठीक चात है । मगर यह यदि ऐसा कहे कि इस स्याही में हैं तो वीजावोल वगेरह भी फिर भी उन वीजावोल वगेरह ने कुछ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - भी नहीं किया स्याही तो मेरे काजल ही से बनी है तो ऐसा उसका वहना भूटा ही है। इस पर तो और वीजावोल वगेरह को तो अभी रहने दो बल्कि वह घोटने वाला ही बोल उठेगा कि वाह खूब कहा महाशय जी जरा कहो तो सही कि यह मेरे घोटने के बिना कैसे बन गई मैने सात दिन रात तक अपने घोटने से इसे घोटी है तभी यह बन पाई है मेरा जी जानता है कि मैने इसमे कितनी रगड़ लगाई हैं वरना तो रयाही वन ही जाती मैं देखता कि कैसे बनती है । यह स्याही तो मेरे घोटने से ही बनी है तो इस पर इसे भूटा नहीं कहा जा सकता बस तो इसी प्रकार सभी प्रकार का कार्य उपादान और निमित्त दोनो की समष्टि से बनता है । उसको निश्चय नय उपादान से बना कहता है और व्यवहार नय निमित्त से, सो तो ठीक किन्नु उपादानसे ही कार्य वना है निमित्त होकर भी कुछ नहीं करता यह तो अनभिज्ञता है। कार्य कारण का स्पष्टीकरण-- जो किया जावे वह कार्य कहलाता है और जिस किसीके द्वारा वह कियाजासके उसे कारण कहा जाता है । कारण सम्पादक है और कार्य सम्पादनीय । अब उस कार्य के होने में वह कारण दो तरह का होता है एक उपादान दूसरा निमित्त । जो स्वयं कार्य रूप में परिणत होता है .इसे उपादान कारण कहते हैं जैसे कि घट के लिये मिट्टी या उस मिट्टी की घट से पूर्ववर्ती पर्याय । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) - - - किन्तु जो खुद कार्यरूप न होकर कार्य के होने में सहकारी हो उसे निमित्त कारण कहते है । जेसे घट के लिए कुम्भकार'चाक दण्ड वगेरह । वह निमित्त कारण दो तरह का होता है। एक प्रेरक और दूसरा उदासीन । प्ररक कारण भी दो तरह का होता है एक तो गतिशील सचेप्ट और इच्छावान् जैसे घटके लिये कुम्भकार इसी को व्यावहारिक कर्ता भी कहते हैं । दूसरा सचेष्ट किन्तु निरीह प्रेरक निमित्त होता है जैसे कि घड़े के लिये चाक । उदासीन निमित्त वह कहलाता है जो निरीह भी होता है और निश्च प्ट भी जैसे कि घट के लिये चाक के नीचे होने वाला शंकु जिसके कि सहारे पर चाक घूमता है । समर्थकारण- उपादान और निमित्तो की समष्टि का नाम है जिसके कि होने पर उत्तरक्षण में कार्य सम्पन्न हो ही जाता है । उन्ही के भिन्न भिन्न रूप में यत्र तत्र हो रहनेको असमर्थ कारण कहा जाता है अर्थात्- वे सब कारण हो कर भी उस दशा मे कार्य करने को समर्थ नहीं होते हैं। हरेक कार्य अपने उपानान के द्वारा उपादेय अर्थात्- अभिन्नरूप से परिणमनीय होता है तो निमित्त से नैमित्तिक अर्थात्- मिन्न रूप से सम्पादनीय । क्योंकि उपकिलामिन्नत्वेनाऽऽदानं धारणमधिकरणं तदुपादान अर्थात्- उप यह उपसर्ग है जिसका अर्थ होता है अभिन्नरूप मे एकमक रूप से जैसा कि उपयोग शब्द में होता है उपयोग यानी ज्ञान दर्शन जो कि आत्मा से एकमेक होकर रहता है वैसे ही यहांपर वादात्म्य समझना । आदान का अर्थ है धारण Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) करना अधिकरण या आधार एवं अभिन्न रूप से एकमेक होते हुये जो प्राप्त करने वाला हो वह उपादान होता है । नियमेनमीयतेऽङ्गीक्रियते तन्निमित्तं सहायकं वस्तु । यानी निमित्त का अर्थ होता है सहायक सहयोग देनेवाला मददगार और जहां मदद की जाती है उसको नैमित्तिक कहते हैं । निमित्त नैमित्तिकता भिन्न द्रव्यों में हुवा करती है सो यहां पर कार्माण स्कन्ध निमित्त है और आत्मा नैमित्तिक । वह कार्मारणसमूह उदासीन निमित्त है जैसे कि सूर्य कमल के लिये अर्थात्- सूर्य का उदय कमल को जबरन नही खोलता परन्तु उसका निमित्त पाकर कमल खुद ही खुल उठता है वैसे ही यह संसारी आत्मा कर्मोदय के निमित्त से विकृत हो रहा है। वह विकार क्या सो बताते हैं दुग्घे घृतस्यैवतदन्यथात्वं सम्बिद्धि सिद्धिप्रिय मोहदात्वं इहात्मनः कमणि संस्थितस्य सूपायतः सादि तथात्वमस्य ॥७ अर्थात् सिद्धि के स्वामी होने वाले हे आत्मन् यदि तू हृदय से विचार कर देखे तो तुझे समझ मे आजावेगा कि इन कर्मों में मूर्छित हो कर रहने वाले तेरा वह अन्यथापना अनादिकालीन ऐसा है जैसा कि दुग्धमे हो रहने वाले घृतका मतलब यह कि घृत का स्वभाव ठण्डक में ठिरजाने का और गरमी से पिघलाने का तथा कपड़े बगेरह के लगजावे तो उसे चिकना बना देने का किंवा यों कहो कि दीपक की बत्ती में Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६ ) - होकर उजेला करने का है जो कि घृत सुरूसे ही दूध तन्मय हो छिपरहा है इस लिये उस अपने स्वभावको खोये हुये है वैसे ही आत्मा का भी स्वभाव विश्वरतताशान्तता और विश्वप्रकाशकता है परन्तु अनादिकाल से कर्मों में घिर कर मूर्छित हो रहा है। अतः इसका वह सहजभाव लुप्त हो रहा है पलटा बन रहा है और का और होगया हुआ है अविश्वस्तता, उत्क्रान्तता और अनभिज्ञता के रूपमे परिणत हो रहा हुआ है । हां दूध में रह कर भी धृत की निग्धता अपना किश्चित् सुटीकरण लिये हुये रहती है उसके आश्रय से घृतको पहिचान कर रई वगेरह के द्वारा विलोडन कर के दूध मे से निकाल कर फिर उसे अग्नि पर सपा छान कर उसे छछेडू से भी मिन्न करके शुद्धधृत कर लिया जाता है वैसे ही कर्मों में सने हुये इस आत्मा का भी सिर्फ ज्ञान गुण अपना थोड़ासा प्रकाश दिखला रहा है उसे वीज रूप मान कर सद्विचार रूपरई के द्वारा इस शरीर से मिन्न छांट कर तथा निरीहतारूप अग्नि में तपा कर उसमें से राग द्वेषरूप अछेडूको भी दूर हटा कर इस आल्माको भी शुद्ध वनालिया जा सकता है जो कि शुद्धत्व,सादि और अनन्त है अर्थात्- पूर्ण शुद्ध होलेने पर आत्मा फिर वापिस अशुद्ध नही होता है जैसे कि मक्खन का धृत बना लेने के बाद वह फिर मक्खन नहीं बन सकता । शङ्का-आपने जो कहा कि अशुद्धता अनादि से है और शुद्धता सादि सो समझ में नहीं आई हम वो समझते Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) हैं कि जैसे सूर्यको बादल ढकलेते हैं वैसे ही आत्मा या आत्मा के गुणों को कर्मों ने ढ़क रक्खा है अतः शुद्धताकी तली में शुद्धता और मिथ्यात्वकी तली में मम्यक्त्व छिपा हुवा हैं उत्तर- तुम समझ रहे हो ऐसा नहीं है क्यों कि शुद्ध अमूर्तिक आत्मा, मूर्तिक कर्मों के द्वारा कभी ढका नही जा सकता किन्तु संसारी आत्मा एक प्रकारसे फटे दूधके समान है । जैसे कांजी के मेल से दूध फट जाया करता है वैसे ही कर्मों के सम्बन्ध से आत्मा खुद विगड़ी हुई है । विकार में निर्विकारपन नही रह सकता, फूटावर्तन समूचा नही कहाता ऐसा समझना चाहिये । शङ्का - फुटे वर्तन के समान न मानकर संसारी श्रात्मा को उलटे वर्तन के समान और शुद्धात्मा को सुलटे वर्तन सरीखा कहा जाय तो क्या हानि है क्योंकि मिथ्यत्व का अर्थ भी उलटापन तथा सम्यक्त्व का अर्थ सुलटापन है । उत्तर --- तुम्हारे कहने मे तो अकेला वर्तन ही तो उलटा तथा वह अकेला ही सुलटा भी हो रहता है परन्तु श्रात्मा का हाल ऐसा नही है इसके साथ में तो कर्मों का मेल है ताकि आत्मा उलटा नही किन्तु बिगड़ रहा है खोटा हो रहा है । मिथ्यत्व का तथा सम्यक्त्व का अर्थ भी उलटापन तथा सुलटापन नही अपितु खोटापन एवं खरापन समझना चाहिये । अथवातु चूक और सूझ भी लिया जा सकता है और उसके विषय में हम एक उदाहरण देते है ! देखो एक रोज एक आदमी घोड़े पर चढ़ कर जङ्गल मे गया वहां जा कर घोड़े को तो चरने के Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिये छोड़ दिया और आप किसी गाछ के नीचे आराम करने लगा। थोड़ी देर में बड़ी जोर की आन्धी चलने लगी और सांझ होगई इसी बीच में वह घोडा चरते चरते दूर चला गया उसके बदले वहां पर एक गधा आकर चरने लगा अब जब वह मुसाफिर वापिस घरको चलने के लिये उठा तो उस गधे पर चढ़ कर चल दिया अन्धेरी रात मे रास्ता भूळ गया अपने घरके भरोसे किसी सरायमे घुसा । अब उस गधेको तो अपना घोड़ा,सराय को अपना घर मान रहा है उसीके झाड़ने पोछने और साफ करने में लग रहा है । यह मेरा घोड़ा बड़ाचुस्त तेज चलने वाला है, यह मेरा घर भी पका अच्छा बना हुआ है। इस तरह विचारता है सो क्या वह उसका घोड़ा और घर है क्या ? किन्तु नही है । तो क्या उसमे उसका घोड़ा और घर कहीं छुपा हुवा है ? सो भी नही। और न वहां पर उलटापन ही है अर्थात्- एलटकर उपर का नीचे तथा नीचे का भाग उपर होगया हुवा हो सो बात भी नही है वहां तो और का और ही है गधे को घोड़ा और सराय को घर कहा जारहा है वस तो यही संसारी आत्मा का हाल है सो बताते है - वस्तु द्वयं मूलतयाऽत्रमाति यच्चेतनाचेतननामजाति । आद्योऽयमात्मा खलु . जीवनामास्वभावतो विश्वविदेकधामा ८॥ अर्थात्- इस दुनियां में मूलरूप से दो तरह की वस्तु Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) हैं एक चेतन दूसरी अचेतन । यह हमारी आत्मा जिसको जीव भी कहते हैं वह तो चेतन है जो कि अपने सहज भाव पर आजावे तो विश्वभर की सभी चीजो को एक साथ देखने जानने वाला बन जावे परन्तु अपने आपे से गिरा हुवा है इस लिये इसकी यह दशा हो रही है । परः पुनः पञ्चविधः सधर्मा-धर्मो विहायः परिवर्तनर्मा शेषः स्वयंदृश्यतयाऽनुलोमीजीवादयोऽन्येनहिरूपिणोऽमी || अर्थात् - दूसरा पदार्थ अचेतन जो देख जान नही सकता वह पांच प्रकार का है। धर्म १ अधर्म २ श्राकाश ३ काल ४ और पुद्गल ५ इस तरह से अचेतन पदार्थों में से अन्त का पुद्गल नामा पदार्थतो दृश्यता यानी रूप और उसके साथ रहने वाले रस गन्ध एवं स्पर्श नामक गुणोंका धारक मूर्तिक है बाकी के चारों, रूपादि रहित अमूर्तिक हैं जीव भी रूपादि रहित अमूर्तिक है । किन्तु याद रहे कि जीव का यह मूर्तिकपन संसारातीत शुद्ध दशा मे होता है संसारावस्था में तो कर्मों के साथ एकमेक हो रहने के कारण मूर्तिक ही है जैसे कि - तिल के साथ मे रहने वाला तेल अपने पतलेपन से रहित घनरूप हो कर रहता है ऐसा जैनशासन में बतलाया है देखो श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत समयसार की गाथा नं० ५६ में ववहारेण दुएढ़ेजीवस्सहवन्ति वरणमादीया ऐसा लिखा हुवा है फिर भी वह छद्मस्थोके दृष्टिगोचर होने Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ । योग्य स्थूलता में कभी नहीं पाता क्योंकि इसके साथ में लगे हुये कर्मस्कन्ध भी सूक्ष्म ही होते हैं। अस्तु । अब छहों द्रव्यों की अपनी अपनी संख्या क्या है सो बताते हैंधर्मोऽप्यधर्मोनम एकमेव कालाणवोऽसंख्यतयासुदेवः भो पाठका ज्ञानघरा अनन्ता दृश्याणवोऽनन्वतयाप्यनन्ताः अर्थात्-गमनशील जीव और पुद्गल को मछली को जल की भांति गमन करने में सहायक हो उसे धर्म द्रव्य कहते हैं यह एक है और असंख्यात प्रदेशी है और तमामलोका काश में फैला हुवा है । स्थानशील जीव और पुद्गल को जो ठहरने में सहायक हो जैसे कि पथिक को छाया अथवा रेलगाड़ी को स्टेशन सो वह अधर्म द्रव्य है यह भी एक द्रव्य है असंख्यात प्रदेशी है और तमाम लोक में फैला हुवा है। शङ्का-जव कि चलने की और ठहरने की शक्ति जीव द्रव्य में या पुद्गल द्रव्य में है तो वह अपनी शक्ति से ही चलता हैं वा ठहरता है। धर्मद्रव्य या अधर्मद्रव्य उसमे क्या करते हैं। उत्तर- ठीक है चलने की शक्ति वो' जीव द्रव्य की है मगर धर्म द्रव्य के निमित्त से वह चल सकता है ऐसा जैन सिद्धान्त है जैसा कि वल्वार्थ सूत्र नामक महाशास्त्र में- उर्द्धगच्छत्यालोकान्तान् यानी मुक्ति होते समयमें जीव लोक के अन्तपर्यन्त 'नियम से उपर को चला जाता है यह बात सही है किन्तु यह आगे क्यों नही जाता इस प्रकार की शंका इसमें आधमकती Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) है उसके उत्तरमे आचार्य श्री ने बतलाया है कि-धर्मास्तिाकायाभावात् अर्थात्- अलोका काश में गमन करने के लिये निमित्त भूत धर्म द्रव्य का अभाव है इस लिये नही जाता । श्री तत्वार्थ सूत्र जी के इस कथन से द्रव्यका स्वातन्त्र्य और निमित्ताधीनता ये दोनो वाते स्पष्ट हो जाती है क्यों कि जीव की अपनी शक्ति का कोई उपयोग न हो । सिर्फ धर्म द्रव्य की सहायता से ही गमन होता हो तो फिर धर्म द्रव्य तो तमाम लोक मे नीचे और इधर उधर भी है किन्तु मुक्त जीव इधर उधर न जाकर उपर को ही जाता है क्यों कि वह स्वभावाधीन है.। अपने उर्द्धगमन स्वभाव के कारण उपर को ही जाता है यह तो है जीव द्रव्य की गमनविषयक स्वतन्त्रता परन्तु गमन करता है धर्म द्रव्याधीन हो कर । जहां धर्म द्रव्य नही वहां गमन नही होसकता । जैसे रेलगाड़ी चलती है अपनी शक्ति से किन्तु पटरी न हो तो नहीं चल सकती यह हुई निमित्ताधीनता और इसी का नाम सहायता है। अगर ऐसा न हो तो फिर धर्म द्रव्य के मानने की जरूरत ही क्या है ? कुछ भी नही। किन्तु जैन धर्म कहता है कि धर्म द्रव्य और अधर्मद्रव्य हैं जो कि जीव और पुद्गल को चलने और ठहरने में मदद करते हैं । अधर्म द्रव्य न हो तो उनका चलते चलते ठहरना नही हो सकवा और धर्म द्रव्य न हो तो उनका चलना । यदि स्वभाव ही से चलना अभीष्ट होता हो फिर धर्मास्तिकायाभावात् यह सूत्र न कह कर उसके स्थान पर तथास्वभावात् Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) - यानी लोकाकाश के अन्त तक ही गमन करने का उससे उपर नहीं जाने का ही स्वयं जीव का स्वभाव है ऐसा सूत्र बनाया जा सकता था किन्तु जीवादि पढार्थ का परिणमन कथांचित् स्वतन्त्र होता है तो कथाचित् परतन्त्र भी। यानी वह परिणमन दो प्रकार का होता है एक तो अर्थ पर्यायरूप सदृश परिणमन दूसरा व्यखन पर्यायरूप विसरश परिणमन । सो अगुरु लघु गुणाधीन सदृश परिणमन-सूक्ष्म परिणमन तो निरंतर सहज होता रहता है किन्तु प्रदेशवत्व गुण के विकार रूप विसदृश परिणमन होता है वह निमित्त सापेक्ष ही होता है । एवं जीव और पुद्गल का गमन रूप परिणमने धर्म द्रव्य को निमित्त लेकर उसकी सहायता से और स्थानरूप परिणमन अधर्म द्रव्य को निमित्त लेकर उसकी सहायता से होता है ऐसा कहना ठीक ही है। __ जो सब चीजो को जगह देता है वह आकाश द्रव्य कहः लाता है जोकि अनन्त प्रदेशी सर्व व्यापी एक द्रव्य है । जितने आकाशमे सब द्रव्य पाये जाते हैं उतने आकाश को लोक कहते हैं और उससे बाहर जो सिर्फ आकाश है उसको अलोक कहा जाता है । जो सब इन्या को परिवर्तन करने में सहायक हो उसे काल द्रव्य वरते हैं वह इस लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों में एक एक प्रदेश में एक एक अणु के रूप मे भिन्न भिन्न स्थित है । जीव द्रव्य अनन्त हैं सो भिन्न भिन्न एकैक जीव लोकाकाश के जितने प्रदेशों वाला असंख्यात प्रदेशी है मगर Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) - दीपक के प्रकाश की भांति संकोच विस्तार शक्ति को लिये हुये है अतः जितना बडा शरीर पाता है उसी प्रमाण होकर रहता है। मुक्तदशा में अपने अन्तिम शरीर के आकार,उससे कुछ न्यूनदशा में रहता है । पुद्गल द्रव्य भिन्न भिन्न अणुरूप अनन्तानन्त हैं जो पुद्गलाणु अपने सिग्ध और रूक्षगुण की विशेषता से एक दूसरे से मिल कर स्कन्धरूप हो जाते हैं इस अपेक्षा से पुद्गल द्रव्य भी बहुप्रदेशी ठहरता है । अतः एक काल द्रव्य को छोड कर शेष पांच द्रव्य अस्तिकाय कहे जाते है। जीवाश्च केचिवणवः स्वतन्त्राः केचित सम्मेलनतोऽन्यतत्राः कौमारमेके गृहितांचकेऽपि नराश्चदारा अनुयान्तितेऽपि ॥११॥ ___ अर्थात्-उपर्युक्त छह द्रव्योंमे से धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य तो सदासे स्वतन्त्र है इनका द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इनके आधीन है किन्तु जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य स्वतन्त्र भी होते है और परतन्त्र भी । जब कि एकाकी होते हैं तो स्वतन्त्र किन्तु दूसरे द्रव्य के मेलसे इनका परिणमन परतन्त्र भी होता है। जैसे कि आदमी तथा औरतों में से कितने ही मरद कुवारे और कितनी ही औरते कुवारी रहती है बाकी के मरद तथा औरत एक दूसरे के साथ अपना साठी सम्बन्ध करके गृहस्थ बनते है तो उनका रहन सहन परस्पर एक दूसरे के आधीन होता है । एवं उनमें एक प्रकार की विलक्षणता आजाती है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) शश-क्या विलक्षणता होजाती है क्या वे नर-मादा नही रहते उत्तर-रहते तो नर-मादा के नर मादा ही हैं फिर भी उनमें अकेले में जो बात थी वह फिर नहीं रहती देखो कि विशल्या में ब्रह्मचारिणी की अवस्था में जो सर्वरोग हरण शक्ति थी लक्ष्मणके साथ विवाह हो जाने पर उसमें वह शक्ति नही रही वैसे ही पर द्रव्य के साथ संयोग विशेष होने पर द्रव्य में स्वाभाविकता नही रहती देखो किधर्मोऽप्यधर्मोऽपि नभश्चकालः स्वाभाविकार्थक्रिययोक्तचाल: जीवस्तथा पुद्गल इत्युदारं परिवद्विक्रिययापिचारं ॥१२॥ अर्थात्-धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश और काल ये चारों द्रव्य किसी के साथ अपना कोई प्रकार का नाता नही जोड़ते अतः ये सब ठीक एकअपनी उसी सहज चालसे परिणमन करते रहते हैं परन्तु जीव और पुद्गल इन दोनों की ऐसी बात नही है। ये जव एक दूसरे के साथ सम्मिलन को प्राप्त होते हैं तो एक और एक ग्यारह वाली कहावत को चरितार्थ करते हुये उदारता दिखलाते हैं यानी अपनी सहज स्वाभाविक हालत से दूर रहते हुये विकार से युक्त होते हैं। एक सो नेक किन्तु मेल में खेल होता हे दो चीजों के मेल में विकार आये बिना नही रहता । अपने सहज क्रमवद्ध परिणमन के स्थान पर व्युत्क्रमको ही अपनाना पड़ता है जैसे अकेला पथिक अपनी ठीक चालसे चलता है किन्तु वही जब दूसरे के साथ होता है वो दोनों को Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) अपनी चाल मिलानी पडती है तो साथ निभता है एवं विचित्रता आ जाती है देखो कि पुद्गलाणु से पुद्गलाणु का मेल होने पर अपनी परम सूक्ष्मता को उलांघ कर स्वन्ध बनते हुये उन्हें स्थूलताकी सड़कपर आजाना पड़ता है । अ र पुद्गल का सम्बन्ध जब कि जीव के साथ होता है तो पुद्गल को शरीर एवं जीव को उसका शरीरी हो कर रहना पड़ता है । एकोऽन्यतः सम्मिलतीतियाबद्व भाविकी शक्तिरुदेतिवाद तयोरथैकाकितयाऽन्वयेतु शक्तिः पुनः साखलुमौनमेतु । १३ । अर्थात् जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य इन दोनोंमे एक वैभाविकी नाम शक्ति है दूसरे से मिलने पर उसके प्रभावको आप स्वीकार करना एवं अपना प्रभाव उस पर दिखाना यही 1 उसका लक्षण है जो कि एकका दूसरे के साथ सम्बन्ध बना रहता है तब तक तो अपना कार्य करती है दोनों पृथक् पृथक् होने पर वह चुप हो बैठती है पेन्सिन पायन्दा कर्मचारी के समान वेकार हो लेती है। जैसे श्राकाश में जगह देने का गुण है किन्तु लोकाकाश में जब कोई द्रव्य ही दूसरा नही तो किसे जगह दे अतः उसका कार्य वहां पर गौण है वैसे ही वैभाविकी शक्ति भी दूसरे से सम्बन्ध होने पर अपना कार्य करती है वरना वह चुप रहती है। हमारी सरकार में दो प्रकार के कर्म कर है एक तो मदा कार्य करने वाले और दूसरे आवश्यकता पर अपना कार्य दिखलाने वाले वैसे ही वरतुमें भी Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) - - - - दो तरह की शक्तियां होती है एक तो सुटा दूसरी विस्फुटा। सुटा शक्ति का कार्य निरन्तर चालू रहता है किन्तु विस्फुटाशक्ति अपने समय पर काम करती है जैसे आत्मा की चेतना शकि हर समय अपना कार्य करती रहती है परन्तु आत्मा ही की जो क्रियावती शक्ति है स्थान से स्थानान्तर होने रूप जो वाकत है यह सिद्ध अवस्था में सिद्धालय मे जाकर विराजमान हाजाने के बाद में अपना कार्य नहीं करती से हो वैभाविको शक्ति भी है। दूसरे के साथ मेल होने में उसका कार्य चालू होता है । अस्तु । पुद्गल के साथ में आत्मा का सम्बन्ध होने से क्या बात हो रही है सो बताते हैंअदृश्यभावेन निजस्यजन्तु दृश्ये शरीरे निजवेदनन्तु । दधत्तदुद्योतनकेऽनुरज्य विरज्यतेऽन्यत्रधियाविभज्य । १४ अर्थात्- इश्यनाम दीखने या देखने योग्य तथा दिखलाने योग्य का है दुनियां की सारी चीजे दृश्य हैं और आत्मा अदृश्य है । आत्मा हप्टा है देखने वाला है और सब चीज उसके द्वारा देखने लायक हैं । अथवा प्रात्मा तो दर्शक है दिसलानेवाला है और यह सब ठाठ दृश्य ।मतलब आल्मा एक प्रकारसे नटवा है स्वागी है और यह संसार नाटक घर, जिसमें नाना प्रकारके स्वान भरकर यह वाडी नृत्य करताहै। रंगस्थल में स्वांग भरकर नाचने वाला जैसा स्वांग लिये नाचता है तो भोला बालक उसमे छुपे व्यक्ति को नही पहिचान कर राजा के Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) स्वांग में उसे राजा और रङ्क के स्वांग में उसे रद्द मानता है बैसे ही यह दुनियांदारी का प्राणी उस शरीरधारी को उस शरीरमय ही मानता है, आत्मा अदृश्य होनेसे उस तक इसका विचार नही पहुचता । अथवा यो समझो कि नाटकस्थल मे उस नाटक का अधिपति किसी को राजा का स्वांग भरादेवे तो वहबड़ा खुश होवे कि देखो मैराजा बनगया और निर्वाचन समाप्त होने पर थोड़ी देर मे उसके उस स्वांग को वापिस उतारने लगे तो वह रोने लगे कि हाय मैं राजा बन गय था सो अब राजा से रंक बनाया जारहा हू तो यह उसकी भूल है वैसे ही यह संसारी जीव कर्मोदय से प्राप्त हुये अपने शरीर को ही अपना रूप मान रहा है अतः इसकी बुद्धि में इस शरीर के लिये अनुकूल साधन है उनको देखकर तो राजी होता है उन्हे बनाये रखना चाहता है एवं शरीर के प्रतिकूल पड़नेवाली बातों से द्वेष करके उनसे दूर भागता है । स्वादिष्ट पौष्टिक पदार्थ खाना चाहता है मिलजावे तो अपने को भाग्यशाली समझता है । रूखी सूकी जोकी रोटी मिली तो देख कर रोने लगता है । मखमल के गद्दे पर लेट लगा कर खुश होता है कंकरीली जमीनपर बैठ नेमे कष्ट अनुभव करता है । सुगन्धित तैल को बड़े चाव से शरीर पर मलता है मगर मिट्टी के तैल को छूने से ही डरता है । जिनसे शरीर श्रारामशील बने ऐसी बातों के सुनने मे तल्लीन रहकर उनके सुनाने शिखाने वाले को मित्र मान कर उसे देख कर ही प्रसन्न होता है, उपवास Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वगेरह श्रमशील बातों को सुनकर ही घबराता है और ऐसा करने के लिये कहने वाले को शत्रु समझ रुष्ट होता है। शरीर की उत्पत्ति को अपना जन्म मान कर अगर काई पूछता है कि तुम कितने बड़े हो तो कहता है कि मैं पञ्चीस वर्ष का होगया हूँ एव शरीर के नाशको ही अपना मरण मानकर उसका नाम सुनते ही भयभीत होता है इत्यादि रूपसे अपने विचार मे शरीरमय हो रहा है कदापि माणिक्य मिवामिभर्म सत्सङ्गत खलुयानि नर्म उदेतिचैतत्पयसोऽस्तुमस्तु यतोविकृत्याधूियतेऽत्रवस्तु ॥१५॥ अर्थात्-कभी कभी ऐसा भी विचार आता है कि अहो खाना पीना सोना उठना इत्यादि कार्य तो समी करते है मैंने भी ऐसा किया तो क्या किया मुझे कुछ भलाई का कार्य भी करना चाहिये ताकि सत्संग में आजाने से सुवर्ण के साथ में लगे हुये माणिक्य के समान मेरी दुनियां में शोभा हो जाये। सन्त महन्तों के कहने से यह भी समझा कि आत्मा से शरीर भिन्न है जड है विनाशीक है आत्मा इससे भिन्न प्रकार है अतः इस शरीर से कुछ परोपकार करलू' यह नर शरीर जो दुर्लभता से प्राप्त हुन्छा है उसे बेकार न खोऊ इस प्रकार अशुभमाव को छोड़ कर शुभ भाव पर भी आया परन्तु अन्तरंग में शरीर के साथ लगाव बना ही रहा यहां तक नहीं पहुंचपाया कि वस्तुतः कौन किसी का क्या कर सकता है । भगवान् ऋषभदेव की Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) - - बाणी मे सदुपदेश हुआ जिसे सुनकर कच्छादि राजालोग तो अपनी पात्रता के अनुसार उलटे से सीधे रास्ते पर आगये फिर भी उन्हीं ऋषभदेव भगवान् का पोता मारीच उसी दिव्य ध्वनि को सुन कर प्रत्युत उलटे मार्ग पर चलने लगा । एवं किसीका सम्बन्ध भी किसीके साथ क्या चीज है देखो कि एक जंगल मे चार तरफ से चार मुसाफिर भिन्न भिन्न घरके आमिले सो यावज्जगल मे रहे तब तक एक दूसरे को अपना साथी कहते है जंगल से पार हुये कि सब भिन्न भिन्न होकर अपने अपने घर में जाघुसते है । बस तो इसी प्रकार परस्पर कुटुम्ब का वा एक दूसरे पदार्थ का भी संयोग है जो कि अताविक या क्षणिक है । इस मेरे कहलाने वाले शरीर का भी मेरे साथ वैसा ही सम्बन्ध है जब तक है तब तक है अन्त में तो यह अपने रास्ते और मै मेरे रास्ते जाने वाला हूँ फिर मैं क्यों इस उलझन म पडू कि शरीर मेरा है । नहीं मै तो मैं ही मेरा हूँ एकाकी हूं । इस प्रकार के निर्द्वन्द्व भाव को जो जीव अपना लेता है, अन्तरंग से स्वीकार कर लेता है वह समता मे आजाता है फिर उसके लिये अपना पराया कोई कुछ नही रहजाता । न कोई मित्र, तोन कीई शत्रु । न कोई सहायक और न कोई कुछ बिगाड़ करने वाला ही वह तो सदा शुद्ध सच्चिदानन्द भावमें मग्न हो रहता है । सहजरूप मे परिणमन शील होलेता है बाकी यह बात उपर्युक्त संसारी जीव में कहां है। वह तो दूध के बने दही के समान विकार को स्वीकार Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) - क्येि हुये है । अपने आपको खो कर और से और बनाहुआ है शरीर को ही आत्मा मान कर अहंकारमे फंसा हुआ होता है। और अगर कही उसे दवा पाया, शरीर और आत्मा को मिन्न भिन्न मी समझ पाया तो भी शरीर को अपना जरूर मानता है अपनी बुद्धि में शरीर के साथ होनेवाले सम्बन्ध का विच्छेद नही कर पाता विलोये गये हुये दही के समान है जैसे कि विलोये हुये दही-मस्तु मेंसे भी उसका मक्खन पृथक् नही हुवा है उसी में पड़ा है वैसे ही यह भी शरीर के स्नेह को लिये हुये है ममता में डूब रहा है समता से विलकुल दूर है यही इसकी भूल है जो कि अनर्थ का मूल है यही नीचे वता रहे हैं - अहन्त्वमेतस्य ममत्वमेतन्मिथ्यात्वनामानुदधचथेतः । अन्धस्यहेतुत्वमुपैत्यष्यो पालम्भिनश्चौर्यमिवानदस्योः । १६॥ अर्थात्- इस संसारी प्राणी की उपर्युक्त हन्ता और ममता करना ही इसका पागलपन है भूल है खोटापन या विगाड़ है इसको हमारी आगम भाषा मे मोह या मिथ्यात्व कहा है । अथवा यों कहो कि शरीरादिको मे अहंकार ममकार लिये हुये है, परवस्तुवों को हथियाये हुये है यही इसका मिथ्यात्व है चोरटापन है, पर वस्तुवों को अपनाने वाला चोर होता है। वह जहां भी दीखपाना है उसे जो भी कोई देखता है पकड़कर बांधता है मारता पीटता कप्ट देता है और इस चोर को वह सव सहना पड़ता है क्यों कि वह अपराधी है Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४ ) उसने अपराध किया है, इस लिये दब्यू बना हुवा है हर तरह से और हर तरफ से वह चौकन्ना रहता है, डरता रहता है कि कोई मुझे देख न लेवे इत्यादि वैसे हो यह संसारी आत्मा परपदार्थों में मोह राग द्वष किये हुये है सो इसका यह अपराध ही इसके लिये बन्ध का कारण बन रहा है ताकि तीन लोक का प्रभु होते हुये भी दब्यूबन कर भयालु होते हुये बन्धन मे बन्धा हुवा है जो कि बन्ध चार प्रकार का माना गया हुवा है सो नीचे बताते हैंस्थित्यानुभागेन पुनः प्रकृत्या प्रदेशतरतूर्यविधोविमत्या। वन्थःसचैतस्यसमशिरूपेयतोऽसकौसम्पतितोऽककूपे । १७॥ अर्थात्-हरेक ही कैदी मुख्यरूप में चार तरह से विवश होकर रहता है। उसके हाथ पैरों मे हथकड़ी और बेड़ी होती हैं । उससे चक्की पिसाई जाती है या दुरी बुनवाई जाती है या सड़क कुटवाई जाती है इत्यादि २ । उमर कैद बगैरह के रूपमें उसे लिया जाता है ३ और अन्धेरी कोठरी या उजाली कोटरी तथा कालापानी आदि बोल कर उसे कैद किया जाया करता है। वैसे ही इस संसारी आत्मा के भी हरेक प्रदेश पर कर्मपरमाणुवोंका बोम आकर पड़ता है जिससे कि यह हथकड़ी वेड़ियों की तरह जकड़ा जाता है और जिसे प्रदेश बन्ध कहा गया हुवा है १ वह आठ तरह की प्रकृति यानी स्वभाववाला होता है-ज्ञानावरण (जो ज्ञान को न होने दे) दर्शनावरण Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) ( जो देखने न दे ) वेदनीय ( जो अड़चनकारक चीजों को जुटावे ) मोहनीय ( जो भुलावे मे डाले ) श्रायु (जो जन्म से लेकर मरण पर्यन्त शरीर मे रोके हुये रक्खे) नाम ( जो काना खोड़ा कुबड़ा बौना आदि नाना हालत करता रहे ) गोत्र ( जो कभी ऊचा तो कभी नीचा कुल में जन्म दे ) अन्तराय ( हर भले कार्य में रोड़ा अटकाया करे ) यह आठ कर्म कहलाते हैं। इस आठ तरह के प्रकृति बन्ध मे जो काल की मर्यादा होती है वह स्थिति बन्ध के नाम से कही गई है | ३| कोई समय का कोई कर्म अपना साधारणसा प्रभाव आत्मा पर दिखलाता है तो कोई जोरदार, इसको अनुभागबन्ध समझना चाहिये। इस प्रकार जो इस आत्मा के बन्ध पड़ता है जिसकी कि वजह से इस जीव को कष्ट के गढ्ढे में गिरना पड़ रहा है, उसका और खुलाशा हाल अगर पाठकों को जानना हो तो गोमट्टसार वगेरह प्रन्थों से जान सकते हैं हम यहां अधिक नही लिखते । हां जो करता है सो भोगता है परन्तु बान्धता है वह काट भी सकता है वह कैसे सो नीचे बताते हैं | विदारयेद्वन्ध सुपाचढङ्गः पुनर्नपापाय कृतान्वरंगः । काराधिकाराद्भवतोऽतिगस्यास्यस्यात्सुखं दुःखमर्थात्रिनस्यात् अर्थात् - उपर बताया जाचुका है कि यह संसारी जीव कर्मों से बन्धा हुवा है जो कि कर्म विपाकान्त हैं गेहूं आदि की खेती की भान्ति अपना फल देने पर नष्ट होजाने वाले होते Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) हैं । परन्तु पूर्वकृत कर्म यावत्- अपना पूराफल नही दे पाता उसके पहिले ही से यह जीव दूसरा कर्म खड़ा किये हुये रहता है जैसे मानलो कि एक किसान के पास सो बीघे जमीन है उस में से कुछ जमीन मे तो उसने जुवारी बाजरी और कुछ मे उड़द मूंग बो दिये । सो गँवार बाजरी आसोज में तैयार हो गई उसे काट कर उस जमीन में गेहूं चने बो दिये परन्तु उड़द मूग उधर खड़े हैं सो जाकर पोप में तैयार हुये उन्हें काटकर वहां पर उसने गन्ना लगा दिये । उधर गेहूं खड़े हैं सो वैसाख में जाकर तैयार हुये उन्हें काटकर फिर उसमें जुवार बाजरी लगादी । ईख खड़ी है उसे मगसर में काट कर उस जमीन में मटर वो दी जावेगी । इस प्रकार चकर चलता रहता है किसान खेती से शून्य नही रहता उसी प्रकार संसारी जीव भी एक के बाद एक कर्म निरन्तर करता ही रहता है और उनके फल पाता रहता है निष्कर्मा नहीं हो पाता । परन्तु अंगर वह किसान चाहे कि मुझे तो अब किसान नहीं रहना है मुके तो मेरी इस जमीन मे जो कि रत्नोकी खानि है उसका पता लगगया है अतः अब मुझे खेती का क्या करना है तो वह अपने खेती के प्रलोभन को सम्बरण करके आगे के लिये उसमें बीज न वोवे और जो कुछ खेती खड़ी है उसे पकने के पूर्व ही अपने हाथो से घण्टो मे उखाड़ फेंकदेवे एवं खानि खोद निकाल सकता है और रत्नाधिपति बन सकता है वैसे ही 'अंगर संसारी आत्मा भी यह समझले कि मेरी आत्मा तो Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय का भण्डार है सचिदानन्द रूप है मुझे अब इस दुनियांदारी में फंसे रहकर, पापारग्भ करने की क्या जरूरत है, तो फिर अपने मनका निग्रह करके आगे के लिये कर्म का बन्ध करने वाली कपायों को पैदा नही होने देवे और उसके साथ साथ शरीर तथा बचन को भी अपने वश में करके अपने पहले के बन्धे हुये कर्मों को भी क्षण भर में काट डाल सकता है और दीन हीन से तीन लोक के प्रभुत्व के सिंहासन पर बात की बात मं आसीन और प्रवीण बनसकता है आत्मा से परमात्मा हो ले सकता है। अहो देखो इस आत्मा के वल की अचिन्त्य महिमा जो कि अपने आपे में नाकर उस पर जम रहने से चिरसंचित कर्मों के अभेद्य किले को एक अन्तर्मुहूर्त मे ही तोड़ फोड़ कर स्वतन्त्र साहसाह वन जाता है। दुनियांदारी का खाना पीना वगेरह कोई सीधा से सीधा काम भी क्या इतना शीघ्र सम्पन्न हो सकता है क्या ? जितना कि शीघ्र स्वरूपोपलब्धि का काम हो सकता है। फिर भी यह दुनियांदारी का भोला प्राणी अपने इस सहज काम को ठीक न मान कर बाहर के श्रमदानक कार्यों को ही सरल समझ बैठा है यही तो इसकी नादानी है। इसी से परतन्त्रता में जकड़ा हुवा है अगर अपनी समझ को ठीक करले तो फिर इस जन्ममरणादि के दुःख से छूट कर सढ़ा के लिए पूर्ण सुखी बनजा सकता है । अस्तु । चेतनागुण के' धारक इस आत्मा का नाम जीव १ उससे उलटे स्वभाव वाला' + Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीव २ जीव की अजीव के साथ अपणेशका नाम आश्रव । दोनों में परस्पर मेल होलेने का नाम बन्य है ४ नीव अजीव के लाथ अपणेश दिखलाना छोड़ देवे उसका नाम सम्बर ५ ताकि वह अजीव इस जीव से क्रमशः दूर होने लगे उसका नाम निर्जरा और अजीव से जीव सर्वथा छुटकारा पाजावे उसका नाम मोक्ष है इस प्रकार ये सात तत्व कहलाते हैं मतलब यह कि आत्मा को अपने भले के लिये इन सातों का जानना आवश्यक है। मूलंसुधीन्द्राश्चिदचिवयन्तु द्वयोरवस्थाअपराः श्रयन्तु ।। विदात्मकंचेतनपर्यंयन्तद्वयात्मकंपौद्गलिकंचसन्तः ॥१८॥ ____ अर्थात्- उन सातों तत्वों मे से जीव और अजीव ये दो तो मूल भूत तत्व हैं ही वाकी के पांच तत्व इन दोनो की संयोग सापेक्ष अवस्थारूप हैं अत एव ये पांचो, द्रव्य और भाव के रूपसे दो भागों में विभक्त किये जा सकते हैं। भाव तत्व तो सम्बेदन रूप चेतन परिणाम और उस के द्वारा सम्वेदन मे लाने योग्य जो द्रव्यतत्व है वे पुद्गल द्रव्य के • परिणाम होते है ऐसा सन्त पुरुष कहते है। जैसे की जीव के राग द्वेष रूप परिणाम का नाम तो भावाश्रव और उसके निमित्त से पुद्गल यर्गणावों का कर्मरूप में परिणत होजाना सो द्रव्याश्रव है । उन कर्मों में आत्मा को परतन्त्र बनाकर रखने रूप शक्ति का नाम द्रव्य बन्ध और उनके द्वारा आत्मा की Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) परतन्त्र परिणति का नाम भावबन्ध है । शमदमाश्रित आल्मोपयोग का नाम भावसम्बर और उसके निमित्त से आगामी के लिये पुद्गल परमाणुवों के कर्मत्व रूप परिणमन मे ह्रास आजाने का नाम द्रव्य सम्बर है । क्रमशः आत्मीक शक्ति के विकाश का नाम भावनिर्जरा और भूतपूर्व कर्मोकी कर्मत्वशक्ति में हास होते चले जाने का नाम द्रव्य निर्जरा है । आत्मा की पूर्ण स्वतन्त्रता का नाम भावमोक्ष और उसके कार्मण स्कन्ध का पूर्णरूपेण अकर्मण्यता पर पहुंच जाना सो द्रन्यमक्ष कहलाता है । अस्तु । यहां पर प्रसगवश आल्मा और कर्मको ही बार बार दोहराया गया है सो आत्मा वा चेतनायुक्त जीव द्रव्य को कहते हैं जैसा कि पहले पता ही आये हैं वे आत्मायें संख्या में अनन्त होकर भी एक प्रकार से तीन भागों में विभक्त होकसती हैं बहिरामा, अन्तरात्मा और परमात्मा जो कि शरीर को ही पाल्मा समझ रहा हो-श्रात्मा के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ हो वह जीव तो वहिरात्मा होता है । जो आल्मा के सच्चे स्वरूप को जानता हो,शरीर में होकर भी शरीर से अपने आप को भिन्न मानता हो, फिर भी शरीर से सम्पर्क लिये हुये हो वह अन्तरात्मा होता है। परन्तु जो निरीहता पूर्वक शरीर से पृथक् होकर अशरीरी वनचुका हो वह परमात्मा कहलाता है। कर्म का विवेचनआमतोर से उत्क्षेपण अवक्षेपण वगेरह परिस्यन्दात्मक क्रिया को कर्म कहा जाता है जो कि निरे अचेतन पदार्थ में भी Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) होता है जैसे कि सूका काष्ट ईंट बगेरह भी कभी अपने कारणकलाप को पाकर इधर उधर हो जाता है सो उससे यहां पर कोई प्रयोजन नही है । तथा निरीह आत्मा की जो चेप्टा होती है जैसे कि मुक्त होने ही यह आत्मा उपर को गमन कर लोकान्त तक जाती है उसको भी यहां नहीं लिया गया है । यहां पर तो इच्छावान् आत्मा की चेप्टा होकर उसके द्वारा जो सूक्ष्म पुद्गल परमाणु समूह उसके साथ मिलकर उसको दुःखी सुखी बनाने में सहयोग कारक होते है उनको कर्म कहा जाता है और उस आत्मा को उन सब का कर्ता सो ही नीचे के वृत्त में बताया जा रहा है इदं करोमीवित जीवनर्म विकल्पबुद्धौ क्रियते च कर्म । द्वयोरवस्थानृकलत्रकल्पामिथः मदाधारक धार्य जल्पा |२६| अर्थात् — मैं खाता हूं, पीता हूं, सोता हूं, मै मारता हूं, काटता हूं, पीटता हॅू इत्यादि विकल्प मे पड़ कर इस आत्मा का जो राग द्वेष रूप परिणाम होता है उसका करने वाला अगर वस्तु स्थिति पर विचार करके देखा जावे तो यह आत्मा ही है दूसरा कोई भी नही है । यद्यपि वाह्य पदार्थ इसमे निमित्त जरूर बनता है फिर भी उस भाव के होने देने और न होने देने का उत्तरदायित्व इस जीवात्मा पर ही है । जैसे मानलो कि एक जीमनवार में एक साथ तीन कोई भोजन परोसा गया और उसके खाने की प्रेरणा भी की आदमियों को Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) - on गई-उसके खाने के लिये उन तीनों ही का ध्यान भी वहां आकर्षित किया गया । परन्तु उनमें एक आदमी तो बुभुक्षित था वह रुचि से उसे खाने लगा दूसरा जिसे अजीर्ण सा हो रहा था उसन कुछ ना कुछसा खाया । परन्तु तीसरा जिसे कि उसके खाने का त्याग है तो अतिशयरूप से आग्रह करने पर भी उसने उसे विलकुल नही खाया। भूख होने और भोजन सम्मुख मे होने पर भी उसके खाने का उत्तने भाव नहीं किया अतः मानना होगा कि अपने परिणामों को खोटे और चोखे करने वाला यह आत्मा ही है जैसा कि श्री समयसार जी में भी लिखा है कि-'जंकुणइभाव मादाकत्ता सोहोदितस्सभावस्स' अर्थात् - यह आत्मा अपने भाव को भला या बुरा आप बनाता है अतः यही उसका कर्ता और जो जैसा भाव इस से बनता है वह भाव इमका कर्म यानी कार्य है एवं यह आत्मा जैसे भाव करता है उसी के अनुसार कर्मवर्गणा कर्म रूपमें आकर इसका साथ देती हैं अतः वे भी इसी की की हुई यानी कर्म कहलाती हैं क्यों कि भाव और भावी मे अभेद होता है इसलिये जो जिसके भावसे हुवा वह उस भाववानसेही हुवा ऐसा कहने में कोई दोप नही ताकि भाव से जो हुवा वह भाववान पर ही फलता है । इस प्रकार कर्म और जीव में परस्पर औरत तथा मरद का सा नाता है कर्म संग्राह्य हैं और जीव है सो संग्राहक होता है । किंच औरत अगर भलेरी हो तो उसे मरद के विचारानुसार चलना पड़ता है, मरद को भी उस Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) का ध्यान अवश्य रखना पड़ता है । देखो श्रीपाल और मदनसुन्दरी के कथानक को। श्रीपाल ने मदनसुन्दरी से कहा कि मैं परदेश जानेका विचार करता हूं तो मदनसुन्दरी ने कहा कि मैं भी आपके साथ चलूगी आपकी सेवा करती रहूँगी। परन्तु श्रीपालने कहा कि नही बल्कि तुमको यहीं रहना चाहिये और अम्बाजी की सेवा करना चाहिये । मैं बारह वर्षमें वापिस आकर तुमको अवश्य सम्भाललूगा। मदनसुन्दरी को मानना पड़ा किन्तु श्रीपाल को भी उसका विचार मनमें रखना पड़ा ताकि बारह वर्ष होने में दो चार दिन बाकी रहे तो अपने पासवाले लोगों से उन्होने कहा कि अब हमें हमारे देश चलना पड़ेगा क्योंकि मदन सुन्दरी से किये हुये वादे का दिन सन्निकट आगया है एवं ठीक समय पर वहां जा पहुंचे थे । वैसे ही जीव के परिणामानुसार कार्माणवर्गणावों को परिणमन करना पड़ता है तो जीव को भी अपने किये कर्मके वश होकर चलना पड़ता है। जैसा कि श्री समयसार जी में ही लिखा हुवा है। देखो कर्तृकमाधिकार में जीव परिणामहे? कम्मत्त पुग्गलापरिणमन्ति । पुग्गल कम्भणिमित्त तहेव जोवोवि परिणमई ॥२०॥ शवा- आपके कहने का तो अर्थ होता है कि जीव अपनी जवरदस्ती से पुद्गल परमाणुवो को कर्म रूप बनाता है किन्तु समयसार जी मे तो लिखा है कि जब जीव के परिणाम कषायरूप होते है उस समय पुद्गल परमाणुये Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अपने आप ही कर्मरूप होजाती हैं जैसा किजंकुणइ भाव मादाकत्ता सोहोदितस्स भावस्स । कम्मत्तं परिणमदेतहिसयं पुग्गलं दव्वं ।। ६ ।। इस गाथा में लिखा है कि जैसे सूर्य उदय होता है उस समय कमल बन अपने आप ही खुल उठता है वैसे ही जीव जव राग द्वपमय बनता है तो पुद्गल वर्गणायें भी स्वयमेव कर्मरूप वनजाती हैं। जीव वहां कुछनही करता उत्तर - जीव कुछ नहीं करता यह कैसे कहा वह अपने मावों को रागद्वप रूप तो करता ही है उसीसे कर्मवर्गण कर्मरूप बनती हैं। हां जीव ऐसा नही करता कि मैं मेरे इन राग द्वेष परिणामों से अमुक परमाणुवों को कर्मरूप करू और अमुक को नहीं करू परन्तु वहां जो अनेक जाति की पुद्गलवर्गणायें हैं उन मे से जीव के रागडेप से कर्मवर्गणायें ही खुद कर्मरूप में आपाती हैं जैसे कि एक मन्त्र-साधक भाई अपने स्थान पर बैठा बैठा ही मन्त्र का ध्यान करता है और जाप देता है ऐसा विचार करके कि अमुक की कैद छूट जावे वा अमुक का विप उतर जावे तो वह कैदी के पास जाकर उस की कैद दूर नहीं करता परन्तु दूर बैठे ही उसके ध्यान के प्रभाव से अनेक कैदियों में से उसी कैदी की कैद स्वयं छूट जाती है । स्वयं शब्द का अर्थ इतना ही है जैसा कि इसी गाथा की टीका में अमृतचन्द्राचार्य ने बताया है । इसके बदले ऐसा अर्थ लगाना कि साधक के ध्यान ने कुछ नहीं किया । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (, ४४ ) बिना उसके ध्यान के कैदी यो ही छूट गया तो यह गलत अर्थ है। वहां पर उसके ध्यान का पूरा प्रभाव होता है वैसे हो कर्मवर्गणावो पर भी जीव के कषाय भाव का प्रभाव होता है ऐसा जैन सिद्धान्त कहता है । देखो एक फोटोग्राफर अपने कैमरे मे फोटो लेता है तो जो आदमी उस कैमरे के सामने में जैसी अपनी चेष्टा बना कर बैठता है वैसी ही उसकी उस कैमरे मे परछाई पड़ती है अतः वैसा ही उस कैमरे में फोटो आता है वैसे ही यह जीव जैसे भी अपने कषाय भाव करता है वैसा ही उसका प्रभाव कर्म वर्गणावों पर पड़ता है अतः वैसी ही सुख दुःख वगेरह देने की शक्ति उनमें आती है ऐसी जैन दर्शन की मान्यता है । शङ्का - आपके कहने में तो एक द्रव्य अपने प्रभाव से दूसरे द्रव्य को चाहे जैसा भी बना सकता है हमने तो सुना है कि कोई भी द्रव्य किसी द्रव्य मे कुछ भी नहीं कर सकता । उत्तर - एक दूसरे को चाहे जैसा बना सकता है सो बात तो नहीं परन्तु एक दूसरे के लिये किसी भी हालत में कोई कुछ भी नहीं करता ऐसा भी जैन मत नहीं कहता । हमारे यहां तो कहा है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के गुणो को अपने प्रभाव से कभी नहीं बदल सकता जैसे कि जीव पुद्गल के साथ मिल कर उसको चेतन या रूपादि रहित कभी नहीं कर सकता तो पुद्गल भी जीव के साथ होकर उसको जड़ या रूपादि Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान कर देवे सो नहीं हो सकता परन्तु एक दूसरे के प्रभाव मे आकर उनका उचित विकार रूप परिणमन जरूर होता है जैसा कि समयसार जी में ही बतलाया है देखो रणविकुम्वदिकम्मगुणे जीवो कम्मतहेव जीव गुणे। अएणोएपणिमित्तणदुपरिणामंजाण दोरहपि ॥२॥ जैसे अग्नि और हवा इन दोनों का परस्पर संयोग होता है तो हवा के द्वारा अग्नि प्रज्वलित होती है और वही अग्नि हवा को अपने संयोग से उष्ण बना देती है यह इन दोनों का निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है वैसे ही पूर्व कर्म के उदय से जीव रागादिमान होता है और स जीव की रागादिमत्ता ही आगे के लिये पुद्गल परमाणुयें कर्मभाव को प्रात होती हैं। शा- तब तो फिर किसी की भी मुक्ति हो ही नहीं सकेगी क्यों कि कर्मों का उदय तो सहासे सबके लगा ही हुवा है उत्तर-कमी भी मुक्ति नहीं होगी सो नही. किन्तु जब तक यह जीव अज्ञान भाव को लिये हुये रहेगा तब तक मुक्ति नही होगी। यहां अज्ञान का अर्थ न जानना नहीं है क्यों कि न जानना तो किसी भी जीव में है ही नही। चाहे कोई थोड़ा जाने या बहुत ठीक जाने या बेठीक,जानता तो है ही। जानना तो जीव का लक्षण ही है वह उससे दूर नहीं हो सकता । परन्तु पर को अपना और अपने को पराया मानते रहने का नाम अज्ञान है और यह अज्ञानभाव अब तक इस जीव के साथ लगा रहेगा तब तक यह जीव कर्मबन्ध को कर्ता ही रहेगा Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैसा कि श्री समयसार जी में ही लिखा है परमप्पाणं कुव्वं अप्पाणं पियपरं किरन्तो सो। अण्णाणमवो जीवो कम्माणकारगोहोदि ॥१२॥ शंका- यह अज्ञान भी तो कर्मोदय से ही होता है फिर कैसे मिटेगा! उत्तर- कर्मों का उदय दो तरह का होता है एक अप्रशस्तोदय दूसरा प्रशस्तोदय, सो जैसा उदय होता है वैसा वाह्य समागम होता है अतः जब शस्तोदय हो और उससे सत्समागम हो तो उन सन्तों को अपने मानकर जैसा वे कहैं कि भैय्या यह संसारका ठाठ असार,क्षणिक है। यह शरीर भी जो कि आत्मा को कर्मोदय से प्राप्त हुवा है, चौले के समान इससे भिन्न है, नश्वर है इसमें निवास करनेवाला आत्माराम जिसने कि इसे धारण कर रक्खा है,भिन्न है,शाश्वतचेतनावान है। शरीर जड है अतः इस पर तुमको नही रीझना चाहिये इस प्रकार के उनके कहने को मानले तो मोक्षनगर की डगर पर आसकता है फिर मोक्ष मुलम ही है रास्तेपर लगा हुवा आदमी धीरे या कुछ देरी से स्थान पर पहुच ही जाता है। शङ्का- यह क्यों कहा कि उनके कहने को यदि वह मानले ? जब कि उनके कहने को मानने रूप कर्म का उदय होगा तो मानेगा ही क्यों नहीं? 'उत्तर- मानना किसी कर्म के उदय से नही हुआ करता परन्तु वह तो उसकी रुचि का कार्य है । मानलो कि एक आदमी के Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) दोखी हैं एक सुमति और दुर्मति । सुमति कहती है कि आप सुलफा गांजा पीते हो सो अच्छा नही है वह कलेजे को जलाता है और बुद्धि को बिगाड़ता है अगर इसके बदले मे आप दूध पीया करो तो अच्छा हो इत्यादि, तो उसके कहने को वह सुना अनसुना करदेता है तथा उस स्त्री से दूर रहने की भी शोचता है। दूसरी बोलती है कि आदमी को नसा करना और मस्त " रहना चाहिये, जो किसी भी तरह का नशा नहीं करता वह आदमी ही क्या इत्यादि, तो उसके इस कहने को वह मन लगा कर सुनता है एवं उस स्त्री को ही भली भी समझता है । इसका कारण यही कि उस आदमी की मानसिकवृत्ति नसे की ओर की हुई है। इसका कोई क्या करे यह तो उसीके विचार का कार्य है | अगर वह चाहे तो सुमति के कहने को दिल से ठोल सकता है कि ठीक तो है। दूध पीनेवाले लोग सब भले और चंगे हैं मगर मेरेपास आने वाले मेरे यार-दोस्त गंजेड़ी भंगेड़ीलोग चातून और श्रातताई बगेरह हैं। ऐसा शोचे तो वह आगे के लिये नशा करना छोड़ सकता है या उसे कम तो जरूर ही कर देता है वैसी ही इस संसारी जीव की बात है । अगर यह चाहे तो सन्तों की बात पर गम्भीरता से विचार कर, उसे हृदयमें धारण करले ताकि उत्तर कालमें उदय आने वाले मोहनीय कर्म को कमसेकम एक अन्तर्मुहूर्त के लिये दबादे, उदय में न आने दे, उसे सफल न होने देवे तो राग द्वेष रहित हो कर कर्मबन्धन की श्रृंखला को तोड़ सकता है । अन्यथा तो फिर जहां कर्म का • Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) उदय होगा वहां जीव मे राग द्वेष अवश्य पैदा करेगा और राग द्वेषहांगे, वे आगामी कर्म बन्ध जरूर करगे बीज से वृक्ष और वृक्ष से फिर बीज इस प्रकार संन्तान चलती ही रहेगी उसका कभी अभाव नही होगा । यही बात प्राचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामीजी - अरोराणिमित्तं यदुपरिणामं जागदोद्ध पि इस गाथा में बतलाये है मतलब यह कि स्वामी जी अपने इस वाक्य द्वारा - निमित्च करण की प्रबलता स्पष्ट कर दिखला गये है । और बतला गये हैं कि निमित्त 'न हो तो कार्य नही होता, निमित्त के द्वारा ही कार्य होता है । सम्यग्दर्शन होते ही ज्ञान और चरित्र अपने मिध्यापन को त्याग कर सम्यक् बन जाते हैं तथा सम्यग्दर्शन नष्ट होते ही वे दोनो वापिस मिथ्या हो जाते है। ऐसा हमारे सभी आचार्यों ने बतलाया है यह निमित्त की ही तो महिमा है। फिर भी कुछ लोग - निमित्त न हो तो कार्य नही होना ऐसा मानमा मिथ्या है इस प्रकार कह कर लोगों को चक्कर में डालना चाहते है यह कितना बड़ा दुःसाहस है, हम नहीं कह सकते । हम देखते हैं कि अन्धेरी कोठरी में दीपक जलते ही प्रकाश हो जाता है और उसके बुझते ही वापिस अन्धेरा का अन्धेरा हो रहता है इसी लिये तो अन्धेरे में काम न कर सकने वाला आदमी दीपक जला कर अपना काम करता है वह जानता है कि यहां पर दीपक के बिना अन्धेरा नही मिट सकता सो क्या यह गलत बात है, बलिहारी हो इसे मिथ्या बताने वालों की | छत्ता तागते Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) - - - ही छाया होती है और उसे बन्द करते ही वापिस घाम का घाम इत्यादि दुनियां के सभी कार्य अपने अपने निमित्त कारण के द्वारा होते हुये देखे जाते हैं फिर भी ऐसा कहना कि छाया छसे से नही किन्तु वहां के उन परमाणुओं की योग्यता से ही होती है यह कहना वैसा ही हुवा जैसा कि ईश्वर कटवादी लोग कहा करते हैं कि स्टाष्टि के सभी कार्य अपने कारण कलाप से नहीं होते किन्तु ईश्वर के किये होते हैं। हमारे प्राचार्यों ने तो, हमारे आचार्यों ने ही नहीं बल्कि सभी तर्क वादियों ने बताया है कि जो जिसके होने पर हो ही जावे और जिसके न होने पर जो न हो सके इस प्रकारका अन्वयव्यतिरेक जिसका जिसके साथ हो वह उसी का कार्य होता है। जबकि जीव रागादिमान होता है तो कर्म जरूर बनते हैं और वीत. रागी होने पर कर्म नहीं बनते अतः रागादिमान जीव ही कर्मों का कर्ता और उसके कार्य है कर्म यह ठीक बात है तथा वे सर्व कर्म इस जीवात्मा के द्वारा दो रष्टियों को लेकर किये जाते हैं अतः दो प्रकार के होते हैं सो ही नीचे बताते हैंपातुदेहात्मतयाक्रियेत पुण्यँतदन्तर्गतयाश्रियेतः । अज्ञानसँचेतनिकेतिधुचिरूपर्यंतोज्ञानमयीप्रवृतिः ॥२०॥ अर्थात्- यद्यपि हमारे यहां कर्म शब्द से उन सूक्ष्म पुद्गल परमाणुवों को कहा जाता है जो कि जीप के राग द्वेष भावों के द्वारा जीव के साथ एकमेक होकर रहते हो परन्तु उन Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) का समागम जीव के साथ इसकी मन वचन और काय की चेष्टा के द्वारा ही होता है अतः कारण में कार्य का उपचार करके उस चेप्टा को भी कर्म कह सकते है । और उसके करने में इस आत्मा की दो तरह की भावना हुवा करती है। एक तो शरीरको और आत्मा को एकमेक मानते हुये वहिराल्मापन के द्वारा जैसे कि मैं खालू,पीलू, सोलू एवं अपने आपको मोटा ताजा बनालू इत्यादि रूपमें 1 दूसरी वह जो शरीर से आत्मा को भिन्न मानते हुये अपने भले के लिये । जैसे भगवान का भजन करल, 'गुरुखों की सेवा कर, व्रतउपवास करलू इत्यादि रूपमें । पहलेबाली वासना से किया हुवा कर्म पापकर्म कहलाता है क्यों कि वह इस आत्मा को संसार में ही पछाड़े हुये रहता है किन्तु दूसरी वासना से किया हुवा कर्म इसको पवित्रता की ओर लेजाने वाला होने से पुण्य कर्म होता है। कभी कमी वेहिरोल्मा जीव भी ईश्वरोपासना सरीखी चेष्टा किया करता है परन्तु वह उसकी चेप्टा अनात्मवृत्ति को ही लियेहुये होती है अतः वह अपुण्य कहलाता है। इसी प्रकार अन्तरात्मा जीव भी कभी कहीं खाना पीना वगेरह शरीरानुविधायिकार्य करता है किन्तु वह अनतिवृत्तितया नरकादि का कारण न होने से अपाप कर्म कहलाता है। स्पप्ट रूपमें चतुर्थगुण स्थान से नीचेवाले की चेष्टा का नाम पाप और उससे उपर जहां तक सराग चेप्टा रहे उसका नाम पुण्य है ऐसा सममना चाहिये । एवं यह दोनों ही प्रकार की Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) चेप्टायें परावलम्व को लिये हुये होती हैं अतः अज्ञान चेतनामयी होती हैं क्यों कि इन दोनों में ही अधिक हो या होन किन्तु ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का बन्ध इस जीव के होता ही रहता है । हां इससे उपर चलकर जहां पर पापबन्ध और पुण्य बन्ध दोनों प्रकार के बन्ध को करने वाले अशुभ एवं शुभ दोनों तरह के भाव से बिलकुल रहित पूर्ण वीतरागदशा हो करके इस आत्मा की एकान्त श्रात्मनिमग्न वृत्ति हो लेती है, उसका नाम ज्ञान चेतना है । जैसा कि श्री अमृतचन्द्र सूरि ने समयसारकलशा में लिखाते हैं - रागद्वेष विभावमुत्तमहसो नित्यं स्वभावस्पृशः पूर्वागामि समस्त कर्म विकला मिन्नास्तदात्योदयात् दूरारूढ़ चरित्रवैभववला चवचिदर्चिर्मयी विन्दन्ति स्वरसाभिपिक्त भुवनां ज्ञानस्य संचेतनां भावार्थ - जो सर्वथा राग द्वेष रूप विभाव से रहित होकर स्वभाव को अखण्डरूप से प्राप्त कर चुके, भूतभावि और वर्तमानकालीन कर्मोदय से दूर हो लिये, समस्त परद्रव्यके त्याग स्वरूप दृढतर चारित्र के बल से प्रकाशमान चैतन्य ज्योतिवाली और अपने सहजभाव से विश्वभर में व्याप्त होनेवाली ऐसी भगवती ज्ञान चेतना का वे ही अनुभव करते हैं वेही उसे पात हैं। बाकी के उससे नीचे के जीव तो अज्ञान वेतनावाले होते हैं वह ज्ञान-चेतना, कर्मफल चेतना और कर्म चेतना के भेद से दो भागों में विभक्त होती है जिसमें से Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) - - - संचेत्यनेयावदसंज्ञिकर्म-फलंशरीरीपरिभिन्नमर्म । यतोनहिज्ञानविधायिकर्मक तदाप्रोत्सहतेऽस्यनर्म ॥२१॥ अर्थात्-निगोदियाएकेन्द्रिय जीव की अवस्था से लेकर असंज्ञि पञ्चेन्द्रिय की अवस्था तक तो यह शरीरधारी जीव अपने किये हुये कर्मो के फलको ही भोगता रहता है । उम समय तो यह अपने मर्मभेदी कर्मों का सताया हुवा इतना बेहोश रहता है कि आत्मकल्याण के मार्ग की ओर इसकी रुख ही नहीं हो पाती है। मैं भी एक जीव हूं मुझे भी अपने आत्महित के लिये कुछ तो करना ही चाहिये ऐसा विचार भी नही होता। जैसे कि एक नशेवाज आदमी अपने किये हुये नशे का सताया, बेकार हो कर तड़फड़ाया करता है। संज्ञित्वमासाद्य तदुद्गमस्तु शरीरिणश्चात्महितैकवस्तु ॥ एकास्ति लब्धिदुरितस्यतादृक्-क्षयोपशान्तिर्यत आयतांहक् ।। ___ अर्थात्- जब उस नशेवाले का नशा कुछ हलका पड़ता है तो वह विचारता है कि देखो मैं कैसा पागल होगया कि मुझे जो अमुक काम करना था, गैय्या के लिये घास काटकर लाना था या और कुछ करना था सो अभी तक नही हुवा अव वह मुझे करना चाहिये इत्यादि । वैसे ही जब यह जीव संज्ञिपन को प्राप्त कर पाता है, इसके अन्तरंग मे कर्मचेतना का प्रादुर्भाव होता है शोचता है कि मुझे यह भूख प्यास क्यों । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) - लगती है, थकान क्यों होती है ताकि मुझे बार बार कष्ट उठाना पड़ता है यह भी एक प्रकार का रोग ही है, तो क्या इसके मिटने का भी कोई उपाय है ? अगर है तो मैं वही करू इत्यादि कर्तव्य पर विचार आने का नाम कर्म चेतना है जो कि संज्ञिपन के होने पर ही हो सकता है । और संज्ञिपन की प्राप्ति कर्मों के क्षयोपशम से होती है । अतः इस प्रकार के विशेष क्षयोपशम का होना सो एक लब्धि है जिसके कि होने से इस आत्मा को अपने हित की तरफ दृष्टि हो ले सकती है ताकि फिर वहगत्वागुरोरन्तिकमेतदाज्ञा, लब्धामयेयंमहतोऽपिभाग्यात् । सुधामिवेत्थंसपिपासुरस्तु, सम्यक्त्वहेतोः समुदायवस्तु ॥ २३ अर्थात्-पियासा आदमी कुवे की भांति, किसी सन्मार्ग प्रदर्शक गुरु की खोज करता है एवं उसके पास पहुंचता है और उसकी जो कुछ देशना होती है उसको बड़े ध्यान से सुनता है विचारता है कि आज मेरा बड़ा ही भाग्योदय है ताकि मुझे इन सद्गुरु की वाणी सुनने को मिली। जैसे कि पियासे आदमी को अमृत मिलजावे तो वह उसे पीता पीता नही अधाता वैसे ही यह भी गुरुमहाराज के सदुपदेश को रुचि के साथ ग्रहण किया करता है । इसका नाम देशनालब्धि है जो कि सम्यक्त्वोत्पत्ति के कारणों में से एक परमावश्यक वस्तु है। अन्धकार को हटाने के लिए सूर्य की प्रभा के समान है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) शङ्का-क्या गुरु के विना ज्ञान नहीं हो सकता । ज्ञान तो आत्मा का गुण है उसकेलिर गुरु के होने की क्या श्रावश्यकता है ? उत्तर--ठीक है ज्ञान तो आत्मा में ही है परन्तु उसकी मिथ्यात्व से सम्यक्त्य अवस्था गुरु दिना नहीं हो सकतो जैसे कि बन्द होगया हुवा ताला, चाबी के बिना नहीं खुल सकता, चाबी के द्वारा ही खोला जा सकता है। शंका -श्रीतत्वार्थसूत्र जी में बतलाया है कि तनिसर्गादधिग मावा, अर्थात् - वह सम्यग्दर्शन गुरूपदेश से भी होता है.और किसी को अपने आप भी। उत्तर - उक्त सूत्रका अर्थ तो यह है कि वह सम्यग्दर्शन अपने स्वभाव से भी और गुरूपदेश से भी इन दोनों ही बातों के होने से होता है दोनों में से एक भी न हो तो नही होसकता । जैसे कि पक्षी, आदमी की बोली सिखाने से सीखता है किन्तु सखाने से भी तोता ही सीख सकता है, बगुला नही सीख सकता वैसे ही सम्यग्दर्शन होता है श्री गुरु की वाणी के सुनने से किन्तु होता है आसन्नभव्य को, अमव्य को नहीं होता । देखो श्री आदिपुराण जी मे महाबल (वनजंघ) के जीव भोगभूमियां को सम्यग्दर्शन प्रहण कराने के लिये श्री मुनिराज भोगभूमि में चला कर गये थे अगर अपने आप ही सम्यग्दर्शन होजाता होता तो उन मुनि महाराज को वहां जाने की फिर क्या आवश्यकता थी। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ( ५५ ) शङ्का - हमारे शास्त्री मे बतलाया है कि स्वयम्भूरमणद्वीप मे होनेवाले तिर्यख भी पश्चम गुण स्थानी हो जाते है सो वहां गुरुसमागम कहां है वहां सम्यग्दर्शन कैसे हुआ ? उत्तर - एक बार गुरुसमागम होनेसे जिसे सम्यग्दर्शन होकर छूट गया ऐसे सादि मिध्यादृष्टि के लिये गुरु समागम का अनिवार्य नियम नहीं है एक बात तो यह है । और दूसरी बात यह कि मनुष्य तो नहीं किन्तु सम्यग्दृष्टि देव तो वहां जासकते हैं सो वे जाकर उन्हें सन्मार्ग का उपदेश देकर सम्यग्दर्शन प्रहरण करा दे सकते हैं । अन्यथा तो फिर उन्हे सम्यग्दर्शन की भांति ही श्रावक के बारह व्रतों का भी पता क्या और कैसे हो सकता है। अगर कहाजावे कि जातिस्मरण से पूर्व जन्म याद आकर हो सकता है तो फिर ठीक ही है उन्हे उनके पूर्वजन्म के गुरु का उपदेश ही तो कारण हुवा | शङ्का - यदि ऐसा माने की गुरु आये इस लिये श्रद्धा हुई तो गुरु कर्ता और शिष्य को श्रद्धा हुई इस लिये वह उनका कार्य हुवा इस प्रकार दो द्रव्यों के कर्ता कर्मपना आजावेगा ( वस्तुविज्ञानसार पृ० ३६ पं० २१-२२-२३) उत्तर- दो द्रव्यों के कर्ता कर्मपना आजायेगा इसमें क्या हानि होगी, हमारे आचार्योने तो निमित्तिनैमित्तिक रूपमें एक " को दूसरे द्रव्य का कर्ता और उसको उसका कर्म तो माना ही है देखो श्री कुन्दकुन्द ने ही समयमार जी में लिखा है किअणाणमवोभाव अराणियो कुरणदितेय कम्माणिइति । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) सो श्रीमान् जी निमित्त के नाम से आपको क्यों इतनी चिड़ है यह हम अभी तक नही समझ सके, हमारे आचार्यों ने तो विशेष कार्य को निमित्त विशेष के द्वारा ही निष्पन्न होता हुवा बतलाया है । अस्तु । देशना प्राप्त करने के बाद वह जीव क्या करता है सो बताते हैंकुतोजनिमृत्युरयंचकस्माल्याञ्चापिमुक्तिर्ममदुःखतोऽस्मात्, एतागुत्साहिविचारब्धिरुदेतिचित्त'ऽस्यविशुद्धिलब्धिः २४ • अर्थात्- गुरुदेव की बाणी को अवधारण करने से उस भव्यात्मा के चित्त में इस प्रकार विचार होने लगता है कि अहो देखो मैं सच्चिदानन्द होकर भी किस तरह से इस जन्ममरण के चक्कर में फंस रहा हूँ जैसे कि एक राजकुमार किसी भङ्गिन के साथ में लगजावे तो फिर उसके प्रेमके बश होकर उर्स राजकुमार को भी पाखाने की कोठरी में घुसना पड़ता है। वैसे ही कर्मसेना के साथ में मैं हो रहा हूं इसी लिये मुझे यह शरीर ग्रहण करना पड़ा है । और जब वह भगिन एक पाखाने से दूसरे पाखानेके लिये प्रस्थान करे तो वह राजकुमार शोचता है कि अव कहीं इससे भी अधिक दुर्गन्धित जगह में न जाना हो जावे इस भय से वहां से निकलने को आगापीछा साकने लगता है वैसे ही अज्ञानी जीव भी इस शरीर को छोड़ना नही चाहता और जब इस शरीर के छूटने की सुनता है तो कांपता है इसी का नाम मरण है । बस इसी का नाम Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७ ) जन्म मरण का दुःख है जो कि इस जीव को भोगना पड़ रहा हैं। तो फिर इसका मतलब यह हुवा कि मैं अगर इस दुःखसे मुक्त होना चाहता हूं तो कर्मचेष्टा से ही मुझे परे होना होगा स्से ही तिलाञ्जलि देनी होगी तभी काम बनेगा इस प्रकार की विचारधारा से जो इस भव्य जीवके चिनमें कोमलता आजाती है उसका नाम विशुद्धि लब्धि है । फिर इसके बाद मे तेनामृतेनेवरुगस्तु पूजितो विधिः शीतहतस्तरुवा । स्थितिः किलान्तर्गत कोटि कोटि-मीर प्रमाणाप्यमुतोनमोटी हीनोऽनुभागोऽपि भवेचदेति प्रायोगिकालब्धिरमा देति अनेकवारं पुनरित्यथेष्टा समस्ति मंसारिण एव चेष्टा ।२६। अर्थात् जैसे कि अमृत पीने से रोग उपशान्त बन जाता है या शीत का सताया गाछ खंखर हो जाया करता है वैसे ही उपयुक्त विचार के द्वारा इस जीवके पूर्वोपार्जित कर्म भी कमजोर बन जाते हैं उनकी जो सत्तर कोडाकोड़ी सागर प्रमाण तक की स्थिति थी वह घटकर अन्तः काडाकोडी सागर प्रमाण वाली रहजाती है औरअनुभाग भी कम होजाया करता है एवं उस समय आगे केलिये बन्धने वाले कर्मों की भी स्थिति अन्तः कोडाकाडी सागर से अधिक नही होती वस इस ऐसी परिस्थिति का नाम ही प्रायोगिका लब्धि है । यह यहां तक की वर्णन की हुई चेप्टा इस संसारी जीव को अभव्य तक Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) की भी अनेकवार हो जाया करती है परन्तु सम्यक्त्व प्रामि नही हो पाती । क्यो कि यह सब सम्यक्त्व प्राप्ति के लिये अविकल कारण न हो कर विकल कारण है । इन सबके साथ साथ कुछ बात और भी है जिसकाकि होना भी सम्यक्त्वोत्पत्ति के लिये जरूरी है जो कि आगे बताई जा रही हैचेत्पुद्गला परिवर्तकालोऽ शिष्यतेऽनादितयाशयालो: । ब्धि युजोजनस्य क्षणोमवेञ्जागरणायशस्यः ।२७/ अर्थात्-अर्द्धपुद्गल परिवर्तन यह एक जैनागमसम्मतपारिभाषिक शब्द है जो कि काल विशेष का नाम है जिसमें असंख्यात कल्पकाल बीत जाते है और बास कोडाकोडी सागर का एक कल्पकाल होता है । दो हजार कोश गहरे और दो हजार कोश चोड़े लम्बे गढ्ढे मे कैंची से जिनका दूसरा भाग न हो सके ऐसे मैंट के बालों को भरना जितने वाल उसमें समावें उनमे से सौ सौ वर्ष बीतने पर एक एक बाल निकलना तो वे सब निकल चुके उतने काल को व्यवहार पल्य कहते हैं व्यवहार पल्य से असंख्यात गुणा उद्धारपल्य और उद्धारपल्य से असंख्यातगुणा श्रद्धापल्य होता है एव दश कोडाकोडीपल्यों का एक सागर होता है । ऐसा जैन सिद्धान्त प्रवेशिका में लिखा हुवा है । अस्तु । यह अर्द्धपुद्गल परिवर्तनकाल, मुमुक्ष के संसार परिभ्रमण में से जब कि बाकी रहे जो कि उसके भूतपूर्व परिभ्रमणरूप समुद्रका एक बून्दसमान है इससे अधिक Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) - - काल बाकी नही होना चाहिये तो उस समय में यह अनादि काल का मोहनिद्रा में सोया हुवा ससारी जीव जगाया हुवा जाग सकता है इसी का नाम काललब्धि है इस काललब्धि के होने पर उपयुक्त चार लब्धियां प्राप्त करक यह जीव सम्यक्त्व ग्रहण योग्य होता है । और नहीं तो फिर जिसका जिस समय मोक्ष होना है उससे एक मुहूर्त पहले भी मिथ्वात्वी से सम्यक्त्वी वन कर कर्मनाशकर वह सिद्ध हो जाता है। शङ्का-- तब तो फिर समयका ही मूल्य रहा, आत्माके पुरुषार्थ या उपर्युक चारलब्धियोंके होनेकी क्या आवश्यकता है ? उत्तर- जिस समय भी जिस किसी को मुक्ति प्राप्त होगी यह उससे पूर्वमें उपर्युक्त लब्धियों की सहायता से अपने पौरुष को व्यक्त करते हुये सम्यक्त्व लाभ कर क्रमश. उपयोग को निर्मल बनाने से होगी। जैसे मानलो कि दश जीव एक साथ मुक्ति पाने वाले हैं वे दशा ही एकसौ एकसौ वर्ष की अनपवलं आयु लेकर एक साथ ही जन्म भी मनुप्य का ले चुके हैं जिन्होंने कि पहले कहीं सम्यक्त्व नहीं प्राप्तकर पाया है । वो जबतक कि आठ वर्षके नही होंगे उसके पहले तो कोई भी न तो सम्यक्त्व ही प्राप्त कर सकेगा और न मुनि ही बन सकेगा। परन्तु आठवर्षपूर्ण होते ही उन मे से एक वो गुरु के पास पहुंच कर उनके उपदेशलाभ कर सम्यग्दर्शन ग्रहण करके संयमी मुनि भी चन कर कुछ ही देर बाद क्षपकोणी माडकर घाति कर्मों का नाश मी कर के केवल ज्ञानो बन बैठता है। दूसरा उसी समय Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) या उससे कुछ समय बाद सम्यग्दर्शन प्राप्त करके मुनि भी वन जाता है किन्तु केवलज्ञान नही कर पाता, कुछ वर्षो बाद मे केवली बन पाता है तीसरा सम्यग्दर्शन को तो प्राप्त कर लेता है किन्तु जवान अवस्था तक गृहस्थ अवस्था में राज्यपाद भोग कर फिर मुनि बनता है और मुनिबन ने के अनन्तर ही केवली भी बन जाता है । चोथा सम्यग्दृप्टि बन कर कुछ दिन के वाद कुमार्गरत हो जाता है मगर फिर वापिस सुधर कर मुनि बन जाता है एवं केवली बन कर मोक्ष पाता है। पांचवां गृहस्थदशा मे तो सम्यग्दृष्टि सुशील रहता है किन्तु मुनि होने के बाद भ्रष्ट होजाता है सो जाकर अन्त मे वापिस सलट पाता है । छटा अन्त समय तक सद्गृहस्थ रह वर ठीक अन्त समय में मुनि बनता है और केवल ज्ञानी । सातवां अन्त समय तक भी व्यसनों में फंसा रह कर सिर्फ मरण के एक मुहूर्त पहले सम्यग्दृष्टि और मुनि भी बन कर केवली भी तभी बन लेता है । इत्यादि रूप से उनमे जो चिचित्रता होती है वह उनकी इतर लब्धियों की विशेषता और पुरुषार्थ बिशेप के ही तो कारण होती है । अस्तु । काल लब्धि और उपर्युक्त चारो धियो को भी प्राप्त करके जब यह जीव सम्यक्त्व के सम्मुख होता है तब क्या कुछ होता हूं सो बताते हैं - सूर्योदयात्पूमिव प्रभातः सम्यक्त्वतः प्राक्करणाख्यतातः प्रवर्तते तेन तमोहतिर्वाऽतोऽन्तमुहूर्ताचदहस्पतिर्वा । २८ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात्- सूर्योदय होनेवाला होता है वो उससे पहले प्रभात होकर उससे अन्धकार फटता है फिर सूर्य प्रगट होता है वैसे ही सम्यक्त्व होने से परले इस आत्मा का करण नाम का प्रक्रम सुरू होता है जिससे कि मिथ्यात्व मोह कर्म का नाश होकर सम्यक्त्व प्रगट होता है । वह करण तीन तरह से होता है, अधःकरण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण जिससे कि आत्मा निर्मल, निर्मलतर और निर्मलतम होती है जैसे किसी भी मैले कपड़े को पानी से गीला करके धोया जाता है तो उसका उपरिका कुछ मैल निकल जाता है फिर साबुन लगा कर धोने से उजला निकलता है किन्तु कुछ कमी रहजाती है सो दुवारा साबुन लगाकरके धोने पर वह बिलकुल स्वच्छ होजाया करता है । याद रहे कि मेह कर्म को दर्शनमोह और चारित्र मोह के भेद से दो भागों में बाटा गया है और दोनों ही तरह का मोह नाश होने से स्पष्ट सम्यक्त्व-पूरा खरापन हो पाता है और दोनो ही प्रकार के मोह को नाश करने के लिये आत्मा को उपर्युक्त तीनो करण करने होते हैं। किन्तु उन दोनों तरह के मोह में से दर्शनमोह धूमसे की कारिख के समान चीठदार होता है और चारित्र मोह जो है वह कायलों के संसर्ग से लगी हुई कारिख की तरह साधारण से प्रयास से दूर होनाने वाला है अतः मोह शब्द से प्रधानतया दर्शनमोह ही लिया जाता है और चारित्र मोह को राग द्वेष शब्द से । और दूसरी थात यह भी है कि दर्शनमोह का जव अभाव किया जाता है Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) तो उसके साथमे आंशिक चारित्रमोह-अनन्तानुवन्धि क्रोधमान माया लोम का भी प्रभाव हो लेता है जब कि सम्यग्दर्शन होता है । अतः सम्यक्त्व शब्द से भी अधिकतर सम्यग्दर्शन को ही लिया जाता है जिसके कि साथ अन्यायाभक्ष्य मे अप्रवर्तनरूप चारित्र होता ही है । जो कि सम्यग्दर्शन उपर्युक्त परिकर होने से सम्पन्न होता है । आत्मा एक रेलगाड़ी की भांति है जो कि मोक्ष नगर को जाना चाहती है और उसका मोक्ष के सम्मुख रवाना होना सम्यक्त्व है । उसमें काललब्धि तो रेल की पटरी सरीखी है जिसके कि विना रेल नही चल सकती वैसे ही काललब्धि पाये बिना सम्यक्त्व भी नही होता क्षयोपसमलब्धि का होना-सज्ञिपने का पाना सो रेल के पहियों सरीखा है जिसके कि होने से आगे बढा जा सकता है। देशनालब्धि सीटी का काम करती है जो कि सुझाव देती है। विशुद्धि लब्धि लेन सफाई का सा कार्य करती है ताकि आगे बढ़ने में कोई रुकावट नही रहे । प्रायोग्यलब्धि कोयला और जल का या वायलर का काम करती है जो कि शक्ति प्रदान करती है किन्तु करणलब्धि चावी या हैण्डिल का काम करती है जिसके कि घुमानेसे रेल चल ही पड़तीहै । अस्तु । सम्यक्त्व होने पर इस आत्मा की कैसी चेष्टा होती है सो बताते है तत्वार्थमाश्रद्दधतोऽस्यदूर-वर्तित्वमन्यायपथान्मृदूरः । जानाति भोगान्रुजिजायुमेल-तुल्यानतोनत्यजतीष्टखेलः ॥२६ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) अर्थात् - तस्य भावस्तत्वं वस्तु के स्वरूप का नाम तत्व है और उससे जो प्रयोजन सधे, वस्तु के स्वरूप से जो काम निकले उसे तत्वार्थ एवं उस तत्वर्थ का जो श्रद्धान करे उसे माने उसे तत्वार्थ श्रद्धानी कहते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव तत्वार्थश्रद्धानी होता है । मिध्यादृष्टि वस्तु के स्वभाव को नही मानता आत्मा के सहज भाव को स्वीकार नही करता और न वह अजीव पुद्गल के ही स्वभाव को समझता है। उसकी तो दृष्टि संयोगीभाव पर रहती है । शरीर सहित चेतन को ही आत्मा यानी जीव और इनदृश्यरूप पुद्गल स्कन्धों को अजीव मानता है । ये कीड़ी मकोड़ा पशु पक्षी देव नारकी और मनुष्य ये तो जीव है तथा ईट पत्थर चूना वगेरह अजीव हैं वस और कुछ नहीं ऐसा समझता है । अथवा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पृथक् २ पञ्चभूतों के मेल से वने हुये इस सचेप्ट शरीर को ही जीव समझता है । इस लिये यह कीड़ा मकोड़ा या यह मनुष्य मरगया अर्थात् जीव नष्ट हो गया एवं यह जल में मैंडक, गोवरमें दीमक, घृत में गिंडोला और विष्ठा मे गुड़वाणियां कीड़ा पैदा होगया । अर्थात् इनसे ही जीव निपजगया ऐसा मानता है । थोड़ा अगर आगे बढ़ा तो मानता है कि यह शरीर तो मिट्टी का पुतला है और आत्मा रूप रस गन्धादि से रहित एक व्यापक है सर्वत्र है यह भी संयोगी भाव ही हुवा । अथवा परब्रह्म एक है यह सब उसीकी माया है यह भी संयोगी विकारी भाव हुवा इत्यादि Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) रूप से तत्वश्रद्धानी बना हुवा है । वस्तु के स्वरूप को और का और माने हुये है । कभी अगर सद्गुरु का समागम हो गया तो उनके कहने को ज्ञान में लेकर कहता है कि यह ...इत्यादि सब पर वस्तु हैं मै इनसे भिन्न हूँ कर्म जब है, आत्मा में होकर भी आत्मा से भिन्न है, आत्मा मेरी उनसे भिन्न ज्ञानमय है इत्यादि । तब कहीं चेष्टा में अशुभ से शुभ पर भी आता है परन्तु परसंयोग रहित शुद्धस्वभाव पर रुचि नही लाता है। यह भी कहता है कि राग द्व ेष मेरा स्वरूप नहीं है विकार है, मै जीव हॅू चेतना स्वरूप हूँ इस प्रकार सप्ततत्वादि के विचारसे वर्तमान में सरलभाव होता है । किन्तु स्वभाव की महिमा को पकड़ नही पाता संयोगजभाव की ओर ही झुका हुवा रहता है जैसे कि किसी वैश्यावाज को समझाया जाय, कि वैश्या तो धन से दोस्ती रखती है वह तुमसे प्यार नही करती तुम उसके साथ मे प्रेममें फंस कर दुख पावोगे अपनी धरू स्त्री जो सच्चा प्यार रखती है उससे मिल कर आराम से रहो तो इस बात को सुन तो लेता है और याद भी रखता है किन्तु उस वैश्या की चापलूसीभरी चेष्टा को हृदय पर से नही उतरता है तब तक यह उधर से हट कर अपना कदम इधर नही रखता वैसे ही मिध्या दृष्टि जीव भगवान वीर की बाणी को सुनता है, उसे ज्ञान में लाता है मगर अपनी पर्याय बुद्धि को दिल पर से नहीं उतर पाता शौचता है कि ऋहो यह शरीर न हो तो मैं जप तप संयम कैसे पाल सक्ता हूँ कैसे Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) अपना भला कर सकता हूं। इस विचार पर नही जम पाता कि मेरा आत्मा मिन्नद्रव्य है और यह शरीर युद्गल परमाणुवा का पुञ्ज है. इसका मेरे साथ मे वास्तव मे क्या मेल है कुछ नही । प्रत्येक द्रव्य भिन्न भिन्न होता है एक द्रव्य दूसरे के साथ मिलकर कभी एक नही होजाता और जब एकता नहीं, वहां कौन किसका सुधार और विगाड़ कर सकता है। इस शरीर के परमाणु अपने रूपसे शाश्वत हैं तो मेरा श्रात्माभी अपने रूपमे शाश्वत सदा रहने वाला है इस प्रकार द्रव्य दृष्टि को अपनाने से सम्यग्दर्शन होता है। हां आत्मा के विकार होने मे विकारी पुद्गल - परमाणु समूह निमित्त रूप हो सकता है किन्तु द्रव्य की अपेक्षा से देखा जाय तो प्रत्येक परमाणु भी पृथक पृथक् ही हैं। दो परमाणु कभी भी मिल कर एक नहीं होते और एक पृथक परमाणु कभी भी विकारका निमित्त कारण नहीबन सकता अर्थात् द्रव्य दृष्टि से कोई द्रव्य अन्य द्रव्य के विकार का निमित्त नही होता बल्कि द्रव्य हटि से देखा जाय तो विकार कोई चीज है ही नहीं । जीव द्रव्य में भी द्रव्य दृष्टि से नही किन्तु पर्याय दृष्टिसे विकार है। मतलव इस जीव की वर्तमान अवस्था राग द्वेप रूप हो रही है उसमे कर्मोदय निमित्तकारण जरूर है किन्तु पर्याय तो क्षणस्थायी है। अतः उसे गौरा करके द्रव्य द्रष्टि से देखा जाय तो कर्म फिर चीज ही क्या है कुछ भी नही, कर्म तो पुद्गल परमाणुवी के स्कन्ध विशेष का नाम होता है और द्रव्यत्वेन प्रत्येक परमाणु भिन्न २ हैं स्कन्ध होते Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही नही हैं तो फिर जीव के विकार का निमित्त कौन और निमिच के बिना विकार कहां से ? इस प्रकार द्रव्य दृष्टि के अपनाने पर राग द्वेष को उत्पत्तिका कारण ही जब नही रहता तो वीतरागभाव सहज पापात होता है । एवं जो भी वीतराग बने है। वे सब इसी को स्वीकार करके उसके उपर चलने से बने हैं इस प्रकार के तात्विक प्रयोजन को जो महानुभाव हृदयङ्गम कर लेता है उसका मानस कमसे कम पाषाण सदृश कठोरता को उलांघ कर मक्खन सरीखी कोमलता को स्वीकार कर लेता है । यद्यपि यह जीव जब तक कि संयम धारण नही करता तब तक अपने पूर्व कर्मोदय से प्राप्त हुये समुचित विषय भोगों को भोगता जरूर है परन्तु जैसे कोई रुग्ण आदमी रोग की पीड़ाको न सहसकने के कारण उसके प्रतीकार स्वरूप दया का उपयोग किया करता है वैसे ही यह भी उन्हें अपने काम में लाता है । फिर भी यह अपने ऐश आराम की अपेक्षा दूसरे सजनों को आराम पहुंचाने में विशेष संलग्न रहता है। अपने इस चर्म के लिये नही किन्तु धर्म के लिये सदा ही उत्करिठत रहता है अतः अपनी धाणियों को भी लात मार कर प्राणियों के भले के लिये मरने को तैयार रहता है एवं सहजतया अन्याय मार्ग से दूर रहता है क्यों कि आत्मत्वमङ्ग दधतोऽमिभृष्टि, पर्याय एवास्यवभूवदृष्टिः । सांसमेतस्यनितान्तमन्तोद्रव्येऽधुना दृष्टिरुदेविजन्तोः ३० Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) - अर्थात्- सम्यग्दर्शन होने से पूर्व में आज तक जो यह जीव पर्याय दृष्टि हो रहा था, अपने शरीर को ही अपना स्वरूप समझ रहा था, देह को ही आल्मा माने हुवे वैठा था, इस शरीर से भिन्न श्रात्मा को कोई चीज नहीं समझता था अतः इस शरीर को ही मोटा ताजा और सुडोल बनाने में जुटा हुवा था एवं जव शरीर से न्यारा आत्मा कोई चीज नहीं तो परलोक स्वर्ग और नरक वगेरह फिर रहेही क्या ? कुछ नही इस लिये निःसंकोच होकर पाप पाखएड करने में जुटरहा था, अपने इस शरीर को पुष्ट करने के लिये दूसरों की ज्यान का दुश्मन बना हुवा था । अपनी ज्यान बहु मूल्य किन्तु दूसरे की ज्यानका कोई भी मूल्य नही अतः इसकेलिये भक्ष्याभक्ष्यका विचार तो कुछ था ही नही, सर्व भक्षी बन रहा था। चोरी चुगलखोरी करके भी अपना मतलब सिद्ध करने में लग रहा था कोई भी प्रकार की रोक थाम तो इसके दिल के लिये थी ही नही निरंकुश निडर हो रहा था अगर डर था तो इस बात का कि यह शरीर विगड़ न जावे १ कोई दूसरा आदमी मुझे कुछ कप्ट न दे बैठे २ इस शरीर में कोई रोग वेदना न हो जावे ३ और भी न मालूम किस समय कौनसी आपचि मुक (इस शरीर) पर आपड़े ४ ताकि मैं मारा जाऊं ५ क्या करू कहां जाऊं कोई मेरा नहीं जिसकी शरण गहूँ ६ कोई ऐसा स्थान नही जहां पर ना छिपू ७ इस प्रकार के डरके मारे कांपा करता था। इसकी समझ में यह सारी दुनियां ही इसकी Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) दुश्मन थी क्यों कि यह था अपने मतलब का यार, दुनियां का कांटा । आप धाप चुका तो दुनियां छकी और आप मरा तो जगत्प्रलय हो गया, यह भावना । इस लिये सबसे बैर किसीसे भी प्र ेम नही अगर कही हुवा भी तो वह भी स्वार्थ को लिये हुवे ऊपरसे दिखाऊ प्रम हुवा इस प्रकार अपने शरीर का ही साथी होकर कुपथ का पथिक हो रहा । किन्तु अब जब सम्यग् दर्शन होगया तो अन्तस्तल मे आत्म द्रव्य पर विश्वास हो लिया कि मेरी आत्मा इस शरीर में होकर भी इस शरीर से भिन्न है और सच्चिदानन्द स्वरूप है इस प्रकार के विश्वास के द्वारा इसका वह उपर्युक्त विश्वास अब जाता रहा एवं जो - निश्चयनय के द्वारा व्यवहारनय प्रतिषेध्य है और निश्चयनय का आश्रय लेने पर ही जीव सम्यग्दृष्टि बनता है इस प्रकार के श्री कुन्दकुन्दाचार्य के कथनको सार्थक कर दिखलारहा है क्योंकिववहारणयोभासदि जीवो देहो य हवदि खलुइको । दुच्छियस्स जीवो देहो यकदाविएकट्टो ||२७|| आचार्य श्री ने ही अपने समयसार मे वतलाया है कि जो जीव को और देह को एक बतलाया करता है वह व्यवहारनय होता है किन्तु जो जीव और देहको कभी भी एक न बताकर सर्वदा भिन्न भिन्न बतलाता हो वह निश्चय नय है । परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव निश्चय नयाश्रयी होता है इसका मतलब यह नहीसमझना चाहिये कि वह व्यवहार को बिलकुल भूल ही जाता हो अपितु इतर प्राणियोंके प्रति वह व्यवहार का पूरा पूरा आदी होता है I Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) अपने शरीर पर अगर कोई आपत्ति आती है, उसे सहन करता है उसमें पत्थर के समान मजबूत दिलवाला रहता है। घबराता नही है शोचता है कि यह चित्र बाधा मेरा क्या बिगाड़ सकती है, यह तो शरीर पर होती है, मेरी आत्मा तो शरीर से भिन्न है उसका कोई बिगाड़ इससे नही होसकता इस मेरे कहलाने वाले शरीर के भी परमाणु वस्तुतः सब भिन्न भिन्न नित्य हैं उनका भी इससे विगाड़ हो सकता है क्या ? किन्तु नही फिर घबराने की बात ही कौनसी है इति । मगर वही जब दूसरी पर किसी प्रकार को आपत्ति को आई हुई देखता है तो झट ही अग्नि से मक्खन की भांति इसका मन पिघल उठता है, यथा शक्ति उसे उन पर से दूर करने की चेष्टा करता है। वहां यह नहीं शोचता कि इनकी आत्मा तो शरीर से भिन्न है इत्यादि । और इसी लिये अपनी तरफ से जहां तक हो सके किसी को भी किसी प्रकार का कष्ट देना ही नहीं चाहता है क्यों कि यह जानता है कि इनकी आत्मा और शरीर परस्पर जब एक बन्धन रूप हैं तो फिर इनके शरीर में किया हुवा कष्ट इनकी आत्मा को ही होता है, उस कष्ट का सम्बेदन तो इनकी आत्मा ही करती है। ऐसा शोच कर हिंसा, झूठ, चोरी अभक्ष्य भक्षणादि कुकमोंसे बचा हुवा रहता है, सबके साथ मित्रता का व्यवहार करता है । पूर्वोक्त मिथ्यादृष्टि सरीखी क्रूरता का इस में नाम लेश भी नही रहता, यह सभी के साथमे प्रेम का वर्ताव रखता है। किसी के भी प्रति Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) इसका पैर विरोध द्वीप भाव प्रथम तो होता ही नही अगर कहीं किसी पर होता भी है तो पुत्र के प्रति पिता की भांति उसे ताड़ना देकर उसे सत्पथ पर लाने के लिये स्नेहान्वयी रोप हुवा करता है जैसा कि विष्णुकुमार स्वामी का रोष कि ब्राह्मण पर हुवा था तो जिसकी कि गणना द्वष में नही होनी चाहिये । यद्यपि इस सम्यग्दृष्टि का खुद का भोलेपन बगेरह से कोई अविनय कर देता है तो उसकी तरफ यह कुछ ध्यान नहीं देता परन्तु किसी के द्वारा किये गये हुये पूज्य पुरुषों के अविनय को यह कभी सहन नही कर सकता क्यों कि आप उनका यथाव्यवहार पूर्ण विनय करता है। यद्यपि शरीर से आत्मा को भिन्न मानता है अतः शरीर में से बहने वाले पसीने को आत्मा की क्रिया न मान कर उसे शरीर की क्रिया मानता है, परन्तु खाना, पीना, स्त्री सम्भोग करना और कपड़ा पहनना जैसी क्रियावों को निरे शरीर की ही क्रिया नहीं मानता वल्कि वहां पर शरीर और आत्मा को एक जान कर उन्हें तो अपने ही द्वारा की गई हुई मानता है। इस प्रकार निश्चयनय सहित व्यवहारनय का अनुयायी होता है। हां पूर्वोक्त मिथ्या दृष्टि की भांति निरे. व्यवहार का ही अनुयायी हो सो बात अब नही है किन्तु सद्व्यवहार का धारक होता है । क्यों कि इसका दर्शन मोह तो गलगया फिर भी चारित्र मोह बाकी है ताकि रागांश के वश होकर इसे ऐसा करना होता है और इसी लिये यह सराग सम्यग्दृष्टि Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) - कहा जाता है । अस्तु । इस प्रकार आत्म-प्रयत्न से मिथ्यात्व को दवा कर सम्यक्त्व प्राप्त किया जाता है वहां कितनी देरतक रहता है और उसका क्या नाम है सो बताते है-- सम्यक्त्वमेतत्प्रथमोपशाम, मन्तमुहूर्तावधिभातिनाम । पश्चातुमिथ्यात्वसुनियद्वाप्राप्तिश्चसम्यक्प्रकृतेरियवाक् ॥३१॥ अर्थात्-मिथ्यादृष्टि से सम्यग्दृष्टि बनने वाले दो प्रकार के जीव होते हैं एक अनादि, दूसरा सादि । सो अनादि मिथ्या प्टि जीव एक दर्शन-मोहनीय और चार अनन्तानुचन्धि कपाय इन पांच प्रकृतियों का उपशम करके उन्हें दवाकर सम्यग्दर्शन प्राम करता है जो कि सम्यग्दर्शन एक अन्तमुहूर्त मात्र काल तक रहता है परन्तु इस अन्तमुहूर्त मान सम्यक्त्वकाल में वह जीव अपने आत्म-परिणामों द्वारा सन्चा में रहने वाले उस मिथ्यादर्शन कर्मके तीन टुकड़े करलेता है । दर्शनमोह, मिश्रमोह और सम्यक् प्रकृति मोह कर्म । अब सम्यग्दर्शन का काल ममाप्त होते ही अगर मिथ्यात्व का उदय आया तो वापिस मिथ्या दृष्टि बन जाता है फिर जव कमी सम्यग्दृष्टि बनता है तो यह सादि मिण्याइष्टि जीव अपनी तीन तो दर्शनमोह की और चार अनन्तानुवन्धि कपाय इन सात प्रकृतियों का उपशम करने से सम्यग्दृष्टि हो पाता है। इस प्रकार मिथ्याष्टिसे जोसम्यग्दृष्टि बनता है उसके सम्यग्दर्शन को प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहते हैं । हां इस प्रथमोपशम Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्ववाले के दर्शनमोह का उदय न आकर सम्यक्प्रकृति मोह का उदय आया तो क्षायोपशमिक तम्यग्दृष्टि और अगर मिश्रमोहनीय का उदय आया तो मिश्रस्थानी भी बन सकता है किन्तु बाद में फिर मिथ्या दृष्टि होना पड़ता है । ऐसा कितनी बार होता है सो नीचे बताते हैंमिथ्यादशातः समुपैतिसम्यग्दशामतोऽन्यावहुशोऽभिगम्य। यावत्खनुक्षायिकभावजातिस्तत्पूर्तितोऽन्तेशिवतांप्रयाति - २ अर्थात्- इस प्रकार अपने उस अर्द्धपुद्गल परिवर्तन काल में यह जीव मिथ्या दृष्टि से सम्यग्दृष्टि और सम्यग्दृष्टि .से फिर मिथ्या दृष्टि अनगिनतीवार भी होजा सकता है जब तक कि इसे क्षायिकभाव की प्राप्ति न हो जाती है । अन्त में जब अधिक से अधिक अपने अन्तिम जन्म से पूर्व के तीसरे जन्म में दर्शन मोह का नाश करके चायिकसम्यक्त्व प्राप्त करता है यानी क्षायिक सम्यग्दर्शन जिस भव में होता है उस भव सहित चार भव तक संसार में अधिक से अधिक रहता है क्योंकि फिर भी क्षायिक चारित्रका प्राप्त करना इसके लिये बाकी रहजाता है सो उसे अपने चरम जन्म में प्राप्त होकर घाति कमों का नाशकर केवल ज्ञानी बनकर आयु के अन्त में अशरीर होते 'हुये साक्षादमूर्त सिद्ध दशा प्राप्त करता है । सो आज तक के बीते हुये काल में ऐसे अनन्त सिद्ध परमात्मा हो गये हैं जिनका संक्षिप्त स्वरूप नीचे बतलाते हैं Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वन्देऽन्तिमांगायितबोधमूर्तीनुपाचसम्यक्त्वगुणोरुपूर्तीन् । लोकाग्रगान्विश्वविदेकभावानहंसदानन्दमयप्रभावान् ॥३॥ __ अर्थात् सिद्ध होजाने के बाद उनकी आत्माका परिणमन उनके अन्तिम शरीर से कुछ न्यून तथा रूप रस गन्धादि से रहित होरहता है । वे परिपूर्ण शुद्धता को लिये हुये ज्ञान दर्शनादि अनन्त गुणो के भण्डार हो रहते हैं। यद्यपि वे सिद्ध भगवान जाकर लोक के अग्रभाग में विराजमान हो रहते हैं मगर अपने सहज अखण्ड ज्ञान से विश्वभर के पदार्थोको स्पष्टरूप से जानते रहते हैं । इस लिये सदा आनन्दमय स्वभाव के धारक होते हैं ऐसे सिद्धपरमेष्ठियों को मेरा नमस्कार हो। अस्तु । उस सिद्धदशा का मूल भूत वीज जो सम्यक्त्व है वह कैसे प्रस्फुट होता है सो बताते हैंहँगमोहकर्म त्रितयस्यतस्य चारित्रमोहायचतुष्टयस्य । सम्यक्त्वमस्तूपशमाचनाशानिगद्यतेऽमुष्यदशासमासात् ३४ अर्थात्-जैसे जमीन के अन्दर छिपा हुवा वीज, जो है यह अनूपरपन, खाद, पानी और पलाव की मदद से समय पाकर अपनी स्मरण शक्ति के द्वारा मिट्टी को दवाकर अंकुरित हो लेता है वैसे ही कर्मो के भार से दया हुवा यह जीवात्मा भी जब पूर्वोक्त क्षयोपशम,देशना,विशुद्धि और प्रायोग्यलब्धि की मददसे काललब्धि होने पर अपनी करण शक्ति के द्वारा मोहको दवा कर सम्यक्तवान् बनता है । मोहकर्म का ह्रास उपशम, क्षय Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) और क्षयोपशम के भेद से तीन तरह का होता है अतः सम्यक्त्व के भी औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक इस प्रकार तीन ही भेद हो जाते हैं । याद रहे कि मोहके दर्शनमोह और चारित्र मोह ऐसे दो भेद होते हैं सो दर्शनमोह के साथ ही साथ चारित्रमोह का भी प्रभाव हो जाता हो ऐसी बात नहीं किन्तु दर्शनमोह के अभाव मे चारित्रमोह बिलकुल अछूता ही बना रह जाता हो, वह अपनी पूरी ताकत बनाये रेखता हो और सम्यग्यदर्शन हो जावे सो बात भी नहीं है । किन्तु दर्शनमोह के साथ चारित्र मोह की भी एक चतुर्थाशलि हो लेती है तभी सम्यग्दर्शन होता है अतः सम्यग्दर्शन को भी सम्यक्त्व शब्द से कह दिया जाता है वरना तो सम्यग्क्त्व नाम तो मोह के प्रभाव का है । अस्तु । दर्शन मोह की तीन प्रकृतियां और चारित्र मोह की सुरू की अनन्तानुवन्धि नाम वाली चार प्रकतियां इन सात प्रकृतियों का उपशम होने पर तो औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है जिसको कि प्रथमोपशमिक सम्यग्दर्शन भी कहते हैं क्योंकि एक औपशमिक सम्यग्दर्शन वह भी होता है जिसको कि उपशम श्रेणि के सम्मुख होने वाला बायोपशामिक सम्यग्दृष्टि जीव प्राप्त करता है। जो कि अपनी सम्यक प्रकृतिका उपशम और अनन्ता नुवन्धि चतुष्टय का विसंयोजन करके कर पाता है उसको द्वितीयौपशमिक सम्यग्दर्शन कहा जाता है। उन्हीं सात प्रकृतियोंका क्षय होनेसे,उनमें होने वाले कर्मत्व का सर्वथा अभाव हो जाने से जो हो वह क्षायिक सम्यग्दर्शन Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) - होता है । चकारसे क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन भी होताहै जोकि क्षयोपशम से होता है । वर्तमान काल मे उदय आनं योग्य कर्मों के सर्वघाति स्पर्द्धको का तो उदयाभावी क्षय हो, वे अपना कुछ भी असर श्रात्मा पर न दिखा कर वेकार होते जा रहे हों और देशघाति सड़कों का उदय हो अर्थात् वे अपना प्रभाव दिखाते रहते हो किन्तु आगामी काल मे उदय आने वाले स्पर्द्धकों का सदयस्थोपशम हो यानी उनकी भी सदीरण न हो आवे ऐसी कर्मों की अवस्था को क्षयोपशम कहते हैं। मतलव कि आत्माके ज्ञानावरणादि पाठ कर्मोमे से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, माहनीय और अन्तराय ये चार कर्म तो घाति कर्म कहलाते हैं क्यों कि ये आत्मा के ज्ञानादि गुणों का घात करते हैं। वाकी के चार कर्म अघाति होते हैं क्यों कि वे स्वमुख से आत्मगुणों का घात नहीं करते किन्तु उन्हीं घाति कर्मो की सहायता करते हैं । सो उन घाति कमों में दो तरह के स्पर्द्धक होते हैं, एक तो सर्वघाति जो कि आत्मगुणों को पूरीतोर से घातते हों और देशघाति जो कि आत्मगुणों का आंशिकरूप में घात करते हों । एवं सम्यक्त्व को न होने देने वाली-उपयुक्त सात प्रकृतियों में से एक सम्यक्प्रकृति तो देशांति है, वाकी की छः प्रकृतियां सर्वधाति । सो क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के उन छः प्रकृतियों का तो विपाकोदय न हो कर सिर्फ प्रदेशोदय होता रहता है उनके स्पर्द्धक तो मृत प्राय होकर निकलते रहते हैं किन्तु एक सम्यक्प्रकृति अपना Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) फल दिखलाती रहती है ताकि उसके सम्यग्दर्शन का घात न होकर उसके परिणामों में चल बिचलपना होता रहता है। जैसे कि बुढ्ढ़े के हाथ मे होने वाली लाठी अपना कार्य करती हुई भी स्थिर और दृढ़ न होकर हिलती हुई रहा करती है। बाकी के औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दृष्टि के परिणाम सुदृढ और निर्मल होते हैं जैसे कि जवान आदमी के हाथ मे होने वाली तलवार अपना कार्य अच्छी तरह से करती है । अस्तु । इस सम्यग्दृष्टि की भी चेष्टा कैसी होती है सो ही संक्षेप मे आगे बता रहे हैं यं पुनर्लोक पथेस्थितोऽपि न सम्भवेत्तात्विकवृत्तिलोपी नजङ्गमायाति सुवर्ण खण्ड: पढ्के पतित्वेव लोह दण्डः | ३५ | | अर्थात्- यह उपर्युक्त सम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि सम्यग्दर्शन प्राप्त कर चुका है फिर भी चरित्रमोह का अंश इसकी आत्मा मे अभी विद्यमान है इस लिये प्रवृत्ति इसकी ठीक जैसी होनी चाहिये वैसी अभी नही हो पाई है । यद्यपि जान चुका है कि यह शरीर मेरे से या मेरी आत्मा से भिन्न है तथा जितने भी ये माता पिता स्त्री पुत्रादि रूप सांसारिक नाते हैं वे सभी इस शरीर के साथ हैं ऐसा, फिर भी इस शरीर के नातेदारों को ही लोगों की भाति अपने नातेदार समझते हुये उनके साथ में वैसा ही वर्ताव किया करता है। तो भी अपनी उस तात्विक श्रद्धाको खो नही डालता है वल्कि इस व्यावहारिक Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) - चेष्टा से भी उसको पुष्ट करने की कोशिश करता है । इस बात के समझने के लिये हमें मैंनासुन्दरी को याद करना चाहिये । मैना से जब उसके पिता ने कहा कि बेटी मैना, तेरी बड़ी बहन सुरसुन्दरी के समान तू भी तेरे पति को निगाह करले तू कहेगी उसी महाराज कुमार के साथ में मै तेरी शादी करदूंगा। इस पर पिता को पिता मानते हुये मैना ने कहा कि पिता जी यह मेरा काम नहीं है यह तो आपका कार्य है आप जिसके भी साथ में उचित समझे मेरी शादी कर । इस पर पिता ययपि नाराज हुवा और बोला कि देख तू अपने 'पति को अपने आप हूँढ ले नहीं तो इसमें अच्छा नही, किन्तु तेरा बहुत बुरा हो जावेगा इत्यादि । किन्तु मैना तो अपनी श्रद्धा को अटल किये हुये थी कि मेरे पूर्वोपार्जित कर्म के अनुसार जिस किसी के साथ में मेरा सम्बन्ध होना है वही तो होगा इसमें कोई क्या कर सकता है । तो फिर मै क्यों व्यर्थ ही निर्लन वनू और क्यो कायरों की श्रेणी में अपना नाम लिखाने का काम करू। शङ्का-तो क्या अपने भले के लिये प्रयत्न करना कायरता है ? यल्कि वह तो पुरुषार्थ है । उत्तर - आप कौन और उसका भला क्या करना ? आप तो हैं आल्मा जिसका कि भला वीतरागता में होता है सो कपायोदय का निमित्त उपस्थित होने पर भी उसको अपने उपयोग में न लाकर वीतरागता अर्थात्- मन्दकदायिता को Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 5 ) + और भुकना इसी का नाम तो यत्न है जैसा कि मैंना ने किया। था। प्रत्युत निमित्तानुसार परिणमन करके कार्यों को पुष्ट ... करना तो कायरता है जैसा कि अज्ञानी जीव किया करता है। यही दो संसारी जीव और मुक्तिमार्गी जीवमें परस्पर विशेषता .. होती है । कीचड़में पड़कर लोहा जङ्ग पकड़ जाया करताहै,मगर सोना वैसा नही होता वह भले ही 'जब तक उसमें पड़ा है उससे लिपा हुवा रहता है फिर जहां उसे जरासा पानी से धोया कि माफ सुथरा हो लेता है । वस तो वैसे ही सम्यग्दृष्टि जीव भी जब तक गृहस्थ होता है या कपायवान् है तब तक कर्म और कर्मफलरूप अज्ञान चेतनामयी चेष्टावाला होता है फिर भी मिथ्याप्टि की अपेक्षा से उसमें बहुत कुछ अन्तर होता है सो ही नीचे स्पष्ट करते हैं एतस्य वाड्यात्मवतोऽपिचेतः कर्मण्यथोकर्मफलेतृ चेतः । तथापिरामस्यचरावणस्ये, बबुद्धिमानन्तरमाशुपश्येत् ॥३६॥ अर्थात्- यद्यपि उदय में आये हुये कर्म के फल को मिथ्यादृष्टि की तरह से सम्यग्दृष्टि भी भोगता है तथा अपने कपायांश के अनुसार पापके फल को बुरा और पुण्य के फलको अच्छा भी समझता है अतः जब तक गृहस्थावस्था में होता है वव तक पाप के फल से बच कर पुण्यफल को बनाये रखने की यथा साध्य बुद्धिपूर्वक चेष्टा भी करता है फिर भी इन दोनों की चेप्टा में पशु और मनुष्य का सा अन्तर होता है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 12 ) खाने को पशु भी खाता है और मनुष्य भी किन्तु पशुसिर्फ पेट पालने में ही लगा रहता है उसे औचित्यानौचित्य का विचार नही रहता भूसे के साथ में कोई कांटा कंकरं मिट्टी हो उसे भी खाजाता है तो मनुष्य उन्हें यत्नपूर्वक हटा कर अपने भोजन को माफ सुथरा करके खाया करता है । 'किन बछड़ों गायका दूध पीता है उससे श्राप भी फोरपाता है और गाय भी आराम से रहती है, वैसे ही सम्यग्दृष्टि की चेष्टा खुद के लिये और दूसरो के लिते भी लाभदायक हुवा करती है परन्तु मिथ्या दृष्टि जीव अपनी चेप्टा के द्वारा आप भी कष्ट भोगता है तो औरों को भी कष्टप्रद हुवा करता है, जैसे कि जोक पराया खून चूसती है सो उसे तो कष्ट पहुंचाती ही है किन्तु आप भी कष्ट उठाती है । देखो कि कौटम्बिक जीवन के भोगने वाले राम भी रहे और रावण भी था किन्तु दोनों के रहन सहन में कितना अन्तर था इसको विद्वान आदमी सहज में समझ सकता है। श्री रामचन्द्र अपने पिता का वचन व्यर्थ न हो पावे और मोसी केकई को कष्ट न पहुंचे सिर्फ इसी लिये अपने न्यायोचित राज्य को भी भाई भरत के लिये ढ़े चले और आप जङ्गलों में घूमते फिरे रास्ते में भी जो कुंछ राज्य सम्पत्ति पाई उसे चोरों के लिये अर्पण करते चले गये इसी मे उन्हें आनन्द प्राप्त था । जब सीता हरीगई तो उसका पता लगाना और शीघ्र से शीघ्र लाना एक आवश्यक बात थी फिर भी सुप्रीय जब मिला तो बोले कि मेरी सीता की तो कोई Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) - - - - - बात नही मैं पहले तुझे तेरी सुतारा दिलाता हूं, चलो। बाहरे उदारता और वाहरे परोपकार क्या कहना हो इस महचा के बारे में.। अब चलो रावण की तरफ-रावण जब खर दूपण जो कि उसका बहने लगता था उसकी भी मदद के लिये जब रवाना हुवा और रास्ते में मनमोहिनी-सीता को जब देखपाया तो खर दूषण की सहायता करने को तो भूल गया और बीच में ही सीता को हथियाके चलता बना, एवं जब लोगों ने उसे समझाया कि यह बात तुम्हारे लायक नहीं है तो गुरुजनों की बात को भी ठुकरा कर उसने विमीपण सरीखे ' भाई को भी निकाल बाहर कर दिया, क्षणिक भोगविलास की लालसा में फंस कर अपने आपके लिये तथा औरों के लिये भी कांटा बन गया इसी लिये राक्षस कहलाने का अधिकारी हुवा । बस तो यही सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि की चेप्टा में अन्तर होता है। मिथ्यादृष्टि जीव भोगों के पीछे मरपूरा देता है किन्तु सम्यग्दृष्टि गृहस्थ अपने संप्राप्त भोगों को । उदारताके साथ भोगताहै सो नीचे फिर स्पष्ट कर बताते हैंप्राप्त्यैतुभोगभ्ययतेतसव्यस्तंप्राप्तमेवानुकरोतिभव्यः । साम्राज्वमगीकृतवान्सुभौमः मुतः पुरोरत्रच सार्वभौम: ३७ ।। अर्थात्-- मिथ्यादृष्टि जीव नये से नये, भोगों को गने के लिये लालायित बना रहता है जैसे कौवा जब | यासा होता है तो एक बूंद किसी घड़े में से पीकर फिर एक Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८१ ) ► चंचु किसी दूसरे घड़े मे जा मारता है ऐसे कई गृहस्थों के घड़ों को विगाड़ डालता है तो भी तृप्त नहीं हो पाता । भोग भोगता अत सम्यग्हष्टि भी है मगर वह अपने कर्मोदय के अनुसार जो कुछ उसे प्राप्त होता है उसी को सन्तोष के साथ भोगा करता है जैसे कि पालतू पिल्ला अपने मालिक की दी हुई रूखी सूकी रोटियों को खाकर मस्त बना रहता है । इस बात को समकने के लिये हमारे पाठको को सुभौम चक्रवर्ती और भरत चक्रवति का स्मरण करना चाहिये। भरत जी तो श्री ऋषभदेव भगवान् के जेष्ठ पुत्र एवं इसी युग के आदि चक्री होगये हैं । सुभम भी इस युगके चक्रवर्तियों में से एक हैं। दोनों ही इस छः खएड पृथ्वी के भोक्ता थे छिनवे विनवे हजार स्त्रियों के पति थे । अठारह कोड़ घोड़े, चोरासी लाख हाथी, नवनिधियां और चौदह रत्न इत्यादि सब बातें दोनों के एक समान थीं । हजारों देव जिन का सेवा और पगचम्पी करने वाले थे परन्तु दोनों के श्रात्मपरिणामी में जमीन- श्रासमान का सा अन्तर था, भरत जो दिन सरीखे प्रकाश को लिये हुये थे तो सुभौम रात्रि के अन्धकार में पड़ा हुवा | भरत महाराज इस सब ठाठ को अपने पूर्वकृत सविकल्प धर्म का फल मान रहे थे अतः धर्मको ही प्रथमाराध्य समझ रहे थे और वीतरागता के आनन्द के श्रागे इन भोगों के सुख को अमृत के सम्मुख खल के टुकड़े जितना भी नहीं मान रहे थे इस लिये अन्तमें इसे त्याग कर ऊरासी देर मे पूर्ण वीतराग हो लिये । किन्तु } · Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२ ) सुभौम अपने राज्य को अपने बाहुवों के बल से प्राप्त किया हुवा और बहुत बड़ी चीज मान रहा था, धर्मको ढकोसला समझ रहा था एवं भोगविलास में मग्न था इसी लिये अन्तमे एक आम के फल के स्वादमं पड़कर हड़काये हुये कुत्त े की भांति बेढङ्गपन से मारा जाकर नरक में पड़ा । बस इस प्रकार मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि के विचार में भेद होता है बल्कि भोगों को भोगते समय में भी दोनों की चेष्टा में बहुत कुछ भिन्नता होती है उसीको नीचे उदाहरण से स्पष्ट करते हैंनाक्ति भोगान्नम स लक्ष्मणथरामश्च क्रिन्त्वन्तर मप्युश्चत् युद्ध' पुनः पाण्डव कौरवाम्याँमिथः कृतेऽप्यन्तरमेवताभ्यां ३८ अर्थात- एक राज्य वैभव के भोगने वाले राम और लक्ष्मण इन दोनों भाइयों में भी परस्पर में आत्मपरिणामों में बहुत कुछ अन्तर रहा है। देखो कि जब केकई के कहने से दशरथ महाराज अयोध्या का राज्य भरत को देने लगे तो इस पर क्रोध में आकर लक्ष्मण तो धनुप तान करके दिखाने के लिये खड़े हो जाते हैं मगर श्री रामचन्द्र अपनी सरलता दिखलाते हुवे उसे ऐसा करने से रोक रहे हैं कि नही भैय्या तुम लड़कपन मत दिखलावो हमें ऐसा करना उचित नहीं । वल्कि माता केकई के चरणों मस्तक रखना और पिता जी की आज्ञानुसार अयोध्या को छोड़ कर चल ही देना चाहिये । रावण से प्रतिद्वन्द्विता करते समय भी लक्ष्मण तो यह कहता Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) - जारहा है कि रावण बड़ा दुष्ट है, हम उसे मारे बिना नहीं छोडेगे परन्तु श्री रामचन्द्र बोलते हैं कि नही, रावण से हमारा क्या विरोध है, रावण तो हमारे बड़ों में से है, हमें तो हमारी सीता राणी से प्रयोजन है । रावण जब बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करने लगा तो सुग्रीवादि समी घबराये कि उसे अगर बहुरूपिणी विद्या सिद्ध होगई तो फिर वह किसी से भी नही जीता जाने का, उसके ध्यान में विघ्न डालदेना चाहिये । इस पर श्री रामचन्द्र तो अपनी सहज गम्भीरतासे जबाब देते हैं कि इस समय जव कि वह धर्माराधना में लगा हुवा है वो उस पर उपद्रव मचाना ठीक नहीं है, भलेही हमारी सीता हमे न मिले इत्यादि । मगर फिर भी लक्ष्मण उठता है और गुप्तरूप से इसारा करके रावण के प्रति विन्न करने के लिये अंगदादि को भेज देता है। इसी प्रकार सीता की बुराई बतलाने के लिये अयोध्या के लोग जब आये हैं तो लक्ष्मण तो क्रोध करके उन्हें मारने को तैयार हो जाते हैं किन्तु श्रीराम उनकी बातको ध्यान से सुन कर उन्हे छाती से लगा लेते हैं और सीता को निकाल ही देते हैं । एवं एकसा राज्य भोग करते हुये भी आत्मपरिणति की विशेषता से ही लक्ष्मण वो आज भी पाताल का राज्य कर रहे हैं किन्तु श्रीरामचन्द्र अन्तमें कर्म काट कर मोक्ष प्राप्त कर गये हैं । यही हाल कौरव और पाण्डवों का था दोनों राज्य के हामी थे, दोनों परस्पर युद्ध में जुटे हुये थे फिर भी एक बुराई के रास्ते पर था वो दूसरा भलाई की ओर Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा रहा था । कौरवों की हरेक चेष्टा में क्रूरता, छल, विश्वासघात और गुरुद्रोह सरीखी बातें भरी थीं किन्तु पाण्डवों में एक युधिष्ठिर की आज्ञानुसार चलना, विनय, सरलता, सत्यवादिता आदि गुण दीख पड़ते थे। जो कि उनकी जीवनी को पढ़ने से स्पष्ट होते हैं। मतलब यह कि वही कार्य अपनी इन्द्रियाधीनता शारीरिक आराम को लक्ष्य में रख कर किया जाता है तो वहां मिथ्यात्व, पाप-पाखण्ड प्राधमकता है परन्तु उसी काम को कर्तव्यशीलता, परोपकार की भावना से करने पर उसमें धार्मिकता की पुट लगी हुई हुवा करती है जैसा कि नीचे के उदाहरणं से भी स्पष्ट होगा खयष्टखायैवपतिगृहीतु ममिप्रर्थना सुरसुन्दरीतु । सिसेवच खामिन मन्तरव्दाच्छीसुन्दरीसा मदनोपशव्दा ३६ अर्थात् सुरसुन्दरी और मैनासुन्दरी येदोनो राजा पुष्पपाल की लड़की थी सुरसुन्दरी बड़ी और मैना उससे छोटी । जब ये दोनों पढ़नेके योग्य हुई तो सुरसुन्दरी तो किसीभी पाण्डेजी 'के पास किन्तु मैना किसी आर्यिका जी के पास विद्या पढेने के लिये रक्खी गई। तुक्मतासीर होती ही है मंगर सोबत का भी असर होता है इस कहावत के अनुसार पढ़ने की योग्यता तो उन दोनों की अपनी अपनी थी ही परन्तु जैसी उन्हें शिक्षा मिली उसी ढांचे में उनका उपयोग ढलगया । सुरसुन्दरी को पाण्डे जी ने बतलाया कि जो कोई अपनी कोशिश से अपने Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८५ ) राम के साधन जुटाता है वह अपनी जिन्दगी अच्छी तरह से बिता सकता है । किन्तु मैना को समझाया गया था कि माता पिता पति पत्नी भाई बन्धु बगेरह का जो कुछ सयोग होता है वह इसीके पूर्वोपार्जित कर्मानुसार हुवा करता है । अतः उसमें उद्विम न हो कर उनकी यथासाध्य सेवा करते हुये अपने कर्तव्य का पालन करते रहना चाहिये और परमपरमात्मा का स्मरण करते हुये अपने उपयोग को निर्मल बनाना चाहिये ताकि आगे के लिय सब ठीक होता चला जावे इत्यादि । सो ' सुरसुन्दरी ने तो अपने विचारानुसार किसी एक बड़ेभारी राजकुमार को अपने आप पति निर्वाचित करके उसके साथ विवाह किया किन्तु मैना का सम्बन्ध श्रीपाल कोढी के साथमे किया गया । अव दोनों ही अपने २ पति को अपना २ पति समझती हैं फिर भी दोनों के विचार मे बड़ा अन्तर है। सुरसुन्दरी तो उसको अपने लिये सुखका साधन समझ कर उसके साथ आराम भोगने लगी और उसमे इतनी अन्धी हुई कि अपने धर्म कर्तव्य से शून्य हो जाने के कारण एक दिन उसे भिखारिन बनना पड़ा । परन्तु मैना अपने आपको कष्ट मे डाल कर भी पतिकी सेवा करना अपना कर्तव्य मानती हुई अपने अन्तरंग में भगवान का स्मरण रखते हुये विशुद्ध भाव से उसकी सेवा करने लगी ताकि अन्तमें इस दुनियां के लोगों के लिये आदर्श बन गई । मतलब यह कि गृहस्थता के नाते, एकसा होकर भी मिध्यादृष्टि जीव अपनी उलटी समझ के Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) कारण उसमें फंस कर पतन करजाया करता है, खकार मे पड़ी हुई मक्खी के समान । किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव अपने सन्मनीभाव से अगर गृहस्थपन में भी होता है तो कालक्षेप जरूर करता है फिर भी फंस नही रहता है बीच की स्टेशन के उपर खड़ी हो रहने वाली गाड़ीके समान । किन्तु जनसेवा का भाव लिये हुये सत्ता स्वीकार करता है सो बताते हैंनतुङ्ममार्यं कुविधामनुस्यादेके तिबुद्धयासुतमत्रपुण्यात् । परा तु तं मोदकरं विचार्याऽभिसन्निदध्यादिदमाहुरार्या: ४० " ― अर्थात् - यहां कर्मफल चेतना और कर्म चेतनारूप अज्ञान चेतनाका प्रकरण चला आरहा है सो वह दो प्रकारकी होती है एक शरीराश्रित दूसरी आत्माश्रित । सो शरीराश्रित अज्ञान चेतना तो मिध्यादृष्टिकी होती है और आत्माश्रित अज्ञानचेतना सराग सम्यग्दृष्टि की। जैसे माता अपने बच्चे का पालन पोषण करती है तो उसका पालन करना माता का कार्य यानी कर्म हुवा और उसके पालन करने के बारे की जो बुद्धि-विचारविशेष उसका नाम चेतना, वह उसकी दो प्रकार से होती है। एक तो यह कि यह बच्चा बड़ा खूबसूरत है बड़ा सुहावना है मुझे बड़ा प्यारा लगता है इस प्रकार के विचार को लेकर उसका पालन करना सो यह तो शरीराश्रित कर्मचेतना हुई क्यों कि इसमें उस बच्चे की आत्मा के हिताहित पर कोई विचार न होकर उसके शरीर की ओर का ही विचार होता है । वह जिस प्रकार हृष्ट पुष्ट ' Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८७ ) वनारहे, उसीकी चेष्टा कीजाती है, भले ही बच्चा बुरी आदतों में ही क्यों न पड़ जावे, उसे कुछ भी ताड़ना देने को तवियत नही होती । मो यह विचार खोटा और मोही जीव का होता है। दूसरी विचारधारा माता की बच्चे के प्रति यह हो सकती है कि इस बच्चे की आत्मा ने जव कि तेरे उदर से शरीर धारण किया है ताकि तू इसकी माता कहलाती है तो तेरा कर्तव्य हो जाता है कि तू इसे ऐसे ढंग से रक्खे ताकि कोई पापमय बुरी आदत न अपना पावे एवं मनुष्यता पर आकर अपना भला कर सके । यह इस प्रकार के विचार से उस बच्चे की सम्भाल रखना सो आत्माश्रित कर्म चेतना है जो कि सम्यग्दृष्टि गृहस्थ जीव की होती है । ताकि वह उस पुत्र पालनरूप कार्य के द्वारा पाप में न फंस कर पुण्य का कर्ता होता है। इसी तरह और भी बातों में सममलेना चाहिये जैसे कि कपड़े पहनना सो एक तो अपने को आरामदायक समझ कर यथावित्त अपने मन को भाने वाला अच्छे से अच्छा कपड़ा पहनता है भले ही वह सज्जनों की दृष्टि में उसके देशकालादि के विरुद्ध भी क्यों न हो। और इसी लिये वह उसमें पापोपार्जन करता है परन्तु दूसरा आदमी शोचता है कि मैं अभी गृहस्थावस्था में हूँ मुझे वन विहीन रहना उचित नहीं, मुझे कपड़ा पहने रहने की ही गुरुवों की आज्ञा है तो वह अपने पदस्थ के योग्य सुघडवल पहरता है और अपना देवाराधनादि का काम निकालवा है सो पुण्य कमाता है । इस प्रकार मिथ्यादृष्टि के कार्यों में और Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 6 ) - सम्यग्दृष्टि के कार्यों में अन्तर होता है । सम्यग्दृष्टि की हरेक चेष्टा ही सद्भावना को लेकर होती है अतः वह पापापहारक होकर पुण्य वर्द्धक हुवा करती है किन्तु मिध्यादृष्टि को वही चेष्टा दुर्भावना को लिये हुये होने से पापमय होती है । वल्कि मिथ्याष्टि जीव एक वार के लिये त्याग करके निश्चेष्ट होकर निष्कर्मता की ओर भी आये तो भी वह पाप से मुक्त होकर धर्मात्मपन को नहीं प्राप्त हो पाता सो नीचे बताते हैंनाप्नोतिधर्महिरात्मतातस्त्यक्त्वापिपाया विषयानिहातः धर्मात्मवाविज्ञउपैतिवाय-त्यागातिगोऽपिक्षमताविगाह ४१ यदृच्छयान्तः करणहिजुष्टं ग्रीष्मेणनग्नत्वमितःसदुष्टः । कष्ट सहन्सभ्यतयैतिवास श्लाघ्यत्त्वमाप्नोतिगृहीतदास:४२ अर्थात्- एक आदमी ने जेठ के महीने में गर्मी के मारे घबरा कर अपने शरीर पर के तमाम कपड़े उतार कर फेंक दिये और नङ्गा बन गया तो कोई भी उसे अच्छा नहीं बताता, उलटा दुष्ट कहकर लोग उसका निरादर करतें हैं क्यो कि वह उसकी यहच्छावृत्ति है उसका मन उसके बिलकुल बशमें नही है। हांजो आदमी गृहस्थ होते हुये सभ्यता के नाते पर उस समय उस कड़ी उष्णता को सहन करते हुये भी कपड़े पहने रहता है उस की बड़ाई है उसी प्रकार मिध्यादृष्टि जीव अपने वहिरमपन से अगर इन बाहरी के विषय भोगों को त्यागकर द्रव्यलिङ्गी मुनि भी बनजाता है तो भी वह धर्मात्मा नही Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - हो पाता। हां इसकी अपेक्षा से वह धर्मात्मा होता है जो कि अव्रत सम्यग्दृष्टि है, देखने में किसी भी प्रकार का त्यागी नहीं है । खाना, महरना,त्री प्रसंग करना बगेरह सभी तरह के कार्य करता है परन्तु अन्तरंग में क्षमता को लिये हुये रहता है। उचितपने से हट कर अनुचित पन की ओर कभी भी पैर नहीं रखता इस प्रकार धर्म का धारक होता है जिस धर्म से कि मिथ्या दृष्टि मर्वथा रहिन होता है। धर्मेणवसंध्रियतेऽत्रवन्तु नवस्तुसत्वतमृतेसमस्तु । धर्मोनमिथ्याशिएतानि:किस्यादितीकक्रियतेनिरुति:४३ __ अर्थात् इस पर शङ्काकार का कहना है कि धर्म का धर्मी के साथ मे जव नादात्म्य सम्बन्ध होता है तो धर्म के न होने से तो फिर धर्मी भी नहीं रह सकता इस लिये मिथ्यादृष्टि की आत्मा में धर्म विलकुल नहीं होता यह कहना कैसे बन सकता है इसका उत्तर निम्न प्रकार हैनात्माऽस्यदृष्टीभवतीतितावदन्यत्रचेतस्यकिलात्मभावः । अधर्मवामित्यतएतिसत्यमसौस्वभावात्सुतरांनिपत्य ॥४४॥ अर्थात्- धर्मके सर्वथा नही रहने पर तो धर्मी आत्मा का भी प्रभाव हो जाना चाहिये ऐसा तुम्हारा कहना ठीक ही है. संसारी जीव की दृष्टि में आत्मा भी कहां है । इसको समझ में तो आत्मा का अभाव ही है यह तो आत्मतत्व को स्वीकार Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) ही नही करता, यदि आत्मतत्व को मानलेवे तो मिध्यादृष्टि ही क्यों रहे ? यह तो श्रात्म शब्द का वाच्य इस शरीर को ही माने हुये है अतः स्वभाव से दूर जाकर यानी अपने धर्म से रहित हो कर अधर्मी बन रहा है यह बनी हुई बात है । विश्वास मासाद्यजिनोक्कवाचिकालेनतत्वार्थमियादसाचि । अंगीकृते धर्मिणि मातुधर्मः सूर्ये प्रकाशः स्फुरतीतिमर्म ॥ ४५ ॥ अर्थात् - हां अगर उस श्रात्म तत्व को जिन्होंने प्रस्फुट कर लिया है ऐसे श्री जिनभगवान के कहने पर विश्वासलावे उसे अपने मनमें धारण करे तो समय पाकर मोह गलने से उस आत्मतत्व का ठीक ठीक मतलब इसकी समझमें आसकता है उसे यह हृदय से स्वीकार कर सकता है और जब श्रात्मतत्व स्वीकृत होजाता है तो धर्मिके होने पर धर्म फिर सहज है जहां सूर्य है वहां प्रकाश अवश्य होता ही है इतना ही इसका संक्षिप्त भांव है। नकाललव्धिर्मविनोऽस्तिगम्याक्षयोपशान्तिप्रभृतिं परंयान् । जिनोक्ततत्वाध्ययनेप्रयत्नं कुर्याद्यदिष्टप्रविधायिरत्नं । ४६ ॥ अर्थात् सो काल लब्धि तो छद्मस्थ के ज्ञान से बाहर की चीज है वह तो इसके अनुभव मे आनेवाली नही है और जब कि मनुष्य शरीर धारण किये हुये है तो जिनवाणी के सुनने एवं समझने की योग्यता अपने आप प्राप्त है फिर ब Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ). - - - फसर ही क्या है ? नैय्या किनारे पर लगी हुई है, यह उठ कर छलांग मारे तो घाट पर आकर खड़ा हो सकता है,इसके करने का काम तो इसे ही चरना चाहिये किन्तु यह तो प्रमादी हो रहा है, प्रथम तो जिन वाणी के सुनने का नाम भी इसे नही माता अगर कही सुनता भी है कि- यह शरीर धारी जीव पराश्रय में फंस कर रागी द्वोपी हो रहा है ताकि दुःखी है, यदि पराश्रय को छोड़ दे तो राग द्वेप से भी रहित होकर शुद्ध सच्चिदानन्द बन सकता है ऐसा । तो इसमे से पहले वाली बात को तो पकड़ लेता है कि हां जिन वाणी ठीक कहती है-मैं पराये वश हूँ इस लिये रख और गम की उलझन से दुःख पाता हूं विलकुल सही बात है इत्यादि मगर आगे वाली बात पर ध्यान नहीं देता, भुला ही देता है । याद भी रखता है तो कहता है कि पराश्रय छूटे तो सुख हो सो पराश्रय का छूटना मेरे हाथ की बात थोड़े ही है,पर की है वह छोडे वो मैं छूटू। जैसे कि- एक बन्दर ने चनों के घड़े में अपने दोनों हाथ डाल दिये और चनों की मुट्ठी भर कर निकालने लगा घड़े का मुंह छोटा है सो फंस रहता है, शोचता है कि घड़े ने मुझे पकड़ लिया है । या किसी पागलने कौतुकमें आकर किसी खम्मे को अपनी वाथ में भर लिया, दोनों हाथों के कङ्क जोड़ लिये और कहता है कि मुझे खम्भे ने पकड़ लिया है वस ऐसा ही इस संसारी का हाल है । परतन्त्रता की ओर ही वो मुकता स्वभाव का सम्मान इसकी बुद्धि में नही जम पावा यह इसके Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ( २ ) - - - - - अभ्यास को दोष है क्योंकि । यथावलं बुद्धिरुदेतिजन्तोरज्जूवदस्योदलितु समन्तोः । तामस्तुवस्तुप्रतिपस्विरेवसमाहसम्यग्जिनराजदेवः । ४७॥ अर्थात्- रागद्वेष वाले इस संसारी जीव की बुद्धि एक रस्सी सरीखी है । रस्सीको जिधरका जैसा बल मिलता है उधर की ही तरफ उसका घुमाव होता रहता है एवं पूर्व वल के अनुसार उधर की तरफ को उस का घुमाव एक अनायास सरीखा हो जाया करता है फिर उसको अगर उवलना चाहे उसमे दूसरा वल लाना चाहें या उसे एधेड़ना चाहे तो वह कठिन सा हो जाता है जरासी असावधानता में हाथ मे से छूट कर वापिस उधर को ही घूम जाया करती है वैसे ही इस संसारी जीव की बुद्धि को अनादि काल से परपरिणति का वल प्राप्त हो रहा है अतः उधर की तरफ का घुमाव इसके लिये एक सहज सा बन गया हुवा है अव उसको वदल कर उसमें दूसरा वल रदि लाना चाहे, उसे स्वभाव की ओर घुमाना चाहे तो घुमाते घुमात भी खिशक कर अपने चिर अभ्यास के कारण परपरिणति पर ही चल पड़ती है सरल नही रहती है। अतः वस्तुरवरूप खूटे में उसे अटका कर विचार रूप हाथ में दृढ़ता' के साथ थाम्म वर पुनः पुनः घुमाग जावे तो कहीं वह ठीक हो पाती है ऐसा जिन भगवान का कहना है। मतलव उसको ठीक वनाने के लिये इस प्रकार तत्वाभ्यास के Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) - सिवाय और कोई साधन नही है । अस्तु । जैनागमका अभ्यास करते २ जो अपने श्रद्धान को तात्विक बना लेता है उसमे प्रशमादि गुण सहज हो जाते है सोही नीचे वता रहे हैंतत्वार्थमाश्रद्दधतोऽमुक-यमहाशयस्यप्रशम:प्रशस्यः । वतःसमस्तेजगतोऽर्थभारेऽनुद्विग्नताऽनिष्टसमिष्टसारे ४८ अर्थात्- अपनं श्रद्धान को ठीक वना लेने पर एक तो उस महाशय के चित्त में प्रशम गुण स्फुरित हो लेता है। ताकि इस दुनियां के सम्पूर्ण पदार्थों में से किसी को भला और किसी को बुरा मान कर भयभीत नही बनता है । यद्यपि चरित्र मोह के उदय से जव तक कर्म चेतना या कर्मफल चेतना मय प्रवृत्त होता हुवा बुद्धि पूर्वक किसी भी कार्य को करता है तो उसमे बाधक होने वाले पदार्थ से बच कर उसके साधक कारण कलाप को अपनाये हुये रहता है, अपने अनुकूल निमित्त को इष्ट मानकर उसे प्राप्त करने और बनाये रखने की एवं प्रतिकूल निमित्त को दूर करने की चेष्टा भी करता है किन्तु पूर्व की तरह उन्ही के पीछे नही लगा रहता । जैसे कि सीता रामचन्द्र को बड़ी प्यारी थी, सब राणियों की शिर मोर सारी थी क्योंकि शील सन्तोषादि फूलों की फुलवारी थी परन्तु जब उसकी वजह से भी अवर्णवाद होता हुवा पाया तो झट उसे भी जङ्गल का राह दिखाया, उस पर जरा भी जी नही लुभाया वह उनके अन्तरङ्ग में होनेवालेप्रशमगुण की ही तो महिमा Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) थी इसी प्रकार सेयुद्धादिकार्यव्रजतोऽप्यमुष्य सम्वेगमावोहृदयं प्रपुष्य । प्रवर्ततेतेनविवेकखानिरयंसमायातिकुकर्महानि ॥ ४ ॥ अर्थात् उस सम्यग्दृष्टि जीव के हृदय में सम्वेग भाव भी हर समय बना रहता है । दुनियादारी के कार्यो में उत्सुकता उदासपन किन्तु धर्म के विषय में तत्परता होने को सम्वेग कहते हैं। सो यह गुण भी उसमे अखएड होता है ताकि अपनी तात्कालिक परिस्थिति के अनुसार भले ही उसे युद्धादि सरीखे कठोर कार्यो में प्रवृत होना पड़े परन्तु वहां पर भी वह विचार से काम लेता है, उचितपन को छोड़ कर अनुपित पन की तरफ कभी नहीं जाता है । देखो कि महाभारत में कौरवों ने अनेक तरह के दुष्प्रहार किये, अभिमन्यु सरीखे बालक को विश्वास दिलाकर बुरी तरह से मार गिराया था उन्हें परास्त कर डालने की अर्जुन की पूर्ण प्रतिज्ञा और अभिलासा भी थी परन्तु जब गुरु द्रोणाचार्य उसके सम्मुख आ डटे 'और निर्दयता से उसके उपर प्रहार करने लगे तो आप ही तो उस प्रहार से बचने की चेष्टा करता था किन्तु द्रोणाचार्य पर पदले का प्रहार नहीं करता था, भले ही उस ऐसा करने में द्रोणं के वाणों से उस अर्जुन की महती सेना नष्ट होती रही, उस क्षति को भी सहन करता रहा बांकी गुरुदेव पर हाथ चलाना मेरा कार्य नहीं यह शोचते रह कर उसने द्रोण के वार Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( ५ ) - -- - - - - - - - कभी नहीं मारा ! मुझे तो मेरा कार्य सिद्ध करना है, कौरवों की पक्ष का निपात करना है फिर चाहे वह गुरु हो या और कोई ऐसा दुर्विचार कभी नहीं किया क्योंकि वह मानता था कि- हानि लाभ जीवन मरण, यश अपयश विधि हाथ । तो फिर इस संसार, में क्यों कीजे दुर्वात ।। इस कहावत के अनुसार जो होना है सो होगा, हमें विजय मिलनी है सो मिलेहीगी और नहीं तो फिर हम कैसा भी क्यों न करे, कुछ नही होगा। सांसारिक कार्यों में तो प्रधान बल देव का ही होता है, वन्दा तो अपने दो हाथ दिखाया करता है। देखो रावण ने अपना उल्लू सीधा करने के लिये क्या कसर बाकी छोड़ी था परन्तु उस का बल उसी को खागया, उसी के चक्र ने उसका शिर काट डाला । सुमीम को उसके भाग्य ने साथ दिया तो परशुराम की भोजन शाला में उसके लिये दिया हुवा थाल ही सुदर्शन चक्र बन करके उसकी सहायता करने लगा और समुद्र के बीच में उसे एक व्यन्तर ने बात की बात में मार डाला । इत्यादि बातों से मानना पड़ता है कि मनुष्य का किया कुछ नही होता फिर व्यर्थ के प्रलोभन में पड़ कर कुकर्म क्यों किया जावे इस प्रकार शोधता हुवा वह सदा कर्तव्यपरायण बना रहता है अपने ऊपर होने वाली आपत्ति का कुछ विचार न करके औरों को विपत्ति से मुक्त कर रखने की चेप्टा करता है देखो Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवन्निजापत्तिषुवज्रतुल्यःसञ्जायतेऽसौनवनीतमूल्यः । दीनंदरिद्र खलुदु:खिनम्बाऽवलोक्यचित्त करुणावलम्बात् ५० अर्थात्- जब धवल सेठ के दिये हुये प्रलोभन से भाण्डों ने श्रीपाल को अपना भाई बेटा बताकर गुणमाला के पिता कुकुमेश को बरगलालिया तो राजा की आज्ञानुसार श्री पाल जी निःसङ्कोच होकर शूलीपर चढन को चल दिये किन्तु फिर जब सत्य बात खुल गई और राजा ने अपनी आज्ञा बदल कर श्रीपाल के स्थान पर धवल सेठ को और उन भाण्डों को मार डालने के लिये कहा तो श्रीपाल जी ही दयाद होकर राजा से कहने लगे कि राजन्- इन भाण्डों का तो दोष ही क्या है ? ये बिचारे तो दीन अनाथ हैं इनका वो यह पेसा है और धवल सेठ जी मेरे धर्म पिता हैं इन्होंने तो मेरे लिये जो कुछ किया है, अच्छा ही किया है अगर ये ऐसा न करते तो मेरा आपके साथ सम्बन्ध कैसे बनता यों कह कर सब को बरी करा दिया सो बस यही बात इस वृत्त में बतलाई गई है कि सम्यग्दृष्टि जीव अपने आप पर आई हुई आपत्ति में तो वन की तरह कठोर बन जाता है किन्तु दूसरों को दुःख सङ्कट में पड़े देख कर मक्खन की सी भांति पिघल पड़ता है यही उसका अनुकम्पा गुण है क्योंकि वह यह अच्छी तरह से जानता है कि यह शरीरधारी जीव अपने किये का फल आप ही पा लेता है सो ही बताते हैं - Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) - - - meream m यतःसदास्तिक्यमुदेतिचेतस्यशुष्ययादृग्भविनाक्रियेत तदेवमुक्त ऽतउदारबुद्धधाई तोऽनुगतं कुरुतेत्रिशुद्धया ५१ अर्थातू-सम्यग्दृष्टि जीव जानता है कि जो जैसा करता है बैला स्वय भरता है, जो जहर खाता है वही मरता है.और जो मिश्री चखता है उसका मुह मीठा होजाया करता है। दूसरा कोई किसी का क्या कर सकता है, कुछ नहीं देखा वैद्य सभी रोगियों को नीरोग करना चाहता है यह उसकी सद्भावना है, परन्तु रांग मुक्त होता है वहां जो कि अपने भविष्यत्सातोदय को लिये हुये होकर उसकी औषधिका ठीक सदुपयोग करता है। भीमर तालाव की सभी मछलियों को पकड़ना चाहता है मगर पकड़ी वे ही जाती है जो कि अपनी चपलता के कारण उसके जाल में आ-गिरती हैं, वरना उसका प्रयोग व्यर्थ जाता है, फिर भी,झीमर अपनी दुर्भावना.से पाप का.भार,अपने मत्थे लेता है और उससे, नरक में जाता है जहां कष्ट पाता है । वैद्य अपनी सद्भावना के द्वारा स्वर्ग का भागी होजाता है । स्वर्ग नरक एवं पुनर्जन्म भी अवश्य है क्यों कि एक माता पिता के एक रजोवीर्य से पैदा होने वाले .लोगों में रावण और विभीषण का, सा बहुत कुछ भेट दीरनं में आता है बल्कि एक सहवाम से और एक साथ में पैदा होने वाली, संन्ताने भी एक स्वभाववाली और एक सरीखी नही होती.तो इसमे उनका पुण्य पाप ही तो कारण है,और Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 5 ) - - दूसरा क्या हो सकता है । जैसा कि एक दोहा में लिखा है अपनी करनी से बने यह जन चोर विभोर । उरमत सुरमत आप ही ध्वजा पवन मकझोर ।।१।। मन्दिर के ऊपर होने वाली ध्वजा, हवा का निमित्त पाकर जिधर को झुकाव खाती है उसी बल होकर दण्डे में लिपट रहती है,कभी इधर से उधर तो कभी उधर से इधर और हवा जब कम हो जाती है या बन्द सी हो रहती है तब ध्वजा भी सरल सीधी हो लेती है तथा स्थिर हो जाया करती है वैसे ही संसारी प्राणी का हाल है जब बुरी वासना में पड़ता है तो अपने आप ही बुराइयों की ओर जाकर चोर चुगलखोर बनते हुये आप ही कप्ट उठाता है और जब सद्भावना को लेकर भलाई करने में लगता है तो समाश्वासन प्राप्त करता है किन्तु इससे भी जब आगे बढता है तो वाह्य वासना से रहित होते हुये सिर्फ 'परमात्मानुभवन में तल्लीन होकर अपने मन को स्थिर बना लेता है तो सदा के लिये निराकुल भी बन सकता है इस प्रकार के सुविशद विचार का नाम ही आस्तिक्य भार है जिसको कि लेकर आत्मा से परमात्मा बनने का अटल सिद्धांत इसके दिल मे घर किये हुये रहता है ताकि यह अपने मन वचन और काय से सरलता के साथ श्री अर्हन्त भगवान का अनुयायी हो रहता है। ध्यानादहोधर्ममयोरुधाम्न उदेतिवाऽऽज्ञाविचयादिनाम्नः । सम्यग्दृशोभावचतुष्कमेतत्पर्यत्यमीषुप्फुटमस्यचेतः ॥२॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ) अर्थात्- सम्यग्दृष्टि जीव के उपर्युक्त-प्रशम, सम्वेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य इन चारों भावों का क्रमशः आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय नामक धर्म ध्यानों के माथ मं कार्य करण सम्बन्ध है आज्ञा विचयादि धर्म ध्यान कारण रूप होता है और प्रशमादि भाव उसका कार्य क्योंकि वाह्य पदार्थो में इष्टानिष्ट कल्पना का न होना या कम से कम होना सो प्रशम भाव है जो कि श्री अरहन्त भगवान की आज्ञानुसार न तो कोई पदार्थ इष्ट ही है और न अनिष्ट ही इस प्रकार के विचार को लेकर प्रसूत होता है। विषय भोगों में अनुसेक भाव का होना सो सम्बेग है जो कि इन विषय मोगों में फंस कर ही यह दुनियादारी का जीव अपना,अपाय यानी बुरा करता है बिगाड़ कर जाता है इस प्रकार के धर्म ध्यानमूलक होता है। किसी भी जीव को दुःख सङ्कट में पड़ा देख कर उसके उद्धार का भाव होना अनुकम्पाभाव है सो इस के पूर्व में ऐसे विचार का होना अवश्यम्भावी है कि देखो यह अपने पापोदय से कैसा कष्ट मे पड़ा हुवा है और ऐसे विचार का होना ही विपाक विचय धर्म ध्यान है जिसके कि होने पर उसे उस कष्ट से मुक्त करने की चेष्टा की जाती है। संस्थान विचय तो पदार्थ के स्वरूप पर विचार करने का नाम है जो कि आस्तिक्यभाव का मूलाधार ही है एवं ये चारों ही भाव धर्म ध्यानमूलक हुवा करते हैं जिनमें कि यह सम्यग्दृष्टिजीव परिवर्तित होता रहता है और जहां इन से पार हुवा कि Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) - शुक्लध्यान में पहुंच जाता है.जब कि इस का उपयोग वाह्यपदार्थोलम्बन से रहित हो लेता है । यानी गृहस्थावस्था में जहां तक कि शारीरिक, वाचनिक और मानसिक जरा सा भी लेगाव इस मानव का इस दुनियादारी में होने वाली आमेर बातों के साथ रहता है तब तक शुक्ल ध्यान तो क्या 'धर्मध्यान की भी रूपातीवावस्था नहीं हो पाती क्यो कि उसके लिये सुदृढ़ मानसिक बल की आवश्यकता होती है जो कि गृहस्थावस्था में असम्भव है । अतः वहां पर ,सिर्फ सस्थान विचय के चार भेदों में से-पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ नाम धर्मध्यान ही यथा सम्भव हुवा करता है, ऐसा हमारे ध्यानप्रतिपादक शास्त्रों में बतलाया गया हुवा है । किन्तु आरौद्र परिणामों को इसकी आत्मा में कभी अवसर ही नहीं मिलपाता 'ताकि भविष्य के लिये नरक और तिर्यक् पन का अभाव हो जाता है । यद्यपि हमारे पागम में बतलाया गग है कि आध्यान छटे गुणस्थान के अन्त तक एवं रौद्रध्यान पश्चमगुणस्थान में भी होता है, मगर वह भी धर्ममूलक ही होता "हैं। जैसे कि शंकर को सिंह पर-प्रहार करता समय रौद्रष्णन था परन्तु वह 'मुनिराज को बचाये रखने के लिये वैय्याबृत्य परक था । तथा किसी चुगलखोर के कहने को सुनकर राजा ने राजमन्त्री से पुछा कि क्या तुम्हारे-गुरु कोढी है, मन्त्री ने "गुरु भक्ति में आकर कह दिया कि नही, महाराज मुनिराज के और कोढ़ का क्या काम, इस पर राजा ने कहा कि हां तो Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सबेरे ही हम उनके दर्शन करने को चलेगे और अगर कहीं कोढी निकले तो फिर उनका वहिष्यकार करना होगा। इस पर मन्त्री को बडीमारी चिन्ता हुई कि हाय अब क्या किया जाय, मुनिमहाराज पर सवेरा होते ही उपसर्ग आवेगा वह कैसे दूर हो ऐसी । वस तो सम्यगद्रष्टि जीव के जहां कही भी आर्तरोढ परिणाम होते है वे सब ऐसे ही सद्भावनात्मक होते हैं। मिथ्यादृष्टि की भांति एकान्तरूप से अपने शरीर और इन्द्रियों के सन्तर्पणरूप दुर्भावना को लिये हुये कभी नही होते । अस्तु । शङ्का - सम्यग्दृष्टि के प्रशमादि गुणों को आपने धर्मध्यान बतलाया सो हमारी समझ में नही आया क्योंकि प्रशमादि भाव तो शुभ राग रूप होते हैं, शुभ राग को धर्ममानना तो भूल है, धर्म तो आत्मा के स्वभाव का नाम है शुद्ध सहज वीतराग माव का नाम है जिसका किचिन्तवन करना ही धर्मध्यान कहा जाना चाहिये। उत्तर- धर्म, आपके सहज शुद्ध पारिवामिक भाव का ही नाम न होकर भाव मात्र का नाम धर्म है । धर्म परिणाम भाव अवस्था परिस्थिति अन्त और तत्व ये शब्द एकार्थ वाचक हैं। जो कि जीव के भाव संक्षिप्तरूप से औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक इस तरह पांच भागों में विभक्त किये गये हैं, जैसा कि श्री तत्वार्थसूत्र महाशास्त्र में चवलाया गया हुवा है एवं इन पांचों ही तरह के भावों का Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) - - चिन्तवन अनुमनन धर्मध्यानमे हुवा करता है जैसे कि अपापविचय मे उस जीव को गिरी हुई हालत का और विपाक विचय में कर्मो के फल का यानी औदायिक भाव का विचार रहता है इसी प्रकार से और भी समझ लेना चाहिये। शङ्का- कानजी की (रामजी माणेकचन्द दोपी द्वारा लिखित) तत्वार्थसूत्र टीका मे प्रथमाध्याय की दूसरे सूत्र की टीका मे पृष्ठ १५ मे लिखा है-- ध्यान रहे कि सम्यग्दृष्टि जीव ऐसा कमी नही मानता कि शुभ राग से धर्म होता में या धर्म में सहायता मिलती है । एवं कान जी कहते है कि वीतरागता का नाम ही धर्म है सरागता में धर्ममानना मिथ्या है। उत्तर- भैय्या जी हमारे मान्य आचार्यों ने तो वीतरागतां को ही धर्म न मानकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को धर्म बतलाया है जो कि सराग और वीतराग दोनो तरह का होता है । हां यह वात दूसरी कि सराग धर्म यानी व्यवहार मोक्ष मार्ग जो है वह साधनरुप होता है और वीतराग धर्म यानी निश्चय मोक्ष मार्ग, उसके द्वारा साध्य अर्थात्-सराग धर्म पूर्वज है तो वीतरागधर्म उसके उत्तरकाल में होने वाला दोनों में परस्पर कारण कार्य भाव है ऐसा हमारे इतर ग्रन्थ प्रणेता प्रामाणिक आचार्यों ने तो सभी ने लिखा ही है परन्तु परमाध्यामरस के रसैय्या श्री अमृतचन्द्र सूरि ने भी अपनी तत्वार्थसार नाम कृति मे ऐसा ही लिखा है निश्चय व्यवहाराभ्यां मोक्षमागी द्विधास्थितः। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) - - - तत्रायःसाध्यरूपःस्याद् द्वितीयस्तस्य साधनं ।।।। आचार्य महाराज कहरहे है कि जिसका तत्वार्थसूत्रम वर्णन किया गया हुवा है और जिसका पुनरुद्धार इस तत्वार्थसार मे किया गया है वह सम्यग्दर्शन, सम्ररज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप मोक्षमार्ग (धर्म) जो है सो निश्चय और व्यवहार के भेद से दो प्रकार का होता है । निश्चय मोक्षमार्ग तो साध्य यानी प्राप्त करने के योग्य और व्यवहार मोक्षमार्ग उसका साधन यानी उपाय है । इन्ही आचार्य श्री ने इस तत्वार्थसार के प्रारम्भ मे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का लक्षण भी इस प्रकार लिखा है श्रद्धानं दर्शनं सम्यग् ज्ञानं स्याद्ववोधनं । उपेक्षणंतु चारित्रं तत्वार्थानां सुनिश्चित ॥४॥ अर्थात् - तत्वार्थ का ठीक ठीक श्रद्धान. होना सो सम्यग्दर्शन, तत्वार्थो का जानना सो सम्यग्जान और तत्वार्थो के प्रति उपेक्षाभाव का होता सो मम्यक् चारित्र है । मतलब आचार्य श्री बतला रहे हैं कि तत्वार्थ श्रद्धान यह लक्षण न तो सिर्फ व्यवहार सम्यग्दर्शन का ही लक्षण है और न वह अकेले निधय सम्यग्दर्शन का ही किन्तु यह लक्षण निश्चय और व्यवहार दोनों प्रकार के सम्यग्दर्शन का व्यापक लक्षण है। उसी प्रकार तत्वार्थो का ठीक जानना दोनों प्रकार के सम्यग्ज्ञान का और उपेक्षा करना दोनों तरह के सम्यक् चारित्र का । अव इस पर यह जानने की उत्कण्ठा होजाती है नि तो फिर निश्चय Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) और व्यवहार यह भेद क्यों और कैसा इस पर लिखा है - श्रद्धानाधिगमोपेक्षाः शुद्धस्य स्वात्मनो हि याः सम्यक्त्व ज्ञान वृत्तात्मा मोक्ष - नार्गः सनिश्वयः ||३|| अर्थात् - अपनी शुद्धात्मा के साथ एकता तन्मयता लिये हुये तत्वों का श्रद्धान रखना, जानना, और उपेक्षा करना रूप सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र का होना सा निश्चय मोक्ष मार्ग है किन्तु इससे पहले - श्रद्धानाधिगमोपेक्षा याः पुनः स्युः परात्मना सम्यक्त्वज्ञान वृत्तात्मा समार्गो व्यवहारतः ||४|| · भिन्न रूप से सातों तत्वो का श्रद्धान, ज्ञान और उपेक्षण रूप सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चरित्र होता है वह व्यवहार मोक्षमार्ग है । मतलब यह हुवा कि जब तक यह प्राणी जीवादि सातो तत्वों को अपने उपयोग में जमा किये हुये रह कर उनका श्रद्धान ज्ञान पूर्वक उनसे उपेक्षा धारण करता है तो वहां और भी कहीं नही तो अपने आप (आत्म द्रव्य) में उपादेय बुद्धि बनी हुई रहती है जो कि रागांशमय होती है। अतः वहाँ तक की इसकी चेष्टा को व्यवहार धर्म या मोक्ष मार्ग कहा जाता है परन्तु इससे आगे चल कर जहां पर अपनी शुद्धात्मामय ही उपेक्षण ( चारित्र) होलेता है यानी आत्मा पर की भी उपादेय बुद्धिरूप सविकल्प दशा दूर होकर पूर्ण वीतरागरूप शुद्ध दशा हो लेती है उस अवस्था का नाम निश्चय मोक्षमार्ग है। जहां पर कि दर्शन है की भांति चारित्रमोह भी नष्ट होकर अभिन्न Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) रत्नत्रय हो लेता है जैसा कि निम्न श्लोक में कहा है आत्मा ज्ञवृतया ज्ञानं सम्यक्त्वं चरितं हि सः स्वस्थो दर्शन चारित्र-मोहाभ्यामनुपप्लुतः ॥७॥ तथा तत्वार्थसूत्र महाशास्त्र में श्री उमास्वामी आचार्य ने तो छडी अध्याय में भूतव्रत्यनुक्म्पादानसरागसंयमादियोगः क्षांतिः शौचमिति सद्यस्य ।।१२।। सरागसंयमसंयमासंयमाकाम निर्जरा वालतपांसि देवस्य ।।२०।। सम्यक्त्वं च ।। २१ ॥ इन सूत्रों में विलकुल स्पष्ट कर रखा है कि-सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र रूप धर्म सराग भी होता है और वीतराग भी, सो वीतराग धर्म तो सर्वथा अबन्धकर होता है किन्तु सराग धर्म की अवस्था मे घोर पूर्वबन्ध का अभाव होकर आगे के लिये प्रशस्त स्वल्पवन्ध होता है जो कि मुक्तिका अविरोधी, सहायक कारण होता है। और ऐसा ही खुद श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने भी तो श्री प्रबधनसारमें लिखा है देखो'.. सम्पन्नदि णिव्यायं देवासुरमणुयराय विहवेहि जीवस्स चरित्तादो दंसपणाण प्रहाणादो ॥६॥ अर्थात्- सम्यग्दर्शन और ज्ञान सहित होने वाले चारित्र गुण के द्वारा इस जीव को, देव विद्याधर और , भूमिगोचरियों के राज्य वैभव के साथ साथ निर्वाण सुख की Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) - - - प्राप्ति होती है यानी सम्यग्दर्शन ज्ञान सहित- चारित्र रूप जो धर्म है वह दो प्रकारका होता है एक सराग और दूसरा विराग उसमे सरागधर्म से अशुभ वन्ध का अभाव होकर प्रशस्तशुभयन्ध होता है ताकि यह जीव इन्द्रतीर्थकर चक्रवर्ति सरीखे पट पाकर फिर निर्वाणषद प्राप्त करने का पात्र होता है और वीतरागधर्म से तो उसी भव में मुक्त हो लेता है । जैसा कि तात्पर्यवृत्ति में भी लिखा है आत्माधीन-मानसुखस्वभावे शुद्धात्मद्रव्येयनिश्चलनिर्विकारानुभूतिरूपमवरथानं तल्लक्षणनिश्चयचारित्राजीवस्य सम्पद्यत पराधीनेन्द्रियजनितज्ञानसुखविलक्षणं स्वाधीनातीनियरूपपरमज्ञानसुखलक्षणं निर्वाणं । सरागचरित्रात्पुनर्देवासुरमनुष्यराज्यविभवजनको । मुख्यवृत्याविशिष्टपुण्यवन्धो भवति परम्परया निर्वाणंचेति ___ इसके अलावा अगर वीतरागताको ही धर्म कहा जावेगा तो फिर दशगुण स्थान तक के सभी जीव धर्मशून्य ठहरेंगे किन्तु धर्म का प्रारम्भ चोथे गुणस्थान से ही होलेता हैशा-चतुर्थादि गुणस्थानों में भी आत्माके जितने जितने अंशमें वीतरागता हो लेती है उतने उतने अंश में . वहां भी धर्म होता है और जितने जितने अंश में राग रहता है उतने अंशमे अधर्म,इसमें क्या बात है? उत्तर- तो फिर जहां पर राग है वहां, (उसी आत्मा में) धर्म भी तो होगया । एवं दोनों का एक साथ एक आत्मा में रहना Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) - - - हो सहायता या मैत्री कहलाती है जैसाकि खुद कुन्दकुन्द स्वामी ने ही अपने प्रवचनसार मे बतलाया है। यानी तीव्र (अशुम) अनन्तानुवन्धि रूप राग होगा वहां सम्यग्दर्शनादिरूप धर्म नहीं हो सकता क्योंकि तीव्ररागभाव के साथ उसका विरोध है किन्तु जहा मन्दराग होता है वहा व्यवहार धर्म भी होता है जैसा कि तुम भी कह रहे हो। अब रही जितने अश की वात सोपात्माके अंश यानी प्रदेश असख्यात हैं उनमें से कुछ नदेशों में से तो राग नप्ट होजावे और कुछ प्रदेश मे राग वैसा का वैसा ही बना रहे, ऐसा तो हो नहीं सकता किन्तु आत्माम जो राग यानी कपायभाव था उसमें से कुछ कम होगया वह जो पहले गहरा था (मिथ्यात्वदशा में) जोरदार था सो अब सम्यक्त्व दशा में हलका होलिया जो कि हलका राग आत्मा के हर प्रदेश में है और उसी मन्दराग या प्रशस्त (शुभ) राग का नाम वीतरांगता होकर वह धर्म होता है। जैसा कि एक कपड़ा गहरा इलदिया था उस पर सूर्य की धाम लग कर उसका गहरापन हटगया और अब हलका पीला रह गया.तो जिसका ख़याल गहरेरण की तरफ हो जाता है वह तो कहता है कि अरे इसका तो रंग उड़ गया यह तो विद्या होगया परन्तु जिसका विचार पिलाईमात्र पर है वह कहता है कि नही रङ्ग कहां उड़ गया अब भी तो इसमे जरदी है। किश्च एक गृहस्थ वाजार से गेहूं खरीद करके लाया, जिनमे मोटे और महीन कई तरह के बहुत कर थे उनमे से Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) कङ्करोंको चुगा जानेलगा तो मोटे मोटे कङ्करों को मट निकाल वाहर करदिया गया। अब जो बुढ्ढा था जिसकी नजर कमजोर थी वह तो बोला कि अब तो गेहूं कंकर रहित हो गये परन्तु जवान आदमी जिसकी कि नज़र तेज थी वह बोला कि नही अब भी इन में कंकर है । बस तो इसी प्रकार स्थूल घष्टि से तो चतुर्थादि गुणस्थानों में अनन्तानुवन्ध्याति कपाय न होने से राग का अभाव होता है किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से अप्रत्याख्यानावरणादि कषाय होती है अतः वही रागभाव भी होता है एवं इस मन्दराग (शुभराग) को धर्म मानना या सरागवा मे धर्म मानना मिथ्या कैसे हुवा सही ही तो रहा। हां वह धर्म पर्याप्त न होकर अपर्याप्त होता है अतः सर्वथा अवन्ध न होकर प्रशस्तवन्थविधायक हुवा करता है । इस बातको बताने के लिये ही इसे व्यवहार धर्म कहाजाता है । जो कि निश्चय धर्म का कारण होता है । ऐसा न मान कर राग को ही धर्म मानलेना सो अवश्य मिथ्यात्व है क्यों कि जो राग को धर्म मानेगा वह तो राग की वृद्धि करने में यत्न करेगा इस प्रकार से वह अपना बिगाड़ कर जावेगा। परन्तु तीब्रराग की अपेक्षा से मन्दराग को धर्म मानने में यह बात नही है वहां तो यह दृष्टि होती है कि तीन के स्थान पर मन्दराग जब धर्म है तो अतिमन्दराग और भी अधिक धर्म हुवा तथा राग का बिलकुल न होना सो पूर्णधर्म हुवा । एवं तीव्रराग की अपेक्षा से मन्दराग को धर्म माननेवाला धीरे धीरे अपने राग Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (. १०६ ) - को सर्वथा हटाकर पूर्णधर्मात्मा बन जाता है और इस लिये मन्दरागरूप व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका कारण कहागया है। शक्षा- इस तरह से भी निश्चय मोक्षमार्ग का कारण व्यवहार मोक्षमार्ग न होकर व्यवहार मोक्षमार्गका नाश उस (निश्चयमोक्षमार्ग) का कारण ठहरता है । देखो कानजी (रामजीमाणेकचन्द) कृत तत्वार्थसूत्र टीका का अन्तिम परिशिष्ट पृष्ठ ८०७ की पंक्ति १३ से आगे) उत्तर-भैय्या जी जरा शोचो तो सही क्या कह रहे हो तुम तो खुद ही समझदार हो । ऐसा कहना ठीक नही क्यों कि व्यवहारधर्म का प्रध्वंश और निश्चयधर्म का होना ये दोनी मिन्न भिन्न नही होते । अगर भिन्न माना जावे तो फिर वह नाश क्या चीज रही, कुछ नही । एवं तुच्छामाव की जैन शासन में दो विलकुल मान्यता है नही । ऐसा तो नैयायिक मतवाले मानते हैं। जैनमत यह कहता है कि-पूर्व (कारणरूप) अवस्था का नाश ही उत्तर (कार्यरूप) अवस्था का होना है। जैसा कि श्रीसन्तभद्र स्वामी ने देवागमस्तोत्र के कार्योत्पादः क्षयोहेतोनियमाल्लक्षणापृथक् इस सूतमे स्पष्ट कहा है । जैसे कि मिट्टीकीस्थासरूप पर्याय का विश्वंश ही काशपर्यायका उत्पाद, कोशपर्यायका विध्वंश ही कुशलपर्याय का उत्पाद और कुशलपर्याय का विनाश ही तदुत्तरं घटपर्याय का उत्पाद है दोनों एक कालीन हैं उनमें कोई समय भेद नही होता । इनमें पूर्व र अवस्था कारण और उत्तरोत्तर अवस्था उसका कार्य है Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) - - वैसे ही व्यवहारधर्म का विध्वंश यानी पूर्ण होना ही निश्चय धर्म का होना है अतः व्यवहार धर्म कारण है तो निश्चय धर्म उसका कार्य, जैसा कि हमारे पूर्वाचार्यों ने जगह जगह बतलाया है। शंका- श्रीपरमात्माप्रकाश जी की संस्कृत दीका में पृष्ठ १४२ पर इस प्रकार प्रश्न उठाकर कि-निश्चय मोक्षमार्ग तो निर्विकल्प है और उस समय सविकल्प मोक्षमार्ग है नही तो वह ( सविकल्प मोक्षमार्ग) साधक कैसे हुवा, इसके उत्तर में बतलाया है कि भूतनैगमनय की अपेक्षा से परम्परा से साधक होता है, अर्थात्-पहले वह था किन्तु वर्तमान में नही है तथापि भूतनैगमनय से वह हे ऐसा संकल्पकर के उसे साधक कहा है यों लिखा है। उत्तर- मैय्या जी! वहां अगर यह लिखा है तो ठीक ही तो लिखा है क्योंकि मोक्ष १ निश्चयमोक्षमार्ग२ व्यवहारमोक्षमार्ग३ इसप्रकार तीनबात हुई सो व्यवहारमोक्षमार्ग तो निश्चयमोक्षमार्ग का कारण है और नियमोक्षमार्ग मोक्ष का कारण । अब व्यवहार मोक्षमार्ग को मोक्ष का जो कारण बताया जाय तो वह मोक्ष की तो परम्परा कारण ही है । साक्षात् कारण तो कई (व्यवहार मोक्षमार्ग) 'निश्चयमोक्षमार्ग का होता है, जैसा कि तत्वार्थसारकार लिख रहे हैं। शंका- आपने उपर जो व्यवहार धर्म और मन्दराग को एक बतलाया सो कैसे क्यों कि धर्म तो सम्यग्दर्शनादिरूप है Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११ ) जो कि औपशमिकादि भावमय होता है और राग है सो किभाव है। उत्तर- तुम्हारा कहना ठीक है राग औदयिक ही होता है और सम्यग्दर्शनादि धर्म उससे विरुद्ध औपशमिकादिभावरूप मगर मन्दराग जो होता है वह औपशमिकादिभाव रूपता को एवं श्रयिकपन को भी लिये हुये उभय रूप होता है। रागमें जो मन्दता होती है वह उपशमादि द्वारा ही तो आती है अन्यथा कैसे सकती है। एवं राग और धर्म एक साथ होते हैं उसीका नाम सरागधर्म या व्यवहार धर्म हे उसके साथ चित्त की उपयोगरूप लग्न होती है उसे धर्मध्यान कहते हैं। शङ्का- आप तो कहते हैं कि धर्मध्यानमें यधासम्भव प्रदयि कादि पांचों भावों का ही चिन्तवन होता है किन्तु समयसारजी की जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति में लिखा हुवा है कि श्रपशमिकादिरूप अशुद्ध पारिणामिकभाव व ध्यानरूप होता है तथा शुद्धपारिणामिक भावध्येय यानी उस ध्यान के द्वारा चिन्तवन करनेयोग्य ऐसा देखोगा ०३२० की वृत्तिः • उत्तर- यहां पर जो लिखा गया हुवा है वह शुक्ल-ध्यान को लक्ष्य करके उसकी वावत में लिखा गया है। धर्मध्यान में तो सभी भावध्येय होते हैं, देखो श्री चामुण्डराय कृत चारित्रसार में लिखा है कि आज्ञाविचय धर्मध्यान में गति आदि चोदह मार्गणावों द्वारा तथा चोदह गुणस्थानों द्वारा जीवका चिन्तवन Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) जैनागमानुसारसे किया जाता है इत्यादि । तथा द्वादशानुप्रेक्षारूप संस्थान विचयधर्मध्यानमे भी पांचों ही भावोंका चिन्तवन यथास्थान होता है। अतः मानना ही चाहिये कि धर्मध्यान जो होता है वह औपशमिकादि सभी भावों के विचारों को विषय लेकर प्रसूत होता है। जो कि धर्मध्यान चतुर्थादि गुण स्थानोंमें होकर प्रशम संवेगादि सद्भावों को प्रस्फुट करने वाला होता है एवं सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व को इतर छद्मस्थलोग इन प्रशमादि भावों के द्वारा ही जान सकते हैं ऐसा नीचेबताते हैंसम्यक्त्वमव्यक्तमपीत्युदारैर्व्यक्तीभवत्येव जगत्सु सारैः अष्टविहाङ्गानि भवन्ति तस्य समुच्यतेयानिमया समयस्य ५३ . अर्थात- सम्यग्दर्शन यह आत्मा का परिणाम है जो कि उत्पन्न होकर भी आत्मा में अव्यक्तरूप रहता है, सर्वसाधारण की निगाह में आनेकी यह चीज नही है । मगर उपयुक्त प्रशमादिभाव जो कि उदारतारूप होते हैं सो इनके द्वारा हम उसको पहिचान सकते हैं। जैसे रसोईघर में छिपीहुई.अग्निको, उसमें से होकर उपर आकाश में फैलने वाली धूवां के सहारे से जानलिया जाता है । यद्यपि प्रशमादिभाव नाम मात्र के लिये कभी कभी मिथ्यादृष्टि में भी होजाया करते हैं किन्तु वे सब और ही तरह के होते हैं, जैसे कि वामी से उठनेवाली धूसर धूवां सरीखी होकर भी धूवा की बराबरी नही करसकती ज़रा भी गोर करने पर उसमें स्पष्ट भेद दिख पड़ता है अतः Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ ) - समझदार आदमी भ्रम मे नही पड़ सकता । एवं निःशाङ्कित, निःकांक्षित, निर्विचिकिरिमन, अमूढदृष्टिस्य, उपगूहन, स्थिति करण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ भाव और होते हैं जो कि सम्यग्दर्शन के अंग कहलाते है जिनका कि वर्णन क्रमश. संक्षेप से नीचे किया जावेगा। जेसे कि मनुष्य शरीर मे शिर, हाथ, पैर वगेरह अवयव होते है वैसे ही सम्यग्दर्शन के ये आठ अंग होते है जो कि सम्यग्दर्शन से कथंचिद्मेट लिये हुये होते हैं । सो किसी मनुष्य के अगर हाथ कट गये था पैर टूट गये तो वह बिलकुल नष्ट ही होजाता हो सो बात नहीं मगर बेकार जरूर होजाता है, वैसे ही सम्यग्दृष्टि के भी इन अंगो में से कभी किसी में कोई कमी भी रहजाती है । एवं किसी का कोई अंग खाशतोर से पुष्टि पाजाता है जिसको कि लेकर उस के गीत गाये जाया करते हैं । अस्तु । इनमे से सबसे पहिला अंग तो नि'शावित है जो कि शरीर के समान है उमका स्वरूप यह है मतंजिनोक्त चपरोदितश्चसमानमेवेतिमतिप्रपञ्चः कदापि तस्यसुवर्णस्यात्मतातुसम्धिनिकषप्रतीत्या । ५४|| अर्थात् जिन भगवान के द्वारा प्रतिपादित मत भी एक मत है जैसे कि इस भूतल पर और भी अनेक मत हैं। उनमें कही गईहुई सभी बाते विलकुल ही झूठी हो सो बात नही एवं जैनमत मे कही हुई भी सभी बात' सोलही आने सही ही हों Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) सो भी नहीं कहा जा सकता इस प्रकार के विचार का नाम शङ्खादोष है सो सम्यग्दृष्टि के अन्तरङ्ग में कमी नही हो सकता क्योंकि वह यह अच्छी तरह जानता है कि जैनमत सर्वनप्रणीत है उसमें गलती के लिये जगह कहां और बाकी के मत अल्पज्ञाके द्वारा अपने अपने अन्दाज पर खड़े किये हुये हैं वहां पर सत्य का लेन देन क्या । और अगर जैन धर्म से मिलती हुई बात धुणाक्षरन्याय से वहां कही आभी गई तो उसका वहां मूल्य भी क्या है कुछ नही । अतः जैनमत और इतरमतो में परस्पर इतना अन्तर है जितना कि सोना और पीतल में होता है। हां यह भले ही कहा जासकता है कि वर्तमानमें जैनगन्थके नाम से कहे जानेवाले कुछ शास्त्रों में कितनी ही परस्पर विरुद्ध ऐसीबेतुकी बात है जिनसे कि दिगम्बर श्वेताम्बर सरीखा जटिल भेद खड़ा हो रहा है, परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव अपनी बुद्धिरूप कसोटी-पर कसकर उसमे से भी खरे और खोटे की पहिचान सहज में कर सकता है. अस्तु आगोनिःकांक्षिताङ्गको बतलाते हैं अपथ्यवद् दुःखविधेरपेतु लग्नः सुखे चागदतां समेतु सांसारिकरुग्ण इसायमार्यः प्रवर्तने दौम्थ्य मियद्विचार्य ५५॥ अर्थात् कांक्षा के न होने का नाम निःकाक्षित अङ्ग है जिसका कि यहां पर वर्णन सुरू हो रहा है । भोग ही सुख देने वाले हैं ऐसा शोचकर उनके पीछे पड़े रहना सो कांक्षा कहलाती है। मिथ्या दृष्टि जीव मानता है कि इन भोगों में ही सुख है Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) - - - अतः वह खाने, पीने, सोने वगेरह मे ही जी ज्यान से जुटा रहता है पाप पाखण्ड करके भी उनकी पूर्ति करना चाहता है। जिससे कि अपथ्य सेवी रोगी की भांति सुखी न होकर उलटा दुःखी ही होता है । हां अगर सयाना रोगी होता है वह अपथ्य सेवन से दूर रह कर वर्तमान शान्ति के लिये वाहरी उपचार करता है जैसे कि कोई खुजली वाला आदमी नमक खटाई, मिरची, तेल, गुड़ बगेरह जैसी खूनखराबी वाली चीजो से दूर रहकर कपूर मिला नारियल का तेल मालिस करता है तो धीरे धीरे नीरोग भी बन जाता है वैसे ही सम्यग्दृष्टि पीव, चारित्रमाह की बाधा को न सहसकने के कारण उसके प्रतीकारस्वरूप समुचित भोग भी भोगता है परन्तु वह जानता है कि इन विषय भोगों में सुख नही, सुख वो मेरी आत्मा का गुण है जो कि मेरी दुर्वासना से दुःखरूपमे परिणत होता हुवा प्रतीत होरहा है अतः वह पापवृत्ति से दूर रहता है एवं धीरे धीरे नीराग होते हुये अन्तमें विषय भोगों से विरक्त होकर पूर्ण स्वस्थ होलेता है । अथवा या कहो कि व्यर्थ की अभिलाषा करना आकांक्षा है जैसे रात्रि में आदमी को लिखा पढी का कार्य करना होता है तो दीपक जलाकर प्रकाश कर लेता है एवं अपना काम निकालता है जहां सबेराहुवा, सूर्यउगा, स्वतः प्रकाश होलिया तो दीपक को व्यर्थमान कर बुता देता है । फिर भी कोई भोला वालक अगर रोने लगे कि दीप को क्यों धुता दिया जलने देना था तो यह उसका रोना किस काम का है Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) - - केवल भूल भरा बालकपन है, बस ऐसे ही गृहस्थ अवस्था में तो समुचित कपड़े पहनना, धनार्जन करना इत्यादि बातों के सहारे से ही अपने उपयोग को निर्मल किया जाया करता है मगर त्याग वृत्ति पर आकर भी उन्हीं बातो की अभिलापा को लिये रहना, निदान करना भूल है सो ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव कमी नही करता अतः निःकांचित होता है । अस्तु । अब नीचे निर्विचिकित्सांग का वर्णन करते हैं न धर्मिणो देहमिदं विकारि दृष्टाभवेदेषघृणाधिकारी गुणानुरागात् करोतु वेश्या-वृत्यप्रणीति रुचयेऽस्तु या ५६ ___अर्थात्- मिथ्यादृष्टि जीव अपने शरीर की विष्टा वगैरह को देख कर तो नही मगर दूसरों की विष्टा वगेरह को देखकर नाक सिकोड़ने लगता है, यह नही शोचता कि इसमे घृणा करने की कौनसी बात है जैसा शरीर इनका वैसा ही मेरा भी तो है । परन्तु अपनी तो विष्टा भी चन्दन और दूसरे का खकार भी विकार इस ऐसे विचार को लेकर वह अपने सिवाय औरों से मुह मोड़कर चलता है । परन्तु सम्यगदृष्टि शोचता है कि शरीर का तो परिणमन ही ऐसा है यह मल से ही तो उपजा है और निरन्तर मल को ही बहाता भी रहता है फिर इनका शरीर अगर मलीन है तो इसमें कौनसी नई बात है, इनकी आत्मा तो वही सम्यग्दर्शनादिरूपधर्मयुक्त है ऐसे विचार से वह धर्मात्मा जीवो की वैयावृत्य करने में Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) - संलग्न होता है और धर्म के प्रति होनेवाली अपनी रुचि को पुष्ट बनाता है। आगे अमूढ दृष्टि अंग का वर्णन किया जा नमोहमायातिकुयुक्तिमिर्य:पृथञ्जनाना, सुपपत्तिवीर्यः सर्वत्रदेवागमगुर्षभिज्ञासदैव भूत्वा गुणतोनतिज्ञः । ५७॥ अर्थात्- जो देव यानी परमात्मा, आगम यानी निदोंप शिक्षण और गुरुयानी साधु इन के म्वरूपको अच्छी तरह जानता है। मत्संग स्वानुभव और युक्तियो के द्वारा जिसका ज्ञान परिपक्व बन चुका है अतः जो सर्वसाधारण लोगों की बातों में या धूर्त लोगों की कुतों में फंसकर कभी भी उथल पुथल नहीं हो पाता है एवं उहण्ड तो नहीं मगर हरेक के आगे माथा लुढ़ काने वाला भी नहीं होता किंतु जिसमें जैसा गुण देखना है उसका वैसा आदर अवश्य करता है सदा और सब जगह हंस की भांति विवेक से काम लेने वाला होता है वह अमूढ दृष्टि अंग का धारक कहा जाता है । अब यहां पर प्रसंग पाकर संक्षेप में क्रमशःदेव, शास्त्र और गुरु का स्वरूप बताया जाता है उसमे पहले देव का स्वरूप रागादिदोपानुच्छिद्य सर्वज्ञत्व मधिष्ठितः विदेहभावनिर्देप्टा परमात्मा प्रसिद्ध यति ॥ ॥ अर्थात्-जिस श्रात्मा ने अपने अन्दर अनादिकालसे निरन्तर रूप से उत्पन्न होते रहने वाले राग द्वेप मामात्सर्यादि विकारी Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११ ) भावों का मूलोच्छेद करके पूर्णतया प्रध्वंशात्मक प्रभाव करके सर्वज्ञ पन को पालिया हो एवं यह जीव सशरीर से निःशरीर किस प्रकार वन सकता है इस प्रकार के सवक को इन संसारी जीवों के सम्मुख उपस्थित करने वाला हो वह परमात्मा कहलाता है जिसको कि आदर्श मानकर हम अपना सुधार कर सकते हैं। आप्तोपज्ञमनुल्लंध्यमदृष्टेष्ट विरुद्धवाक्, तत्वोपदेशकत्साशास्त्र कापथघट्टनं ।।२।। अर्थात् जो मूल में सर्वन का कहा हुवा हो, किसी भी चीज का परिणमन कभी भी जिसके कथन से बाहर नहीं जासकता हो, इसी लिये जिसमें प्रत्यक्ष से और अनुमान से भी कोई अडचन खड़ी नहीं की जा सकती हो, विकृतमार्ग का खण्डन करके जो वास्तविकता पर जोर देने वाला हो, अतः सबका भला करनेवाला हो वही आगम है। नैराश्यमेव यस्याशाऽऽरम्मसङ्गविवर्जितः साधुःस एव भूभागे ध्यानाध्ययनतत्परः ॥२॥ अर्थात्-निराशपना-आशा,तृष्णा से विलकुल रहित हो रहना ही जिसकी आशा यानी सफलता हो, जो किसी भी प्रकार के काम धन्धे से और धनादि से सर्वथा दूर रहने वाला हो, जो ध्यान और अध्ययन में यानी उपयुक्त परमात्मा को याद करने में या पूर्वोक्त आगम के पढ़ने में ही निरन्तर लगा रहने वाला हो वही इस भूतल पर साधु कहलाने का अधिकारी Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) - - - - होता है। आगे उपगृहनांगअशक्तभावोत्थसधर्मिदोषनाच्छादयन्नेष गुणककोशः अकण्टकं मत्पथमातनोतुन कोऽपि कष्टानुभवं करोतु ५८ ___अर्थात्-प्रायः ऐसा देखने में आता है कि जो जैसा होता है वह दूसरों को भी वैसा ही समझता है जो चिलम पीने वाला है वह उस चिलम को भट दूसरे के सामने में भी कर देता है कि लो पीवा, भलेही वह नही ही पीता हो । बस तो सम्यग्दृष्टि जीव खुद गुणवान होता है अतः औरों को भी गुणवान ही समझता है, उसका विचार उनके गुण की ओर ही मुकता है । वह यह भी जानता है कि भूलजाना या फिसल पडना कोई बड़ी बात नही है, मैं भी वो भूला करता हूं। शरीरधारी होकर ऐसा तो कोई विरला ही हो सकता है जो कि भूलता ही न हो उसके तो आगे सबको शिर झुकाके चलना पड़ता है वाकी वो सभी भूल के भण्डार है। अतः जो कोई आदमी सत्पथ का श्रद्धालु वो हो किन्तु उसपर समुचितरूप से चलने में अशक्त हो, वे समझी और आलस्य के कारण ठीक न चल सकरहा हो इस लिये उसमें कोई प्रकार की कमी आगई हो तो उस कमी को लेकर उसकी अवज्ञा नहीं करने लगजाता बल्कि उनको न याद करते हुये उसके अन्दर होने वाले शेप गुणों को लेकर उसका आदर करता है। दूसरे भी कोई अगर उसकी निन्दा करने लगते हैं तो उन्हें भी समझाता है कि भाई Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० । - साहेब आप ऐसा क्यों कह रहे हो आपने उनमें ऐसी कौनसी बात पाई ताकि वे विचारे आदमी ही न समझे जावें। किसी को भी इस प्रकार बेकार कोशने से तो वह न भी है तो वैसा ही बन जाता है इत्यादि । इस, सम्यग्दृष्टि के इस वर्ताव से किसी को भी कोई कष्ट नहीं हो पाता और गलती खाने वाला आदमी भी धीरे धीरे अपनी गलती को ठीक करले सकता है एवं मार्ग सुचारु और निष्कण्टक बन जाता है। अतः इसका नाम उपगृहनांग है। अब आगे स्थितिकरण का वर्णनश्रद्धानतश्चाचाणाश्च्यवन्तः संस्थापिताः सन्तु पुनस्तदना: अनेक विध्न प्रकरेऽत्र येन सन्मानसोत्साहवशंगतन ।।६।। अर्थात्-श्रेयांसि बहुविनानि इस कहावत के अनुसार भली बातों में बाधाये तो अनेक आकर खड़ी होती हैं मगर साधक कोई विरला ही होता है ऐसी हालत में अगर कोई भोला आदमी सन्मार्ग पर लग, कर भी उस पर से चिग रहा हो या उसे ठीक नही पकड़ पारहा हो,उसपर चलने में असमर्थ हो रहा हो तो उसकी सहायता करना सम्यग्दृष्टि आदमी का काम हो जाता है । क्यों कि ऐसा करने से उसकी सन्मार्ग के प्रति रुचि प्रस्फुट होती है जिसका कि होना सम्यग्दृष्टि के लिये परमावश्यक है उसका जीवन है, अतः यह स्थितिकरण उसका अंग होजाता है । आगे वात्सल्य का वर्णन करते हैं Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मस्य मंग्राहक एप यस्माद् धर्मात्मनानास्तु विनासतस्मान म्निह्य तवत्सं प्रतिधेनुतुल्यः सधर्मिणं वीच्यविवेककुल्य: ६० अर्थात्- वैसे तो सम्यग्दृष्टि जीव का प्राणी मात्रके प्रति प्रेमभाव होता है किन्तु किमी भी धर्मात्मा को वह देखपाता है नब तो बछड़े को देखकर गर की भांति उत्सुक ही हो लेता है। क्योंकि यह धर्म का ग्राहक होता है जो कि धर्मात्मावां के पास ही दीख पडता है धर्मात्मा को छोड़ कर धर्म अन्यत्र नही मिलता । यद्यपि प्रेम तो समारी प्राणियों में भी होता है, पति पत्नी में, भाई बहन में, पिता पुत्र में और अड़ोसी पड़ोसी में भी प्रम हुवा करना है जो कि अपने अपने मतलब को लिये हुये होता है जहा मतलब सधा कि उसमें कमी आ जाती है या वठले में विरोध भी आ धमकता है । परन्तु सम्यग्दृष्टि का धर्मात्मा के प्रति जो प्रेम होता है यह कुछ और ही प्रकार का होता है उसमें स्वार्थ का नाम भी न होकर यह केवलमात्र परमार्थ का पोषण करने वाला होता है उसका नाम वात्सल्य है । अब प्रभावनाङ्ग बनलाया जाता हैप्रभावयेदेष मदा स्वधर्म माप्नोतु लोकोयत एवशर्म । कदापि कुर्याधुपितं न कर्म प्रभिद्यते येनतुधर्ममर्म ६१ अर्थात् - उपयुक चंप्टा के धारक सम्यग्दृष्टि जीव को चाहिये कि वह अपने धर्म को निरन्तर वृद्धिंगत करता रहे Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) अपने आत्म परिणाम उत्तरोत्तर निर्मल से निर्मल बनते चले जावे ऐसी उपाय करे | ऐसा घृणित कर्म तो कभी स्वप्न में भी न करे जिससे कि धर्म के ऊपर मर्म की चोट आपावे । भगवदुपासना, सद्गुरु सेवा आदि धर्म कार्यों में अग्रसर बना रहे ताकि और लोग भी उसे आदर्श मान कर उन कार्यों को तत्परता से करने लगे और अपना भला कर पावे इस प्रकार के श्रखण्डोत्साह का होना ही धर्म प्रभावना है । शङ्का - भगवदुपासना सद्गुरु सेवादि में अग्रसर बनना तो शुभ राग रूप होने से पुक्रिया है उसको धर्म कार्य मानना तो भूल है । उत्तर - भैय्या देखो धर्म नाम सम्यक्त्व का ही तो है और वह जिसके हो वह सम्यक्त्ववान् धर्मात्मा होता है वह जब अर्ह दुपासनारूप अपने परिणाम करता है तो वह उस धर्मात्मा का परिणाम धर्म कार्य नहीं तो और क्या है ? उसमे धर्म नही होता इस का अर्थ तो यह हुवा कि वहां पर सम्यत्व नही रहता सो क्या अर्हदुपासना के समय सम्यग्दृष्टि का सम्यक्त्व नष्ट हो जाता है ! नही, बल्कि आगम तो यह कहता है कि इतर गृहस्थोचित कार्य करते समय जो सम्यक्त्वी का समक्त्व है उसकी अपेक्षा श्रर्हदुपासना में विशदतर बनता है अतः वहां धर्म की प्रभावना हुवा करती है जैसा कि श्रीकुन्द कुन्दाचार्य ने अपने मूलाचार के पश्चाचाराधिकार में लिखा है Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) धम्म कहा ऋहणेण्यवाहिर जोगहि चावि अवज्जे । धम्मो पहावितव्यो जोवेमु पाणुकम्पाए ॥२॥ अर्थात्- तीर्थङ्कर चक्रवर्ती नारायणादि महा पुरुषों की कथा करने से, दान पूजादि कार्यों से,जोवों पर दया भाव करने से ऐसे और भी निर्दोष कार्यरूपमें अपने परिणामों के करने से धर्म प्रभावित होता है। हां यह बात दूसरी कि ऐसे कार्य में मन्यग्द्रप्टि जीव के प्रशस्त पुण्य का भी श्राव होता है सो अगर आश्रव होने मात्रसे धर्म न कहकर अधर्म कहा जावे तव तो आश्रय तो शुद्धोपयोग में भी होता है । परन्तु सम्यग्दृष्टि का शुभापयोग और शुद्धोपयोग ये दोनों धर्मरूप ही होते हैं। अधर्म तो मिथ्यात्व का नाम है जो कि मिथ्याप्टि में ही होता है अतः उसकी सभी क्रियायें अधर्म रूप ही होती है। खाना पीना बगेरह क्रियाये तो योग और उपयोग दोनों में अशुभ रूप होने से घोर अधर्म, अर्थात्-पापरूप होती है मगर वह जो भगवदुपासनादि क्रियाय करता है तो वहां पर भी उसके उपयोग तो अशुभ ही होता है सिर्फ योग शुभ होने की वजह से अप्रशस्त पुण्यका आश्रव होता है अतः पुण्य क्रियाये कही जाती हैं। . शड्ढा- वीतरागपन का नाम धर्म और मरागपन को अधर्म कहे तो क्या दोष है। ____उत्तर- ऐसा मानने से फिर बाहरवें गुण स्थान से नीचे वाले लोग सभी अधर्मी ठहर जाते हैं परन्तु हमारे मान्य Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९४ ) - जैन शासन में तो धर्म या मोक्षमार्ग, चतुर्थ गुणस्थान से सुरू हो जाता है जो कि सरागधर्म और पीतराग धर्म के नाम से दो भागों मे जरूर विभक्त किया हुवा है सो चतुर्थ गुण स्थान में सुरू होकर दशवे गुण स्थान के अन्त तक सरागधर्म होता है उससे ऊपर में वीतराग धर्म बन जाता है। अस्तु । प्रारम्भिक सम्यग्दृष्टि जीव पूर्वोक्त प्रशमादि भावों का धारक तथा निःशङ्कितादि अङ्गो का पालक होते हुये सदाचार का पक्षपाती होकर दुराचार का विरोधी हुवा करता है सो ही नीचे स्पष्ट करते हैंएवं सदाचार परोऽप्यपापी चारित्रमोहोदयतस्तथापि महानतेभ्योऽयमिहातिदूरः देश ब्रतानिक्रमितुन शरः ६२ अर्थात्- इस प्रकार ऊपर जिसका वर्णन किया जा चुका है वह अव्रत सम्यग्दृष्टि जीव पापों से यद्यपि दूर रहता है, सदाचार का पूरा हामी होता है फिर भी चरित्र मोह के तीब्रोदय के कारण महाव्रतों की तो कथा ही क्या किन्तु श्रावक के पालन करने योग्य बारह व्रतों को भी धारण करने के लिये समर्थ नही होता है। जैसे कि एक भले घरका नोजवान लड़का जिसकी कि अभी शादी नहीं हुई है वह यद्यपि स्वीप्रसङ्ग से दूर है फिर भी स्त्रीप्रसङ्ग का त्यागी नहीं है बस यही अवस्था इस अव्रत सम्यग्दृष्टि की होती है त्यागी या व्रती न होकर भी पापा चारी नहीं होता। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) यदा द्वितीयाख्य कपाय हानिःसुश्रावकत्वं लभते तदानीं न्यायाचिते भोगपदेऽपकर्षस्सन्तोष एवास्यवृथा न तपः ६३ अर्थात्- अब जब कि उपर्युक्त अभ्यास के बल पर अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया और लोम नामक दूसरी कपायों का भी क्षयोपशम होलेता है वो यथाविधि अणुव्रतों के पालन करने में तलर होकर सप्टरूप में श्रावक बनता है जिससे कि न्यायोचित विषयभोग भोगने में भी इस की वृत्ति अव सीमित होलेती है । जैसे मानलो कि अबत अवस्था में तो अपनी सी मे रात में या दिन में भी जब चाहे नव वतिया लिया करता था मगर अब दिन में कभी भी न याद करके रात्रि में ही उसके साथ प्यार करने का दृढ़ संकल्प अपने मनमें रखता है इस प्रकार पूर्वकाल की अपेक्षा से श्रय कुछ सन्तोप पर आजाता है । अपने किये हुये संकल्प से सिवाय की बात को तो कमी भी याद ही नहीं करता किन्तु अपने संकल्पोचित विषय में भी व्यर्थ की आशा, तृष्णा से बचने की चेप्टा रखता है । एवं मुसका मन दृढतर बन जाता है ताकित्रियं श्रितस्यापिततोऽल्प एवाप्तपंचमस्येति वदन्ति देवाः चतुर्थ भूमौ भजतो जिनश्च वन्धोयथास्यारिस्थति भागमशः ६४ अर्थात-जिस प्रकार मिथ्याइष्टि की अवस्था से Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) सम्यग्टष्टिपन स्वीकार करने पर ज्ञानावर्णादि कर्मों या कल्पस्थिति और अनुभाग लिये हुये बन्ध होने लगा था वैसे ही व्रत अवस्था से इस देशव्रत समय में और भी कम स्थिति अनुभागयुक्त होने लगता है । चतुर्थगुणस्थान में भगवद्भजन सरीखा पवित्र कार्य करते समय भी उन दुष्कर्मों का वैसा अल्पबन्ध नही होता था जैसा कि इस पचमगुणस्थान मं जाने पर श्रीसम्पर्क करने के काल में हुवा करता है । क्यों कि कर्मबन्धन का हिसाब वाह्य प्रवृत्ति पर निश्चित न रह कर 'मनुष्य के कषायांशोंपर अवलम्बित माना गया है । कषाय इस पचमगुणस्थान की अपेक्षा चतुर्थगुणस्थान में हरहालत में अधिक ही होता है अतः बन्ध भी अधिक ही होता है इसी बात को उदाहरण से रपष्ट किया जाता हैलक्षाधिपस्यास्त्ययुतं शतं वा तथा कषाय प्रचयावलम्बात तत्रानुयुक्तोऽधिक एवं रागस्ततोऽमृतोऽत्यर्थमियात्स आगः ६५ 1 अर्थात् - जैसे एक लखपति है और दूसरा हजारपति तो लखपति में हजारपतिपन की भी ताकत है और शतपतिपन की भी । हजारपति में शतपतिपन को तो ताकत होती है मगर लखपतिपन की नही । वैसे ही मिध्यादृष्टि अवस्था में तो अनन्तानुबन्धि कपाय होनेसे अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण बगेरह सभी कषाये होती हैं अतः उसके वैसा ही घोर कर्मों का बन्ध भी हर समय होता रहता है । सम्यग्दृष्टि Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) होजाने पर.अनन्वानुवन्धि कषाय का तो अभाव होजाता है अतः उससे होने वाला बन्ध तो नही किन्तु अप्रत्याख्यानावर कपाय होनेसे उससे होनेवाला और साथमें प्रत्याख्यानावरणादि से होनेवाला बन्ध भी होता रहता है। श्रावक होजान पर जब कि अप्रत्याख्यानावरण का भी अभाव होलिया तो उसके सिर्फ प्रत्याख्यानावरणानि जन्य स्वल्पबन्ध होना ही वाकी रहता है वही होता रहता है । हां वह वात दूसरी कि प्रत्येक कषाय के भी असंख्यात लोकप्रमाण भेद होते हैं अतः उनमे आपस में हीनाधिकपना और तनन्य होनाधिक बन्ध भी होता है परन्तु ऐसा कभी नहीं होसकता कि एकत्रती श्रावक के अवती सरीखी तोत्र कपाय वा वैसा तीप्रबन्ध होने लगे। शङ्का- हम प्रत्यक्ष देखते हैं एक व्रती आदमी के कभी कभी साधारण गृहस्थ से भी अधिक क्रोधादि हो आते है। उत्तर- ऐसा जो देखा जाता है वह तो लेश्याकत विकार है। कपाय के रदय से होनेवाली मनक्वन और काय की प्रवृत्ति का नाम लेश्या है वह कृष्ण, नील,कापोत और पीत,पद्म,शुक्ल के भेद से छः प्रकार की होती है। इनमें से अबत अवस्था में भी कृष्ण से लेकर शुक्ल तक और व्रतीपन मे भी पीतलेश्या से लेकर शुक्ललेश्या तक यथासम्भव यथावसर वदलती रहती हैं । सो कमी किसी अवती के मन्दलेश्या और किसी व्रती के तीब्रलेश्या का होना बड़ी बात नहीं, फिर भी अगर वह सचा व्रती है तो गुस्से में आकर भी अव्रती का सा कार्य करने Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) लगता है क्या ?मानलो एक अम्बाके दो लड़के हैं, एक अवती और दूसरा व्रती दोनोंने विचार करके अम्बासे कहा कि मैय्या आज तो लड्डू खाने को तबियत चाहती है सो लड्डू बनाना मगर वह लड्डू बनाना भूलगई उसने भात बनालिये, भोजन के समय कहा कि आवो बेटो भात तैयार होगये खालो,इस पर अवती ने तो शोचा कि चलो कोई बात नहीं भात बनाये हैं तो भात ही सही । उधर व्रती कहता है कि आज कई दिन से तो मोदक बनाने को कहा था सो क्यों नही बनाये मै तो नहीं खावा, यो रोष में भर आता है, इतना तो हो सकता है किन्तु इस रोष ही रोष में बाजार से हलवाई के यहां से लड्डू लाकर खालेवे ऐसा कभी नही होसकता । जैसे कि अबती के मनमें आजावे तो खरीदकर भट खाने लगजाता है, बस यही इन दोनों के अन्दर अन्तर होता है जो कि उसकी कषाय का अन्तर है और अन्तरंग में सदा बना रहता है इस कषाय विशेष से ही व्रती की अपेक्षा अवती के अधिक बन्ध माना गया है सो ठीक ही है । घास खानेवाला हिरण दूब चरते समय भी अपनी भद्रता के कारण उतना पाप नही करता है जितना कि नीन्द में सोरहा हुवा चूहों का खानेवाला बिलाव,ऐसा माननाही होगा। एवं तृतीयाख्य कषायहानेर्भोगापयोगायमनोऽनुजाने तथापि सत्कर्मणि संप्रवृत्ति किन्त्वमुष्यात्ममुखाभिवृचिः ६६ • अर्थात्-श्रावक अवस्था में यद्यपि त्याग की तरफ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) मुकाव हुवा करता है फिर भी आंशिक भोगोपभोगी का भ उपयोग होता रहता है, मगर जहां प्रत्याख्यानावरणीय कपाय का क्षयोपशम हुवा कि भांगसामग्री से कुछ भी प्रयोजन नही रहता । स्त्री, पुत्र, धन, मकान बगेरह सभी तरह की बाह्य ऐश आराम की चीजों से अपने उपयोग को हटा कर आदमी मुनि वनाया करता है । → -- शंका-बाह्य वस्तुओं का त्याग तो द्रव्यलिंगी मुनि के भी होता है सो क्या उनके भी प्रत्याख्यानावरणीय कषाय का क्षयोपशम होता है ? उत्तर - द्रव्यलिङ्गी मिध्याद्यीट मुनि के किसी भी कपाय का क्षयोपशम नही हुवा करता मगर अनात्मभावरूप मिथ्यात्व के होने से उसके और सभी चारित्रमोहनीय कपाये एक अनन्तानुवन्धि के रूपमें उयमे आती रहती हैं, वह भव्यसेन मुनि की भांति अपने आपको बड़ाभारी तपस्वी मानाकरता है । औरों के प्रति तुच्छता का भाव उसके अन्तरंगमे घर कियेहुये रहता है । वह मानता है कि मैं जो यह तपस्या कररहा हूं सो किसी से भी न होनेवाला बहुत ही बड़ा काम का मिध्याभिमान और धर्मात्मावो के कर रहा हूँ । इस प्रकार प्रति घृणाभाव उसके सदा बना रहता है | शंका- ऐसी हालत मे उन्हें जो अन्तिम मैवेयक तक की प्राप्ति हो जाती है. सो कैसे होजाती है ' उत्तर- उनके मन, वचन और काय नामक योगो की प्रवृत्ति Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३०) - - - - महानतादि मय शुम रूप होती है जिससे उच्चगोत्रादि पुण्य प्रकृतियों का वन्ध होकर उन्हे अहमिन्द्रपद की प्राप्ति होजाती है फिर भी उनका उपयोग मलिन ही बना रहता है अतः संसार का अभाव कमी नहीं हो पाता। शङ्का- इसी लिये तो हम कहते हैं कि शुभोपयोग शुद्धोपयोग का साधन नहीं है यानी शुभ क्रिया करते करते यह जीव अन्तमें नियम से शुद्धता को प्राप्त कर जाता है ऐसा मानना गलत है। उत्तर- उपर सिर्फ शुभयोग के बावत की बात कही गई है जो कि द्रव्यलिङ्गी के होता है। उसको किसी भी जैनाचार्य ने किसी भी जगह शुद्धोपयोग का साधन कभी भी नही बतलाया है अतः उसे ही शुद्धोपयोग का साधन मानने वाला अवश्य भूल खाता है, परन्तु शुभोपयोग की चरमावस्था शुद्धोपयोग का कारण जरूर है जैसा कि आचार्यों ने बतलाया है। तुम जो शुभोपयोग कोःशुभ योग मे घसीट रहे हो सो ठीक नही है। शुभ योग भिन्न चीज है' और 'शुभापयोग मिन्न । योग तो आल्मा की मन, बचन, काय के निमित्तासे होनेवाली सकम्पता का नाम हैं और उपयोग नाम चैतन्य परिणाम का। वे दोनों ही अशुभ, शुभ और शुद्ध के भेद से तीन तीन तरह के होते हैं । हिंसा करना, मूठबोलना, डाह रखना इत्यादि रूप चेष्टा का नाम अशुभ योग है जो कि पापबन्ध का कारण होता है। जीपोंकी रक्षा करना, सत्य-बोलना, जिनस्मरण करना Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३१ ) - - - - - इत्यादि रूपन्चेष्टा को शुभयोग कहते हैं जिससे कि: पुण्य का बन्ध होता है। निरीहता से कायादि की चेष्टा का नाम शुद्धयोग है जिससे कि किसी भी तरहका-बन्ध न होकर इर्यापथिक आवमात्र होता है। शरीर और आत्मा को एक मानते हुये इन्द्रियाधीनवृत्ति का नाम अशुभोपयोग है जो कि अनन्त संसार का कारण है। शरीर से आत्मा को भिन्न; नित्य ज्ञानस्वरूप मानते हुये एवं वीतरागता की तरफ मुकते हुये सद्विचार का नाम शुभोपयोग है जो कि परीतसंसारपन का साधन है । वीतराग भाव का नाम शुद्धोपयोगा है जो संसाराभावका साक्षात् कारणहै। इसमें से अभव्य जीव के और मिथ्याष्टिभन्य जीव के भी उपयोग तो अशुभ ही होता है किन्तु योग शुभ एवं-अशुभ पलटते रहते हैं। सम्यग्दृष्टि के अशुभोपयोग का अभाव होकर-शुमोपयोग फिर शुमोपयोग से- शुद्धोपयोग होता है यानी सम्यग्दृष्टि जीव के योग तो अशुभ: शुभ और शुद्ध ऐसे तीनों ही प्रकार का न्यथा सम्भव होता है, क्यों कि एक सम्यग्दृष्टिम्जीवा जिस समय युद्ध में प्रवृत होरहा होता है तो वहां उसके उपयोग में शुभकिन्तु योग अशुभ हुवाकरता है, वही जब भगवत्पूजनादि कायों में प्रवृत्त होता है। दो उपयोग और योग दोनों शुभ होते हैं और वीतरागदशा में उसके दोनों शुद्ध होजावें है। शक्षा - योग और उपयोग भिन्न भिन्न प्रकार के नहीं होसकते दिलो कानजी की रामजी माणेकचन्द दोषी कृत-चत्वार्थ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) सूत्र की छटी अध्याय के सूत्र तीसरे की टीका) क्यों कि जैसे जीव के विचार होंगे वैसी ही उसकी चेष्टा भी होगी। उत्तर-देखो भैयाजी मानलोकि कोई एकआदमी अपनेसे अधिक शक्तिशाली अपने शत्रु को परास्त करना चाहता है जिसके लिये नवरात्रानुष्ठान करना प्रारम्भ करता है। जिसमें मन से तो अपने इष्ट भगवान् का स्मरण करता है, बचन से भगवनामोच्चारण और शरीर से भगवत्पूजन में संलग्न हो रहता है तो वहां पर उसके योगचेप्टा तो शुभ है किन्तु विचार जो है वह शत्रुदमनरूप खुदगर्जमय होने से अशुभरूप है। शङ्का-विचार मनके द्वारा होता है और योगामें भी मन-योग प्रधान है फिर दोनों भिन्न २ कैसे सो अभीतक हमारी समझ में नहीं पाया। उत्तर-तुम्हारा कहना ठीक है विचार और मनोयोग ये दोनों होते हैं मन के द्वारा किन्तु विचार आत्मा के ज्ञान गुण का परिणाम है और योग आत्माके प्रदेशवत्त्वगुण का (कम्पनरूप) परिणाम । फिर इन दोनों के मिन्न २ होने में बाधा क्या है? कुछ नही । सो द्रव्यालिङ्गी मुनि का बाह्य वस्तुवो का त्याग योगमात्र से होता है उपयोग से नहीं, परन्तु जो सच्चा त्यागी होता है वह तो वाह्यवस्तुवों को व्यर्थमान कर सहज ही उनसे विमुख हो रहता है । जैसे कि खाते खाते किसी का मन भर गया तो फिर वह खाने के तरफ की अपनी भावना हो छोड़ देता है। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३ ) हां इस प्रकार का त्याग करके मुनि होलाने पर भी इम की वृति एकान्त आत्माभिमुखी नही होजाती, परन्तु वीतराग मर्वत्र भगवान का ध्यान करना, वीतरागपन का निर्देश करने वाले उपदेशों को याद करना, सद्गुरुवों की वैय्यावृत्य करना वीतरागियों के पास रहने को ही चाहना इत्यादि सत्कार्यों के करने में संल म बनता है यानी इन बातों के द्वारा ही तो अपनं आत्म म्वरूप का महत्व अपने हृदय में उतारता है जैसा कि श्री अरहन्तभगवान् वीतराग और सर्वज्ञ होते हैं और जैसा अरहन्त का स्वरूप है वैसा ही मेरी आत्मा का भी स्वरूप है, परन्तु सीधा प्रामस्वरूप पर अभी नही जमने पाता। क्योंकि यतोऽन्तरासंज्वलतीहरागः दन्दह्यतेऽनेनकिलात्मवागः। नायातुमईत्यत एव भेद-विज्ञान पुष्पंसुमनः स्थलेऽदः ६७ ___अर्थात् - अब भी इसके आत्मरूप वाग की जमीन में संचलन नाम का कपाय या रागभाव अपना असर किय हुये रहता है ताकि विलकुल परालम्बन से रहित अपने शुद्धात्मस्वरूप पर आकर जमजानेरूप भेदविज्ञान जिसको कि शुक्लध्यान भी कहते हैं वह इसके मनमें नही सुरित हो पाता जो कि मेदविज्ञान आत्मीक सफलता के लिये पुष्प का कार्य करता है। भेद विज्ञान का खुलासाभेद विज्ञान में भेद और विज्ञान ये दो शब्द हैं जिनमे Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) परस्पर समास होकर भेदविज्ञान एक शन बन गया हुवा है। सो भेदस्यविज्ञानं ऐसा षष्ठी तत्पुरुष समास किया जाय तब तो "एकक्षेत्रावगाह होकर भी शरीर और आत्मामें जो परस्पर भेद है उसका ज्ञान यानी देह और जीव में परस्पर एक बन्धानरूप संयोग सम्बन्ध है फिर भी ये दोनों एक ही नही होगये है अपितु अपने अपने लक्षण को लिये हुये भिन्न भिन्न हैं। रूप, रस, गन्ध और स्पर्शात्मक पुद्गलपरमाणुवों के पिण्डस्वरूप तो यह शरीर है किन्तु उसके साथ साथ उसमे चेतनत्व को लिये हुये स्फुटरूप से भिन्न प्रतिभापित होने वाला आत्म तत्व है। इस प्रकार जानना तथा मानना यह मतलव हुवा सो यह मेदविज्ञान तो चतुर्थगुणस्थान मे होलेता है। किन्तु जबकि भेदेनभेटाद्वा यद्विज्ञानं तद्भेदविज्ञानं ऐसा समासलिया जाये तो फिर ऋों को दूर हटा कर यानी राग द्वपादिभाव कर्मोंका नाश करडालनेपर जो ज्ञान यानी शुद्धामा का अनुभव हो उसका नाम मदविज्ञान सो यह पृथक्त्ववितर्कबीचार नामक शुक्लध्यान का नाम बन जाता है जो कि यहां । इष्ट है और जिसके कि, सोलहों आना सम्पन्न हो लेने पर उसके उत्तर क्षण में एकत्व को प्राप्त होते हुये यह आत्मा अपने । ज्ञानावरण, दर्शनाबरण और अन्तरायकर्म को भी मिटाकर परमात्मा बनजाता है और जिसके न प्राप्त होने पर या प्रात होकर भी पापिस छूटजाने पर यह आत्मा कर्मों से बन्धा का वन्धा ही रहजाता है जैसा कि अमृतचन्द्र स्वामी कह गये है Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५ ) भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा येकिलकेचन । तस्यैवाभावतो वद्धा वद्धा येकिलकेचन || अव वह भेदविज्ञान कैसे प्राप्त हो सकता है सो बताते हैंप्रस्तूयते सातिशयारव्यखाद श्चेदंकुरायात्म विदोऽप्रमादः । मृदन्तरा वीजवदीध्यतेऽदः पुनः किलास्पष्टसदात्मवेदः ६८ अर्थात् मुनिपने में भी मुख्यतया इस जीव के दो प्रकार के भाव होते हैं एक प्रमत्त भाव दूसरा अप्रसन्त भाव | परांवलम्वन रूप भाव का नाम प्रमत्त भाव है और परावलम्बन से निवृत्त होने रूप भात्र का नाम अप्रमत्त भाव जैसे कि मुति होते समय मं अब मुझे इन कपड़ों से क्या प्रयोजन है, कुछ नही ऐसा सोच कर उन्हें अपने शरीर पर से उतारने लगना दूर करना सो अप्रमत्त भाव एवं पीछी और कमण्डलु को संयम तथा शौच का साधन मान कर ग्रहण करना इत्यादि रूपभाव सो प्रमत भाव होता है। अथवा शिर के केशों को नॉच फैक् रहना सो अप्रमत्त-भाव और ॐ नमः सिद्धेभ्य इत्यादि रूप खिद्ध भक्ति करने लगना तो प्रमत्त भाव होता है। सामायिक करते समय में शरीर से भी निर्ममत्व होकर कायोत्सर्ग करने का नाम अप्रमत्त भाव है किन्तु स्तवनादि में प्रवृत्त होने का नाम प्रमत्त भाव है इसी प्रकार से और भी समझ लेना चाहिये । सो यह प्रमत्तसे श्रप्रमत्त और अप्रमत्त से प्रमत्त भाव मुनि के होते ही रहते हैं जिनको प्रमत्तविरत और स्वथाना कर Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) - प्रमत्त भाव क्रम से कहते है परन्तु इन दोनों तरह के भावों से दूर होकर रहने वाला बिलकुल हेयोपादेय पन से रहित परमोदा सीन भाव एक और भी हो सकता है जिस को शुद्ध भाव भी कहते हैं जैसा कि श्री समयसार जी में कहा है__ण विहोदि अप्पमत्तो णं पमत्तो जाणगोदुजो भावो। · एवं भणन्ति शुद्धं णावो जो सो उसो चेव ॥६॥ . उस शुद्ध आम भाव का नाम, ही भेदविज्ञान है इसी को स्वरूपाचरण भी कहते हैं जिसको कि प्रास करने के लिये उससे पहले सातिशयाप्रमत्त भाव की आवश्यकता होती है जो कि सातिशयाप्रमत्त भाव उस शुद्ध भाव की प्राप्ति के लिये, खेती के लिये खाद और पानी का सा कार्य करता है जिसमें और सब कल्पनाओंको दूर करके आत्मस्वरूप को उपादेय रूप से स्वीकार किया,जाया करता है मतलव यह कि इस के अनुभव में इस समय आत्मा शुद्धरूप मे न आकर उपादेयरूप रागांशयुक्त आता है जैसे कि सुरू २ में बीज मिट्टी के भीतर ही भीतर मिट्टीको साथमें लिये हुये अस्पष्टरूपमे फूट पाता है यानी इस के अनुभव में शुद्धाल्मा-निकल परमात्मा श्री सिद्ध परमेष्ठीतोध्येय और आप उनका ध्यान करने वाला होता है सिर्फ इतना सा भेदभाव रहजाता है । इसी को रूपातीत धर्मध्यान कहते हैं जो कि प्रशस्त संहननयुक्त मुनि की दशा में ही हुवा करता है क्यों कि इसके लिये सुदृढ़ रूपमें मन, वचन, कायकी निश्चलता की जरूरत होती है । अस्तु । यह रूपादीत धर्मध्यान ही अपने Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) उत्तरकालमें उस आत्मा के उपादेयतारूप रागांशको भी क्रमशः लुप्त करके शुक्लध्यान के रूप में परिणत होता है। उस रागांश को लुप्त करने की क्रमिक पद्धति का नाम ही श्रेणी है सो ही नीचे के वृत्त में बताते हैंउदीयमानस्य चिदंशकस्य रागादिदानींच्यवतः समस्य यन्त्रण तैलस्य खलादिवेतः श्रेणौ समष्टिं प्रतिभातिचेतः ६६ अर्थात्- याद रहे कि अणि-समारोहण के लिये या शुक्लध्यान प्राप्त करने के लिये सहायतारूप से अनपूर्वादिरूप विशिष्ट अवज्ञान की भी आवश्यकता होती है जो कि उस आत्मा मे या तो पहले से ही प्रस्फुट होरहा होता है और नहीं तो फिर रूपातीतध्यान के समय प्रस्फुट कर लिया जाता है तव फिर आगे बढ़ाजाता है । सो उम ऋणि मे प्रविष्ट हुवा आत्मा अपने रागांश को दुवात या नष्ट करते हुये वहा पर प्रफुट होनेवाले शुद्धचेतनांश का अनुभव करता है जैसे कि कोलू मे तिल पिल करके खल में से पृथक् होता हुवा तैल दीख पड़ता है एवं रीव्या यह आत्मा विशद से विशदतर होता चला जाता है इसी का दूसरा उदाहरणपटः प्रशुद्धथन्निबफेनिलेनाऽधुनानुभ्येतभवन्निरेनाः । किल्तूपयोगोंनहि शुद्ध-एव प्राहेति सम्यगजिनराजदेवः ७० अर्थात् जिस प्रकार ' एक मैले कपड़े को सावुन और पानी से जव धोया जाता है तो वह धीरे धीरे साफ होता हुवा Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १३८ ) प्रतीत होता है वैसे ही श्रेणि स्थित आत्मा भी अपने आप में होने वाले रागांश को अल्प से अल्पतर करते हुये विशुद्ध बनता चला जाता है एवं इसका उपयोग श्रेणि के अन्त में जाकर पूर्ण शुद्ध बन पाता है ऐसा श्री जिनभगवान का कहना है । तो फिर श्रेणि मध्यवर्ति अष्टमादि गुण स्थानों में जो शुद्धोपयोग कहा गया है सो क्या गलत बात है ? इसका जवाव नीचे दिया जा रहा है रागित्व मुज्जित्य तदुत्तरत्र शुद्धत्व माप्नोति किलेवमत्र । शुद्धोपयोगे गणनाष्टमादि-सूक्ष्मस्थलान्तं चिमुनान्यगादि ७१ अर्थात्-श्री सर्वज्ञदेव ने बतलाया है कि अष्टमगुणस्थानसे लेकर दशम सूक्ष्म सम्परायगुणस्थान तक के जीव अपने रूपमें तोराग युक्त होते है अतः शुद्धोपयोगी नही कहे जासकते मगर अपने उत्तर काल मे नियम से राग को त्याग करके शुद्धत्व को स्वीकार करने वाले होते हैं इस लिये उनके शुद्धोपयोग कहा जावे तो ठीक ही है राजा होनहार राजाके लड़केको भीतो राजा कहा जाता है मतलब कि भावनिक्षेपापेक्षयातो श्रेणिस्थ जीव शुद्धोपयोगी नही, विशुद्धोपयोगी होते हैं किन्तु द्रव्यनिक्षेप से उन्हें शुद्धोपयोग वाला माना गया है। इस पर प्रश्न हो सकता है। कि चतुर्थादिगुण स्थान वाले भी आगे चल कर तो शुद्धोपयोगी बनेगे फिर उन्हे शुद्धोपयोगी क्यों नहीं कहा गया इसका उत्तर निम्न छन्द में दिया जा रहा है Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) सूर्यादि भूभावपि नेगिष्टिर्यतस्ततश्चादिपदेऽपिविष्टिः । मोहनाशेऽपि चरित्र मोह-सम्विप्लकः स्यादिति सजनोहः७२ अर्थात्- अव्रत सम्यग्दृष्ट्यादि गुण स्थान वर्ती जीव अगर ऊपर की तरफ जावे तब तो क्रमसे आगे बढ कर शुद्धोपयोग (वीतरागता) को प्राप्त कर सकता है किन्तु नीचे की तरफ लुढक कर वापिस मिथ्याडष्टि भी तो बन सकता है सीधा ऊपर को ही जावे यह उसके लिये कोई नियम नहीं है। जिसका दर्शन मोह बिलकुल नप्ट होगया ऐसा क्षायिक सम्यगदृष्टि भी चतुर्थ गुण स्थान से नीचे की ओर तो नही जाता फिर भी पांचवं छटे सातवें गुण स्थानों में यहां से वहां अनेक चार परिवर्तन तो करता ही है। हां जिसने सातिशयाप्रमत्त अवस्थाको प्राप्त कर लिया यह अवश्य अष्टमादि गुणस्थानों में होकर वीतराग पनको प्राप्त करता ही है फिर भले ही वह औपशमिकभावात्मक हो तो अन्तर्मुहूर्त के बाद वीतरागपनसे सरागपन में आ जाता है परन्तु वीतरागपन को पाये विना नही रह सकता इस लिये अप्टमादि गुण स्थानों को शुद्धोपयोग में सम्मिलित किया गया है, चतुर्थादिगुणस्थानों को नहीं ऐसा समझना चाहिये। किञ्चचतुर्थानि गुणस्थानों में अनन्तानुवन्ध्यादि कपायों का अभाव होकर भी अप्रत्याख्यानावरणादि कपायोंका उदय हो रहता है मगर अप्टमाठि गुणस्थान तो अवशिष्ट रही संज्वलन कषाय Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८ ) का अभाव करने रूप ही होते है जैसे कि नारियल के उपर का सुरू का वकल हटादिया जाय तो उसपर जटालता स्पष्ट हो आती है, उसी प्रकार मिथ्यात्व और अनन्तानुवंधि कषाय निकलजाने पर अप्रत्याख्यानावरण कषाय स्फुट हो रहती है। . फिर नारियल पर की जटावों को दूर किया जाने पर जैसे उसके उपर की टोकसी दिख पड़ती है वैसे ही अप्रत्याख्यानावरण का भी अभाव होचे पर श्रावक के प्रत्याख्यानावरण कपान का उदय प्रगट होता है । उसका भी अभाव करदेने पर सकलसंयमी के संज्वलन कषाय का उदय रहता है जैसे कि टोकसीको भी तोड़कर नारियलका गोला निकालाजाता है मगर उसपर भी लालछिलका उसका और लगाहुवायाको रहजाता है। उसको भी दूर हटाने सेंगोले की स्वच्छता प्रगट होती है अतः अंब उसे दूर करने के लिये पहले तो उसे चाकू वगेरह के द्वारा गोदते हैं फिर उसे छीलते हैं सो छीलने में भी कही छिलके का अंश रहजाता है या गन्दा हाथ लग जाती है इसलिये उसे दुवारा खुरवता पड़ता है, बस यही हाल आठवें नोवें और दशवें गुणस्थान में क्रमसे आत्मा का होता है । सकल संयमावस्था में और सब कपायोंका उदय दूर होकर जो संज्वलन कपाय शेष रह जाती है उसे भी मिटाने का आत्म प्रयत्न होता है अतः वहां वस्तुतः मिश्रोपयोग हुवा करता है। नोट:- याद रहे कि नारियल के साथ टोकसी बगेरह सिर्फ 'उसके उपर होती हैं वैसे ही आत्मा में कषायें नहीं Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १४१ ) - होती, किन्तु पाल्माके उपयोगमै कपायें अंश अंशमें होती हैं। शक्षा-वर्तमान के कुछ लोगों का कहना है कि चतुर्थगुणस्थान से ही शुद्धोपयोग शुरू होजाता है क्यों कि वहां दर्शनमोह का अभाव हो लेता है। अतः उतने अंश में वहां शुद्धता मानने में क्या हानि है ? उत्तर-दिगम्बर जैनाचार्यों ने तो इस प्रकार कीन्हीं ने भी कहा नहीं है। हमारे सर्वमान्य श्राचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने ही अपने प्रवचनसार में लिखा है कि जिस साधु ने अपना नत्यार्थविषयक श्रद्वान बिलकुल ठीक कर रक्खा हो, जो संयम श्रीर नपका धारक हो गवं बिलकुल राग, द्वेष से रहित होलिया है। अतः सुख और दुःख में कसा विचार रखता हो वही शुद्धोपयोग वाला होता है देखो मुविदितपयत्यमुत्ती मंजम तव संजुद्रोविगतरागो ___समण सममुहदुक्खो भरिणदो शुद्धोपयोगोति ।। इम गाथा में आयेहुये विदिनपयत्यमुत्तः, संयमतपसंयुतः विगतरागः और समसुखदुःख ये चारों श्रमण के विशपण हैं और श्रमण उनका विशेष्य, जैसा कि प्रवचनसार के टीकाकार श्री अमृतचन्द्राचार्य श्रीर श्री जयसेनाचार्य भी बतला गये है सो एसी अवस्था मुख्य रूप में तो नशचे गुणस्थान के ऊपर में ही होती है परन्तु अप्रमत्त गुणस्थान से नीचे तो किसी भी तरह नहीं मानी जा सकती है। हां उनको विशेषण विशेष्य न मान कर मव को भिन्न भिन्न स्वतन्त्र ग्रहण किया जावे और Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) - - - इस तरह से सुविदितपयत्यसुत्तोशुद्धोपयोग अर्थात् सिर्फ तत्वार्थ श्रद्धानवाला जीव भी शुद्धोपयोगी होता है.ऐसा मतलब निकाला जावे- तो फिर, संयमतपःसंयुतोऽपिशुद्धोपयोगः यानी तलार्थ-श्रद्धानशून्य, सिर्फ तपः संयम का धारक द्रव्यलिंगी मुनि भी शुद्धोपयोगी ठहरेगा इस लिये उपयुक्त आचार्य कृत अर्थ ही सुसंगत है। तथा च शुद्धोपयोग में शुक्ल, का पर्यायवाची शुद्ध शब्द है और उपयोग शन्द विचार का ध्यान का पर्यायवाची यानी शुद्धोपयोग कहो या शुक्लध्यान कहो एक बात है जो कि शुक्लध्यान सातवें गुणस्थान के बाद में सुरू होता है, चोथे गुणस्थान से लेकर सातवें. गुणस्थान तक तो धर्मध्यान ही होता है ऐसा तत्वार्थ सूत्र की सर्वार्थसिद्धि नाम की टीका वगेरह में लिखा हुवा है । जो कि धर्मभ्यान शुभोपयोग रूप होता है। अगर धर्म ध्यान को भी शुद्धोपयोग (वीतरागता) रूप ही माना जावे तो फिर -शुक्लध्यान और धर्म ध्यान में अन्तर ही क्या रह जाता है। धर्म शब्द का अर्थ भी जो लोग सिर्फ सहज पारिणामिक भाव लेते हैं वे भूल खाते हैं। धर्म शब्द का सीधा अर्थ परिणमन है जो कि परिणमन, आत्माका दो प्रकारका होता है। एक तो सहज परनिरसेका दूसरा नैमित्तिक (परसापेक्ष) सो सहजपरिणमन तो वीतरागतो रूप होता है । उस वीतरागतारूप परिणमनके साथ एकाप्रतालिये हुये उपयोग कानाम ही शुक्ल (सद्धर्स) ध्यान है जिसे शद्धोपयोग Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४३ - कहा जाता है । नैमित्तिक (माहनीयकर्मोदय के निमित्तसे हुवा) परिणमन रागादिमय होने से अशुद्ध होता है वह दो प्रकार का होता है एक तो यह कि राग को अपना स्वरूप ही समझे हुये रहना, वीतरागता की तरफ लक्ष्य ही नहीं होना सो ऐसा उपयोग तो पहिरात्म मिथ्याष्टि जीव का होता है जिसको अशुभोपयोग कहते है इसी का नाम अनात्मभाव रूप होने से अधर्म है । परन्तु सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेने पर फिर मैं निल ज्ञानस्वरूप हूँ, देह में रह कर भी देह से निन हूँ, शरीरादि के साथ ममत्र को लेकर रागादिमान हो रहा हूं अगर उस ममत्व को मिटाएं तो वीतराग और सर्वज हो सकता हूँ इत्यादिरूप से अपने श्रद्धान में वीतरागताको स्वीकार कियेहुये उदारतारूप सद्विचार का नाम ही शुभोपयोग है जो कि अव्रत सम्यग्दप्टि की दशा में प्रशस्त, देशविरत के प्रशस्ततर और सकलविरत के प्रशस्ततम होता है । आत्मत्य को स्वीकार किये हुये होनेके कारण वह धर्म कहा जाकर उसके साथ एकाग्रतारूप चित्त परिणति का होना ही धर्मध्यान है जो कि वरतमरूप में चोथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान के अन्त तक होता है । उससे ऊपर अपूर्वकरणादिगुणस्थानों में ' बही शुक्ल (शुद्धोपयोग) ध्यान के रूप में परिणत हो जाता है। जैसा कि श्री आदिपुराण जी में कहा है देखोप्रवुद्धधीरवःश्रेण्या धर्मध्यानस्य सुश्रुतः सएवं लक्षणोध्याता सामग्री प्राप्य पुष्कला Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (. १४४ ) , क्षपकोपशमश्रेण्योरुत्कृष्टं (शुक्लं नाम) ध्यानमृच्छति ।। शङ्का- यह तो ठीक है शुक्लध्यान तो सप्तमगुणस्थान से उपर मे ही होता है, मगर शुद्धोपयोग तो श्रात्मीक . शुद्धताका नाम है सो चतुर्थगुणस्थान में जब दर्शनमोह नष्ट होचुका तो उतने रूपमें वहां शुद्धोपयोग भी होलिया ऐसा हमलोग तो समझते है! उत्तर- उपयोग नाम अभिप्राय का है वह तीन तरह का होता है अशुभ, शुभ और शुद्ध । उसमें अशुभोपयोग दुरभिप्राय का नाम है जो कि मोह यानी मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धिरूप कषाय की वजहसे वस्तुतत्वके बारेमें भुलावेके रूपमें होता है। जिससे कि यह जीव घोर दुान को करने वाला होता है और सत्यार्थश्रद्धानरूप सदभिप्राय का नाम शुभोपयोग है, जिसका धारक जीव शुभलेश्या को अपना कर जव वस्तुतत्व के विचार में एकाग्रता से लगा रहता है उस समय उसके प्रशस्त (धर्म) ध्यान होता है । और वही जब अपने रागादि विकारभावों को सर्वथा नष्ट करके निश्चलरूपसे अपने शद्धात्म स्वरूप के अनुभव करने में निमग्न होलेता है उस समय उसके शुद्धोपयोग होता है ऐसा श्री ज्ञानार्णव जी में लिखा है देखो॥ पापाशयवशान्मोहान्मिथ्यात्वावस्तुविभ्रमात् कषायाज्जायतेऽजस्रमसद्ध्यानं शरीरिणाम् IREL पुण्याशयवशाजातं शुद्धलेश्यावलम्बनात् चिन्तनाद्वस्तुतत्वस्य प्रशरतं ध्यानमुच्यते । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - होती, किन्तु आत्माके उपयोगर्म कपाये अंश अंशमै होती हैं। शङ्का-वर्तमान के कुछ लोगों का कहना है कि चतुर्थगुणस्थान से ही शुद्धोपयोग शुरू होजाता है क्यों कि वहां दर्शनमोह का अभाव हो लेता है। अतः उतने अंश में वहां शुद्धता मानने में क्या हानि है ?, उत्तर- दिगम्बर जैनाचार्यों ने तो इस प्रकार कीन्हीं ने भी कहा नहीं है। हमारे सर्वमान्य आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने ही अपने प्रवचनसार में लिखा है कि जिस साधु ने अपना तत्वार्थविषयक श्रद्धान विलकुल ठीक कर रक्खा हो, जो संयम और तपका घारक हो एवं बिलकुल राग, द्वेप से रहित होलिया हा अतः सुख और दुःख में एकसा विचार रखता हो वही शुद्धोपयोग, वाला होता है देखो-, सुविदिवपयत्यसुत्तो संजम तव संजुठोविगतरागी समणो समसुहदुक्खो भणिदो शुद्धोपयोगोति ॥२६|| इस गाथा में आयेहुये विनितपयत्यसुत्तः, संयमतपसंयुतः विगतरागः और समसुखदुःख ये चायें श्रमण के विशपण हैं और श्रमण उनका विशेष्य, जैसा कि प्रवचनसार के टीकाकार श्री अमृतचन्नाचार्य और श्री जयसेनाचार्य भी बतला गये है सों ऐसी अवस्था मुख्य रूप में तो दश गुणस्थान के ऊपर में ही होती है परन्तु अप्रमत्त गुणस्थान से नीचे तो किसी भी वरह नही मानी जा सकती है। हां उनको विशेषण विशेष्य न मान कर सब को भिन्न भिन्न स्वतन्त्र ग्रहण किया जावे और Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४ ) इस तरह से सुविदितपयत्यमुत्तोशुद्धोपयोग अर्थात् सिर्फ तत्वार्थ श्रद्धानवाला जीव भी शुद्धोपयोगी होता है ऐसा मतजैब निकाला जावे तो फिर संयमतपःसंयुतोऽपिशुद्धोपयोगः यानी तत्वार्थ-श्रद्धानशून्य सिर्फ तपः संयम का धारक द्रव्यलिंगी मुनि भी शुद्धोपयोगी ठहरेगा इस लिये उपयुक्त आचार्य "कृत अर्थ ही सुसंगत है। । तथा च 'शुद्धोपयोग में शुक्ल का पर्यायवाची शुद्ध शब्द है और उपयोग शब्द विचार का ध्यान का पर्यायवाची यानी शुद्धोपयोग कहो या शुक्लध्यान कहो एक बात है जो कि शुक्लध्यान सातवे गुणस्थान के बाद "में सुरू होता है, चोथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक तो धर्मध्यान ही होता है ऐसा तत्वार्थ सूत्र की सर्वार्थसिद्धि नाम की टीका धगेरह में लिखा हुवा है। जो कि धर्मध्यान शुभोपयोग रूप होता है । अगर धर्म ध्यान को भी शुद्धोपयोग (वीतरागता) रूप ही माना जावे तो फिर शुक्लध्यान और धर्म ध्यान में अन्तर ही क्या रह जाता है | धर्म शब्द का अर्थ भी जो लोग सिर्फ 'सहज पारिणामिक भाव लेते हैं वे भूल खाते है । धर्म शब्द का सीधा अर्थ परिणमन है जो कि परिणमन, आत्माका दो प्रकारका होता है। एक तो सहज परनिरपेक्ष 'दूसरा नैमित्तिक (परसापेक्ष) सो सहजपरिणमन सो वीतरागता . रूप होता है। उस वीतरागंतारूप परिणमनके साथ एकाग्रतालिये हुये उपयोग कानाम ही शुक्ल (सद्धर्म) ध्यान है जिसे शद्धोपयोग Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४३ ) कहा जाता है । नैमित्तिक (मोहनीयकर्मोदय के निमित्तसे हुवा) परिणमन रागादिमय होने से अशुद्ध होता है वह दो प्रकार का होता है -एक तो वह कि राग को अपना स्वरूप ही समझे हुचे रहना, वीतरागता की तरफ लक्ष्य ही नहीं होना सो ऐसा उपयोग तो पहिराम मिथ्याष्टि जीव का होता है जिसको अशुभोपयोग कहते हैं इसी का नाम अनात्मभाव रूप होने से अधर्म है । परन्तु सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेने पर फिर-मै नित्य ज्ञानस्वरूप हूँ, देह मे रह कर भी देह से निम्न हूँ, शरीरादि के साथ ममत्व को लेकर रागादिमान हो रहा हूं अगर उस ममत्व को मिटाएं तो वीतराग और सर्वज्ञ हो.सकता हूँ इत्यादिरूप से अपने श्रद्धान में वीतरागताको स्वीकार कियेहुये उदारतारूप सद्विचार का नाम ही शुभोपयोग है जो कि अनत सम्यग्दृष्टि की दशा में प्रशस्त, देशविरत के प्रशस्तवर और सकतपिरत के प्रशस्ततम होता है । आत्मत्व को स्वीकार किये 'हुये होनेके कारण वह धर्म कहा जाकर उसके साथ कामवारूप चित्त परिणति का होना ही धर्मभ्यान है जो कि तस्तमरूप में चोथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान, के..मन्त तक होता है । उससे अपर अपूर्वकरणादिगुणस्थानों में नही शुक्ल (शुद्धोपयोग)ध्यान के रूप में परिपत हो जाता है। जैसा कि श्री आदिपुराण जी में कहा है देखोप्रवुद्धधीरधःण्या धर्मभ्यानस्य सुश्रुतः । सएवं लक्षणोध्याता सामग्री प्राप्य पुष्कलां Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४ ) - • क्षपकोपशमश्रेण्योरुत्कृष्टं (शुक्लं नाम) ध्यानमृच्छति ॥ शङ्का- यह तो ठीक है शुक्लध्यान तो सप्तमगुणस्थान से उपर में ही होता है, मगर शुद्धोपयोग तो आत्मीक , शुद्धताका नाम है सो चतुर्थगुणस्थान में जब दर्शनमोह ' नष्ट होचुका तो उतने रूपमें वहां शुद्धोपयोग भी होलिया ऐसा हमलोग तो समझते हैं! उत्तर- उपयोग नाम अभिप्राय का है वह तीन तरह का होता है अशुभ, शुम और शुद्ध । उसमें अशुभोपयोग दुरभिप्राय का नाम है जो कि मोह यानी मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धिरूप कषाय की वजहसे वस्तुतत्वके बारेमें भुलावेके रूपमे होता है। जिससे कि यह जीव घोर दुान को करने वाला होता है और सत्यार्थश्रद्धानरूप सदभिप्राय का नाम शुभोपयोग है, जिसका धारक जीव शुभलेश्या को अपना कर जव बस्तुतत्व के विचार में एकाग्रता से लगा रहता है उस समय उसके प्रशस्त (धर्म) ध्यान होता है । और वही जब अपने रागादि विकारभावों को सर्वथा नष्ट करके निश्चलरूपसे अपने शद्धात्म स्वरूप के अनुभव करने में निमम होलेवा है उस समय उसके 'शुद्धोपयोग होता है ऐसा श्री ज्ञानार्णव जी में लिखा है देखो पापाशयवशान्मोहान्मिथ्यात्वाद्वस्तुविभ्रमात् कषायान्नायतेऽजस्रमसद्ध्यानं शरीरिणाम् ॥२६॥ पुण्याशयवशाज्जातं शुद्धलेश्यावलम्बनात चिन्तनाद्वस्तुतत्वस्य प्रशरतं ध्यानमुच्यते ॥२॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४५ ) क्षीणे रागादि सन्ताने प्रसन्ने चान्तरात्मनि यः स्वरूपोपलम्म.स्यात् सशुद्धाख्यः प्रकीर्तितः ॥३शा०३ शहा- मिथ्यादृष्टि जीव जव तीव्र कषायके बस होकर खोटी चंप्टा करता है तो उसके पाप रूप अशुमोपयोग होता है। और वही जव शुभलेश्यावान होकर अच्छी परोपकारादि रूप चेष्टा करता है तो उसके पुण्य रूप शुभोपयोग होता है। परन्तु जब रागादि की सन्तात क्षीण यानी हलकी हो लेती है अनन्तानुवन्धी रूप नही रहती उस समय उस अन्तरात्मा में अपने आत्मस्वरूप का उपलभरूप शुद्धोपयोग हो लेता है ऐसा अर्थ लेलिया जाये तो क्या हानि होती है ? उत्तर-प्रथम तो क्षीण शब्द का अर्थ विलकुल नष्ट हो जाना ही होता है और वास्तविक शुद्धोपयोग पूरी तोर से रागादि मावों के नाश होने पर क्षीणमोह नामक वारहवे गुणस्थान में ही होता है जैसा कि उपर्युक श्लोक मे लिखा गया है और वहीं स्वरूपोपलम्भ रूप स्वरूपाचारण चारित्र, जैसा कि अपने बहढाले मे दोलतराम जी ने भी लिखा है। फिर भी अगर तुम्हारा कहना मान लिया जाय और शुद्धोपयोग का आंशिक प्रारम्भ चतुर्थगुणस्थान से होलेता है ऐसा अर्थ उक्त शोक का लिया जाय एवं शुभोपयोग मिथ्याइष्टि अवस्था में ही होता है ऐसा समझा जाय तो वह ठीक नहीं बैठता क्योकि मिथ्यादृष्टि के वस्तुतत्व का चिन्तनरूप प्रशस्तध्यान कभी किसी हालत में नहीं होता ऐसा इसी ज्ञानार्णव प्रन्थमें आगे गुणदोष Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) विचारात्मक चतुर्थ अध्याय में लिखा हुवा है कि भले ही गधे के सींग और आकाश का फूल हो जाय तो हो जायो किन्तु गृहस्थावस्थावालों को प्रशस्तध्यान नही हो सकता तिस पर भी मिथ्याष्टियोंको तो स्वप्नमात्र भी सम्यगध्यानका नहीं हो सकता क्योकि मिश्यादृष्टि जीव वस्तुस्वरूप को अपनी इच्छानुसार स्वीकार किये हुये रहता है देखो खपुष्पमथवा शृंगंखरस्यापि प्रतीयते। न पुनर्देशकालेऽपिध्यान-सिद्धि हाश्रमे ।। १७ ।। दुई शामपिनध्यान-सिद्धिःस्वप्नेऽपिजायते । गृहतांदृष्टिवैकल्यावस्तुजातंयहच्छया ॥२८॥ और भी सुनो देखो रत्नत्रयमनासाद्ययः साक्षान्ध्यातुमिच्छति । खपुष्यैः कुरुतेमूढः स वन्ध्यासुतशेखरं ।। ६।०६ शङ्का- अव्रत सम्यग्दृष्टिके भी धर्म ध्यान तो.हमारे आगमग्रन्थों में स्पष्ट रूप से लिखा ही हुवा है। उत्तर- तुम ठीक कहते हो परन्तु अव्रतसम्यग्दृष्टि-के-जो' ध्यान होता है, वह भावनात्मक धर्म-ध्यान होता है क्ति की एकाग्रता रूप दृढ धर्मध्यान संयमी मुनियों के ही होता हैं और ज्ञानर्णवकार उसी को ध्यान कहते हैं इसी लिये तो ऐसा लिखते है देखो ज्ञानार्णव-प्रन्थ अध्याय २५ में एकचिन्तानिरोधोयस्तद्ध्यानं भावना. परा। अनुप्रेक्षार्थचिन्तावातज्ज्ञरभ्युपगम्यते ॥ १६ ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४७ ) अस्तु । इस सब लिखने का आचार्य श्री का स्पष्ट मतलब यही है कि शुभोपयोग चतुर्थ गुणस्थान से सुरू होता है और धर्मध्यान भी,जो कि उत्तरोत्तर विशद से विशद हे.ते हुये जाकर सातवे गुणस्थान के अन्त में पूर्ण होता है जहां पर कि रुपातीत नाम का सुदृढ़ धर्मध्यानं हो लेता है और वही धर्मध्यान उससे ऊपर में शुक्लध्यान-शद्धोपयोग के रूप में परिगत होकर दश गुणस्थान के अन्त में सम्पन्न होता है उससे नीचे अप्टमादिगुणस्थानों में तो वह पूर्ण वीतरागरूप न होकर विद्यमान रागांश को मिटाने में तत्परतारूप अपूर्ण होता है जिसके साथ यहाँ पर रागांश भी यत्किञ्चित् होता ही हैं जैसों कि जिनागम का कहना है। और जब कि वहां भाव में रांगांश विद्यमान होता है, अतः उतना बन्ध भी होता ही है, इस लिये यहाँ ज्ञानचंतना नहीं किन्तु वहां भी अज्ञानचेतना ही होती है ऐसा बतलाते हैं श्रासम्परायं सुदृशोऽप्यबोध-संचेतनेत्यईदधीतियोधः । ततोऽत्रबन्धोऽर्थपुनर्नजातुस्याज्ज्ञानसंचेतनयाप्रमातुः ।। ___ अर्थात्-मिथ्याप्टि बहिराम जी के तो कर्म तयाँ कर्मफलरूप अज्ञानचेतना होती ही है किन्तु सम्यग्दर्शनधारक जीव के भी दशमगुणस्थन तक, जहां तक जरासा भी कषायभाव विद्यमान रहता है वहां तक अज्ञानचेतना ही होती है Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८ ) जिसके कि द्वारा उसके कर्मवन्ध होता रहता है । दशवें गुणस्थान से उपर कषायों का अभाव होजाने से इस आत्मा के शानचेतना होती है, ताकि नवीन कर्मवन्ध का सर्वथा अभाव होजाता है, ऐसा श्री जैनागम का कहना है । जैसा किअण्णाणमवो भावो अणाणिणो कुणदितेण कम्माणि ' माणमओ णाणिस्सदुणकुणदितम्हादुकम्माणि ॥ १७ ॥ श्री समयसार जी की इस गाथा में स्पष्ट कहा गया है कि अज्ञानी जीव के अज्ञानभावना यानी चेतना होती है ताकि वह कर्मबन्ध करता है परन्तु ज्ञानी जीव के ज्ञानभावना यानी चेतना हो लेती है ताकि फिर वह कर्मवन्ध नही किया करता है । मतलब यह कि जहां तक जीव कुछ भी नवीनवन्ध करता रहता है वहां तक वह अज्ञानी है उसके अज्ञानचेतना है, जैसा कि आगे चलकर उसी समयसार जी की गाथा नम्बर ३८६ में भी बतलाया गया है। ज्ञान या अज्ञान चेतना का खुलासा जो वस्तु को सिर्फ उदासीन भाव से जानता मात्र हो उसे ज्ञान कहते हैं और जो साथ में इष्टानिष्ट-विकल्प को लिये हुये रागद्वषात्मक हो उस ज्ञानको ही प्राचार्यों ने अज्ञान बतलाया है एवं चेतनानामा तद्र पपरिणमन का है । इस प्रकार झानचेतना कहो चाहे शुद्धोपयोग कहो दोनों एक बात है, जिसके कि होने पर बिलकुल बन्ध नहीं होता। उससे उलटी Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) अबान चेतना होनी है जिसके कि होने पर वन्ध हुये विना नहीं रहता । यानी जान चेतना आत्मा के अशुद्धपरिणमन का ही नाम है । जैमा कि समयसार नामक ग्रन्थ मे लिखा हुवा है देखो पर म पाणं कुचं अप्पाणं पिय परं फिरन्तो सो। अएगा गमवो जीवो कम्माणं कारगो होदि ।।१२।। अर्थात्-पर को अपनाने वाला अथवा यों कहो कि अपने श्रापको पर यानी विकार रूप करने वाला जीव, अबानचंतना का धारक होता है जो कि निरन्तर नवीन बन्ध करता रहता है। परन्तु जो परपदार्थों को विलकुल नहीं अपनाता उनसे सर्वथा दूर हो रहता है, अपने आपको कभी भी विकृत नही होने देता अतः जो नूतन कर्म वध करने से रहजाता है वही ज्ञानचंतनावान होता है। जैसा कि वहीं उसके नीचे लिखा गया हुआ है देखो-। परमप्पाणमकुब्वं, अप्पाणं पिय परं अकुव्वन्तो। सोणणमयोजीवोकम्माणमकारगी होदि . ।। ६३ ॥ एवं दोनो तरह से लिखने का प्राचार्य श्री का सष्ट मतलव यही है कि-जो जरासा भी नूतनकर्मवन्ध करने वाला है वह अज्ञानी जीव है, अज्ञानचेतनावान् है । इसी लिये इससे आगे की गाथा में उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि- यहां पर अज्ञानशब्द का अर्थ- अतत्वश्रद्धान, चञ्चलज्ञान और अविरत परिणमन ये तीनों ही लेना चाहिये जैसा Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) - कि उस चौराणवे नम्बर की गाथा की टीका में श्रीअमृतचन्द्राचार्य जी ने भी लिखा है- एप खलु सामान्येनाज्ञानरूपो. भावः स मिथ्यादर्शनानानाविरतिरूपविविधः सविकारश्चैतन्यपरिणामः । थाना प्राचार्य महाराज का कहना है किजहां तक भी आत्मा मे विकारभाव है, फिर चाहे वह विपरीताभिनिवेश रूप हो या इष्टानिष्ट विचार रूप एवं चपलता रूप, किसी भी प्रकार का हो सभी अज्ञान चेतनामय होता है । हां यह बात अवश्य है कि-आत्मा का यह अनानचेतनारूप अशुद्धपरिमणन भी दो तरह का होता है- एक तो अशुभोपयोग, दूसरा शुभोपयोग । सो मिथ्यादृष्टि अवस्था में तो अशुभोपयोगरूप अजानचेतनापरिणाम होता है, जो कि घोरकर्मबन्ध करने वाला होता है किन्तु सम्यग्दर्शन हो जाने पर भी जहां तक रागांश रहता है वहां तक शुभोपयोगरूप अज्ञानचेतनापरिणाम, गृहस्थों के ही नहीं अपितु, मुनियों के भी होता है ताकि स्वल्प या स्वल्पतर नूतन कर्मबन्ध होता ही रहता है। जहा उपयोग की शुद्धता रूप ज्ञान चेतना हुई कि वन्ध का अभाव होलेता है ऐसा प्रवचनसार जी में भी लिखा हुआ है देखो समण सुद्धवजुत्ता सुहोपजुत्ता य होति समयसि । तेसु विसुद्धवजुत्ता अणसवा सासवासेसा ॥ ४५ ॥३॥ तात्पर्य यही कि- श्री समयसार जी में जिसको ज्ञानभाव या ज्ञान चेतना नाम से लिया गया है उसी को प्रवचन Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) सार जी में शुद्धापयोग शब्द से कहा गया है। जो कि स्पष्ट वीतरागता रूप होता है और जिसके कि होजाने पर फिर कर्म वन्ध होने से रह जाता है। जो कि वस्तुतः दशवें गुणस्थान से ऊपर होता है, उससे पहले नहीं होता। इतना सब कुछ होने पर भी कुछ जैन भाइयो का विचार है कि- जहां चतुर्थ गुणस्थान में सम्यग्दर्शन हुवा कि उसके साथ ही साथ वहां ज्ञान चेतना भी हो जाती है और इसके साथ ऐसा भी कहते हैं कि सम्यग्दर्शन होने पर कर्मवन्ध होनेसे भी रह जाता है जैसा कि- श्री समयसार जी की गाथा में लिखा हुवा है एस्थिदुआसववन्धो सम्भाइठिस्स आसवणिरोहो । सन्ते पुन्वणिवद्धे जाणदि सो ते श्रवन्धन्तो। १६६ ।। परन्तु उन्हें शोचना चाहिये कि- आचार्य श्री ने इस गाथाम सम्यग्दृष्टि शब्दसे वीतरागसम्यग्दृष्टि का ग्रहण किया है जैसा कि- श्री जयसेनाचार्य ने इसकी उत्थानिका में लिखा है और श्री समयसार जी का प्रायः वर्णन वीतराग सम्यक्त्व को लेकर ही चलता है ऐसा ग्रन्थ के अध्ययन से भी स्पष्ट हो जाता है। जो कि-वीतराग सम्यक्त्व दशवे गुणस्थान से ऊपर में होता है। और जहां पर आत्मा सचमुच नवीन कर्मवन्ध करने से रहित होजाता है क्योंकि भावाश्रव (रागपपरिपाम) का उसके बिलकुल अभाव हो लेता है। अतः वह अपने प्रसङ्ग प्राप्त पूर्ववद्ध कर्मोको जानता मात्र है किन्तु उनके निमित्त से जरासा भी विकृत नही होता। उसका उपयोग सर्वथा Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२ ) शुद्ध होता है, ज्ञान चेतना मय होता है,सो ठीक हो है । परन्तु एक सम्मगप्टि शब्द को लेकर उसी बात को सरागसम्यगदृष्टि के अन्दर भी घटित करना ठीक नहीं होता क्योंकि - देवायुषोवन्धनमप्रमत्त-गुणस्थलान्तक्रियतेजगतः । देवेभवेतस्यसतोमनुष्या-युपोऽपिवन्धःमृतरामनुस्यात् ७३ अर्थात् सम्यग्दर्शन होजाने पर भी यथासम्भव शानावरणादि कर्मों का वन्ध तो अव्रतसम्यग्दृष्ट्यादि जीवों के भी होता ही है साथमें सातवेगुरणस्थान तक तो देवायुःकर्म का भी वन्ध होता है तथा देव होजाने पर उसी सम्यग्दृष्टि जीव के ममुष्यायुःकर्म का वन्ध भी होता है। ताकि वह भी मनुष्य होकर,मिथ्याष्टियों की सी मूलभरी चेप्टा किया करता है जैसे कि रामचन्द्र जी लक्ष्मण के मुरदा शरीर को भी छः महीनों तक लिये हुये घूमते रहे । भरत जी ने आवेश में आकर बाहुबलिपर चक्र चलादिया. राजा श्रेणिक ने आत्मघात कर लिया इत्यादि फिर भी उनके ज्ञानचेतना जाग्रत ही कही जावे.यह कैसे हो सकता है इस पर शंका• कर्मान्यदन्यत्र न कार्यकारि कि वृत्तमोहोऽस्तुशेक्लिारिः। 'इत्यवचश्चेन्निगदाम्यतोऽहंज्ञानेसपात्याय न दृप्टिमोहः ।।७।। ___ अर्थात् यह सब खेल तो उन उन सम्यग्दृष्टियो के जो 'चारित्र मोह विद्यमान था उसके उदय से होगया ऐसा कहना चाहिये । चारित्र मोह जुदी चीन है औरसम्यक्त्व उससे जुड़ी Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५३ ) - चीज जो कि दर्शन माहके अभावसे प्रगट होता है । चारित्र मोहका उदय अपना कार्य करता है वह चारित्रम दोप पैदा करता रहता है, सम्यग्दर्शन और ज्ञान से उसका क्या सम्बन्ध है ? जना कि राजमल जी काष्ठासंधीकृत पश्चाध्यायी में लिखा है___पाकाचारित्रमोहस्य रागोऽस्त्योदयिक.सुट सम्यक्त्वे स कुतोन्यायाजानेवाऽनुयात्मके || अर्थात् सम्यक्त्वतो क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिकभावरूप होता है । ज्ञान अव्रतमम्यग्दृष्टि के क्षायोपशमिक्रमावरूप हुवा करता है, किसी कर्मके उदय से नही होना अतः चारित्रमाह के उदय से होनेवाला औयिकमाव जो है वह सम्यक्त्व में या ज्ञानमें नोप कारक नहीं हो सकता वह तो चारित्र में ही दोप पैदा करेगा। अनन्ननिह सम्यक्वं रागोऽयं बुद्धिपूर्वकः नूनं हन्तु क्षमोनस्याज्ञानसञ्चेतनामिमां ॥२८॥ - सारांश यह कि सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व का वन्धोदय न होने से अप्रत्याख्यानावरणादिरूपरागद्वेष, ज्ञानचेतना में वाधक नही हो सकते । एवं च फिर सम्यक्त्व के सराग और वीतराग ऐसे दो भेद न होकर वह तो सदा एकहीसा रहता है जैसा कि उम श्लोक मे लिखा है तस्मात्सम्यक्वमेकंस्यादत्तिलक्षणादपि तद्यथाऽवश्यकी तत्रविद्यते ज्ञानचेतना ||३|| मतलब यह कि सम्यक्त्व का तो, दर्शनमोह के अभाव Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) स्वरूप एक ही लक्षण सब जगह विद्यमान रहता है, अतः सम्यक्त्व तो एक ही होता है और जब सम्यक्त्व एक है तो उसके साथमें होने वाली ज्ञानचेतना भी फिर उसमें सव जगह सदा रहती है । उसमे चारित्रमोह के उदय से होनेवाला राग कुछ भी बाधा नही करता क्यो कि अन्य कर्म का उदय अन्यत्र क्यों बाधा करने लगा ? सो अगर ऐसा मानलिया जावे तो फिर ज्ञान में मिथ्यापन लानेवाला दर्शनमोह को जो कहा गया है वह भी नही होना चाहिये । द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि मुनि के ग्यारह अंग और दशपूर्व के ज्ञान को जो मिथ्याज्ञान कहागया है सो भी क्यों ? क्यों कि वहां श्रुतज्ञानावरणीयकर्म का तो क्षयोपशम होता ही है वहां पर तो दर्शनमोह के उठ्य से ही ज्ञान-मिथ्याज्ञान होता है । तथा चचारित्रमोहः सुतरामनन्ता-नुवन्थिनामाकथितः समन्तात् । अभावतो यस्य विना न सन्यग्दृष्टिर्भवत्येपविवेकगम्यः ७५ अर्थात्-अनन्तानुवन्धि क्रोधमानमाया और लोमरूपभाव,चारित्रमोहकर्मका ही तो प्रभाव है जिसके कि दूर हुये बिमा यह आत्मा सम्यग्दृप्टि नही होसकता अतः यह कहना ठीक नही कि एक कर्म का कार्य, दूसरा कर्म कभी किसी हालत में भी नहीं कर सकता। किञ्च दर्शनमोहकर्म और चारित्रमोह कर्म सर्वथा भिन्न हैं भी कहां किन्तु मोहनीयकर्म ही के तो हो मेह हैं अतः मोहनीयत्वेन दोनों एक ही तो हैं। और तब फिर Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५ ) यह बात ठीक ही होजाती है कि सम्यग्दृष्टि जीव के जब तक चारित्रमोह का सद्भाव रहता है तब तक उसका सम्यक्त्व सराग होता है और चारित्रमाह के अभाव में यह वीतरागमम्यक्त्व होलेता है । एवं सरागदशा में उसके सत्कर्मचेतना सथा कर्मफलचेतनारूप अज्ञानचेतना होती है किन्तु वीतरागदशा में ज्ञानचेतना । इस पर फिर शलाकार कहता है किइग्मोनाशाननुजायमानं सुदृक्त्वमेकंसुविधानिधानं । कुतोऽत्रभोरकविरक्तनाम-भेदंगुणेवस्तुतयेतियामः ॥७६॥ अर्थात्- आपने कहा सो तो सुना बाकी सम्यक्त्व तो वही एक है जो कि तीन तो दर्शनमोह की और चार अनन्तानुवन्धि की इन सात प्रकृतियों के अभाव से हुवा है और जिसके कि होने से यह आत्मा मोक्ष का पात्र होलिया या होजाता है । उसमे सरागता और वीतरागता जो होती है वह तो इतनी ही कि जो रागसहित हो या चारित्ररहित वह तो सराग और जो रागरहित वा यथार्थचारित्रसहित वह विरागसम्यक्स्य । सो यह तो वैसा ही भेद हुवा कि देवदत्त, यज्ञदत्त सहित हो या उससे रहित अकेला हो सो यह तो सिर्फ व्यपदेशात्मक भेद आया वास्तविकक्याभेद हुवा ? कुछ भी नही हुवा । अत्रोच्यतेस्पष्टतयामयेदंदृग्ज्ञानवृतोपुनवस्तुभेदः । विवेचनैवात्मनिदर्शनेनज्ञानेनवृशेनकिलेत्यनेनः ।।७७॥ अर्थात- उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर यह कि श्रद्धानज्ञान Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) और आचरण यानी मानना, जानना और अनुभवकरना ये तीनों बाते कोई छबड़ी मं भी आम, नीम्बू और नारंगी की भांति वस्तुतः आत्मा में भिन्न भिन्न है क्या ? किन्तु नहीं। ये तीनों तो आत्मा के परिणाम है जो कि आत्मा के साथ में अनुस्यूत है। सिर्फ इनके द्वारा आत्मा का विवेचन होता है जैसे कि अग्नि को जब हम किसी दूसरे को समझाना होता है तो उसके दाहकपन, पाचकपन और प्रकाशकपन के द्वारा उसे हम समझने और समझाने लगते है परन्तु जहां भी अग्नि के इन तीनो गुणो मे कुछ कमी आई, तीनों में से एक में भी अगर कुछ कमी आई कि खुद अमि मे ही कमी होजाती है, एवं जहां अग्नि में कमी आई,तो फिर उसके शेष गुणों में भी कमी होना सहज ही है । वस तो यही हाल दर्शनज्ञान और चारित्र के साथ में आत्मा का है जैसा कि समयसार जी की इस गाथा में कहा गया हुवा है देखो वहारेणुवदिस्सइ गाणिस्स चरित्तदसणंगाणं णविणाणंण चरितंणदंसणं जाणगोसुद्धो ॥७॥ अर्थात्-आत्मा एक वस्तु है गुणी है और अन-तधर्मात्मक है। उस आत्माके दर्शनज्ञान और चारित्र ये तीनो खाशगुण हैं सो कहनेमात्र के लिये तो ये तीनो भिन्न भिन्न है । दर्शन यानी देखना या श्रद्धान करना! ज्ञान यानी जानना या समझना। चारित्र यानी चलना या लीन हो रहना । मगर जब गहराई से शोचे तो आल्मा से भिन्न न तो कोई दर्शन ही है न ज्ञान ही Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५७ ) और न चारित्र ही, अपितु तीनॉमय यह एक आत्मा ही है जब ये बिगड़े हुये हैं तो आत्मा ही विगड़ रहा है और इन नीनों के सुधरने से आत्मा ही सुधरता है और सुधार का नाम ही नम्यक्त्व है सो बताते हैंमम्यक्त्वमेतनगुणोऽस्त्यवस्थातपांचमिथ्यात्वमिवव्यवस्था । स्यूनिःसमंतूर्यगुणस्थलेऽनोभवेत्प्रपूतिर्मवसिन्धुसेतोः ॥ ७॥ अर्थात्- सम्यक्त्व यह उन गुणोंकी सुधरी हुई अवस्था का नाम है जैसा किं त्रिंगड़ी हुई हालत का नाम मिथ्यात्व । जहां भी सम्यक्त्व को गुण कहा गया है वह प्रशंसात्मकरूप में है जैसे किसी भी चीजके सुहाते हुये रूप को तो गुण कहते हैं, तो उसके न सुहाते हुये उसी रूप को हम अवगुण बहा करते हैं, वैसी ही बात यहां पर भी है। सौमिथ्यात्व अवस्था नो अनादि में चलीआई हुई है और सम्यक्त्व अवस्था चतुर्थगुणस्थान से सुरू होती है। मतलब यह कि जब इस जीव का संसार खतम होनेको होता है तो उन गुणोंकी बिगड़ीहुई हालत जहाँ से सुघरना सुरू होती है उसे चतुर्थगुणस्थान कहते है। वहां से मुघरते सुधरते जाकर वह चोदवें गुणस्थान में अपनी ठीक पूरीहालत पर पहुंचती हैं, जैसे कि कपड़ा धुलते धुलते कुछ देर में माफ हो पाना है । सो वह आत्मसुधार दो तरह से होता है-एक तो यनसाध्य, दूसरा उसके अनन्तर अनायास रूप से होनेवाला । सो ही बताते हैं Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८ ) - - - - - - - - प्रयत्नवाना दशमस्थलन्तु, यतोऽयमात्मान्यवहारतन्तुः । निसर्गभावेन निजात्मगूढस्ततःपुननिश्चय-मार्गसढः ll अर्थात्- चतुर्थगुणस्थान से लेकर दशमगुणस्थान तक तो यह आत्मा अपने आप में से रागादिभावरूप मलको दूर करते हुये, प्रयत्नपूर्वक अपने सम्यग्दर्शनादिगुणों का विकाश करता है, अतः वह तो-विशेषेण=यलपूर्वकं दोषस्यावहारो यत्र स व्यवहारः, इस प्रकार की निरूकि को लेकर व्यवहार. मोक्षमार्ग कहाजाता है । परन्तु उसके बाद चोदहवें गुणस्थान तक यह श्रात्मा अपने उन गुणो की सहजपुष्टि प्राप्त करता । है इस लिये-निसर्गेण, निसर्गस्य वा चयनं यत्र स निश्चयः, इस प्रकार श्रर्थ को लेकर निश्चयमोक्षमार्ग होता है। यानी दर्शनमोह के उपशमादि द्वारा तत्वार्थश्रद्धान प्राप्त करते हुये, चतुर्थगुणस्थान में जो सम्यग्दर्शन होता है वह व्यवहारसम्यग्दर्शन और तत्पूर्वक अणुव्रत, महाव्रतादि का पालन करना सो व्यवहारसम्यकचारित्र, एवं उनकेसाथ जो सचेप्ट सम्यग्ज्ञान हो वह व्यवहारसम्यग्ज्ञान होता है। शङ्का-हम तो समझते हैं कि-श्री अरहन्तदेव, निर्यन्यदिगम्बर गुरु और दयामय जैनधर्म पर विश्वासलाना, सो व्यवहार सम्यक्त्व है जो कि मिथ्यात्वावस्था में ही हो लेता है । उसके बाद, दर्शनमोह गलकर जब सत्यतत्यार्थश्रद्धान होता है वह तो चतुर्थगुणस्थानव जीव का निश्चय-सम्यग्दर्शन ही है, भले. ही उसे आनुपातिकरूपमें सराग कहाजाता है। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) उत्तर- यह बतावो कि- जिसको श्री अरहन्तदेव पर विश्वास है उसको उनके स्वरूप-सर्वज्ञत्व और वीतरागल्यपर विश्वास है या नही ? अगर नही तब तो उसका अरहन्तविषयकश्रद्धान भी बनावटी है क्योंकि स्वरूपके विना स्वरूपवाले का विश्वास कैसा ? अतः वह उसका श्रद्धान, श्रद्धानाभास है-मिथ्यात्व ही है उसीको सम्यक्व मानना या कहना तो भूल है, व्यवहारमास है । और यदि अरहन्त के सर्वज्ञत्व एवं वीतरागत्व पर विश्वास है तो फिर वह सततत्वविषयकश्रद्धान से भिन्न चीज नही है क्यों कि राग का निरसन ही वीतरागत्व है जो कि रागके सद्भावपूर्वक होता है और रागका होना ही आश्रवबन्धात्मक होकर संसार है एवं उसका प्रभाव होना ही सम्बरनिर्जरात्मक होकर अन्तमें मोक्ष हो रहता है । सो ऐसा सप्ततत्व विषयकाद्धान या श्रीअरहन्त के स्वरूपविषयकाद्धान, मोहगले बिना हो नहीं सकता, जो कि चतुर्थगुणस्थान,में होता है। जिसका गुणगान स्वामी समन्तभद्राचार्य जी ने अपने रत्नकरण्डश्रावकाचार में किया है कि यह सम्यग्दृष्टि स्वर्ग जाकर तो इन्द्र होता है, वहां से आकर तीर्थर, चक्रवर्ती वगेरह पद प्राप्त करता है । नारकीयशरीर, पशुशरीर, नारीपन, नपुंसकपन सरीखी हीनदशा को नहीं पाता इत्यादि । हां वहां पर सत्यार्थश्रद्धानरूप सम्यगदर्शन को पाकर भी वहां अंकुरित हुये अपने सम्यग्ज्ञानपूर्वक चारित्रको बढाने के लिये एवं अपने सम्यक्त्व को अधिक से अधिक चमकाने के लिये सचेष्ट होता Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। अपनी आत्मा में लगेहुये रागादिमला को दूर करने में यत्नशील होता है अतः उसके इस. कर्तव्य-को व्यवहारमोक्षमार्ग कहाजावाहै । जोकि कपड़े को पानी और साबुन से धोकर सोफ करने के समान हैं। इसके बाद बारहवे गुणस्थान मेस्पिष्टशुक्लध्यान के द्वारा उसके पूर्ववद्धज्ञानावरणादिधाति-- अयकर्म दूर किये जाते हैं जैसे कि धुलजाने पर कपड़े को निचोड़कर उसमें होनेवाला 'जल निकालदिया जाता है, फिर' सूककर कपड़ी अपने आप निखर जाया करता है। वैसे ही अस्मिातेरहवें और चौदहवे गुणस्थानमें पहुंचकर मुक्तहोलेता है। एवं उनके क्रमविकाश को नीचे स्पष्ट करते है-- ऑसप्तमान्त प्रथमन्तुप्र्याच्छद्धानमाहुर्जिनवाचिघूयोः । सवृत्तिरूप चरेणं श्रुतं च तथैवं माम व्यवहार मश्चत् ॥८ अर्थात्- चेतुर्थगुणस्थान में जब सम्यक्त्व प्रगट होता है तो तीन दर्शनमोह'की और चोर अनन्तानुवन्धि'क्रोधमानमार्यो लोभ नाम वाली इन सति प्रकृतियों को देवीदेने से वहां पर इसमव्य अत्मिामें निर्मलता आती है, वैसे ही ज्ञानावरणीयका भी कुछ विशिष्टक्षयोपशम होताई, ताकि वह गुरु की वाणीको या तत्वों के स्वरूपकोठीक ग्रहण करने और समझनें पासकता है।एवं जैनशासन के जानकार लोग चोथेगुणस्थान से लेकर सात गुणस्याने तक के सम्यग्दर्शन को तो प्रथम सम्यग्दर्शन और वहां होनेवाले संप्रवृत्तिरूपंचारित्र को सदाचार तथा उसके श्रुतज्ञानाको व्यवहारश्रुतज्ञान कहते हैं, मतलब यह कि Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६९ ) - पहले-जो यह शरीर है सो ही मै हूँ, ऐसा विश्वास था वह बदलकर चतुर्थगुणस्थान में यह विश्वास हालेता है कि इस जडशरीर से मै भिन्न चीज हूं, चिन्मय हूँ। वैसे ही इच्छानुमार खाना, पीना, पहरना वगेरह मे ही सुख है, ऐसा अनुभव था. इसलिये अन्धाधुन्ध इनमें प्रवृत्ति करता था, परन्तु अब मानता है कि सुख तो मेरी आत्मा का गुण है अतः वर्तमान असह्य कष्ट के प्रतीकारस्वरूप विषयों का अनुभव करता है, ताकि समयोचित विचारपूर्वक प्रवृत्ति करने लगजाता है । एवं पहले तो समझता था कि मुझे जो कुछ जान है वह इन इन्द्रियों से ही हो रहा है, अतः इन्द्रियों का दास धनाहुवा था, मगर अब शोचता है कि ज्ञान तो मेरी आत्मा का निजगुण है जो कि मुझ मे है वह वस्तुतः सदा अतीन्द्रिय ही है उसीके द्वारा मैं जानता हूँ। हां यह बात दूमरी कि जब तक छद्मथ हूं तब तक इन्द्रियों की ही नही, अपितु बाह्यप्रकाशादि की भी सहायता लेनी पड़ती है, जैसे कि चिरकाल का अल्पशक्तिरोगी जब चलना चाहता है तो चलता तो आप ही है परन्तु किसी दूसरे के कन्धेवगेरहके सहारेसे चलता है उसके बिना नहीं चलसकता। शव-तो क्या छमथको इन्द्रियोंके बिना ज्ञान नही होसकता ? अगर हां. तो फिर यह मान्यता तो मिथ्यादृष्टि की है ही कि इन्द्रियो से ज्ञान होता है जो कि गलत मान्यता है क्यो कि इस म तो निमित्त और उपादान एक ही होजाता है। उत्तर- ज्ञान का होना क्या' ज्ञान वो आत्मा का गुण जैसा Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - कि उपर बताया ही गया है वह हरेक की आत्मा में सदा से है निगोदियालब्ध्यपर्याप्तक से लेकर केवलज्ञानी भगवान की आत्मा तक मे अखण्डरूप से विद्यमान रहता है। परन्तु उसका कार्य पूर्णज्ञानी के तो निःसहाय होता है और अल्पज्ञ का ज्ञान अपना कार्य इन्द्रियादिकी सहायता से करता है । इसमें उपादान और निमित्त एक कैसे होगया । उपादान तो आत्मा है या ज्ञान की तत्पूर्वपर्याय है । इन्द्रियादिक तो सहकारी निमित्त होते है सो जैसा निमित्त पाता है छद्मस्थ का ज्ञान उसके अधीन होकर चलता है। यह तो वस्तु का वस्तुत्व है अगर इसको भी नही मानने वाला ही सम्यग्दृष्टि होता है तब तो तुम्हारी समझ में फिर सम्यग्दृष्टि जीव अपनी आंखे कमजोर होजाने पर अपनी आंखो पर ऐकन लगा कर भी काम नहीं निकालता होगा ? अथवा पुष्यदन्त तुल्लक के कहने पर अपनी विक्रि यर्द्धिका ज्ञान करने के लिये हाथ फैलाने वाले विष्णुकुमार स्वामी भी फिर मिथ्यष्टि ही होवेंगे। किन्तु "असुहादोविणिवित्तीसुहेपवित्तीयजाण चारित" इस गाथार्द्ध के अनुसार अशुभ से दूर हटकर शुभमें प्रवृत्ति करना यही तो चारित्र यानी सम्यग्दृष्टि का कार्य है और इसी में सममदार की समझदारी होती है। संसार की तरफ का बल रखनेवाली बात अशुभ और मुक्ति की तरफ का बल देनेवाली बात शुभ होती है, जिसमें कि बुद्धिपूर्वक सम्यग्दृष्टिजीव प्रवृत्त होता है यही उसका सरागपन है। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) D -आतम हित हेतु विरागज्ञान, ते लखे आपको कष्टदान । रागादि प्रगटजे दुःख देन, तिन ही को सेवत गिनत चैन । छह ढाले की इस उक्ति के अनुसार मिथ्याष्टिजीव तो वीतरागता और विज्ञान का सम्पादन करनेवाली बातो को कष्टदायक मानकर उनसे दूर भागता है और जहां पर रागद्वेष को पोषण मिलता हो ऐसी बातों को च्याव के साथ स्वीकार करता है, परन्तु सम्यग्दृष्टिजीव का कार्य इससे उलट होता है। वह पूर्वकृत कर्म की चपेट में आकर भलेही विषयभोगों की तरफ लुढक पड़ता है फिर भी उसके उत्तर क्षणमें उसके बारेमें पश्चात्ताप करके वीतरागतो की वातोंको दृढता के साथ बलपूर्वक पकड़ता है इसी का नाम सदाचार है जो कि सातवें गुणस्थानतक हुवाकरता है उसकेबाद क्या होताहै सोबताते हैं निवृत्तिरूपं चरणं मुदेवः श्रद्धानमाहादृढमेव देवः श्रुतं विभावान्वयि सूक्ष्मराग-गुणस्थालान्तं शृणुमोनिरागः? __अर्थात्- इसी प्रकार हे मले आदमी सुनो श्री जिनभगवान ने हमे बताया है कि सातवेंगुणस्थान तक में जो श्रद्धान होता है वह तो अनवगाढरूप और श्रुतज्ञान जो होता है वह आत्मा में होनेवाले वैभाविक परिणामों का बतानेवाला होता है तथा उनसे उत्तरोत्तर बचते चले जाना उन्हें दूर करते रहना, उन्हें अपने में न होनेदेना यही वहां पर आत्मा का कार्य रहजाता है जो कि निवृत्यात्मक चारित्र कहाता है जो कि तुम्हारे और हमारे सरीखोंके लिये प्रसन्नताकारक माना गया है। जैसे Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) हमारे शरीरमें कोई कांटा चुभ गया हुवा हो तो उसे निकालने के लिये वहां के शरीरके अंशको खुरचकर कांठे को ढीला करके निकाला जाता है । वैसे ही श्रद्धान के साथ में जो राग लगा हुवा होता है उसको उखाड़ बाहर किया जाता है इसी लिये वहां परं सम्यग्दर्शन को अनवगाढ माना है । जो कि सूक्ष्म सम्परांयनामक दशमगुणस्थान तक होता है इससे परेभावश्रुतज्ञानमतः परन्तु भवेद्यथाख्यातचरित्रतन्तु श्रद्धानमेवं दृढमात्मनस्तु गुणत्रयेऽतःपरमत्वमस्तु ॥८३|| अर्थात्-ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में जाकर श्रद्धान अवगादरूप बनता है जहां पर कि चारित्र पूर्णवीतरागतारूप आत्मतल्लीनता को लिये हुये यथाख्यात बन जाता है और श्रुतज्ञान भी भोवश्रुतज्ञान हो जाता है । क्यों कि वहां पर और सब बातों को भुला कर सिर्फ अपनी शुद्धात्मा के परिणामों का ही विचार रहेजाता है। उस समय इस आत्मा के उपयोग में शुद्धरूप आत्मभावों के सिवाय और कुछ नहीं होता अतः वास्तविक श्रुतकेंवली कहलाने का अधिकारी भी होलेता है जैसा कि समयसार जी मै बतलाया गया है देखो'जोहिमुयेणहि गच्छंह अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं 'सुयकेवलिमिसिणोमणन्ति लोयप्पईवयरा . _' यद्यपि क्षयोपशम की अपेक्षा से तो इसके द्वादशाङ्गज्ञान होता है क्योकि 'उसके बिना जैसा कि तत्वार्थसूत्र जी मे Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६५) - - बतलाया गया है, शुक्लध्यान का प्रारम्भ ही नही कर पासकता है। मगर यह अपनी इस नि.केवल आत्मभावना के द्वारा धातिया कर्मोका नाश करनेमें प्रस्तुत होता है इसकी इस आत्मानुभवरूप अवस्था का नाम ही ज्ञानचेतना है जिसके कि द्वारा केवलज्ञान को प्राप्त करलेने पर इसके सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र ये तीनों अपरमपन का उल्लंघन करके परमपन को प्राप्त हो लेते हैं। इस तरह से आत्मा के इन तीनों भावों में परस्पर पोष्य पोपकपना है । आत्मा वृक्ष की तरह से है तो सम्यग्दर्शन उसकी जड़ है, सम्यग्ज्ञान उसका स्कन्ध और सम्यक्चारित्र उसके पत्ते वगेरह की भांति है, यद्यपि जड़ होने पर तना होता है और तने में फूल पत्ती वगेरह आती हैं परन्तु फिर उसका तना जितना मोटा ताजा होता जाता है उतनी ही उसकी जड़-भी गहरी होती रहती है एवं उसपर जितने भी अधिक फूल पत्ती आते है उतनी ही उस वृक्षकी अधिक शोभा होती है। अगर कहीं जड़ में कीड़ा लगजावे तव तो पेड और पत्ते कहा, मगर पेड में भी कोई खराबी आजावे तो फिर फूल पत्ती भी नही हो पावे और जड़ भी फैलने से रहजावे तथा फूल पत्ते अगर नहीं तो कोरे वने वाले वृक्ष को पूछता कौन है वहा सफलता कहां, या तो उसमे पत्ते फुलं अवेंगे ही अन्यथा तो वह कुछ देर में सूखकर खंखर बनजावेगा। वैसे ही सम्यग्दर्शन के बिना-तोयग्नान और सम्यक्चारित्र नही ही होता मगर सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के विकाश के Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) बिना भी सम्यग्दर्शन फलीभूत नहीं होता । अस्तु । सम्यग्दर्श-. नादि में इस प्रकार सम्बन्ध होने से चारित्रमोहनीय का असर भी सम्यग्दर्शन पर रहता है ऐसा न मान कर अगर जोमिथ्यात्वतश्चेत् पर एव रागस्तदा विधीनां नवधा विभागः सम्यक्त्वमाधक्षतितोविभातिगुणोऽन्यनाशाकिमुनामजातिः अर्थात् ~ श्रद्धान को और आचरण को विलकुल भिन्न मान कर श्रद्धान का घातक दर्शनमोह को और चारित्र का घातक चारित्रमोह को मानते हुये सर्वथा दर्शनमोह से चारित्रमोह को मिन्न कहाजावे तो फिर तो कर्मों के आठभेद न होकर नौ भेद हैं ऐसा कहना चाहिये और तब फिर सिद्ध अवस्था में जो सम्यक्त्वगुण प्रगट हुवा वह तो दर्शनमोहके नाश होने से हुवा, चारित्रमोहनीय के नाश से कौनसा गुण प्रगट हुवा सो भी तो देखो। किन्तु दोनों ही प्रकार के मोह का नाश होने से सम्यक्त्वगुण हुवा अतः दोनों कथंचित एक हैं और जब एक है तो चारित्रमोह के सद्भाव में सम्यक्त्व में अवश्य ही कुछ कमी होती है इस लिये सम्यक्त्व के जो सराग और विराग ऐसे दो भेद किये गये हैं सो वास्तविक ही है, एवं ज्ञानचेतना वीतरागसम्यक्त्वी के ही होती है, सरागसम्यक्त्वी के नहीं ऐसा कहना उपयुक्त ही है। ... शङ्का- चतुर्थगुणस्थान में 'नव दर्शनमोह का उपशमादि होकर सम्यग्दर्शन होजाता है तभी उसका ज्ञान भी मिथ्याज्ञान Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ } - से पलट कर वह भी सम्यग्ज्ञान बन जाता है, भले ही वह एक चीज को छोड़ कर दूसरी को जान रहा हो, आत्मोपयोगी न होकर खीसम्भोगादि में लगरहा हो परन्तु उसके सम्यग्ज्ञानत्व में कोई वट्टा नही होता वह सदा रहता है, अतः हर समय ज्ञानचेतना होती है । कर्म और कर्मफलरूप अज्ञानचेतना तो मिथ्यादृष्टि बहिरात्मजीव के ही मिथ्यात्व की वजह से हुवा करती है । सम्यग्दृष्टि के तो जैसे सम्यग्दर्शन है वैसे ही उसके साथ में अखण्डरूप ज्ञानचेतना भी होती है जैसा कि पण्डित राजमल जी काष्ठासंघी ने अपनी पश्चाध्यायी में लिखा है किश्च सर्वत्र सप्टेनित्यं स्याब्जानचेतना अविच्छिन्नप्रवाहेण यद्वाऽखण्डकधारया ॥२॥ हां जब कि कोई चतुर्थगुणस्थानवर्ती अनतसम्यग्दृष्ट जीवात्मा स्त्री प्रसग कर रहा होता है या युद्ध में किसी को मार रहा है तो उस समय भी उसके प्रवृत्ति में उपर से ही कर्मफलचेतना या कर्मचेतनारूप अज्ञानचेतना होती है अन्तरंग में तो उसके ज्ञानचेतना ही बनी रहती है जैसाकि राजमल जी कृतपञ्चाध्यायी में ही लिखा हुवा है अस्तितस्यापिसद्दृष्टेकस्यचित् कर्मचेतना अपिकर्मफले सा स्यादर्थतोज्ञानचेतना ।।२७।। अ०२ मानलो कि एक आदमी जो कि ज्योतिष, वैद्यक, संगीत वगेरह अनेक तरह के शास्त्र पढा हुवा है और वह काम वैद्यक Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) का कर रहा है तो उसका ज्योतिष वगेरह का ज्ञान कहीं चला जाता है, क्या ? नहीं, अपितु मोजूद रहता है, परन्तु उसके उपयोग में वैद्यकज्ञान उस समय आता है वैसे ही सम्यग्दृष्टिजीव भी खाना पीना वगेरह लौकिक काम कर रहा होता है वो. उसके उपयोग में तो कर्मचेतना या कर्मफलचेतना होती हैफिर भी लब्धिरूप से ज्ञानचेतना बनी रहती है ऐसा स्पप्ट मतलब समझ में आता है। उचर- भैया जी सुनो पण्डित जी की तो पण्डित जी जाने मगर हमारे पूज्य जैनाचार्यो.का तो ऐसा कहना नहीं है क्यों कि- "चेत्यते अनुभूयते उपयुज्यते इति चेतना" इस. प्रकार चेतना नाम ही जब कि उपयोग का है तो फिर लन्धिरूपचेतना चीज ही क्या रही, कुछ नहीं। अपितु इस जीव का. उपयोग, इष्टानिष्ट विकल्प से सर्वथा. रहित एवं पूर्ण वीतरागरूप होता है उस समय उसके ज्ञानचेतना होती है ताकि उसके, बन्ध नहीं होता । किन्तु उससे, नीचे सराग अवस्था में भले. ही, वह तत्वार्थ के विपरीत श्रद्धान. वालायहिरात्मा हो चाहे सत्यनद्धानयुक्त अनुत्कृष्ट अन्तरात्मा, दोनों के ही अज्ञानचेतना होती है जो कि, यथासम्भव ज्ञानावरणादि. कर्मों का बन्ध करनेवाली होती है और जो कि.अपनी शुद्ध आत्मा के सिवाय और.किसी बात पर करने.रूप या होने रूप में प्रस्तुत रहती है; जैसा, कि श्री आत्माख्याति में लिखा है Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) तत्र ज्ञानादन्यत्र दमहकरोमीति चेतन कर्मचेतना ज्ञानादन्यत्र वेदयेऽहमिति चेतनं कर्मफलचेतना । मा तु समस्तापि संसारवीजं संसारवीजस्याप्टविधकर्मणोवीजत्वात् इसी का स्पष्टीकरण तात्पर्यवृत्ति में हैमदीयं कर्म मयाकृतं कर्मेत्याद्यज्ञानमावेन, ईहापूर्व कमिष्टानिष्टरूपेण निरुपरागशुद्धात्मानुभूतिच्युतस्य मनोवचनकायव्यापारकरणं यत् सा बन्धकारणभूता कर्मचेतना भएयते। न्वस्थभावरहितेनाज्ञानमावेन यथासम्भवं व्यक्ताव्यक्त स्वभावेनेहापूर्वक मिष्टानिष्टविकल्परूपेण हर्पविषादमयं सुखदुःखानुभवनं यत् सा बन्धकारणभूता कर्मफलचेतना भण्यते । ___मतलव यही कि शुद्धात्मानुभूतिरूप शुक्लध्यानसमाधि से च्युत हो रहे हुये जीव की मन वचन काय की चेष्टा का नाम तो कर्मचेतना और वीतरागपन के सिवाय जरा सा भी इप्टानिष्टविकल्प को लिये हुये हर्प विपाद को प्राप्त होना कर्मचेतना कहलाती है। यानी वीतरागपन का नाम ज्ञानचेतना और सरागपन का नाम अजानचेतना है जैसा श्री कुन्दकुन्द प्राचार्य की पञ्चास्तिकाय नाम अन्थ की निम्न गाथा में लिखा हुवा है सव्वे खलु कम्भफलं थावरकायातसाहिकजजुई। पाणित्तमदिकन्ताणाणं विदन्तिते जीवा ।। ३६ ।। अर्थात् - स्थावर एकेन्द्रिय जीवों में तो सभी के कर्मफलचेतना हुवा करती है परन्तु जो जीव प्राणिपने को यानी Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) - - - - - - - - - - जन्म मरण के कारणभूत रागद्वेष को पार करके वीतरागता को प्राप्त कर लेते है वे जीव ज्ञानचेतनावाले होते हैं । इस पर फिर शङ्का होती हैअज्ञाननाशं प्रवदन्ति मन्तोद्दङ्मोहनाशक्षण एव जन्तोः अज्ञाननाम्नी ननु चेतनेति कुतोऽप्रमत्तादिगुणेऽम्युदेति ८५ ___ अर्थात्- कि जब दर्शनमोह का अभाव होता है तो उसी समय इस प्राणी के अज्ञान का यानी मिथ्याज्ञान का भी अमाव नियम से होजाया करता है इस विषय में सब सज्जनों का जहां एकमत है तो फिर उसका तो अभाव चतुर्थगुणस्थान में ही होलेता है फिर अप्रमत्वादि गुणस्थानों में अज्ञानचेतना बताई जाती है, वह कैसी ' इस बात का जबाबतइत्तरं तावदलीकबोधःप्रणाशमयाति न किन्त्वबोधः । अलीकबोधो हि कुदृष्टिधामारागादिमानेवमवोधनामा ८६ अर्थात्- यह कि चतुर्थगुणस्थान मे मिथ्याज्ञान का अभाव तो होजाता है किन्तु अज्ञान का प्रभाव नहीं होता। मिथ्यादृष्टि की अवस्था में समझरहा था कि जो शरीर है सो ही मै हूं इस प्रकार मोह की वजह से शरीर और आत्मा को एकमेक जानता था सो व्यर्थ विचार तो सम्यग्दृष्टि होते ही दूर होजाता है, परन्तु मार्गगामी पथिक भी दूमरे पथिक को अपना साथी मान कर उसके साथमें प्रेम दिखलाया करता है । वैसे ही यह फिर भी अपने शरीर को इस जन्म का साथी Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१ ) - मानकर किनिन् राग किये हुये रहता है, यह जो अज्ञान है वह मर्वथा दूर नहीं हो पाता तब तक ज्ञानचेतना कैसे होमकती है । देखो हमारे आगम ग्रन्थां में सम्यग्ज्ञान के वर्णन में बतलाया गया है कि जो ज्ञान, संशय विपर्यय और अनवध्यवसाय से रहित हो वही सम्यग्ज्ञान होता है । अब अगर एक सम्यग्दष्टि जीव अन्धकार वगेरह के कारण से जेवडी को सर्पजान रहा है तो उस समय जानने की अपेक्षा से तो विपर्यय होने से उसका वह ज्ञान मिथ्याजान हुवा फिर भी वह सम्यग्दर्शन के साथ में है इस लिये सम्यग्ज्ञान कहा जाता है । वस तो वैसे ही चतुर्थगुणस्थान वाले का ज्ञान, सम्यग्ज्ञान होता है मगर वह रागभाव को लिये हुवे होता है, अतः चेतना की अपेक्षा से वह अज्ञानचेतनारूप होता है। सारांश यह है कि चतुर्थगुणस्थान में श्रद्धान ठीक होते ही ज्ञान का भी मिथ्यापना तो हट जाता है फिर भी उसमें स्थिरपना नहीं थापाता जैसे कि कुवत न होकर भी वहा पर अन्नतदशा होती है ऐसा नीचे के छन्ढ मे घताते हैं कुवृत्तभावोऽपसरेढवृत्त-भावो न तूर्यस्थल एव हृत्तः अज्ञानभाव' प्रतिवर्तमानः कुजाननाशेऽपि भवेत्तथा नः ।।८७ अर्थात्- हमारे आचार्यों ने बतलाया है कि अनादि काल से इस संसारी आत्मा के श्रद्धान, ज्ञान और आचरण ये तीनों मिथ्या हो रहे हैं विगड़े हुये हैं सो चतुर्थगुणस्थान में आकर जब इसका श्रद्धान ठीक होता है, मिथ्यापन से सही Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७२) पन पर आता है तो इसके ज्ञान और चारित्र में भी मिथ्यापन नहीं रहता । दुःश्रद्धा के साथ साथ कुत्सित विचार और कुचेष्टा भी विदा होजाते हैं । इस तरह यद्यपि उसके हृदय पर से दुर्वृत्तपन तो दूर होजाता है मगर अवृत्तपन तो फिर भी बना ही रहता है। वह दूसरे की बहू बेटी पर घुरी निगाह नहीं डालता, चोरी चुगलखोरी नहीं करता, किन्तु अपनी औरत के साथ यथेप्ट रतिचेष्टा करता है अपने घरूखाने को इच्छानुसार खाकर प्रसन्न रहता है । न्यायोचित विपय भोगों को भोगने की बावत उसके चित्तपर कोई नियन्त्रण नहीं होता है और इसी लिये हमारे आचार्यों ने उसे स्पष्ट रूप से अवतसम्यग्दृष्टि बतलाया है । बस तो जिस प्रकार उसका दुवृत्त नष्ट होकर अव्रतपन बना रहता है, वैसे ही कुज्ञान-खोटा विचार दूर होकर भी अन्नान बना रहता है-विचार की चपलता दूर नहीं होपाती, अतः ज्ञानचेतना नहीं होती क्यो कि विचार की स्थिरता का एकाप्रज्ञानोपयोग का, आत्माधीन ज्ञानभाव का 'नाम ही ज्ञानचेतना है। शङ्खा- खैर चतुर्थादिगुणस्थान मे तो न सही किन्तु सप्तमादिगुणस्थान में जब कि अप्रमत्तअवस्था होती है वहां तो ज्ञानचेतना कहनी चाहिये कि नहीं ? क्यों कि वहां तो निर्विकल्प अपनी आत्मा के ध्यान के सिवाय और कोई बात सम्भव ही नहीं है जहां पर कि इस जीव की वृत्ति, विकथावो से यानी पर की वाती से इन्द्रियाधीनता से क्रोधादि कपायो Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७३) RA - - - पर से और दूसरे किसी के साथ अपणेश दिखानेरूप प्रणय से भी दूर हटकर पूर्णजागृतरुप हुवा करती है। श्री सिद्धपरमेष्ठी जी का स्मरण करना भी सेव्यसेवकभाव के कारण राजकथा में परिगणित हो रहता है फिर वहां आल्मस्मृति के सिवाय बाकी ही क्या रहजाता है १ खो इस शला का जबाव भी नीचे दिया जारहा है ज्ञानं भवेदात्मनि चामच-जनस्यवाहातिशयान्महत्तः दरस्य सम्पश्य पुनः सुदृक्तत् पातिगंतण्डुलमत्ररक्त । अर्थात हे समझदार भाई सुनो तुम्हारा कहना ठीक है, जहां सच्ची अप्रमत्तावस्था होती है यहा पराये विचार से तो कोई सरोकार नही रहजाता है, परपदार्थों के प्रति होनेवाली इप्टानिष्ट कल्पना हो लुप्त प्राय होलेती है मगर उसके विचार में उसकी खुद की आत्मा ही रागद्वेषयुक्त होती है, जैसे कि धान्य को उखलकर उसमें से चावल निकाले गये, उनके उपर होनेवाले तुपोंको अलहदा करदियागया यों उसे खूटकर फटकने से सफेद सफेद चावल निकल आते है, अब अगर उनमे से कोई चावल जिसके कि उपर का छिलका दूर होकर भी उसपर रहनेवाली उसकी लाली दूर नहीं हटपाई तो उसको हम लालचावल समझते या कहा करते हैं कि और सब चावल तो मफेद हैं मगर यह चावल लाल है। बस इसी प्रकार उसके अनुभव में उसकी खुदकी आत्मा रागरक्षित पाया करती है, Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७४ ) - - यानी उसकी खुदकी आमाके प्रति उसका उपादेयभाव रहता है ताकि वह अपने अन्दर रहनेवाले रागांशको दूर हटाने का प्रयत्न जारी रखता है, एवं कर्मचेतनारूप होता है । अगर होते हुये राग को भी न जानकर या न मानकर अपने आपको शुद्ध ही जानने लगे तो फिर राग को दबाने या न होनेदेने की चेप्टा ही क्यो करे और तब फिर रागी का रागी ही वना रहे । किन्तु "राग नहीं निजमावसही यह सिद्धसमान सदा पदमेरो" । इस वाक्यके अनुसार स्वभावापेक्षया अपने आपको सिद्धसमान मानते हुये भी वर्तमान अपनेरूप को रागराजित अनुभव मे लाता है इस लिये वह जिन परमपैनी सुविधिछैनी डारि अन्तर भेदिया । वर्णादि अरु रागादि ते निजभावकों न्याराकिया ।। निजमाहि निजकेहेतु निजकर आपको आयेगह्यो । गुणगुणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञेयममारकुछ भेद न रह्यो। इस छन्द के अनुसार अपनी बुद्धि को सुचारु और दृढ बनाते हुये अपूर्वकरणादिरूप प्रयत्न द्वारा रागांश को दूर हटा कर अपने उपयोग को निर्मल बनाने में लगरहता है सो ही बताते हैं सुसमाधि-कुठारेण छिद्यमानस्तरुयथा छिन्न एव नहीत्येष रागभागोऽष्टमादिषु ॥८६॥ अर्थात्- जब कुल्हाड़े के द्वारा किसी गाय को काटा Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५ ) - - - जाता है तो इसी समय वह कट तो नहीं जाया करता, मगर धीरे धीरे कट रहा हुवा होता है, वैसे ही एक महर्षि की आत्मा मे जो प्रशस्तराग होता है वह शुक्लध्यानरूप समाधिद्वारा अप्टमादिगुणस्थानों में क्रमशः क्षीण होता रहता है। समाधिनिरतत्वेन तत्वेनर्मधरः पुमान् वीतराग इवाभातिवालिशानां विचारतः ॥८॥ अर्थात्- हां यह बात जरूर है कि वह उत्तम सहनन का धारक महापुरुष उस समय समाधि में तत्पर हो रहने की वजह से शुद्धामपने को प्राप्त करने के बारे में उत्साह का धारक होता है, अपने उत्तरकाल में नियम से शुद्ध वीतराग हो रहनेवाला होता है, अतः स्थूलविचारवाले हम तुम सरीखा के विचार में वह ठीक वीतराग सरीखा ही प्रतीत होता है किन्तु उसके रागाश को जाननेवाले तो दीव्यज्ञानी महर्पिलोग ही होते हैं । जो हम बताते हैं कि पुलाको वकुशः किंवा पष्ठे सप्तमकेऽपियः कुशीलतामनुप्राप्तः स पुमानष्टमादिषु ॥८८|| अर्थात्--मुमुनुमाधु पुलाक, वकुश, कुशील निम्रन्थ और स्नातक के भेद से पांच प्रकार का होता है जिसके कि गुण मूल गुण और उत्तरगुण के भेद से दो तरह के होते हैं, मूलगुण खाशगुणों का नाम है जिनके कि विना वह हो ही न सके और उत्तरगुण उन्हें कहा जाता है जिनके कि विकशित होने से वह Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) उन्नति को प्राप्त होकर अपने ध्येय को प्राप्त कर पासके । पञ्चमहाबत, पांच समितियां, पञ्चेन्द्रियवशीकरण, पडावश्यक और सात शेप गुण यो अठाईस प्रकारके तो मूलगुण होते है । बारह तप और बाईस परिषहकानीतना यों चोतीस उत्तरगुण हैं जिनके कि भेद, प्रभेद करने से चोरासीलाख होजाते है। इनमे से मूलगुणो को धारण करके मनुष्य साधु बनता है तो आनुङ्गिकरूप मे उत्तरगुण भी आ ही जाया करते है, उनके भी विलकुल ही न होने पर तो साधु रह ही नहीं सकता, परन्तु उनके पालन करने का वह अधिकारी बन कर नहीं रहता, जैसे कि अधिक शीतपड़ने पर उसे न सहसकने के कारण कांपने भी लगता है। हां कितना ही शीत क्यों न सताये फिर भी वह कपड़ा कभी नहीं पहनता क्यों कि कपड़ा पहनलेने मे वह अपने पनमें बट्टा समझता है । कपड़े न पहनना, नगा रहना यह उसका प्रधान गुण है अतः कपड़े पहनने का तो वह विचार भी नही करता। अगर कोई भोला जीव उसे कांपता देख कर दयालुपने से उसके उपर मे कपड़ा डाल भी देता है तो उसे वह उपसर्ग समझता है । यह कमी नहीं मानता कि इसने अच्छा किया ताकि मुझे कपड़ा उढादिया ऐसा । फिर भी जिसके किसी मूलगुण में कोई आंशिकदोष आजाया करता हो ऐसे साधु का नाम पुलाकसाधु होता है । और जो उत्तरगुणों के भी पालन करने का सङ्कल्प लिये हुये हो, उन्हे निर्वाह करना अपना कर्तव्य समझता हो फिर भी उनमे अच्छीतरह से Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७७ ) - - सफल नहीं हो सक रहा हो वह वकुशमुनि होता है । यह दोनों मुनि छटे और सातवे गुणस्थान में होते हैं । इसके उपर अष्टमादि-श्रेणिमध्यगुणस्थानों में कुशीलमुनि होता है यद्यपि यह प्रमादरहित होते हुये वर्तव्यपरायण हो रहा होता है, फिर भी इसके परिणामों में कपायों की वजह से गदलापन बनाहुवा होता है। शरकालीन जल की भांति इसके परिणाम निर्मल न होकर वकालीन जल की भांति होते हैं। मतलब यह कि यह जीव कृतकार्य नहीं किन्तु अभी तक कर्तव्यसनिविष्ट ही है जैसा कि नीचे दिखलाते हैंशाखिनिप्रवहन्नन्ते कुठारः केवलं करे योग आत्मनि सम्पन्नो दशमाद्गुणतः परं ॥८६॥ ____ अर्थात्-इस प्रकार करते हुये होकर जब दशगुणस्थान से उपर पहुंच जाता है तभी वह श्रात्मा का योग जो कि कपायों को नष्ट करने के लिये किया जाता है सम्पन्न हुवा कहलाता है जैसे किसी पेड को काटने के लिये उस पर बहने वाला कुठार उस काटते काटते अन्तमे उसे बिलकुल काट चुकने पर वह तक्षक के हाथ में निश्चल हो रहता है और उस समय-उससे जो आश्वासन मिलता है बस वही दशा इस पाल्मा की भी दश गुणस्थान के उपर हो पाती है यानी इसको अपने आपमें विश्राम प्राप्त होता है । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८ ) - - निर्ग्रन्थपदवाच्यत्वमपि स्पष्टतयामुनेः उपयोगस्तथाझुद्धः स तत्रैवास्तु वस्तुतः । ६०॥ अर्थात्- भावनिक्षेप की अपेक्षा से निर्ग्रन्थ कहलाने की पात्रता मुनिराज को वहीं पर जाकर प्राप्त हो पाती है क्यो कि ग्रंथ नाम परिग्रह का है और अन्तरंग परिग्रह में जिस प्रकार मिथ्यात्व को बताया गया है उसी प्रकार से चारित्रमोह को सभी कषार्यों को भी परिग्रह माना है एवं निर्मन्थपन के लिये उन सभी कषायों के अभाव की जरूरत हो जाती है जो कि वहीं जाकरके पूरी होती है अतः शुद्धोपयोग भी वास्तविक रूप में वहीं जाकर होता है। स्वरूपा चरणं भेद-विज्ञानं ज्ञानचेतना शुद्धोपयोगनामानि कथितानि जिनागमें।६१॥ अर्थात्-शुद्धोपयोग का नाम ही ज्ञानचेतना, भेदविज्ञान और स्वरूपाचरण चारित्र है जिसमें कि आत्मा पर पदार्थो से विमुख होकर अपने आप का अनुभव करने लगती है और इसका नाम शुक्ल यान भी है जैसा कि पं० दौलतराम जी ने अपने छहढाले में लिखा है देखो-- यो है सकल सयम चरित सुनिये स्वरूपा चरणं अब । जिस होत प्रगटे आपनी निधि मिटे पर की प्रवृति सव ॥७॥ __ यों कह कर उन्होंने इसके आगे उसी शुक्लध्यान का वर्णन किया है जिसके कि सुललितसमागम से घातिया काँका Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) अभाव होकर यह आत्मा परमात्मा हो जाता है और यह पं० दौलतराम जी का लिखना है भी ठीक क्यों कि-"स्वरूपे आसमन्ताचरणं" यानी अपने आपमें पूरी तोर से लीन हो रहना ऐसा ही स्वरूपाचरण का मतलब होता है जैसा कि श्री प्रवचनसार जी के गाथा नं०७ की टीका में श्री अमृतचन्द्र प्राचार्य जी ने भी लिखा है कि- स्वरूपे चरणं चारित्रं स्वसमयप्रवृत्तिरित्यर्थः । तथा इसी को भेदविज्ञान भी कहते हैं जैसा कि श्री अमृतचन्द्र स्वामी जी ही इस अपने समयसारफलश में लिखते हैचैदप्यं जइरूपतां च धतोः कृत्वा विभाग द्वयो रन्तरुणदारणेन परितोज्ञानस्य रागस्य च । भेदनानमुद्रतिनिर्मलमिदमोदध्वमध्यासिताः शुद्धनानघनधिमेकमधुना सन्तोद्वितीयच्युताः॥१२॥ इसमे बतलाया है कि ज्ञान का लक्षण जानना है और पर द्रन्यानुयायीपन, राग का लक्षण है। इस प्रकार दोनों के लक्षण को ध्यान में लेकर अपने विचार के द्वारा अपनी अन्तरात्मा के पूरीतोर से मिन्न भिन्न दो भाग करके ज्ञान को राग से पृथक् कर लेने पर भेदज्ञान प्रास होता है जो कि बिलकुल निर्मल होता है । सो यह वही बात है जिसको कि पं० दौलतराम जी ने अपने छहढाले में जिन परमपैनीसुधिछनीडारि अन्तर भेदिया । वर्णादि अरुरागादित निजभाव को न्यारा किया। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८०) - - - निजमाहि निज के हेतु निजकरि आपको आपेगहो। गुण गुणीज्ञाता ज्ञानज्ञेय मझार कुछ भेद न रह्यो ।। इन शब्दों में दोहराया है और जो कि साक्षात शुक्लध्यान का रूप है जो कि वीतराग सम्यग्दृष्टि अवस्था में होता है। सराग सम्यग्दृष्टि अवस्था मै तो राग को और ज्ञान को मिन्न भिन्न मानता मात्र है, भिन्न भिन्न कर नहीं पता है जैसा कि आचार्य श्री लिख रहे हैं । एवं ज्ञानचेतना तो निर्विकल्परूप से ज्ञान की स्थिरता का नाम है जैसा कि पहले बताया ही जा जुका है, अतः ये सब एक शुद्धोपयोगके ही या शुक्लध्यान के ही नाम हैं । भेद है तो सिर्फ इतना ही कि शुद्धोपयोग शब्द तो आत्मा को मुख्य करके कहा जाता है । भेदविज्ञान शब्द के कहने मे सम्यग्दर्शनगुण का लक्ष्य होता है। ज्ञान गुण की मुख्यता से ज्ञानचेतना कहा जाता है । और स्वरूपाचरण शब्द चरित्रगुण की प्रधानता से कहा गया हुवा है। शंका-शुक्लध्यान तो सातवेगुणस्थान से भी उपर आठवे गुण स्थान से सुरू होता है किन्तु स्वरूपाचरण तो चोथेगुणस्थान वाले अव्रत सम्यग्दृष्टि के ही होजाता है क्योंकि स्वरूपाचरण का घातकरने वाली तो अनन्तानुवन्धिकपाय है जिसका कि उसके प्रभाव होता है। उत्तर- भैय्या जी अनन्तानुवन्धिकपाय का काम तो अन्याय और अभक्ष्यादि में प्रवृत्ति करवाना एवं गुरु संस्था को न मान कर मनमानी करने में मस्त रखना है जैसा कि मिथ्यात्व का Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८१ ) काम, शरीर से भिन्न आत्मा को कोई भी चीज न मानने देने का है। और इन दोनोंका अभाव अन्नत सम्यग्दृष्टि के हो लेता है इस लिये वह आत्मा को शरीर से भिन्न नित्यान्वयी ज्ञानमय, मान कर पुनर्जन्म नरक स्वर्गादिपर विश्वास करता है एवं गुरुवों का हृदय से विनय करने लगता है तथा पाप कर्मो से हर समय भीत रहता है। स्वरूपाचरण तो उस आत्मानुभव का नाम है जो कि सञ्जलनकपाय के भी न होने पर होता है। अनन्तानुवन्व्यादि प्रत्याख्यानावरणपर्यन्तकपाये न होने से सकल चारित्र होजाने पर भी जब तक संज्वलनकपाय का उदय होता है तो वह इस जीव को आत्मानुभव पर जमने नहीं देता। हां जब संचलनकपाय का भी तीव्र उदय न होकर वह मन्द होता है तो यह जीव आत्मानुभवपर लगने की चप्टा करता है यानी अपने पौरुप से उसे भी दवा कर या नष्ट करके अपने आप में लीन होलेता है उसीको आत्मानुभव या आत्माभूति कहते है। यही स्वपाचरणचारित्र है। शङ्का-वो फिर क्या चतुर्थगुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि को आत्मानुभूति नहीं होती ? तो फिर सम्यक्व कैसा हुवा और मिथ्यात्व क्या गया ? उत्तर- चतुर्थगुणस्थानवाले को आत्मानुभूति तो नहीं मगर आत्मतत्व का विश्वास जरूर होलेता है जो कि मिथ्याल्व अवस्था मे कभी नहीं हो पाता । जैसे मानलो कि एक आदमी के तीन लड़के हैं जिन्होंने नमक की कङ्करी को उठा कर खाया Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२ ) और वह खारी लगी । फिर जब उन्हें मिश्री के नुकरे खाने को दिये गये तो उन्हें भी उस नमक सरीखे खारी मानकर नमक हीं मानें कर दूर फेक देते है । पिता कहता है कि यह नमक नहो किन्तु मिश्री है, एवं खारी नहीं लेकिन मिठी है, फिर भी नहीं मानते जब मक्खियां आती हैं तो वे मिश्री पर भिन्नाने लगती हैं और नमक पर नहीं, तब पिता फिर समझाता है कि देखा हलवाई की दुकान में मिठाई पर मक्खियां भिन्नाया करती हैं बनिये की नमक की ढेरी पर नहीं, वैसे ही ये सब करियां तो नमक की हैं खारी हैं जिन पर मक्खियां नहीं बैठती मगर ये सब नुकरे मिश्री के हैं जिन पर मक्खियां रही हैं। तो एक लड़के ने तो फिर भी नहीं माना और बोला कि नही ये समस्त कडरियां एकसी ही तो है, सभी खारी हैं, इनमें कोई मिश्री और कोई नमक ऐसा भेद नहीं है। बाकी के दो लड़के कुछ विचारशील थे उनके मनमें बात जम गई कि हां ये, जिनके अन्दर जरा पलकाई है, जिन पर मक्स्त्रियां बैठती हैं, सो सब कङ्करियां इन सफेद कंकरियों से जरूर न्यारी है और मिठी हैं, ये सब मिश्री की हैं। पिता जी का कहना बिलकुल ठीक है, चलो मुंह धोकर आवें तो इन को खायेंगे, इतने में ही उन दोनों में एक लड़का झट मुंह धोकर आकर उन 4 मिश्री की कंकरियों में से एक को उठा कर चखता है तो कहता 'है कि हा सचमुच मिश्री है, मीठी है। बस तो इसी प्रकार से शुक्लध्यानी का अनुभव आत्मा के बारे में होता है; परन्तु इस ✓ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८३ ) से पूर्ववर्ती अव्रतसम्यग्दृष्ट्यादिक को तो आत्मविश्वासमात्र होता है, जैसा कि मिश्री को नहीं चख कर भी पिता की बात पर जमरहने वाले लड़के को मिश्री का विश्वास । शंका-गृहस्थ होते हुए भी जो आदमी एकाग्र निश्चल होकर ऐमा विचार कर रहा हो कि मेरी आत्मा अथवा मैं शुद्धयुद्ध सच्चिदानन्द हूँ मेरे अन्दर राग, रोप वगेरह बिलकुल भी नहीं हैं इत्यादि । उस समय तो उसके आत्मानुभव है कि नहीं ? उत्तर- वह आदमी तो उस भिखारी सरीखा निरा पागल है जो कि जन्मदद्धि होते हुये भी अपने आपको चक्रवर्ती मान रहा हो । इससे तो वह मिथ्याप्टि भी कुछ अच्छा है जो कि अपने आपको दुःखी अनुभव करता है, अतः यह दुख मुझे क्यों हो रहा है और यह कैसे नष्ट होसकता है ऐसा शोच रहा हो। हां जो तत्वश्रद्धानी जब कभी गृहस्थोचित और बातों की तरफ से अपने मन को मोड़ कर एकाप्रभाव से ऐसा विचार कर रहा हो कि मेरी आत्मा अथवा मैं भी तो स्वभाव की अपेक्षा से सिद्धों के समान ही विकार रहित हूँ। विकार जो है वह तो मेरी वर्तमान अवस्थामात्र है जो कि कर्मों के संयोग को लेकर वाह्यपदार्थों में इप्टानिष्ट कल्पना करने से होरहा है इत्यादि तो यह उसका विचार सद्विचार होता है, धर्मभावनारूप है और मन्दलेश्या के होने से होनेवाला है। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो यह सद्भावनारूप विचार उस स्वरूपाचरण के लिये कारणरूप मानागया हुवा है क्यो कि इस विचार को हृदय में स्थान देनेवालाजीव थोड़ी बहुत देर के बाद वाह्यबातो से दूर हटकर के सिर्फ अपनी आत्मा को ही याद करने लगता है एवं उसमे तन्मय होकर उस अनुभव के द्वारा इप्टानिप्ट विकल्प से रहित होता हुवा सिर्फ ज्ञानदर्शनस्वभावमय बन सकता है जैसा कि समयसार जी की निम्न गाथा मे लिखा हुवा है अहमिको खलु सुद्धोणिम्ममवोणाणदसण समग्गो । तमि ठिवो तश्चित्तो सव्वे एदे खयं णेमि ||३|| अर्थात्-- खलु यानी निश्चय नय से अगर स्वभावदृष्टि से देखा जाये तो मैं सिर्फ परिपूर्णज्ञानदर्शनवाला हूँ शुद्ध हूँ मेरे में किसी भी दूसरी चीज का सम्मिश्रण बिलकुल भी नहीं है और जब मैं ऐसा हूं तो फिर व्यर्थ ही इन सब दूसरी चीजों से क्यों ममत्व करू अपने आपमे तन्मय होकर स्थित हो रहूं ताकि ये सव रागद्वेपादि आश्रवभाव नष्ट होजावे और मैं सच्चिदानन्द बन रहूँ । मतलब यह कि इस वीतराग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमय परिणमन का नाम ही स्वरूपाचरण चारित्र है। सम्यक्त्व भी इसी अवस्था में निवय सम्यक्त्व होता है जैसा श्री सयचन्दकृत आत्मसिद्धि मे भी लिखा हुवा है देखो वर्ते निज स्वभाव का अनुभव लक्ष्य प्रतीत धृत्ति बहे निजभाव में परमार्थे समकीत ।।२२२। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८५ ) - किञ्च सम्पन्न स्वरूपाचरण का नाम ही यथाख्यात चरित्र भी है। सो यह यथाख्यात चारित्रदोप्रकारका होता है यही नीचे बताते हैविछिन्न श्रात्मभुबिरागनगोविनेतुग्न्तमुहूर्ततइयान पुनरम्युदेतु सम्बुद्धयेनु परमात्मन एव तावदन्मूल्यरागतरुमात्मकृतप्रभावः अर्थात्- जैसे किसी भी पेड़ को नष्ट करना होता है तो पहले तो उस कुल्हाड़े से काट कर गिरा दिया करते हैं और फिर जमीन में से उसकी जड़ों को भी खोद निकाल फैकदे तो ठीक होता है, यदि सिर्फ काटने का ही कार्य किया जाय, जड़ें ना निकाली जावे तो फिर वह फूट खड़ा होता है वैसे ही आत्मा में होने वाले रागभाव को दूर करने के लिये भी दो तरह की क्रिया होती है । कपायाश को दबाकर आत्मपरिणामो को निर्मल बना लिया जाता है, जैसे गदले पानी में फिटकड़ी वगेरह डाल कर के उसके कीचड़ को नीचे विठादिया तो पानी साफ होजाता है। इस क्रिया को उपशमश्रणी कहते है और इससे होनेवाली निर्मलता को. उपशान्तमोहदशा कहते हैं, यह एक अन्तमुहूर्तमात्र रहती है । बाद में फिर मोह का उदय हो आता है, अतः इसको प्रतिपाति, यथाख्यातचरित्र कहा जाता है। और जहां पर कपायांश को विलकुल दूर कर दिया जाया करता है उसे क्षपकणि एवं उससे होने वाली आत्मशुद्धि को क्षीणमोह बोला जाता है । इसमे मोह को सदा के लिये विदा मिलजाती है अतः इसको अप्रतिपातियथाख्यातचरित्र कहते हैं। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६ ) यह भव्यत्वशक्ति के पूर्णपरिपाक का फल है इसके होजाने पर फिर पुनर्भवधारण नहीं करना पड़ता है, किन्तु इससे आगे क्या होता है सो बताते है - पृथक्त्वायवितकस्तु यः श्रेणावात्मरागयोः क्षीणमोहपदेतस्मा येकत्वायाधुनात्मनः । ६३ ॥ ...अनेन: पुनरेतस्य घातिकर्मप्रणाशतः आत्मनोऽस्तु च परमोपयोगो विश्ववस्तुवित् ।।६४॥ अर्थान्-वितर्क यानी आत्मा के द्वादशाङ्गरूप श्रुतज्ञान का व्यापार या यों कहो कि विचार की एकाग्रता श्रेणिकाल मे और ग्यारहवंगुणस्थान में भी आत्मा और रागको भिन्न भिन्न करने के लिये प्रवृत्त होती है जिससे कि इस आत्मा के शेषघातिकर्मो का-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय का नाश हो कर इस आत्मा का उपयोग शुद्धोपयोगपन को उलांघकर परमोपयोग वन जाता है । जो उपयोग पहले क्षायापशमिक था, अतः जिधर लगाया जाता था उधर हो लगता था और वात को न जानकर उसी को जानने लगता था। जब तक विषयों की तरफ झुका हुवा था तो विषयों को स्वीकार किये हुये रागद्वेष में फंस रहा था परन्तु जब वाह्यविषयों की तरफ से हटकर रागद्वेपरहित होते हुये वही उपयोग एक अपनी आत्मा मे हो तल्लीन होलिया तो यः आत्मवित् स सर्ववित् इस कहावत को चरितार्थ करते हुये विश्वभरकी तमाम वस्तुवों को एक साथ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८७) जाननेवाला यन जाता है । जैसे वायु के द्वारा कल्लोलान्वित पानी में कुछ नहीं दिखाई देता मगर निर्वातस्तम्भित जल में तमाम आसमान की चोजे झलकने गलती हैं तथा जल की तली में होनेवाली चीजें भी दीख जाया करती है। अस्तु । इमकेबाद क्या होता है सा बताते हैंदेहमतीतो भूत्वा चिदयं परमपारिणामिकभावमयः नीरसवल्कलतोनिस्तुत इवैरण्डवीजपज्जगतिलसतिये। ६५॥ अर्थात् - उपर्युक्त प्रकार से चार घातिया कर्मों का नाश करदेने पर इस आत्मा को क्षायिकमाय की पूर्णप्राप्ति होलेती है किन्तु नाम, गोत्र. वेदनीय और आयु, ये चार अघातिकर्म अवशिष्ट रहते हैं । जिनका कि अनुपक्रमरूप से यथासमय नाश होने पर यह आत्मा शरीररहित होजाता है जैसे अरण्ड बीज के उपर होने वाला छिलका का आवरण सूक कर खुलजाता है तो वह खालिस बीज बन जाता है, वैसे ही यह आत्मा कार्मणशरीर के पूर्णरित्या दूर होजाने पर परमपारिणामिकभाव का धारक स्पष्ट सच्चिदानन्द होजाया करता है उसी का नाम सिद्ध या मुक्त होता है जो कि होकर लोक के शिखर पर जाकर विराजमान हो रहता है । उस समय इसके औदायिक, ज्ञायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिकभाव इन चार प्रकार के भावों के साथ साथ भव्यत्व का भी अभाव होकर सिर्फ शुद्धजीवत्वमात्र रह जाता है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८८) शङ्का- क्षायिकमाव का भी अभाव होजाता है यह बात हमारी समझ में नहीं आई बल्कि क्षायिकमाव होने पर तो उसका फिर अनन्तकाल तक भी प्रभाव नहीं होता ऐसा कहा हुवा है । अन्यथा वो फिर क्षायिकनानादि का अभाव होगया तो आत्मा में रह ही क्या जाता है ? उत्तर- क्षायिकभाव न रहे तो कुछ भी आत्मा मे न हो यह बात तो बहुत ही मोटी है । संसारी जीव में क्षायिकभाव नहीं, मगर वहां औदयिकादिभाव यथासम्भव होते हैं। सभी सासारिक जीवों में औदयिकभाव के साथ साथ क्षायोपशमिक एवं अशुद्धपरिणामिकमाय होता है । किसी भव्यजीव में उन तीनों के साथ औपशमिकमाव होता है तो किसी के क्षायिकभाव के साथ श्रीदयिकादिकभाव तथा किसी के पांचो ही भाव होते हैं क्यों कि क्षायिक सम्यग्दृष्टिजीव जब उपशमश्रेणि में होता है तो वहां उसके चारित्र तो औपशमिक । सम्यक्त्व-दायिक । ज्ञान-क्षायोपशमिक । मनुष्यपणा औदयिक और सञ्जीविनीशक्ति या भव्यत्व, जो है वह अशुद्धपारिणामिक भाव होता है अरहन्तावस्था में जानादिक तो क्षायिकभाव, मनुष्यत्व और असिद्धत्व वगेरह औदायिकमाव एवं भव्यत्वभाव होता है । परन्तु जहां औदयिकभाव का सर्वथा अभाव हुवा वहां सिद्धदशा में औपशमिक, क्षायोपशमिक क्षायिक और अशुद्धपरिणामिक भी एवं उन पांचों का अभाव होकर सिर्फ शुद्धजीवत्वमात्र रहजाता है । चेतनता का नाम-देखने जानने रूपशक्ति Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) - -- का नाम जोवत्वभाव है, वह शुद्ध और अशुद्ध, दो तरह का होता है। उसमें से अशुद्धजीवत्व यह भव्यत्व और अभव्यत्व रूप से दो भावों को लिये हुये रहता है सो अभव्यत्व तो अनाद्यनन्त हो होता है, मगर भव्यत्वभाव उस जीवकी संसार स्थितिमात्र रहता है । सिद्धअवस्थामै वह पलटकर शुद्धजीवत्व के रूपमे आजाता है । सिद्धत्वेन भवितु योग्यो भन्यः जो सिद्धरूपमे परिणमन करने योग्य हो उसे भव्य कहते हैं। अब जो कि सिद्ध होचुका वह सिद्ध होने के योग्य है कहां ताकि उसे भव्य वहा जावे, यह तो सिद्ध होने योग्य था सो हो लिया वस तो भव्यत्व का भी अभाव होलिया । उसीके साथ इतर चारों भावों का भी अभाव होगया । हां अरहन्त अवस्था में जो क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकज्ञान और क्षायिकदर्शन था, वह सिद्ध अवस्था में परमशुद्ध सम्यक्त्व, परमशुद्ध ज्ञान और परमशुद्धदर्शन होजाता है इसी का नाम तो शुद्धजीवत्वभाव है, जिसकी कि सिद्धता के साथ में व्याप्ति है, जैसा कि अन्यत्र केवल सम्यक्त्व ज्ञान दर्शनसिद्धत्वेभ्यः, इस सूत्र में सष्ट होता है। क्षायिकसम्यक्त्वादि को जहा अनन्त बतलाया है उसका मतलव तो इतना ही है कि जो दर्शनमोह के क्षय से सम्यक्त्व होता है, वह दूर होकर वापिस मिथ्यात्वदशा कभी भी नहीं होती। इसका मतलब यह कभी नहीं लिया जासकता कि जो जैसा सम्यक्त्व असिद्धदशा में है वैसा ही सिद्धदशा मे भी होता है। इस बात को समझने के लिये जीवत्वगुण को ही Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) लेलिया जावे । संसारावस्था में श्वासोच्छासादिमज्जीवत्व होता है, तो सिद्धावस्था में तद्रहितजीवत्व हुवा करता है । जब जीवत्व मे ही भेद हुवा तो सम्यक्त्वादिक जो उसके विशेष है उनमें भेद होना अवश्यंभावी है । जैसे किसी रत्न को डिविया मै बन्द किया हुवा होता है तो उसके साथ उसका तेज भी उस डिबिया में बन्द रहता है, रत्न को खुला करने पर ही उसका उद्योत खुला होसकता है । अस्तु । उपर्युक्त सिद्धपरमात्मा का ग्वरूप निर्देश करते हुये अब निम्नवृत्त मे अन्तमङ्गलरूप से नमस्कार किया जाता हैमम्यक्त्वस्यपृथुप्रतिमानं नित्यं निजदृग्ज्ञाननिधानं अपिस्फुटीकृतविश्वविधानं नौमितमां कृतकृत्यानिदानं।१६ अर्थात्-जो ठीक सचाई की मूर्ति बने हुये हैं, निरन्तर अपने आपको तो देखने जाननेवाले हैं ही फिर भी दुनियांभर की बातों को देखते जानते हैं, किन्तु करने योग्य कार्यों को करचुके हुये हैं, ऐसे परमेष्ठि को हमारा बारम्बार नमस्कार हो। मतलब यह कि स्वपर प्रकाशकपन आत्मा का असाधारणगुण है, वह इतर पुद्गलादि में न होकर हर आत्मा मे सामान्यतया विद्यमान है। परन्तु संसारस्थ अवस्था मे यह आत्मा अपने आपको न देखकर खुद को भुलाकर औरों की तरफ देखा करता है ताकि संकल्प विकल्प में पड़कर इसका उपयोग क्रमिक बना हुवा रहता है। ज्ञानीपन की अवस्था में और तरफ से हटकर Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१ ) - अपने आपको जानने लगता है तो फिर चञ्चलता चपलता से उरिण होकर स्थिर बन जाता है, एवं और सब चीजों को एक साथ देखते जानते हुये भी स्पप्टरूप से अपने आपको देखने जानने वाला हो रहता है । जैसा कि पं० दोलतराम जी ने अपनी स्तुति के सुरू म इस दोहे में कहा है सकलजेयजायक तदपि निजानन्द रसलीन । सो जिनेन्द्र जयवन्तनित अरिरजरहसविहीन ॥१॥ दर्पण में जिस प्रकार हरपदार्थ का प्रतिविम्ब पड़ता है फिर भी दर्पण अपने स्थान पर होता है और पदार्थ अपनी जगह पर । न तो पदार्थ ही दर्पण मे घुसजाया करता है और न दर्पण ही अपनेपन को त्याग कर उस पदार्थरूप ही होजाया करता है । वैसे ही परमात्मा के ज्ञान मे हरेक पदार्थ झलकता है, फिर भी पदार्थ अपनी जगह अपने आपकेरूप में होता है और आत्मा का ज्ञान आत्मा मे । न तो ज्ञान का कोई एक भी अंश शेयरूप होता है और न ज्ञेय का कोई भी अश ज्ञानरूप । जैसा कि तज्जयतु परं ज्योतिःसमं समस्तैरनन्तपर्यायैः । दर्पणतल इव सकलाः प्रतिफलतिपदार्थमालिकायत्र ॥२॥ इस पुरुषार्थसिद्धयुपाय के मङ्गलाचरण में लिखा है। हां कुछ लोगों की धारणा है कि ज्ञेयाकार होना ज्ञान का दोप है जो कि अपूर्णअवस्था में हुवा करता है । पूर्णब्रह्म परमात्मदशा मे तो वह निराकार ही होता है क्यों कि सम्पूर्ण Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) पदार्थों को जब एक साथ जानता है तो किस किस के आकार होगा । परन्तु ऐसा कहने वालों को सोचना चाहिये कि पदार्थ को पदार्थ के रूप में जानना हो तो ज्ञान का पदार्थ कार में होना है, अगर सर्वज्ञ अवस्था में ज्ञान ज्ञ ेयाकार नही होता तो फिर इसका तो अर्थ यह हुवा कि वह ज्ञेय को जानता ही नहीं है । शङ्का- ठीक तो है इसी लिये तो हमारे आचार्यों ने बतलाया है कि निश्चयनय से तो ज्ञान सिर्फ अपनी आत्मा को जानता है. पर पदार्थों को जाननेवाला तो व्यवहार मात्र से होता है । और व्यवहारका अर्थ-झूटा होता है । उत्तर- भैय्या जी जो पर को नहीं जानता वह अपने आप को भी नहीं जानसकता है, क्यों कि मैं चेतन हॅू जड़ नहीं हूँ, इस प्रकार अपना विधान परप्रतिषेधपूर्वक ही हुवा करता है । ज्ञान का स्वभाव जानना है, वह अपने आपको जानता है तो पर को भी जानता है । अपने आपको आपके रूपमे श्रभिन्नता से ज्ञातृतया वा ज्ञानतया जानता है और परपदार्थों को परके रूपने अपने से भिन्न अर्थात् ज्ञयरूप जानता है । भिन्नरूप जानने का नाम ही व्यहाहर एवं अभिन्नरूप जानने का नाम ही निश्चय है । किन्तु जानना दोनों ही बातों में समान है जो कि ज्ञान का धर्म है, और वह सर्वज्ञ में पूर्णतया प्रस्फुट हो रहता है, उसी की प्राप्ति के लिये ही यह सारा प्रयास है । वह सर्वज्ञता वीतरागता से प्राप्त होती है, वीतरागता का जनक Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९३) - - सम्यक्त्व है, उसका विरोधी मिथ्यात्व अस्मदादि संसारी लोगों मे विद्यमान है उसे दूर करके सम्यक्त्व प्रान करना चाहिये । इस प्रकार उपसंहार करते हुये अव ग्रन्थ समाप्त कियाजाता है-- आत्मीयं सुख मन्यजामिति या वृचिः परत्रात्मन । स्तन्मिथ्यात्वमकप्रदं निगदितं मुञ्चेदिदानी जनः ।। आत्मन्येव सुखं ममेत्यनुवदन्वाह्यानिवृत्तो यदा । स्मन्यात्माविलगत्यहो विजयतां सम्यत्व मेतत्सदा ॥१०॥ अर्थात्-हरेक शरीरधारी सुख की खोज में है, वह चाहता है कि मुझे सुख प्राप्त हो, दुःख कभी न हो, मै सदा सुखी बना रहूँ. परन्तु कैसे बनू यही भावना इस के मन में निरन्तर बनी रहती है क्यो कि इसे यह पता नहीं है कि सुख वो मेरी आत्मा का अपना गुण है. वह मेरा मेरे पास है । यह तो समझता है कि सुख कहीं बाहरी चीजा में खाने-पीने और कोमल पलङ्ग पर लेटलगाने वगेरह में है। इस लिये इस का लगाव उन्हीं के पीछे हो रहा है। जैसे हरिण अपनी नाभि की सुगन्ध को बाहर की सुगन्ध समझ कर उसके ढूंढने में इधर से उधर भटकता फिरता है, वैसे ही यह संसारी जीव भी वाह्य विषयों में मुख मान कर उनमें भम्पापात लेता है उन्हीं के पीछे लगा रहता है, बस यही इसकी भूल है, मिथ्यात्व है, उलटापन है जो कि इसे दुःख देनेवाला है । अत. आत्महितैषी Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) - जीवको चाहिये कि अपने इस मिथ्यात्वको दूर करे। मिथ्यात्व होजाना ही सम्यक्त्व है जो कि सुख देने वाला है, आनन्दस्वरूप है । सो जब यह जीवात्मा अपनी उस चिरन्तन भूल को सुधार कर ऐसा मानने लगजाता है कि सुख तो मेरे आत्मा का ही सहज स्वभाव है वह आत्मा को छोड़कर अन्यत्र कहां हो सकता है तो फिर व्यर्थ की इन बाहिरी बातो से दूर होता हुवा स्पष्टरूप से आत्मवल्लीन यानी अपने आपमें आत्ममात्रहो रहता है, उसीका नाम वास्तविक सम्यक्त्व है। मतलब यह कि विगड़ी हुई हालत का नाम मिथ्यात्व और सुधरी हुई सहज स्वभाविक शुद्धावस्था का नाम सम्यक्त्व है सो यह सम्यक्त्वदेवता सदा जयवन्तर हो । अब अन्तमै अपनो मनोभावना क्या है सो प्रकट करते है - - भूयाजिनशासनं प्रभावि · राष्टे येन जनस्य विचार: मजुतमाचारेण च वाचि । ललितत्वेन समस्तु संयुतः ।। अर्थात्- देश भरमें श्री जिन भगवान का शासन फैले सबलोग उसके माननेवाले बनें ताकि हरेक आदमी का विचार सदाचार सहित होते हुये भले व्यवहारयुक्त हो यही मेरी सद्भावना है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) - - - महस्रद्वितयात् सूर्य-संख्याके विक्रमाब्दके भव्यजीवप्रबोधाय बोधाय च निजात्मनः।१०२।। वर्षायोगे हिसारस्य श्री समाजानुरोधतः भृगमलेन रचितः सम्यक्त्व-सारदीपकः । १०३।। यह "सम्यक्त्वसार दीपक या शतक" नाम का अन्य श्री वीर विक्रमादित्य सम्बत् २०१२ की शाल में चतुर्मास के ममत्र में दिगम्बर जैन समाज हिसार की प्रेरणा से सभी भव्य जीवों के कल्याण के लिये एवं अपने आपके भले के लिये भी भूरामल ने बनाया है। छप्पयमङ्गलमयअरहन्त सन्त सव को सुखदाई। मङ्गल सिद्ध महन्त निजात्मज्योति सुहाई ॥ आचार्योपाध्याय साधु समरसके भर्ता । सब जीवों के लिये सहज मङ्गल के कर्ता । जिनवर भापित धर्म भी जीवनका आधार हो । जिसके मृदु अभ्यास से दिल के दूर विकार हो । ॐ शुभभूयात् -* Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी भावना भावना दिन रात मेरी सब सुखी संसार हो । सत्य संयम शील का, व्यवहार घर घर-बार हो । धर्म का प्रचार हो, ओर देश का उद्धार हो । पाप का परित्याग हो, और पुण्यका संचार हो। रोशनी से ज्ञान का, संसार में परकाश हो। धर्म के प्रभाव से, हिंसा का सर्वनाश हो । शान्ति अरु आनन्दका, हरएक घरमें वास हो । वीर-वाणी पर सभी संसार का विश्वास हो । रोग'अरु भय शोक होवें दूर सब परमात्मा। कर सर्के कल्याण ज्योति, सब जगतकी श्रात्मा। --:०):--- Page #213 --------------------------------------------------------------------------  Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - श्री अस. आर. जोहर के प्रबन्ध से नवजीवन प्रेस नागोरी गेट, हिसार में मुद्रित । - Page #215 --------------------------------------------------------------------------  Page #216 --------------------------------------------------------------------------  Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी प्रस्तावना लेखक डॉ० भगवानदास संपादक वेचरदास दोशी MMALAALA मानवता HBN AB सेवा सर्वोदय साहित्य माला १०६वां ग्रंथ सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली शाखाएँ दिल्ली: लखनकः इन्दौर : वर्धा : कलकत्ता:इलाहाबाद Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनवरी १९४२, २००० मूल्य अजिल्व एक रुपया सजिल्द डेढ़ रुपया प्रकाशक मार्तण्ड उपाध्याय मंत्री, सस्ता साहित्य मण्डल नई दिल्ली मुद्रक जे. के. शर्मा इलाहाबाद लो जर्नल प्रेस इलाहाबाद Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0 -0 -0-0-0-0-0-0-0-0 समर्पण पुण्यचेता श्री पुण्यविजयजी मुनि तथा पुण्यचेता उपाध्याय श्री अमरचंदजी मुनि की विद्याचरण-संपत्ति को प्रस्तुत संपादनफल सादर समर्पण करता हूँ। 4--0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-2 वेचरदास Page #220 --------------------------------------------------------------------------  Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय 'महावीर वाणी के इस रूप में पाने की एक लम्बी कहानी है। बहुत दिनों से मेरी इच्छा थी कि एक ऐसे छोटे से प्रन्थ के संकलन का आयोजन होना चाहिए जो जैनधर्म के प्रमुख अंगालि शास्त्रों का बोहन हो और जिसमें नैनधर्म का सर्वधर्मसमभावपूर्ण कार्य अच्छी तरह से प्रतिविम्वित हो सके। जब मेरे स्नेही विद्यार्थी श्री शान्तिलाल वनमाली शेठ (न्यायतीर्थ, अध्यापकजैन गुरुकुल, ब्यावर) ने जन सूत्रों में से ऐसा संकलन करके मुझे दिखाया तो मैने समझा कि मेरा संकल्प सिद्ध हुआ। ___ उक्त संकलन के सशोधन होने के बाद उस पर मेरे मित्र पंडित प्रवर प्रज्ञाचक्षु श्री सुखलालजी संघवी (प्राचार्य जनशास्त्र, हिंदूविश्व-विद्यालय, काशी) की वेधक दृष्टि फिरी और पुनः उपयोगी संशोधन हुए । इस प्रकार 'महावीर-वाणी प्रस्तुत हुई। साथ ही सर्वारम्भाः तण्डुलप्रस्थमूला:-न्याय से उसके लिए हमारे चिर-परिचित एक उदार मारवाड़ी सज्जन श्री मानमलनी गोलेच्छा [प्रतिनिधि शंकरलाल मानमलजी, खीचन (फलोधी, मारवाड़) से अर्थ सहायता भी उपलब्ध हो गयी। वह विद्याप्रेमी और विद्योपासक है, ज्ञानप्रचार और जनहित में सदैव Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तचित्त रहते है और राष्ट्र प्रेम में रंगे हुए है। 'महावीर-वाणी की रामकहानी सुनते ही उन्होने सत्त्वर भाई शान्तिलाल को उचित पारिश्रमिक-पारितोषिक भेंट करके उसके संपादन के लिए मुझे उत्साहित किया। ___ भाई मानमलजी की इच्छा थी कि महावीर वाणी का अधिक से अधिक प्रचार हो, अतः उनके परामर्श से इसे सस्ता-साहित्य मंडल' (नई दिल्ली) द्वारा प्रकाशित कराने का निश्चय किया गया। 'मंडल के संचालक मंडल से इसके लिए शीघ्र ही स्वीकृति प्राप्त हो गयी और उसीका फल है कि यह अन्य पाठकों के सामने है। भाई मानमलजी ने सेवा-भावना से प्रेरित होकर तथा अपने काका की स्मृति में प्रायोजित 'गोलेच्छाग्रन्थमाला' के अन्तर्गत निकालने के पूर्व निश्चय का परित्याग करके यह ग्रन्थ प्रकाशनार्थ 'सस्ता-साहित्य-मंडल' को दिया है। अतः सबसे अधिक धन्यवाद के पात्र है। 'सस्ता-साहित्य-मंडल के संचालक का भी मै विशेष ऋणी हूँ। ___ मूल पाठ को ठीक-ठीक संशोधन तथा संपादन का भार भाई मानमलजी का सौंपा हुअा मैने उठाया है और दिल्ली निवासी भाई गुलाबचन्द जैन के प्रबल अनुरोध से भारत प्रसिद्ध, समन्वयदर्शी । विद्वर डा० भगवानदास जी ने इसकी प्रस्तावना लिखने की कृपा की है। अतः हम उनके प्रत्यन्त कृतज्ञ है। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७] 'वाणी' का हिन्दी भाषान्तर मेरे प्रिय विद्यार्थी श्री अमरचन्दनी मुनि (कवि-उपाध्याय) ने किया है और उसका संशोषन श्री वियोगी हरि ने करने की कृपा की है। इनका भी आभार मानना उचित है। यद्यपि मैने मूल के संपादन तथा संशोधन में भरसक सावधानी रखी है, तो भी मेरी आँखें कमजोर होने के कारण उसमें त्रुटियां रह जाना शक्य है। पाठकगण कृपया उन्हें क्षमा करें। १२/ब, भारतीनिवास सोसाइटी, 1 : स जीवराज दोशी अहमदाबाद नं०६ Page #224 --------------------------------------------------------------------------  Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना सन् १९३५ से सन् १९३८ ई० तक, सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली का सदस्य होने के कारण, मुझको, प्रति वर्ष, ढाई तीन महीने, माघ फाल्गुन-चैत्र में, नई दिल्ली में रहना पड़ा। दिल्ली निवासी श्री गुलाबचन्द जैन, वहाँ, कई बेर, मुझसे मिलने को आये, और किसी प्रसंग मे, श्री वेचरदासजी की चर्चा उन्होने की । सन् १९३६ में, मार्च के महीने में, गुलाबचन्द जी, किसी कार्य के वश, काशीमाये; मुझसे कहा कि श्री वेचरदास जी ने, जो अव अहमदाबाद कालिज में प्राकृत भाषा और जैन दर्शन के अध्यापक है, “महावीर-वाणी" नाम से एक अन्य का सकलन किया है, और उनकी बहुत इच्छा है कि तुम (भगवानदास) उसकी प्रस्तावना लिख दो। मैने उनको समझाने का यल किया; मेरा वयस ७२ वर्ष का; आँखें दुर्वल; सव शक्ति क्षीणः तीन चार अथ अग्रेजी, हिन्दी, संस्कृत के, जिनके कुछ अंश लिख और छप भी गये है, पूर्ण करने को पडे हुए; अन्य, सामाजिक जीवन में अनिवार्य, झम्टो की भी कमी नहीं, थोडा भी नया काम उठाना मेरे लिये नितान्त अनुचित, सर्वोपरि यह कि मैं प्राकृत भाषा और जैन साहित्य से अनभिज्ञ । पर गुलावचन्द जी ने एक नहीं माना, दिल्ली जाकर, पुन पुन मुझको लिखते Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१० ] ही रहे, कि श्री वेचरदास जी ने निश्चय कर लिया है, कि विना मेरी प्रस्तावना के, अथ छपेगा ही नही । इस प्रीत्याग्रह के आगे, मुभको मानना ही पड़ा। श्री गुलाबचन्द जी, “महावीर-वाणी" की हस्त-लिखित प्रति ले कर, स्वय काशी आये। मैने समन अथ, अधिकाश उनसे पढवा कर, शेष स्वय देख कर, समाप्त किया। महावीर स्वामी की, लोक के हित के लिये कही, करुणामयी, वैराग्य भरी, वाणी को सुन और पढ कर, चित्त में शान्ति के स्थान में प्रसन्नता ही हुई, और सात्त्विक भावो का अनुभव हुआ । महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध, कुछ वर्षों की छुटाई बड़ाई से, समकालीन हुए यह निर्विवाद है। किन्तु इन दोनों महापुरुषो के जन्म और निर्वाण की ठीक तिथियो के विषय में ऐतिहाविदो मे मतभेद है; तथापि यह सर्व-सम्मत है कि विक्रम पूर्व छठी शताब्दी में दोनो ने उपदेश किया। जैन सम्प्रदायो का विश्वास है कि महावीर का, जिनका पूर्व-नाम "वर्धमान" है, जन्म, विक्रम पूर्व ५४२ और निर्वाण वि० पू० ४७०, मे हुआ। ___ उस समय मे "लिपि" कम थी, "श्रुति" और "स्मृति" की ही रीति अधिक थी; गुरु के, ऋषि के, महापुरुष के, प्राचार्य के वचनो को श्रोतागण सुनते और स्मृति मे रख लेते थे। महावीर के निर्वाण के बाद दूसरी शताब्दी में बडा अकाल पड़ा, जिनानुयायी, "क्षपण" Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ ] वा "श्रमण" कहलाने वाले, साधुओ का संघ बहुत विखर गया; कंठ करने की परम्परा में भग हुआ; बहुत उपदेश लुप्त हो गये। अकाल मिटने के वाद, स्थूलभद्राचार्य की देख रेख मे, पाटलिपुत्र में सघ का बड़ा सम्मेलन हुआ, बचे हुए उपदेशो का अनुसन्धान और राशीकरण हुआ; पर लिखे नही गये । महावीर निर्वाण की नवी शताब्दी (वीर-निर्वाण १२७-८४० तक) मे, मथुरा मेस्कदिलाचार्य, और वलभी मै नागार्जुन, के आधिपत्य में, सम्मेलन होकर, उपदेशो का संग्रह किया गया, और उन्हे लिखवाया भी गया। निर्वाण की वसवी शताब्दी में बहुत से श्रुतधारी साधुओ का विच्छेद हुआ। इस वेर, देवधिगणिक्षमा श्रमण ने अवशिष्ट संघ को वलभी नगर में एकत्र करके उक्त दोनो, माथुरी और वलभी वाचनाओ, की समन्वयपूर्वक लिपिकराई। जिनोक्त सूत्र के नाम से प्रसिद्ध वाक्योके सग्रहीता, यह देवधिगणि ही माने जाते है । उमा-स्वाति के "तत्वार्थाधिगम सूत्र", जोप्राय जिननिर्वाण के ४७१, अर्थात् विक्रम सवत् के प्रारम्भ, के लगभग, किसी समय मे, लिखे गये, और जिनमें जैनदर्शन का सार बहुत उत्तम रीति से कहा है, वे इनसे भिन्न है । देवर्षिगणि के सकलित सूत्र, पाचाराग, सूत्रकृताग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, दशवकालिक सूत्रादि को देखने का मुझे अवसर नहीं मिला। श्री वेचरदास जी ने, उन्ही सूत्रो मे से, स्वयं महावीर स्वामी के कहे श्लोको का उद्धरण और सदर्भण, प्रस्तुत अथ "महावीर-वाणी" में किया है। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ ] २५ सूत्रो, वा अध्यायो में, ३४५ प्राकृत श्लोकों, और उनके हिन्दी अनुवादो का संग्रह है। मुझको नही ज्ञात है, कि जैन वाङ्मय में इस प्रकार का कोई ग्रंथ, प्राचीन, हे वा नहीं। प्रायः न होगा; अन्यथा श्री बेचरदास जी को यह परिश्रम क्यो करना होता। बौद्ध वाङ्मय में, एक छोटा, पर बहुत उत्तम अंथ, “धम्म-पद" के नाम से, वैसा ही प्रसिद्ध है, जैसा वैदिक वाङ्मय मे "भगवद्गीता"; "धम्म-पद" भी स्वयं बुद्धोक्त पद्यो का संग्रह कहा जाता है। संभव है कि "महावीर-वाणी", जैन सम्प्रदाय मे प्राय. वही काम देने लगे, जो बौद्ध सम्प्रदाय में धम्मपद देता है। भेद इतना है कि, "महावीर-वाणी" के अधिकतर श्लोक, संसार की निन्दा करने वाले, वैराग्य जगाने वाले, यतिधर्म संन्यासधर्म सिखाने वाले हैं। गृहस्थोपयोगी उपदेश कम है, पर है। विनय सूत्राध्याय मे कितने ही उपदेश गृहस्थोपयोगी है। ___ मुझे यह देख कर विशेष आनन्द हुआ कि बहुतेरे श्लोक ऐसे है, जिनके समानार्थ श्लोक प्रामाणिक वैदिक और बौद्ध अथो में भी बहुतायत से मिलते है। प्रथम मगलाध्याय के बाद के ६ अध्यायों में पांच धर्मों की प्रशसा की है-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह। मनुस्मृति, बौद्ध पचशील, योग-सूत्र आदि, इन्ही पाँच का उपदेश करते है। ये, गृहस्थ श्रावक, उपासक के लिये भी, देशकाल-समय के (शर्त के) अवच्छेद के साथ, उपयोगी है। और यति, Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३ ] सन्यासी, भिक्षु, क्षपण, श्रमण के लिये भी अधिकाधिक मात्रा मे, उन अवच्छेदो को दिन दिन कम करते हुए, परमोपयोगी है। जब वह सर्वया समयो (शतों) से अनवच्छिन्न हो जाते है, तब "महावत" होकर सद्य. मोक्ष के हेतु होते है। अहिंस-सच्च च, अतेणग च, तत्तो य वम्भ, अपरिग्गह च, पडिवज्जिया पच महन्वयाणि, चरिन्ज धम्म जिणदेसिय विद्। -धम्मसुत्त, श्लोक २ ब्राह्मण मूत्राध्याय के भाव वैसे ही है, जैसे महाभारत के शातिपर्व में कहे हुए प्राय वीस श्लोको के है, जिनमें से प्रत्येक के अन्तिम शब्द यह है, "त देवा ब्राह्मण विदु."। धम्मपद में भी "ब्राह्मण वग्गों" में ऐसे ही भाव के श्लोक है। न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो, यम्हि सच्च च धम्मोच, सो सुची, सो च ब्राह्मणो। न चाहं ब्राह्मण धूमि योनिज मत्ति-सम्भव, अकिंचनमनादान, तमह ब्रूमि ब्राह्मण । (धम्मपद) "महावीर-वाणी' में कहा है, अलोलुप, मुहाजीवि अणगार अकिंचन , अससत्तं गिहत्येसु, त वयं वुम माहण । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४ ] कम्मुणा भणो होड, कम्मुणा होई खत्तियो, वइसो कम्मुणा होई, सुट्टो हवइ कम्मुणा। जैन आगम उत्तराध्ययन, अ० २५, गाथा २८-३२ कुछ लोगो को यह भ्राति होती है कि महावीर और बुद्ध ने वर्णव्यवस्था को तोड़ने का यत्न किया। ऐसा नहीं है। उन्होने तो उसको केवल सुधारने का ही यल किया है। महाभारत में पुनः पुन. स्पष्ट शब्दो में, वही बात कही है, जो महावीर ने कही है। न योनि पि सस्कारो, न श्रुतं न च सततिः, कारणानि द्विजत्वस्य; वृत्तमेव तु कारणम् । न विशेषोऽस्ति वर्णाना, सर्व ब्राह्ममिद जगत् ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि, कर्मभिर्वर्णतां गतम् । महावीर ने और वुद्ध ने, दोनो ने, “कर्मणा वर्ण." के सिद्धान्त पर ही जोर दिया। यही सिद्धान्त, उत्तम वर्ण-व्यवस्था का मुल मंत्र है। इसके न मानने से, इसके स्थान पर “जन्मना वर्ण." के अपसिद्धान्त की स्थापना कर देने से ही, भारतीय जनता की वर्तमान घोर दुर्दशा हो रही है। __ यह खेद का स्थान है कि जैन सम्प्रदाय में भी व्यवहारतः जिनोपदिष्ट सिद्धान्त का पालन नही होता; प्रत्युत उसके विरोधी अप-सिद्धान्त का अनुसरण हो रहा है। मैं आशा करता हूँ, कि Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५ ] "महावीर वाणी" के द्वारा, जैन सम्प्रदाय का ध्यान इस श्रीर आकृष्ट होगा, और सम्प्रदाय के माननीय विद्वान् यति जन, इस, महावीर के, समाज और गार्हस्थ्य के परमोपयोगी उपदेश, श्रादेश का जीर्णोद्वार अपने अनुयायियो के व्यवहार मे करावेगे । अन्त में, इतना ही कहना है कि में, प्रकृत्या, समन्वयवादी, सम्वादी, सादृश्यदर्शी, ऐक्यदर्शी हूँ, विरोधदर्शी, विवादी, वैदुश्यान्वेपी, भेदावलोकी नही हूँ। मेरा यही विश्वास है कि सभी लोकहितेच्छु महापुरुषो ने उन्ही उन्ही सत्यो, तथ्यो, कल्याण-मार्गो का उपदेश किया है, जीवन के पूर्वा में लोक-यात्रा के साधन के लिये, और परार्ध में परमार्थ - मोक्ष निर्वाण-नि श्रेयस के साधन के लिये; भारत में तो महपियो ने, महावीर स्वामी ने, बुद्ध देव ने, मुख्य मुख्य शब्द भी प्राय वही प्रयोग किये है। 'महावीर वाणी' के अन्तिम 'विवाद सूत्र' में, कई वादो की चर्चा कर दी है। और उपसहार बहुत अच्छे शब्दों में कर दिया है एवमेयाणि जम्पन्ता, वाला पडितमाणिणो, निययानियय सन्तं प्रयाणन्ता अवुद्धिया । अर्थात्, एवमेते हि जल्पन्ति वाला. पण्डितमानिन, नियताऽनियतं सन्तं अजानन्तो ह्यबुद्धय. ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] यही प्राशय उपनिषत् के वाक्य का है, अविद्यायामन्तरे वर्तमाना., स्वयधीरा. पण्डितम्मन्यमानाः, दन्द्रम्यमाणा परियन्ति मूढा, अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः । आज काल के पाडित्य मे, शब्द बहुत, अर्थ थोड़ा; विवाद बहुत, सम्वाद नहीं; अहमहमिका, विद्वत्ता-प्रदर्शनेच्छा बहुत, सज्ज्ञानेच्छा नही; द्वेष द्रोह बहुत, स्नेह प्रीति नही; असार-पलाल बहुत, सारधान्य नही; अविद्या-दुविद्या बहुत, सद्विद्या नहीं; शास्त्र का अर्थ, मल्लयुद्ध। प्राचीन महापुरुषो के वाक्यो मे, इसके विरुद्ध, सार, सज्जान, सद्भाव बहुत, असार और असत् नहीं। क्या किया जाय, मनुष्य की प्रकृति ही मे, अविद्या भी है, और विद्या भी; दु.ख भोगने पर ही वैराग्य और सद्बुद्धि का उदय होता है । __सा बुद्धिर्यदि पूर्व स्यात् क. पतेदेव बन्धने ? फिर फिर अविद्या का प्राबल्य होता है। वैमनस्य, अशाति, युद्ध, समाज की दुर्व्यवस्था बढती है; सत् पुरुषो महापुरुषो का कर्तव्य है कि प्राचीनो के सदुपदेशो का, पुन पुन जीर्णोद्धार और प्रचार करके, और सब की एकवाक्यता, समरसता, दिखा के, मानवसमाज में, सौमनस्य, शाति, तुष्टि, पुष्टि का प्रसार करें, जैसा महावीर और बुद्ध ने किया। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] जैन शास्त्र के प्रसिद्ध दो श्लोक, एक हिन्दी का और एक संस्कृत का, मैने बहुत वर्ष हुए, श्री शीतलप्रसाद जी ब्रह्मचारी (जैन) से सुने मुझे बहुत प्रिय लगे। कला वहत्तर पुरुष की, वा में दो सरदार, एक जीव की जीविका, एक जीव उद्धार । पालवो बन्वहेतु स्यान् मोक्षहेतुश्च सवर, इतीयम माईती मुष्टि सर्वमन्यत् प्रपञ्चनम् । वैशेषिक सूत्र है, यतोऽभ्युदय-नि श्रेयस-सिद्धिः स धर्मः। तथा वेदान्त का प्रसिद्ध श्लोक है, वन्वाय विपया सक्तं, मुक्त्यै निविषय मन., एतज् ज्ञान च मोक्षश्च, सर्वोऽन्यो ग्रन्थविस्तर.। समय समय के सम्प्रदायाचार्य, यदि ऐसे विरोध-परिहार पर, सम्वाद पर, अविक ध्यान दे और दिला, तो पृथ्वी पर स्वर्ग हो जाय । पर प्राय स्वयं महा "मानव"-अस्त होने के कारण, यतिभिक्षु-संन्यासी का रूप रखते हुए भी, भेद-बुद्धि, कलह, राग-द्वेष ही मनुष्यो में बढाते है। यहाँ तक कि स्वय महावीर और बुद्ध के जीवनकाल में ही, (यथा ईसा और मुहम्मद के जीवनकाल में ही), Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८ ] प्रत्येक के अनुयायियो मे भेद हो गये; और एक के अनुयायी क्षपणो और दूसरे के अनुयायी श्रमणो, मे मारपीट तक हुई, जिसका वर्णन क्षेमेन्द्र ने "अवदान-कल्पलता" काव्य मे किया है। और उन दोनो के निर्वाण के पश्चात् तो कितने ही भिन्न भिन्न 'पथ' प्रत्येक के अनुयायियो मे हो गये। मै आशा करता हूँ कि इन भेदो के मिटाने मे, और संवाद बढाने मे, यह महावीर-वाणी सहायता करेगी। काशीसौर १०-४-१९९७ वि० भगवानदास Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची १०५ ३ अहिंसा-सूत्र .. १२७ ५ अस्तेनक-सूत्र : E ब्रह्मचर्य-सूत्र : १४१ अध्याय विषय पृष्ठ अध्याय विषय १ मंगल सूत्र . ३ | १४ काम सूत्र .. ९ २ धर्मसूत्र .. ७/१५ अशरण-सूत्र | १६ वाल-सूत्र १११ ४ सत्य-सूत्र . २१ / १७ पण्डित-सूत्र : १२१ १८ आत्म-सूत्र १९ लोकतत्व-सूत्र . १३३ ७ अपरिग्रह-सूत्र .. | २० पूज्य-सूत्र ८ अरात्रिभोजन-सूत्र ४५ / २१ ब्राह्मण-सूत्र . १४७ ६ विनय-मूत्र . ४६२२ भिक्षु-सूत्र . १५३ १० चतुरगीय-मत्र . ५७/२३ मोक्षमार्ग-सूत्र .. १६१ ११-१ अप्रमाद-सूत्र .. ६५ / २४ विवाद-सूत्र १७१ ११-२ अप्रमाद-सूत्र .. ७३ | २५ क्षमापन-सूत्र . १५३ १२ प्रमादस्थान-सूत्र ८५ / २६ पारिभापिक शब्दो १३ कपाय-सूत्र .. ३ का अर्थ . १६५ Page #236 --------------------------------------------------------------------------  Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलसुत् नमोक्कारो अरिहंताणं । नमो सिद्धाणं। नमो आयरियाणं । नमो उवझाया। नमो लोए सव्वसाहूणं । एसो पंच नमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सॉस, पढम हवा मंगलं । मंगलं अरिहंता मंगल। सिद्धा मंगल। साहू मंगलं। फेवलिपन्नत्तो धम्मो मंगलं। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार अर्हन्तो को नमस्कार, सिद्धो को नमस्कार; प्राचार्यों को नमस्कार; उपाध्यायो को नमस्कार; लोक (ससार) में सब साघुप्रो को नमस्कार । -यह पंच नमस्कार समस्त पापो का नाश करनेवाला है, और सब मगलो में प्रथम (मुख्य) मंगल है। मङ्गल अर्हन्त मगल है। सिद्ध मगल हैं। साधु मगल है, केवली-प्ररूपित अर्थात् सर्वज्ञ-कथित धर्म मगल है। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी लोगुत्तमा अरिहंता लोगुत्तमा । सिद्धा लोगुत्तमा। साहू लोगुत्तमा। केवलिपन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो। सरणं अरिहते सरणं पवजामि। सिद्धे सरणं पवज्जामि। साहू सरणं पवज्जामि। केवलिपन्नत्तं धम्म सरणं पवज्जामि। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल-सूत्र लोकोतम अर्हन्त लोकोत्तम (ससार में श्रेष्ठ) है, सिद्ध लोकोत्तम है। साधु लोकोत्तम है, केवली-प्ररूपित धर्म लोकोत्तम है । शरण अहंन्तों की शरण स्वीकार करता हूँ। सिद्धी को शरण स्वीकार करता हूँ। साघुरो की शरण स्वीकार करता हूँ। केवली-प्ररूपित धर्म की शरण स्वीकार करता हूँ। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्म सुत् धम्मो मंगलमुक्किटु अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसन्ति जस्स घम्मे सया मणो ॥१॥ अहिंस सच्चं च अतेणगं च, तत्तो य वम्भं अपरिग्गहं च। पडिवज्जिया पच महन्वयाणि, चरिन्ज धम्म जिणदेसियं विदू ॥२॥ पाणे य नाइवाएज्जा, अविनं पि य नायए। साइयं न मुसं बूया, एस धम्मे घुसीमो ॥३॥ (४) जरामरणवेगेणं, वुझमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ॥४॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-सूत्र (१) धर्म सर्वश्रेष्ठ मगल है। (कौन-सा धर्म ) अहिंसा, सयम और तप । जिस मनुष्य का मन उक्त धर्म में सदा संलग्न रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते है। (२) अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन पांच महावतो को स्वीकार करके बुद्धिमान मनुष्य जिन-द्वारा उपदेश किये धर्म का आचरण करे। छोटे-बडे किसी भी प्राणी की हिंसा न करे, प्रदत्त (विना दी हुई वस्तु) न ले, विश्वासपाती असत्य न बोले-यह आत्मनिग्रही सत्पुरुषो का धर्म है। जरा और मरण के वेगवाले प्रवाह मे बहते हुए जीवो के लिए धर्म ही एकमात्र द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है, और उत्तम शरण है। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी श्रद्धाणं जो महन्तं तु, अप्पाहेओ पवज्जई । गच्छन्तो सो दुही होइ, छुहा-तण्हाए पीडियो ॥५॥ एवं घम्म अकाळणं, जो गच्छद परं भवं । गच्छन्तो सो वुही होद, बाहीरोहि पीडियो ॥६॥ (७) अखाणं जो महन्तं तु, सपाहेम्रो पवन्जई । गच्छन्तो सो सुही होइ, छुहा-तण्हा-विवन्जिमो ॥७॥ (८) एवं धम्म पि काऊणं, जो गच्छह परं भवं । गच्छन्तो सो सुही होइ, अप्पकम्मे प्रवेयणे ॥८॥ जहा सागडिओ जाणं, समं हिच्चा महापहं । विसमं मग्गमोइण्णो, अक्खे भग्गम्मि सोयई ॥६॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-सूत्र जो पथिक विना पायेय लिये वडे लवे मार्ग की यात्रा पर जाता है, वह आगे जाता हुआ भूख और प्यास से पीड़ित होकर प्रत्यत दुखी होता है। और जो मनुष्य विना धर्माचरण किये परलोक जाता है, वह वहाँ विविध प्रकार की प्राधि-व्याधियो से पीड़ित होकर अत्यंत दुखी होता है। __ जो पथिक बडे लवे मार्ग को यात्रा पर अपने साथ पायेय लेकर जाता है, वह आगे जाता हुमा भूख और प्यास से तनिक भी पीड़ित न होकर अत्यंत सुखी होता है। और जो मनुष्य यहाँ भलीभांति धर्म का पाराधन करके परलोक जाता है, वह वहाँ अल्पकर्मी तथा पीडारहित होकर अत्यंत सुखी होता है। (६) जिस प्रकार मूर्ख गाडीवान जान-बूझकर भी साफ सुथरे राजमार्ग को छोड़कर विपम (ऊँचे-नीचे, ऊवड-खावड़) मार्ग पर जाता है और गाड़ी की धुरी टूट जाने पर शोक करता है Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी (१०) एवं धम्म विउक्कम्म, महम्म पडिवज्जिया। बाले मच्चमुहं पत्ते, अक्खे भग्गेव सोयई ॥१०॥ जहा य तिनि वाणिया, मूलं घेत्तूण निग्गया। एगोऽत्य लहइ लाभ एगो मूलेण आगो ॥११॥ (१२) एगो मूलं पि हारिता, आगो तत्थ वाणियो। ववहारे उवमा एसा, एवं घम्मे बियाणह ॥१२॥ माणुसत्तं भवे मूलं, लाभो देवगई भवे । मूलच्छेएण जीवाणं, नरग-तिरिक्खतणं ध्रुव ॥१३॥ (१४) जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई। महम्मं कुणमाणस्स, अफला जन्ति राइमो ॥१४॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-सूत्र (१०) उसी प्रकार मूर्ख मनुष्य भी धर्म को छोडकर, अधर्म को ग्रहण कर, अन्त में मृत्यु के मुंह मे पडकर जीवन की धुरी टूट जाने पर शोक करता है। तीन वनिये कुछ पूंजी लेकर धन कमाने घर से निकले। उनमे से एक को लाभ हुआ; दूसरा अपनी मूल पूँजी ही ज्यो-कीत्यो वचा लाया (१२) तीसरा अपनी गांठ की पूंजी भी गाकर लौट आया। यह एक व्यावहारिक उपमा है, यही बात धर्म के सम्बन्ध में भी विचार लेनी चाहिए (१३) मनुष्यत्व मूल है अर्थात् मनुष्य से मनुष्य बननेवाला, मूल पूंजी को बचानेवाला है । देवजन्म पाना, लाभ उठाना है । और जो मनुष्य नरक तया तिर्यक् गति को प्राप्त होता है, वह अपनी मूल पूँजी को भी गवां देनेवाला मूर्ख है। (१४) जो रात और दिन एक वार अतीत की ओर चले जाते हैं, वे फिर कभी वापस नहीं पाते; जो मनुष्य अधर्म (पाप) करता है, उसके वे रात-दिन विल्कुल निष्फल जाते है। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ महावीर-वाणी जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई । धम्मं च फुणमाणस्स, सफला जन्ति राइनो ॥१५॥ ( १६) जरा जाव न पीड़ेइ, वाही जाव न वढइ । जाविदिया न हायंति, ताव धर्म समायरे ॥१६॥ (१७) मरिहिसि रायं ! जया तथा वा, मणोरमे कामगुणे विहाय । एक्को वि धम्मो नरदेव ! ताणं, न विज्जई अनमिहेह किंचि ॥१७॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-सूत्र जो रात और दिन एक बार अतीत की ओर चले जाते है, वे फिर कभी वापस नही आते; जो मनुष्य धर्म करता है, उसके वै रात और दिन सफल हो जाते है। जवतक वुढापा नहीं सताता, जबतक व्याधियां नही बढती, जवतक इन्द्रियाँ हीन (अशक्त) नहीं होती, तबतक धर्म का पाचरण कर लेना चाहिए-बाद में कुछ नहीं होने का। (१७) हे राजन् ! जब कभी इन मनोहर काम-भोगो को छोडकर आप परलोक के यात्री बनेंगे, तव एकमात्र धर्म ही आपकी रक्षा करेगा। है नरदेव । धर्म को छोडकर जगत् मे दूसरा कोई भी रक्षा करनेवाला नहीं। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा-सुत् ( १८) तथिमं पढनं ठाणं, महावीरेण देसियं । अहिंसा निउणा विट्ठा, सम्वभूएसु संजमो ॥१॥ ( १९ ) जावन्ति लोए पाणा, तसा अदुवा थावरा। ते जाणमजाणं वा, न हणे नो वि घायए ॥२॥ (२०) सय तिवायए पाणे, अदुवऽन्नेहि घायए। हणन्तं धाऽणुजाणाइ, धेरै बढइ अप्पणो ॥३॥ ( २१ ) जगनिस्सिएहिं भूहि, तसनामेहि थावरहि च । नो तेसिमारभे दंडं, मणसा वयसा कायसा चेव ॥४॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा-सूत्र ( १८ ) भगवान् महावीर ने अठारह धर्म-स्थानो मे सबसे पहला स्थान अहिंसा का बतलाया है। सब जीवों पर संयम रखना अहिंसा है; वह सब सुखो की देनेवाली मानी गई है। (१६) संसार में जितने भी अस और स्थावर प्राणी है, उन सब को-क्या जान में, क्या अनजान मे न खुद मारे और न दूसरो से मरवाये। (२०) जो मनुष्य प्राणियो की स्वय हिंसा करता है, दूसरो से हिंसा करवाता है और हिंसा करनेवालो का अनुमोदन करता है, वह ससार में अपने लिए वैर को ही वढाता है। (२१) संसार में रहनेवाले त्रस और स्थावर जीवो पर मन से, वचन से और शरीर से,—किसी भी तरह दण्ड का प्रयोग न करे। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी ( २२) सब्वे जीवा वि इच्छति, जीविउं न मरिज्जि। तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥५॥ अन्नत्यं सम्वनो सन्वं दिस्स, पाणे पियायए। न हणे पाणिणो पाणे, भयवेराम्रो उवरए ॥६॥ ( २४ ) पुढवी-जीवा पुढो सत्ता, पाउजीवा तहागणी। वाउजीवा पुढो सत्ता, तण-रुखा सवीयगा ॥७॥ ( २५ ) अहावरा तसा पाणा, एवं छक्काय पाहिया। एयावए जीवकाए, नावरे कोइ विज्जई ॥८॥ ( २६ ) सव्वाहि अणुजुत्तीहि, मईम पडिलेहिया। सब्वे अक्कन्तदुक्खा य, अन्नो सब्वे न हिंसया ॥en Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा-सूत्र (२२) सभी जीव जीना चाहते है, मरना कोई भी नहीं चाहता । इसीलिए निमुन्य (जैन मुनि), घोरप्राणि-वध कासर्वथापरित्याग करते है। (२३) भय और बैर से निवृत्त साधक, जीवन के प्रति मोह-ममता रखनेवाले सब प्राणियो को सर्वत्र अपनी ही आत्मा के समान जानकर उनकी कभी भी हिंसा न करे। (२४) पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और तृण, वृक्ष, वीज आदि वनस्पतिकाय-ये सब जीव अतिसूक्ष्म है, ऊपर से एक आकार के दिखने पर भी सव का पृथक्-पृथक् अस्तित्व है। (२५) उक्त पाँच स्थावरकाय के अतिरिक्त दूसरे त्रस प्राणी भी है। ये छहो पड्जीवनिकाय कहलाते है । जितने भी ससार में जीव है, सब इन्ही छह के अन्तर्गत है। इन के सिवाय और कोई जीव-निकाय नहीं है। (२६ ) बुद्धिमान मनुष्य उक्त छहो जीव-निकायो का सब प्रकार की युक्तियो से सम्यग्नान प्राप्त करे और 'सभी जीव दुःख से घबराते है-ऐसा जानकर उन्हें दुख न पहुँचाये । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी ( २७ ) एवं खु नाणिणो सारं, जं न हिसइ किंचण । अहिंसा-समयं चैव, एयावन्तं वियाणिया ॥१०॥ ( २८ ) संबुन्भमाणे उ नरे मईम, पावाउ अप्पाणं निवट्टएज्जा । हिंसप्पसूयाई बुहाई मत्ता, वेरानुबन्धीणि महन्मयाणि ॥११॥ (२६) समया सन्वभूएसु, सत्तु-मित्तेषु वा जगे। पाणाइवायविरई, जावजीवाए दुक्करं ॥१२॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा-सूत्र (२७ ) जानी होने का सार ही यह है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। 'अहिंसा का सिद्धात ही सर्वोपरि है-मात्र इतना ही विज्ञान है। सम्यग् बोध को जिसने प्राप्त कर लिया ऐसा बुद्धिमान मनुष्य हिंसा से उत्पन्न होनेवाले वैर-वर्द्धक एवं महाभयकर दुखो को जानकर अपने को पापकर्म से बचाये। (२६) संसार में प्रत्येक प्राणी के प्रति-फिर भले ही वह शत्रु हो या मित्र--समभाव रखना, तथा जीवन-पर्यन्त छोटी-मोटी सभी प्रकार की हिंसा का त्याग करना-वास्तव में बड़ा ही दुष्कर है । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्च-सुत्तं ( ३० ) निच्चकालऽप्पमत्तेणं, मुसावायविवज्जणं । भासियत्वं हियं सच्चं, निच्चाऽउत्तेण दुक्करं ॥१॥ (३१) अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया । हिंसगं न मुसं बूया, नो वि अन्नं वयावए ॥२॥ ( ३२) मुसावाओ य लोगम्मि, सव्वसाहूहि गरहियो । अविस्सासो य भूयाणं, तम्हा मोसं विवज्जए ॥३॥ न लवेज्ज पुढो सावज्ज, न निरटुं न मम्मयं । अप्पणट्ठा परद्धा वा, उभयस्सन्तरेण वा ॥४॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४ : सत्य-सूत्र ( ३० ) सदा श्रप्रमादी और सावधान रहकर, असत्य को त्याग कर, हितकारी सत्य वचन ही बोलना चाहिए। इस तरह सत्य बोलना बड़ा कठिन होता है । ( ३१ ) अपने स्वार्थ के लिए अथवा दूमरो के लिए, क्रोव से अथवा भय से ―― किसी भी प्रसंग पर दूसरो को पीडा पहुँचानेवाला असत्य वचन न तो स्वय बोले, न दूसरो से बुलवाये । ( ३२ ) मृपाबाद (असत्य) ससार में सभी सत्पुरुपो द्वारा निन्दित ठहराया गया है और सभी प्राणियो को श्रविश्वसनीय है; इसलिए मृपावाद सर्वथा छोड देना चाहिए । ( ३३ ) अपने स्वार्थ के लिए, अथवा दूसरो के लिए, दोनो में से किसी के भी लिए, पूछने पर पापयुक्त, निरर्थक एव मर्मभेदक वचन नही बोलना चाहिए । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी ( ३४ ) तहेब सावज्जऽणुमोयणी गिरा, पोहारिणी जा य परोवघायणी । से कोह लोह भय हास माणवो, न हासमाणो वि गिरं वएज्जा ५॥ ( ३५ ) विटु मियं असंविखं, पडिपुण्णं वियं जियं । अयंपिरमणुविग्गं, भासं निसिर प्रतवं ॥६॥ भासाए दोसे य गुणे य जाणिया, तोसे य दुटे परिवज्जए सया। छसु संजए सामणिए सया जए, वएज्ज बुद्ध हियमाणुलोमियं ॥७॥ ( ३७ ) सयं समेच्च अदुवा वि सोच्चा, भासेज्ज धम्मं हिययं पयाणं । जे गरहिया सणियाणप्पोगा, न ताणि सेवन्ति सुधीरधम्मा ॥८॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य-सूत्र (३४) श्रेष्ठ साघु पापकारी, निश्चयकारी और दूसरो को दुख पहुँचानेवाली वाणी न बोले। श्रेष्ठ मानव इसी तरह क्रोध, लोभ, भय और हास्य से भी पापकारी वाणी न बोले। हंसते हुए भी पाप वचन नहीं बोलना चाहिए । (३५) आत्मार्थी सायक को दृष्ट (सत्य), परिमित, असदिग्ध, परिपूर्ण, स्पष्ट, अनुभूत, वाचालता-रहित, और किसी को भी उद्विग्न न करनेवाली वाणी बोलनी चाहिए । भापा के गुण तथा दोपो को भली भांति जानकर दूषित भाषा को सदा के लिए छोड देनेवाला, षट्काय जीवो पर सयत रहनेवाला, तथा साधुत्व-पालन में सदा तत्पर बुद्धिमान साधक एकमात्र हितकारी मधुर भाषा बोले । (३७) श्रेष्ठ धीर पुरुष स्वयं जानकर अथवा गुरुजनो से सुनकर प्रजा का हित करनेवाले धर्म का उपदेश करे। जो आचरण निन्ध हो, निदानवाले हो, उनका कभी सेवन न करे । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ महावीर-वाणी ( ३८) सवक्कसुद्धि समुपेहिया मुणी, गिरं च दुटुं परिवज्जए सया। मियं अदुटु अणुवीइ भासए, सयाण मज्झे लहई पसंसणं ॥६॥ ( ३९) तहेव काणं काणे ति, पंडगं पंडगे ति वा। वाहियं वा वि रोगि त्ति, तेणं चोरे ति नो वए ॥१०॥ (४०) वितहं वि तहामुत्ति, जं गिरं भासए नरो। तम्हा सो पुष्टो पावणं, किं पुण जो मुसं वए ॥११॥ (४१) तहेब फरसा भासा, गुरुभूमोवघाइणी । सच्चा वि सान बत्तन्वा, जो पावस भागमो ॥१२॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य-सूत्र (३८) विचारवान मुनि को वचनशुद्धि का भली भांति ज्ञान प्राप्त करके दूपित वाणी सदा के लिए छोड़ देनी चाहिए और खूब सोच-विचार कर बहुत परिमित और निर्दोप वचन वोलना चाहिए। इस तरह बोलने से सत्पुरुषो में महान् प्रगसा प्राप्त होती है। (३६) काने को काना, नपुसक को नपुसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर कहना यद्यपि सत्य है, फिर भी ऐसा नही कहना चाहिए। (क्योकि इसमे उन व्यक्तियों को दुख पहुंचता है।) (४०) जो मनुष्य भूल से भी मूलतः असत्य, किंतु ऊपर से सत्य मालूम होनेवाली भाषा बोल उठता है, जब कि वह भी पाप से अछूता नहीं रहता, तब भला जो जान-बूझकर असत्य बोलता है, उसके पाप का तो कहना ही क्या? (४१) जो भापा कठोर हो, दूसरो को दुख पहुंचानेवाली हो-बह सत्य भी क्यो न हो-नही वोलनी चाहिए। क्योकि उससे पाप का पासव होता है। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :५: अतेणग-सुतं ( ४२ ) चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं । वंतसोहणमित्तं पि, उग्गहं से अनाइया ॥१॥ ( ४३ ) तं अप्पणा न गिळंति, नो वि गिण्हावए परं। अन्नं वा गिण्हमाणं पि, नाणुजाणति संजया ॥२॥ (४४) उड्ढं अहे य तिरियं दिसासु, तसा य ने थावर जे य पाणा। हत्यहि पाहि य संजमित्ता, अविनमानेसु य नो गहेज्जा ॥३॥ तिब्बं तसे पाणिणो थावरे य, ' ने हिसति प्रायसुहं पडुच्च । ने लूसए होइ प्रदत्तहारी, ण सिक्खई सेवियस्स किंचि ॥४॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५: अस्तेनक-सूत्र ( ४२-४३ ) सचेतन पदार्थ हो या अचेतन, अल्पमूल्य पदार्थ हो या बहुमूल्य, और तो क्या, दाँत कुरेदने की सीक भी जिस गृहस्य के अधिकार में हो उसकी आज्ञा लिये विना पूर्णसयमी साधक न तो स्वय ग्रहण करते है, न दूसरो को ग्रहण करने के लिए प्रेरित करते है, और न ग्रहण करनेवालो का अनुमोदन ही करते है। (४४) ऊंची, नीची, और तिरछी दिशा मे जहाँ कही भी जो अस और स्थावर प्राणी हो उन्हें अपने हाथो से, पैरो से, किसी भी प्रग से पीड़ा नहीं पहुंचानी चाहिए। और दूसरो की विना दी हुई वस्तु भी चोरी से ग्रहण नहीं करनी चाहिए। (४५ ) जो मनुष्य अपने सुख के लिए त्रस तथा स्थावर प्राणियो की क्रूरतापूर्वक हिंसा करता है उन्हे अनेक तरह से कष्ट पहुंचाता है, जो दूसरो की चोरी करता है, जो आदरणीय व्रतो का कुछ भी पालन नहीं करता, (वह भयकर क्लेश उठाता है)। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी (४६) धन्तसोहणमाइस्स, प्रदत्तस्स विवजणं । अणवजेसणिज्जस्सा गिण्हणा अवि दुक्करं ॥५॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तेनक-सूत्र २९ ( ४६ ) दांत कुरेदने की सीक आदि तुच्छ वस्तुएँ भी विना दिये चोरी से न लेना, (बड़ी चीजो को चोरी से लेने की तो बात ही क्या ?) निर्दोष एवं एपणीय भोजन-पान भी दाता के यहाँ से दिया हुआ लेना, यह बडी दुष्कर बात है। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभचरिय-सुतं (४७) विरई अवंभचेरस्त, कामभोगरसनणा। उगं महन्वयं बभ, धारेयध्वं सुदुक्करं ॥१॥ (४८) प्रबंभचरियं घोरं, पमायं दुरहिटियं । नाऽऽयरन्ति मुणी लोए, भेयाययणज्जिणी ॥२॥ (४९) मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं । तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गंथा वन्जयन्ति गं ॥३॥ (५०) विभूसा इत्यिसंसग्गो, पणीयं रसभोयणे । नरस्सऽतगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥४॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य-सूत्र ( ४७ ) काम-भोगो का रस जान लेनेवाले के लिए अब्रह्मचर्य से विरक्त होना और उग्न ब्रह्मचर्य महावत का धारण करना, वडा ही कठिन कार्य है। जो मुनि सयम-घातक दोपो से दूर रहते है, वे लोक में रहते हुए भी दुसेव्य, प्रमाद-स्वरूप और भयकर अब्रह्मचर्य का कभी सेवन नहीं करते। (४६) यह अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है, महादोषो का स्थान है, इसलिए निग्रन्थ मुनि मैथुन-ससर्ग का सर्वथा परित्याग करते है। (५०) आत्म-शोधक मनुष्य के लिए शरीर का शृगार, स्त्रियो का ससर्ग और पौष्टिक स्वादिष्ट भोजन-सव तालपुट विष के समान महान् भयंकर है। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीरवाणी न रूबलावण्णविलासहासं न जंपियं इंगिय-पहियं वा। इत्योण चित्तसि निवेसइत्ता, घट्ट ववस्से समणे तवस्सी ॥५॥ (५२) प्रदसणं चैव अपत्यणं च, अचिंतणं चेव अकित्तणं च। इत्यीजणसाऽरियज्माणजुग्गं, हियं सया बंभवए रयाणं ॥६॥ ( ५३ ) मणपल्हायजणणी, कामरागविवडणी। वंभचेररमओ भिक्खू, थोकहं तु विवज्जए ॥७॥ (५४) समं च संथवं थीहि, संकहं च अभिक्खणं । बंभचररमो भिक्खू, निच्चसो परिवज्जए ॥३॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य-सूत्र ( ५१ ) अमण तपस्वी स्त्रियो के रूप, लावण्य, विलास, हास्य, मधुर वचन, काम-चेप्टा और कटाक्ष आदि का मन में तनिक भी विचार न लाये, और न इन्हें देखने का कभी प्रयत्न करे। (५२ ) स्त्रियों को रागपूर्वक देसना, उनकी अभिलापा करना, उनका चिन्तन करना, उनका कीर्तन करना, आदि कार्य ब्रह्मचारी पुरुष को कदापि नहीं करने चाहिएँ । ब्रह्मचर्य व्रत में सदा रत रहने की इच्छा रखनेवाले पुरुषो के लिए यह नियम अत्यत हितकर है, और उत्तम ध्यान प्राप्त करने में सहायक है। ब्रह्मचर्य मे अनुरक्त भिक्षु को मन में वैपयिक आनन्द पैदा करनेवाली तथा काम-भोग की आसक्ति बढानेवाली स्त्री-कया को छोट देना चाहिए। (५४) ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु को स्त्रियो के साथ बातचीत करना और उनसे बार-बार परिचय प्राप्त करना सदा के लिए छोड देना चाहिए। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी ( ५५ ) अंगपच्चंगसंगणं, चारल्लविय-पहियं । बंभचेररम्रो थीणं, चक्खुगिज्झ विवज्जए ॥६॥ ( ५६ ) कूइयं सहयं गीयं, हसियं थणियकन्दियं । बंभचेररमो थीणं, सोयगिझ विवज्जए ॥१०॥ ( ५७ ) हासं किहुं रई दप्पं, सहस्साऽवत्तासियाणि य । बंभचेररमो थीणं, नाणुचिन्ते कयाइ वि ॥११॥ (५८) पणियं भतपाणं तु खिप्पं मयविवडणं । बंभचेररो भिक्खू, निच्चसो परिवज्जए ॥१२॥ (५६) धम्मलद्धं मियं काले, नत्तत्यं पणिहाणवं । नाइमत्तं तु भुजेज्जा, बंभचेररमो सया ॥१३॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य-सूत्र ३५ ( ५५ ) ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु को न तो स्त्रियो के प्रग-प्रत्यगो की सुन्दर प्राकृति की ओर ध्यान देना चाहिए, और न आँखो मे विकार पैदा करनेवाले हावभावो और स्नेह-भरे मीठे वचनो को ही और। (५६ ) ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु को स्त्रियो का कूजन (बोलना),रोदन, गीत, हाम्य, नीत्कार और करुण क्रन्दन-जिनके सुनने पर विकार पैदा होते है सुनना छोड देना चाहिए। (५७) ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु स्त्रियो के पूर्वानुभूत हास्य, क्रीडा, रति, दर्प, सहसा-वित्रासन आदि कार्यों को कभी भी स्मरण न करे। (५८) ब्रह्मचर्य-रत भिक्षुको शीघ्र ही वासना-वर्धक पुष्टिकारी भोजनपान का सदा के लिए परित्याग कर देना चाहिए। (५६) ब्रह्मचर्य-रत स्थिरचित्त भिक्षु को सयम-यात्रा के निर्वाह के ' लिए हमेशा धर्मानुकूल विधि से प्राप्त परिमित भोजन ही करना चाहिए। कैसी ही भूख क्यो न लगी हो, लालसावश अधिकमात्रा में कभी भी भोजन नहीं करना चाहिए। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर वाणी (६०) जहा दवग्गी पारिन्धणे वणे, समानो नोवसमं उवेइ । एविन्चियग्गी वि पगामभोइणो, न बंभयारिस्स हियाय कस्सई ॥१४॥ ( ६१ ) विभूसं परिवज्जेज्जा, सरीरपरिमंडणं । बंभचेररमो भिक्खू, सिंगारत्यं न धारए ॥१५॥ (६२) सद्दे स्वे य गन्धे य, रसे फासे तहेव य । पंचविहे कामगुणे, निच्चसो परिवज्जए ॥१६॥ दुज्जए कामभोगे य, निच्चसो परिवन्जए। संकट्ठाणाणि सव्वाणि, पन्जेज्जा पणिहाणवं ॥१७॥ कामाणुगिद्धिप्पभवं खु तुक्ल, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स । जं फाइयं माणसियं च किंचि, तस्सऽन्तर्ग गच्छइ वीयरागो ॥१८॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य-सूत्र (६०) जैसे बहुत ज्यादा इंधनवाले जगल में पवन से उत्तेजित दावाग्नि शान्त नहीं होती, उसी तरह मर्यादा से अधिक भोजन करनेवाले ब्रह्मचारी की इन्द्रियाग्नि भी शान्त नहीं होती। अधिक भोजन किसी को भी हितकर नहीं होता। ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु को शरीर की गोमा और टीप-टाप का कोई भी शृगार-सम्बन्धी काम नहीं करना चाहिए। ब्रह्मचारी भिक्षु को गब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श-इन पांच प्रकार के काम-गुणो को सदा के लिए छोड़ देना चाहिए । स्थिरचित्त भिक्षु, दुर्जय काम-भोगो को हमेशा के लिए छोड दे । इतना ही नहीं, जिनसे ब्रह्मचर्य में तनिक भी क्षति पहुंचने की सभावना हो, उन सब का-स्थानो का भी उसे परित्याग कर देना चाहिए। देवतामो-सहित समस्त ससार के दुख का मूल एकमात्र काम-भोगो की वासना ही है । जो साधक इस सम्बन्ध में वीतराग हो जाता है, वह शारीरिक तथा मानसिक सभी प्रकार के दुखों से छट जाता है। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ महावीर-वाणी ( ६५ ) देवदाणवगन्धब्वा, जक्खरक्खसकिन्नरा। बंभयारि नमंसन्ति, दुक्करं जे फरेन्ति ते ॥१९॥ ( ६ ) एस धम्मे धुवे निच्चे, सासए जिणदेसिए । सिद्धा सिन्झन्ति चाणेणं, सिन्झिस्सन्ति सहापरे ॥२०॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य-सूत्र (६५) जो मनुष्य इस भौति दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसे देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किनर प्रावि सब नमस्कार करते है। यह ब्रह्मचर्य धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और जिनोपदिष्ट है। इसके द्वारा पूर्वकाल में कितने ही जीव सिद्ध हो गये है, वर्तमान में हो रहे हैं, और भविष्य में होगे। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्परिग्गह-सुत्तं ( ६७ ) न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा । मुच्छा परिगहो चुत्तो, इइ वृत्तं महेसिणा ॥१॥ (६८) घण-धान्न पेसवग्गेसु, परिग्गहविवज्जणं । सवारंम-परिच्चाओ, निम्ममतं सुदुक्करं ॥२॥ (६९) विडमन्भेइमं लोणं, तेल्ल सपि च फाणियं । न ते सन्निहिमिच्छन्ति, नायपुत्त-वोरया ॥३॥ (७०) 5 पि वत्यं च पायं वा, कंबलं पायपुंछणं । तं पि संजमलन्जट्टा, धारेन्ति परिहरन्ति य ॥४॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह-सूत्र ( ७) प्राणिमात्र के सरक्षक नातपुत्र (भगवान् महावीर) ने कुछ वस्त्र आदि स्थूल पदार्यों को परिग्रह नही बतलाया है। वास्तविक परिग्रह तो उन्होने किसी भी पदार्थ पर मूर्छा का श्रासक्ति का रसना वतलाया है। पूर्णसयमी को धन-धान्य और नौकर-चाकर आदि सभी प्रकार के परिग्रहो का त्याग करना होता है। समस्त पापकर्मों का परित्याग करके नर्वथा निर्ममत्व होना तो और भी कठिन वात है। जो सयमी जातपुत्र (भगवान् महावीर) के प्रवचनो में रत है, वे विड और उद्भेद्य आदि नमक तथा तेल, घी, गुड आदि किसी भी वस्तु के सग्रह करने का मन मे संकल्प तक नहीं लाते। (७०) परिग्रह विरक्त मुनि जो भी वस्त्र, पान, कम्बल, और रजोहरण आदि वस्तुएं रसते है, वे सब एकमात्र संयम की रक्षा के लिए ही रसते है-काम में लाते है। (इनके रखने में किसी प्रकार की आसक्ति का भाव नहीं है।) Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी (७१) सब्वत्युवहिणा वृद्धा, संरक्षण-परिग्गहे। प्रवि अप्पणो वि वेहम्मि, नायरन्ति ममाइयं ॥५॥ (७२) लोहस्सेस अणुप्फासो, भन्ने अन्नयरामवि। ने सिया सग्निहीकामे गिही, पब्वइए न से ॥६॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह-सूत्र (७१) ज्ञानी पुरुप, सयम-साधक उपकरणो के लेने और रखने में कही भी किसी भी प्रकार का ममत्व नहीं करते। और तो क्या, अपने गरीर तक पर भी ममता नहीं रखते। (७२) सग्रह करना, यह अन्दर रहनेवाले लोम की झलक है। अतएव में मानता हूँ कि जो साधु मर्यादा-विरुद्ध कुछ भी सग्रह करना चाहता है, वह गृहस्य है-साधु नहीं है। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 5: राइभोयण-सुतं ( ७३ ) प्रत्यंगयंमि श्रइच्चे, पुरत्या य अणुग्गए । श्राहारमाइयं सव्वं, मणसा वि न पत्यए ॥१॥ ( ७४ ) सन्तिमे सुहुमा पाणा, तसा अदुव थावरा । जाई राम्रो प्रपासंतो, कहमेसणियं चरे ॥२॥ ( ७५ ) जवउल्लं वीयसंसतं, पाणा निव्वड़िया महि | दिया ताई विवज्जेज्जा, राम्रो तत्य कहं चरे ॥३॥ ( ७६ ) एवं च दोसं बहूणं, नायपुत्तेण भासियं । सव्वाहारं न भुंजंति, निग्गंथा राइभोयणं ॥४॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : : अरात्रि-भोजन-सूत्र (७३) मूर्य के उदय होने से पहले और सूर्य के अस्त हो जाने के वाद निर्ग्रन्य मुनि को सभी प्रकार के भोजन-पान आदि की मन से भी इच्या नहीं करनी चाहिए। (७४) मनार में बहुत से अस और स्थावर प्राणी वड़े ही सूक्ष्म होते है वे रात्रि में देने नहीं जा सकते । तो रात्रि में भोजन कैसे फिया जा सकता है? ( ७५ ) जमीन पर कही पानी पडा होता है, कही वीज विखरे होते है, और कहीपर सूक्ष्म कोडे-मकोडे आदि जीव होते है। दिन में तो उन्हें देख-भालकर बचाया जा सकता है, परन्तु रात्रि मे उनको बचाकर भोजन कैसे किया जा सकता है ? इस मांति सव दोपो को देखकर ही ज्ञातपुष ने कहा है कि निर्ग्रन्य मुनि, रात्रि में किसी भी प्रकार का भोजन न करे। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी (७७) चउबिहे वि आहारे, राईभोयण वन्जणा । सन्निही-संचयो चेक, बज्जेयन्बो सुदुक्करं ॥५॥ (७८) पाणिवह-मुसावाया-दत्त-मेहुण-परिग्गहा विरो। राइभोयणविरो, जीवो भवइ प्रणासवो ॥६॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरात्रि भोजन-सूत्र ( ७७ ) अन्न आदि चारी ही प्रकार के आहार का रात्रि में सेवन नहीं करना चाहिए। इतना ही नहीं, दूसरे दिन के लिए भी रात्रि में खाद्य सामग्री का संग्रह करना निपिद्ध है। अत अरात्रिभोजन वास्तव में बडा दुप्फर है। ( ७८ ) हिंसा, भूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह और रात्रि-भोजन-जो जीव इनसे विरत (पृथक्) रहता है, वह 'अनासव' (प्रात्मा में पापकर्म के प्रविष्ट होने के द्वार प्रान्नव कहलाते है, उनसे रहित, अनासव) हो जाता है। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विणय-सुत्तं (७६) मूलानो बंधप्पभवो दुमस्स, संघाउ पच्छा समुन्ति साहा। साहा-प्पसाहा विरहन्ति पत्ता, तो य से पुष्पं फलं रसो य ॥१॥ (८०) एवं धम्मस्स विणो, मूलं परमो से मोक्खो। जेण कित्ति सुयं सिग्छ, निस्सेसं चाभिगच्छइ ॥२॥ (५१) अह पंचहि गणेहि, हि सिक्खा न लब्भइ । थम्भा कोहा पमाएणं, रोगेणा लस्सएण य ॥२॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय-सूत्र (७६) वृक्ष के मूल से सबसे पहले स्कन्ध पैदा होता है, स्कन्ध के बाद शाखाएँ और शाखाओ से दूसरी छोटी-छोटी शाखाएं निकलती हैं। छोटी शाखाओ से पत्ते पैदा होते है। इसके बाद क्रमश. फूल, फल और रस उत्पन्न होते है। (८०) इसी भांति धर्म का मूल विनय है और मोक्ष उसका अन्तिम रस है। विनय के द्वारा ही मनुष्य बडी जल्दी शास्त्र-ज्ञान तथा कीर्ति सपादन करता है। अन्त मे, निश्रेयस (मोक्ष) भी इसीके द्वारा प्राप्त होता है। (६१) इन पांच कारणो से मनुष्य सच्ची शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता अभिमान से, क्रोध से, प्रमाद से, कुष्ठ आदि रोग से, और पालस्य से। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी ( ५२-५३ ) अह अहिं गणेह, सिक्खासीलि त्ति वृच्चइ । अहस्सिरे सयादन्ते, न य मम्ममुदाहरे ॥४॥ नासीले न विसीले, न सिया अइलोलुए। अकोहणे सच्चरए, सिक्खासीलि ति वुच्चइ ॥२॥ ( ४) प्राणानिद्देसकरे,- गुरुणमुववायकारए। इंगियागारसंपन्ने, से विणीए ति बुच्चइ ॥६॥ (८५-८८) अह पन्नरसहि ठाणेहि, सुविणीए ति बुच्चइ । नीयावि ती अचवले, अमाई अकुऊहले ॥७॥ अप्पं च अहिक्खिवई, पबन्धं च न कुवई । मेत्तिज्जमाणो भवइ, सुयं लद्धं न मज्जइ ॥८॥ न य पावपरिक्खेवी, न य मित्तेसु कुप्पह । अप्पियस्साऽविमित्तस्स, रहे कल्लाण भासइ nu कलहडमरवज्जिए, बुद्ध अभिनाइए। हिरिमं पडिसंलोणे, सुविणीए ति बुच्चइ ॥१०॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय-सूत्र (८२-८३ ) इन आठ कारणो से मनुष्य शिक्षाशील कहलाता है हर समय हंसनेवाला न हो, सतत इन्द्रिय-निग्रही हो, दूसरो के मर्म को भेदन करनेवाले वचन न बोलता हो, सुशील हो, दुराचारी न हो, रसलोलुप न हो, सत्य मे रत हो, क्रोधी न होशान्त हो। (६४) जो गुरु की आज्ञा पालता है, उनके पास रहता है, उनके इगितो तथा प्राकारो को जानता है, वही शिष्य विनीत कहलाता है। (८५-८८ ) नीचे के पन्द्रह कारणो से वुद्धिमान मनुष्य सुविनीत कहलाता है उद्धत न हो-नम्र हो, चपल न हो-स्थिर हो; मायावी न हो-सरल हो; कुतूहली न हो-गंभीर हो, किसीका तिरस्कार न करता हो, क्रोध को अधिक समय तक न रखता हो-शीघ्र ही शान्त हो जाता हो, अपने से मित्रता का व्यवहार रखनेवालो के प्रति पूरा सद्भाव रखता हो; शास्त्रो के अध्ययन का गर्व न करता हो, किसीके दोपो का भडाफोड़ न करता हो; मित्रो पर क्रोधित न होता हो; अप्रिय मित्र की भी पीठ-पीछे भलाई ही करता हो, किसी प्रकार का झगडा-फसाद न करता हो बुद्धिमान हो, अभिजात अर्थात् कुलीन हो, लज्जाशील हो, एकान हो। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी (९) प्राणाऽनिद्देसकर, गुरुणमणुववायकारए। पडिणीए असंबुद्धे, अविणीए ति बुच्चइ ॥११॥ ( ६०-९२) अभिक्खणं कोही हवइ, पबन्धं च पकुवई । मेतिज्जमाणो धमइ, सुयं लभ्रूण मन्जई ॥१२॥ अवि पावपरिक्खेबी, अवि मित्तेसु कुप्पइ । सुप्पियस्साऽवि मित्तस्स, रहे भासइ पावगं ॥१३॥ पइण्णवादी दुहिले, यद्धे लुद्धे अणिग्गहे । असंविभागी अचियत्ते, अविणीए ति बुच्चइ ॥१४॥ (६३) जस्सन्तिए धम्मपयाई सिक्वे, तस्सन्तिए वेणइयं पउने । सक्कारए सिरसा पंजलीमो, काय-गिरा भो ! मणसा य निच्च ॥१५॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय-सूत्र ( ८६) जो गुरु की आज्ञा का पालन नहीं करता, जो उनके पास नही रहता, जो उनसे शत्रुता का वर्ताव रखता है, जो विवेकशून्य है, उसे अविनीत कहते है। (९०-९२) जो वारवार क्रोध करता है, जिसका क्रोष शीघ्र ही शान्त नहीं होता, जो मित्रता रखनेवालो का भी तिरस्कार करता है, जो शास्त्र पढकर गर्व करता है, जो दूसरो के दोपो को ही उखेड़ता रहता है; जो अपने मित्रो पर भी क्रुद्ध हो जाता है, जो अपने प्यारे-से-प्यारे मित्र की भी पीट-पीछे बुराई करता है, जो मनमाना वोल उठता है-चकवादी है, जो स्नेही जनो से भी द्रोह रखता है, जो अहकारी है; जो लोभी है, जो इन्द्रियनिग्रही नहीं, जो सबको अप्रिय है, वह अविनीत कहलाता है। (६३) शिष्य का कर्तव्य है कि जिस गुरु से धर्म-प्रवचन सीखे, उसकी निरन्तर विनय-भक्ति करे। मस्तक पर अजलि चढाकर गुरु के प्रति सम्मान प्रदर्शित करे। जिस तरह भी हो सके उसी तरह मन से, वचन से और शरीर से हमेशा गुरु की सेवा करे। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ महावीर-वाणी ( ४ ) थंभा व कोहा व मयप्पमाया, गुस्स्सगासे विणयं न सिक्खे । सो चेव उ तस्स अभूइभावो, ___ फलं व कीयस्स वहाय होइ ॥१६॥ (६५) विवत्ती अविणीयस्स, संपत्ती विणीयस्स य। जस्सेयं दुहम्रो नायं, सिक्खं से अभिगच्छह ॥१७॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय-सूत्र (६४) जो शिष्य अभिमान, क्रोध, मद या प्रमाद के कारण गुरु की विनय (भक्ति) नहीं करता, वह इससे अभूति अर्थात् पतन को प्राप्त होता है । जैसे बांस का फल उसके ही नाश के लिए होता है, उसी प्रकार अविनीत का ज्ञानवल भी उसीका सर्वनाश करता है। (९५) 'अविनीत को विपत्ति प्राप्त होती है, और विनीत को सम्पत्ति' -ये दो वातें जिसने जान ली है, वही शिक्षा प्राप्त कर सकता है। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १०: चाउरंगिन्ज-सुत्तं (६६) चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जन्तुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य बीरियं ॥१॥ (६७) समाधनाण संसार, नाणागोत्तासु लाइसु । कम्मा नाणाविहा कट्ट, पुढो विस्संभिया पया ॥२॥ ( ६ ) एगया देवलोएसु, नरएसु वि एगया। एगया प्रारं काय, आहाकम्मेहि गच्छइ ॥३॥ (६९) एगया खत्तिो होइ, तमो चंडाल-बुक्कसो । तमो कीड-पयंगो य, तमो फुन्थ-पिवीलिया ॥४॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरङ्गीय-सूत्र (६) ___ ससार में जीवो को इन चार श्रेष्ठ अङ्गो (जीवन-विकास के सावन) का प्राप्त होना बहा दुर्लभ हैमनुष्यत्व, धर्मश्रवण, श्रद्धा और सयम मे पुरुषार्य। ( ९७ ) संसार की मोह-माया में फंसी हुई मूर्ख प्रजा अनेक प्रकार के पापकर्म करके अनेक गोत्रोवाली जातियों में जन्म लेती है। सारा विश्व इन जातियो से भरा हुआ है। (8 ) जीव कमी देवलोक में, कभी नरफलोक में, और कभी असुरलोक में जाता है। जैसे भी कर्म होते है, वही पहुंच जाता है। (6) कभी तो वह क्षत्रिय होता है और कभी चाण्डाल, कभी वर्णसकर--बुक्कस, कभी कीड़ा, कभी पतंग, कभी कुयुमा, तो कभी चीटी होता है। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ महावीर-वाणी ( १००) एवमावट्टलोणीसु पाणिणो कम्मकिन्विसा। न निविज्जन्ति संसारे, सबढेसु व खत्तिया ॥५॥ ( १०१) कम्मसंहि सम्मूढा, दुक्खिया बहुवेयणा । प्रमाणुसासु जोणीसु, विणिहम्मन्ति पाणिणो ॥६॥ ( १०२ ) कम्माणं तु पहाणाए, आणुपुन्वी कयाइ उ। जीवा सोहिमणुप्पत्ता, प्राययन्ति मणुस्सयं ॥७॥ ( १०३ ) माणुस्सं विग्गहं लद्ध, सुई धम्मस्स दुल्लहा। जं सोच्चा पडिवजन्ति, तवं खन्तिमहिंसयं ॥६॥ ( १०४ ) पाहच्च सवणं ल , सखा परमदुल्लहा । सोच्चा नेयाउयं मग्ग, बहवे परिभस्सई ॥॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरनीय-सूत्र (१०० ) पापकर्म करनेवाले प्राणी इस भांति हमेशा बदलती रहनेवाली योनियों में वारवार पैदा होते रहते है, कितु इमदुसपूर्ण ससार से कभी पिन्न नहीं होने जैने दुख पूर्ण राज्य से क्षत्रिय । जो प्राणी काम-वामनानी से विमूट है, वे भयकर दुस तथा वेदना भोगते हुए चिरकाल तक मनुप्येतर योनियो मे भटकते रहते हैं। (१०२) समार में परिभ्रमण करते-करते जब कभी बहुत काल में पापरमों का वेग क्षीण होता है और उसके फलस्वरूप अन्तरात्मा क्रमश शुद्धि को प्राप्त होता है। तब कही मनुष्य-जन्म मिलता है। मनुष्य-गरीर पा लेने पर भी मद्धर्म का श्रवण दुर्लभ है, जिसे मुनकर मनुष्य तप, क्षमा और अहिंसा को स्वीकार करते है । (१०४ ) मौभाग्य से यदि कभी धर्म का श्रवण प्राप्त भी हो जाता है, तो उसपर श्रद्धा का होना तो अत्यन्त दुर्लभ है । कारण कि बहुतसे लोग न्यायमार्ग को-सत्य-सिद्धात को सुनकर भी उससे दूर ही रहते है-उसपर विश्वास नहीं लाते। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी ( १०५) सुई च लद्धंसद्धं च, वीरियं पुण दुल्लहं । वहवे रोयमाणा वि, नोय णं पडिवज्जए ॥१०॥ ( १०६ ) माणुसत्तम्मि पायानो, जो धम्म सोच्च सरहे । तवस्सी वीरियं लद्धं, संवुड़े निद्धणे रयं ॥११॥ ( १०७ ) सोही उन्जुयभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ । निव्वाणं परमं जाइ, घयसित्ते व पावए ॥१२॥ ( १०८ ) विगिच कम्मणो हेडं, जसं सचिणु खन्तिए। सरीर पाढवं हिच्चा, उट्ट पक्कमई दिसं ॥१३॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरडीय-सूत्र ( १०५ ) मद्धर्म का श्रवण और उसपर श्रद्धा-दोनो प्राप्त कर लेने पर भी उनके अनुसार पुम्पार्य करना, यह तो और भी कठिन है। क्योकि मंसार में बहुत से लोग ऐमे है, जो सद्धर्म पर दृढ विश्वास रखते हुए भी उसे आचरण में नहीं लाते। परन्तु जो तपस्वी मनुष्यत्व को पाकर, सबर्म का श्रवण कर, उसपर श्रद्धा लाता है और तदनुसार पुरुषार्य कर पासवरहित हो जाता है, वह अन्तरात्मा पर से कर्मरज को भटक देता है। (१०७) जो मनुष्य निष्कपट एव सरल होता है, उसीकी आत्मा शुद्ध होती है। और जिसकी आत्मा शुद्ध होती है, उसीके पास धर्म ठहर सकता है। घी मे सीची हुई अग्नि जिस प्रकार पूर्ण प्रकाश को पाती है, उसी प्रकार सरल और युद्ध सावक ही पूर्ण निर्वाण को प्राप्त होता है। ( १०८ ) कमों के पैदा करनेवाले कारणो को ढूंढो-उनका छेद करो, और फिर क्षमा आदि के द्वारा अक्षय यश का सचय करो। ऐसा करनेवाला मनुष्य इस पार्थिव शरीर को छोडकर ऊर्ध्वदिगा को प्राप्त करता है अर्थात् उच्च और श्रेष्ठगति पाता है। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी ( १०६) चउरंगं दुल्लहं मत्ता, संजमं पडिवज्जिया। तवसा धुयकम्मसे, सिद्धे हवइ सासए ॥१४॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरतीय-सूत्र ( १०६) जो मनुष्य उक्त चार अगो को दुर्लभ जानकर सयम-मार्ग स्वीकार करता है, वह तप के द्वारा सब कमांशो का नाश कर सदा के लिए सिद्ध हो जाता है। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ११ : अप्पमाय-मुत् ( ११० ) असंखयं जीविय मा पमायए, जरोवणीयस्स हु नत्यि ताणं । एवं विजाणाहि जणे पमत्ते, कं नु विहिंसा प्रजया गहिन्ति ॥१॥ ( १११ ) जे पावकम्मेहि घणं मणुस्सा, समाययन्ति अमयं गहाय । पहाय ते पासपट्टिए नरे, राणुवद्धा नरयं उर्वन्ति ॥२॥ ( ११२ ) वित्तण ताणं न लभे पमत्ते, ____ इमम्मि लोए अदुवा परत्य । वीवप्पणळे व अणतमोहे, दुटुमदुमेव ॥३॥ नेयाउयं Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :११: अप्रमाद-सूत्र ( ११०) जीवन असंस्कृत है-अर्थात् एक वार टूट जाने के बाद फिर नहीं जुडता; अत. एक क्षण भी प्रमाद न करो। 'प्रमाद, हिसा और असयम में अमूल्य यौवन-काल विता देने के बाद जव वृद्धावस्था पायेगी, तब तुम्हारी कौन रक्षा करेगा -तव किसकी शरण लोगे ?' यह खूब सोच-विचार लो। जो मनुष्य अनेक पापकर्म कर, वैर-विरोघ वढाकर, अमृत की तरह धन का संग्रह करते है, वे अन्त में कर्मों के दृढ पाश में बंधे हुए सारी धन-सम्पत्ति यही छोडकर नरक को प्राप्त होते हैं। ( ११२ ) प्रमत्त पुरुष धन के द्वारा न तो इस लोक में ही अपनी रक्षा कर सकता है और न परलोक मे । फिर भी धन के असीम मोह से मूढ मनुष्य दीपक के बुझ जाने पर जैसे मार्ग नही दीख पड़ता, वैसे ही न्याय-मार्ग को देखते हुए भी नहीं देख पाता है। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी ( ११३ ) तेणे जहा सन्धिमुहे गहीए, सकम्मुणा किच्चइ पावकारी। एवं पया पेच्च इह च लोए, कडाण कम्माण न मुक्ख अस्थि ॥४॥ ( ११४) संसारमावन परस्स अट्ठा, साहारणं जं च करेइ कम्म । कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले,' न बन्धवा बन्धवयं उर्वन्ति ॥५॥ ( ११५ ) सुत्तेसु या वि पडिबुद्धजीवी, न वीससे पंडिए आसुपने। घोरा महत्ता अबलं सरीरं, भारंडपक्खी व घरेलमत्ते ॥६॥ चरे पयाई परिसंकमाणो, जं किंचि पास इह मण्णमाणो। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रमाद-सूत्र ( ११३ ) जैसे बोर मेघ के द्वार पर पगडा जाकर अपने ही दुष्कर्म के कारण चीरा जाता है, वैने ही पाप करनेवाला प्राणी भी इस लोक में तया परलोक मे-दोनों ही जगह-भयकर दुख पाता है। क्योकि कृन पर्मों को भोगे पिना कभी छटाग नहीं हो सकता। ( ११४ ) मनारी मनुष्य अपने प्रिय कुटुम्बियों के लिए बुरे-मे-बुरे भी पाप-धर्म पर जानना है, पर जब उनके दुष्कल भोगने का समय आता है तब अकेला ही दुम भोगता है, को भी भाई-बन्धु उसका दुख बटानेवाला-गहायता पहुंचानेवाला नहीं होता। ( ११५ ) प्रागप्रम परित पुग्प को मोहनिद्रा में मोने रहनेवाले ससारी मनुष्यों के बीच रहकर भी गय और में जागरूफ रहना चाहिए, विगीया विश्वास नहीं करना चाहिए । 'काल निर्दय है और गरीर निबंल पह जानकर भारत पक्षी की तरह हमेशा मप्रमत्त भाव में वित्रग्ना चाहिए। (११६ ) नमार में जो कुछ धन पन प्रादि पदार्य है, उन सबको पाणरूप जानकर मुमा बसी मावधानी के माय फूंक-फूंककर पांव रखं । जबतक नगर मगात है, तबतक उमका उपयोग अधिक Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी लाभन्तरे जीवियं व्हइत्ता, पच्छा परिनाय मलावधंसी ॥७॥ ( ११७ ) छन्दनिरोहेण उबेइ मोखं, आसे जहा सिक्खियवम्मधारी । पुब्वाई वासाई घरेऽप्पमत्ते, तम्हा मुणी खिप्पमुवेइ मोक्खं ॥३॥ ( ११८ ) स पुन्यमेवं न लभेज पच्छा, एसोवमा सासयवाइयाणं । विसीयई सिढिले पाउयम्मि, कालोवणीए सरीरस्स भए ॥॥ ( ११६ ) खिप्पं न सक्केई विवेगमेऊं, तम्हा समुदाय पहाय कामे । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रमाद-सूत्र से-अधिक संयम-धर्म की साधना के लिए कर लेना चाहिए। वाद में जव वह विल्कुल ही अशक्त हो जाये, तव विना किसी मोहममता के मिट्टी के ढेले के समान उसका त्याग कर देना चाहिए। जैसे शिक्षित (सघा हुआ) तथा कवचधारी घोडा युद्ध में विजय प्राप्त करता है, उसी प्रकार विवेकी मुमुक्ष भी जीवन-सग्राम में विजयी वनकर मोक्ष प्राप्त करता है। जो मुनि दीर्घकाल तक अप्रमत्तरूप से सयम-धर्म का आचरण करता है, वह शीघ्रातिशीघ्र मोक्ष-पद पाता है। (११८ ) शाश्वतवादी लोग कल्पना बांधा करते है कि 'सत्कर्म-साधना की अभी क्या जल्दी है, आगे कर लेंगे?' परन्तु यो करते-करते भोग-विलास में ही उनका जीवन समाप्त हो जाता है, और एक दिन मृत्यु सामने आ खड़ी होती है, शरीर नष्ट हो जाता है। अन्तिम समय में कुछ भी नहीं बन पाता; उस समय तो मूर्ख मनुष्य के भाग्य में केवल पछताना ही शेष रहता है। (११६ ) मात्म-विवेक कुछ झटपट प्राप्त नही किया जाता-इसके लिए तो भारी साधना की आवश्यकता है। महर्षि जनो को बहुत पहले से ही सयम-पथ पर दृढता के साथ खडे होकर, काम-भोगो का Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी समिच्च लोयं समया महेसी, आयाणुरक्खी चरमप्पमत्ते ॥१०॥ ( १२० ) मुहं मुहं मोहगुणे जयन्तं, अणेगख्वा समणं चरन्तं । फासा फुसन्ती असमंजसं च, न तेसि भिक्खू मणसा पउस्से ॥११॥ ( १२१ ) मन्दा य फासा बहुलोहणिज्जा, तहप्पगारेसु मणं न कुज्जा। रविवज्ज कोहं विणएज्ज माणं, मायं न सेवे परहेज्ज लोहं ॥१२॥ ( १२२ ) जे संखया तुच्छ परप्पवाई, ते पिज्ज-दोसाणुगया परन्झा। एए महम्मे ति दुगुंछमाणो, कंखे गुणे जाव सरीरभए ॥१३॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रमाद-सूत्र परित्याग कर, समतापूर्वक स्वार्थी ससार की वास्तविकता को समझकर, अपनी आत्मा की पापो से रक्षा करते हुए सर्वदा अप्रमादी रूप से विचरना चाहिए। (१२० ) मोह-गुणो के साथ निरन्तर युद्ध करके विजय प्राप्त करनेवाले श्रमण को अनेक प्रकार के प्रतिकूल स्पर्शों का भी बहुत वार सामना करना पड़ता है। परन्तु भिक्षु उनपर तनिक भी अपने मन को क्षुब्ध न करे-शान्त भाव से अपने लक्ष्य की और ही अग्रसर होता रहे। ( १२१ ) संयम-जीवन मे मन्दता पैदा करनेवाले काम-भोग बहुत ही लुभावने मालूम होते है । परतु सयमी पुरुप उनकी ओर अपने मन को कभी आकृष्ट न होने दे। आत्मशोधक साधक का कर्तव्य है कि वह क्रोध को दवाए, अहकार को दूर करे, माया का सेवन न करे, और लोम को छोड दे। ( १२२ ) जो मनुष्य सस्कारहीन है, तुच्छ है, दूसरो की निन्दा करनेवाले है, राग-द्वेप से युक्त है, वे सब अधर्माचरणवाले है-इस प्रकार विचारपूर्वक दुर्गुणो से घृणा करता हुआ मुमुक्षु शरीस्नाश पर्यन्त (जीवन-पर्यन्त) एकमात्र सद्गुणो की ही कामना करता रहे। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ११-२: अप्पमाय-मुत्तं ( १२३ ) वुमपत्तए पंडयए जहा, निवडइ राइगणाण अच्चए । एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम! मा पमायए ॥१॥ ( १२४ ) कुसग्गे जह सविन्दुए, थोवं चिट्ठइ लम्बमाणए । एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥२॥ ( १२५ ) इह इत्तरियम्मि भाउए, जीवियए बहुपच्चवायए। विहुणाहि रयंपुरकडं, समयं गोयम! मा पमायए ॥३॥ ( १२६ ) दुल्लहे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सब्ब-पाणिणं । गाढाय विवाग कम्मुणो, समयं गोयम! मापमायए ॥४॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ११-२: अप्रमाद-सूत्र ( १२३ ) जने वृक्ष का पत्ता पतझड़ ऋतुकालिक रात्रि-समूह के बीत जाने के बाद पीला होकर गिर जाता है, वैसे ही मनुष्यो का जीवन भी आयु के समाप्त होने पर सहसा नष्ट हो जाता है । इसलिए हे गौतम क्षणमात्र भी प्रमाद न कर । (१२४ ) जैसे प्रोस की वूद फुगा की नोक पर थोडी देरतक ही ठहरी रहती है, उसी तरह मनुष्यो का जीवन भी बहुत अल्प है-शीघ्र ही नाश हो जा वाला है। इसलिए हे गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद न कर। ( १२५ ) अनेक प्रकार के विघ्नो से युक्त अत्यत अल्प आयुवाले इस मानव-जीवन में पूर्व सचित कर्मों की धूल को पूरी तरह झटक दे। इसके लिए हे गौतम | क्षणमात्र भी प्रमाद न कर । ( १२६ ) दीर्घकाल के बाद भी प्राणियो को मनुष्य-जन्म का मिलना बडा दुर्लभ है, क्योकि कृत कर्मों के विपाक अत्यन्त प्रगाढ होते है। हे गौतम | क्षणमात्र भी प्रमाद न कर। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी ( १२७ ) पुढविकायमइगो, उक्कोसं जीवो उ संवसे । कालं संखाईयं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥५॥ ( १२८ ) माउकायमइगनो, उक्कोसं जीवो उ संवसे । कालं संखाईय, समय गोयम ! मा पमायए ॥६॥ ( १२६ ) तेउकायमहगलो, उक्कोसं जीवो उ संवसे । कालं संखाईये, समयं गोयम ! मा पमायए ॥७॥ (१३० ) वाउकायमइगयो, उक्कोसं जीवो उ संवसे । कालं संखाईयं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥६॥ ( १३१ ) वणस्सइकायमइगो, उक्कोसं जीवो उ संवसे । कालमणन्तदुरन्तयं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥६॥ ( १३२ ) बेइन्दियकायमइगयो, उक्कोस जीवो उ संवसे । कालं संखिज्जसनियं, समयं गोयम! मा पमायए ॥१०॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रमाद-सूत्र । १२७ ) यह जीव पृथिवी-काय में गया और वहाँ उत्कृष्ट असख्य काल तक रहा। हे गौतम । क्षणमात्र भी प्रमाद न कर । (१२८ ) यह जीव जल-काय में गया और वहां उत्कृष्ट असख्य काल तक रहा। हे गौतम | क्षणमात्र भी प्रमाद न कर । ( १२६ ) यह जीव तेजस्काय मे गया और वहाँ उत्कृष्ट असख्य काल तक रहा। हे गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद न कर। ( १३०) यह जीव वायु-काय में गया और वहां उत्कृष्ट असंख्य काल तक रहा । है गौतम | क्षणमात्र भी प्रमाद न कर। ( १३१ ) यह जीव बनस्पति-काय में गया और वहां उत्कृष्ट अनन्त काल तक-जिसका बड़ी कठिनता से अन्त होता है-रहा। हे गौतम । क्षणमात्र भी प्रमाद न कर । ( १३२ ) यह जीव द्वीन्द्रिय-काय में गया और वहाँ उत्कृष्ट सख्येय काल तक रहा। हे गौतम । क्षणमात्र भी प्रमाद न कर । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ महावीर वाणी ( १३३ ) तेइन्दियकायमइगनो, उक्कोसं जीवो उ संवसे । कालं संखिज्जसन्नियं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥११॥ ( १३४ ) चरिन्दियकायमइगन, उक्कोसं जीवो उ संवसे । कालं संखिज्जसन्नियं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१२॥ 1 ( १३५ ) पंचिन्दियकायमइगयो, उक्कोसं जीवो उ संवसे । सत्तट्ठभवगहणे, समय गोयम ! मा पमायए ॥१३॥ ( १३६ ) एवं भवसंसारे संसरइ, सुहासुहहिं कम्मेहि । जीवो पमायबहुलो, समयं गोयम | मा पमायए ॥१४॥ ( १३७ ) लवण वि माणुसत्तणं, आरियत्तं पुणरावि दुल्लभं । बहवे दस्सुया मिलक्खुया, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ १५ ॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रमाद-सूत्र ( १३३ ) यह जीव त्रीन्द्रिय-काय में गया और वहाँ उत्कृष्ट सख्यात काल तक रहा। हे गौतम! क्षणमात्र भी प्रमाद न कर। ( १३४ ) यह जीव चतुरिन्द्रिय-काय में गया और वहाँ उत्कृष्ट सख्यात काल तक रहा। हे गौतम! क्षणमात्र भी प्रमाद न कर । (१३५) यह जीव पचेन्द्रिय-काय में गया और वहां उत्कृष्ट सात तथा आठ जन्मतक निरन्तर रहा । हे गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद न कर। ( १३६ ) प्रमाद-बहुल जीव अपने शुभाशुभ कर्मों के कारण इस भांति अनन्त वार भव-चक्र में इधर से उधर घूमा करता है। हे गौतम! क्षणमात्र भी प्रमाद न कर। ( १३७ ) ____ मनुष्य-जन्म पा लिया तो क्या ? आर्यत्व का मिलना वडा कठिन है। बहुत-से-जीव मनुष्यत्व पाकर भी दस्यु और म्लेच्छ जातियो में जन्म लेते है । हेगौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद न कर। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी ( १३८ ) लखूण विभारियत्तणं, अहीणपंचिन्दिया हुदुल्लहा । विगलिन्दियया हुदीसई, समय ! गोयम मा पमायए ॥१६॥ ( १३६ ) अहीणपंचेन्दियत्तं पि से लहे, उत्तमधम्मसुई हुदुल्लहा । कुतित्यिनिसेवएजणे, समयं गोयम! मा पमायए ॥१७॥ ( १४० ) लण वि उत्तम सुइँ, सहहणा पुणरावि दुल्लहा । मिच्छत्तनिसेवएजणे, समयं गोयम! मा पमायए ॥१८॥ ( १४१) घम्म पि हु सद्दहन्तया, दुल्लहया कारण फासया। इह कामगुणेहि मुच्छिया, समयं गोयम! मा पमायए ॥१६॥ (१४२ ) परिजूरह ते सरीरयं, केसा पंडुरया हवन्ति । से सब्बरले य हायई, समयं गोयमीमा पमायए ॥२०॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रमाद-सूत्र ( १३८ ) आर्यत्व पाकर भी पाँचो इन्द्रियो को परिपूर्ण पाना वडा कठिन है। बहुत से लोग आर्य-क्षेत्र में जन्म लेकर भी विकल इन्द्रियोवाले देखे जाते है । हे गौतम । क्षणमात्र भी प्रमाद न कर। ( १३६ ) पांचो इन्द्रियाँ परिपूर्ण पाकर भी उत्तम धर्म का श्रवण प्राप्त होना कठिन है। बहुत-से लोग पाखडी गुरुओ की सेवा किया करते है । हे गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद न कर। (१४० ) उत्तम धर्म का श्रवण पाकर भी उसपर श्रद्धा का होना वडा कठिन है। बहुत से लोग सब कुछ जान-बूझकर भी मिथ्यात्व की उपासना मे ही लगे रहते हैं। हे गौतम ! क्षणमात्र मी प्रमाद न कर। ( १४१ ) धर्म पर श्रद्धा लाकर भी शरीर से धर्म का आचरण करना वडा कठिन है । ससार में बहुत-से धर्मश्रद्धालु मनुष्य भी काम-भोगो मे मूछित रहते है । हे गौतम | क्षणमात्र भी प्रमाद न कर। (१४२ ) तेरा शरीर दिन प्रति दिन जीणं होता जा रहा है, सिर के वाल पककर श्वेत होने लगे है, अधिक क्या-शारीरिक और मानसिक सभी प्रकार का बल घटता जा रहा है। हे गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद न कर। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी ( १४३ ) अरई गण्डं विसूइया, पायंका विविहा फुसन्ति ले। विहडइ विद्धसइ ते सरीरयं, समय गोयम ! मा पमायए ॥२॥ ( १४४) वोच्छिन्द सिणेहमप्पणो, कुमुयं सारइयं व पाणियं । से सम्वसिणेहवज्जिए, समय गोयम ! मा पमायए ॥२२॥ ( १४५ ) चिच्चाण घणं च भारियं, पन्वइनो हि सि अणगारियं । मा वन्तं पुणो वि आविए, समय गोयम ! मा पमायए ॥२३॥ ( १४६ ) उवउन्मिय मित्तबन्धवं, विउलं चैव धणोहसंचयं । मा त विइयं गवेसए, समयं गोयम ! मा पमायए ॥२४॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रमाद-सूत्र ८१ ( १४३ ) अरुचि, फोडा, विसूचिका (हैजा), आदि अनेक प्रकार के रोग गरीर में वटते जा रहे है, इनके कारण तेरा शरीर बिल्कुल क्षीण तथा ध्वस्त हो रहा है । हे गौतम । क्षणमात्र भी प्रमाद न कर। ( १४४ ) जने कमल मरत्काल के निर्मल जल को भी नहीं छूता-अलग अलिप्त रहता है, उसी प्रकार तू भी ससार से अपनी समस्त आसक्तियां दूर कर, सब प्रकार के स्नेह-बन्धनो से रहित हो जा। है गौतम | क्षणमात्र भी प्रमाद न कर। ( १४५ ) स्मी और धन का परित्याग करके तू महान् अनागार पद को पा चुका है, इसलिए अव फिर इन वमन की हुई वस्तुओ का पान न कर । हे गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद न कर। ( १४६ ) विपुल धनराशि तथा मिन-बान्धवो को एकवार स्वेच्छापूर्वक छोडकर, अव फिर दोबारा उनकी गवेपणा (पूछताछ) न कर। है गौतम | क्षणमात्र भी प्रमाद न कर । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी ( १४७ ) अबले जह भारवाहए, मा मम्मे विसमेऽवगाहिया । पच्छा पच्छाणुतावए, समयं गोयम ! मा पमायए ॥२५॥ ( १४८) तिण्णो सि अण्णवं महं, कि पुण चिट्ठसि तीरमागओ। अभितुर पार गमित्तए, समय गोयम ! मा पमायए ॥२६॥ ( १४६ ) बुद्धस्स निसम्म भासियं, सुकहियमद्यपदोवसोहियं । रागं दोसं च छिन्दिया, सिद्धिगई गए गोयमे ॥२७॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रमाद-सूत्र (१४७ ) घुमावदार विषम मार्ग को छोडकर तू सीधे और साफ मार्ग पर चल । विपम मार्ग पर चलनेवाले निर्वल भारवाहक की तरह बाद में पछतानेवाला न वन । हे गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद न कर। ( १४८ ) तू विशाल ससार-समुद्र को तैर चुका है, अव भला किनारे आकर क्यो अटक रहा है ? उस पार पहुंचने के लिए जितनी भी हो सके शीघ्रता कर । हे गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद न कर। ( १४६ ) भगवान् महावीर के इस भांति अर्थयुक्त पदोवाले सुभापित वचनो को सुनकर श्री गौतम स्वामी राग तथा द्वेष का छेदन कर सिद्धि-गति को प्राप्त हो गये। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १२: पमायहाण-सुत् ( १५० ) पमायं फम्ममाहंसु, अप्पमायं सहावरं । तब्भावादेसमो वावि, वालं पंडियमेव वा ॥१॥ ( १५१ ) जहा य अंडप्पभवा बलागा, अंडं बलागप्पभवं जहा य। एमेव मोहाययणं खु तहा, ___मोहं च तण्हाययणं वयन्ति ॥२॥ ( १५२ ) रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं चयन्ति । कम्मं च जाईमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं बयन्ति ॥३॥ ( १५३ ) दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हलो जस्स न होइ तण्हा । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १२: प्रमाद-स्थान-सूत्र । १५०) प्रमाद को कर्म कहा है और अप्रमाद को अकर्म अर्थात् जो प्रवृत्तियां प्रमादयुक्त है वे कर्म-बन्धन करनेवाली है, पीर जो प्रवृत्तियां प्रमाद से रहित है वे कर्म-बन्धन नहीं करती। प्रमाद के होने और न होने से ही मनुष्य क्रमश मूर्ख और पडित कहलाता है। (१५१ ) जिस प्रकार वगुली अडे से पैदा होती है और प्रडा वगुली से पैदा होता है, उसी प्रकार मोह का उत्पत्ति-स्थान तृष्णा है और तृष्णा का उत्पत्ति-स्थान मोह है। ( १५२ ) राग और द्वेष-दोनो कर्म के वीज है अत कर्म का उत्पादक मोह ही माना गया है। कर्मसिद्धान्त के अनुभवी लोग कहते है कि ससार में जन्म-मरण का मूल कर्म है, और जन्म-मरण-यही एकमान दुख है। (१५३ ) जिसे मोह नहीं है उसका दुख चला गया; जिसे तृष्णा नहीं उसका मोह चला गया। जिसे लोभ नही है, उसकी तृष्णा चली गई; Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ महावीर-वाणी तण्हा हया जस्स न होइ लोहो, लोहो हलो जस्स न किंचणाई ॥४॥ ( १५४ ) रसा पगामं न निसेषियन्वा, पायं रसा दित्तिकरा नराणं । वित्तं च कामा समभिद्दवन्ति, दुर्म जहा साउफलं व पक्खी ॥५॥ ( १५५ ) रूवेसु नो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे से जह वा पयंगे, आलोयलोले समुवेइ मन्चं ॥६॥ ( १५६ ) ख्वाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कुतो सुहं होज्ज फयाइ किंचि । तत्योवभोगे वि किलेस-दुक्खें, निव्वत्तई जस्स करण दुक्खं ॥७॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाद-स्थान-सूत्र जिसके पास लोम करने जैसा कुछ भी पदार्थ-संग्रह नहीं है, उसका लोम चला गया। ( १५४ ) दूध और दही आदि रसो का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए; क्योकि प्राय. रस मनुष्यो मै मादकता पैदा करते है । मत्त मनुष्य की और काम-वासनाएं वैसे ही दौडी आती है, जैसे स्वादिष्ट फलवाले वृक्ष की ओर पक्षी। ( १५५ ) जो मूर्ख मनुष्य सुन्दर रूप के प्रति तीव आसक्ति रखता है, वह अकाल ही नष्ट हो जाता है। रागातुर व्यक्ति रूप-दर्शन की लालसा में वैसे ही मृत्यु को प्राप्त होता है, जैसे दीये की ज्योति देखने की लालसा में पतग । ( १५६ ) रूप मे आसक्त मनुष्य को कहीं से भी कमी किंचिन्मान भी सुख नहीं मिल सकता। खेद है कि जिसकी प्राप्ति के लिए मनुष्य महान् कष्ट उठाता है, उसके उपभोग में कुछ भी सुख न पाकर केवल क्लेश तथा दुःख ही पाता है। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी ( १५७ ) एमेव स्वम्मि गमो परोसं, ___उवेइ दुवखोहपरंपराओ। पबुद्धचित्तो य चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥८॥ ( १५८ ) हवे विरतो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पए भवमझे वि सन्तो, जलेण वा पोक्चरिणीपलासं ॥ (१५६ ) एविन्दियत्या य मणस्स प्रत्था, दुक्खस्स हे मणुयस्स रागिणो । ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं, न वीयरागस्स करन्ति किंचि ॥१०॥ ( १६० ) न कामभोगा समयं उवेन्ति, न यानि भोगा विगई उर्वन्ति । ने तप्पनोसी य परिगही य, सो तेसु मोहा विगई उवे ॥११॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाद-स्थान-सूत्र ८९ ( १५७ ) जो मनुष्य कुत्सित स्पो के प्रति द्वेष रसता है, वह भविष्य में असीम दुस-परपरा का भागी होता है। प्रदुष्टचित्त द्वारा ऐसे पापकर्म सचित किये जाते है, जो विपाक-काल में भयकर दुस-रूप होते हैं। ( १५८ ) पसे विरक्त मनुष्य ही वास्तव में शोक-रहित है । वह ससार में रहते हुए भी दुस-प्रवाह ने वैसे ही अलिप्त रहता है, जैसे कमल का पत्ता जल से। ( १५६) रागी मनुष्य के लिए ही उपयुक्त इन्द्रियो तया मना के विपयभोग इस प्रकार दुस के कारण होते है। परन्तु वे ही वीतरागी को किसी भी प्रकार से कभी तनिक भी दुख नहीं पहुंचा सकते। (१६० ) काम-भोग अपने-आप तो न किसी मनुष्य में समभाव पैदा करते है और न किसी में रागद्वपस्प विकृति पैदा करते है। परन्तु मनुष्य स्वय ही उनके प्रति राग-द्वेप के नाना सकल्प बनाकर मोह से विकारग्रस्त हो जाता है। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी ( १६१ ) अणाइकालप्पभवस्स एसो, सव्वस्स दुक्खस्स पमोक्खमग्गो। वियाहिनो जं समुविच्च सत्ता, कमेण अच्चन्तसुही भवन्ति ॥१२॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाद-स्थान-सूत्र ९१ ( १६१) अनादि काल से उत्पन्न होते रहनेवाले सभी प्रकार के सासारिक दुबो से छट जाने का यह मार्ग ज्ञानी पुरुषो ने बतलाया है। जो प्राणी उक्त मार्ग का अनुसरण करते है, वे क्रमश मोक्ष-धाम प्राप्त कर अत्यन्त सुसी होते है। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १३ : कसाय सुत् ( १६२) कोहो य माणो य अणिग्गहीया, . माया य लोभो य पवड्डमाणा। चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचन्ति मूलाई पुणन्भवस्स ॥१॥ (१६३ ) कोहं माणं च मायं च, लोभं च पाववढणं । वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छन्तो हियमप्पणी ॥२॥ (१६४ ) कोहो पीई पणासेइ, माणो विणयनासणो। माया.मित्ताणि नासेह, लोभो सन्धविणासणो ॥३॥ ( १६५ ) उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे । मायमज्जवभावेण, लोभं संतोसमो जिणे ॥४॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १३ : कषाय-सूत्र ( १६२ ) अनिगृहीत क्रोध और मान, तथा प्रवर्द्धमान (वडते हुए) माया और लोम-ये चारोही कुत्सित कषाय पुनर्जन्मरूपी ससारवृक्ष की जड़ो को सोचते है। ___ जो मनुष्य अपना हित चाहता है, वह पाप को बढानेवाले क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार दोपो को सदा के लिए छोड़ दे। ( १६४ ) क्रोध प्रीति का नाश करता है। मान विनय का नाश करता है। माया मित्रता का नाश करती है, और लोभ सभी सद्गुणो का नाश कर देता है। ( १६५ ) शान्ति से क्रोध को मारे; नम्रता से अभिमान को जीते, सरलता से माया का नाश करे, और सन्तोष से लोभ को काबू में लाये। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी ( १६६ ) कसिणं पिजो इमलोयं, पडिपुण्णं दलेज्ज इक्कस्स। तेणाऽवि से न संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे पाया || ( १६७ ) जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्डइ । वोमासकयं कज्ज, कोडीए वि न निट्टियं ॥३॥ ( १६८ ) अहे वयन्ति कोहेण, माणेणं महमा गई। माया गइपडिग्यानो, लोहामो दुहरो भय ॥७॥ ( १६९ ) सुवण्ण-रुप्पस्स उ पन्चया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया । नरस लुद्धस्स न तेहि किचि, इच्छा हु मागाससमा अणन्तिया ॥६॥ ( १७० ) पुढवी साली जवा चेव, हिरणं पसुभिस्सह । पडिपुण्णं नालमेगस्स, इइ विज्जा तवं चरे ॥॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपाय-सूत्र ( १६६ ) अनेक प्रकार के बहुमूल्य पदार्थों से परिपूर्ण यह समग्र विश्व भी यदि किसी एक मनुष्य को दे दिया जाये, तव भी वह सन्तुष्ट नहीं होगा। अहो! मनुष्य की यह तृष्णा वडी दुष्पूर है। (१६७ ) ज्या-ज्यो लाम होता जाता है, त्यो त्यो लोभ भी वढता जाता है। देखो न, पहले केवल दो मासे सुवर्ण की आवश्यकता थी; पर बाद में वह करोडो से भी पूरी न हो सकी। (१६८) क्रोध से मनुष्य नीचे गिरता है, अभिमान से अधम गति को पहुंचता है, माया से सद्गति का नाश होता है, और लोभ से इस लोक तथा परलोक में महान भय है। चांदी और सोने के कैलास के समान विशाल असख्य पर्वत भी यदि पास में हो, तो भी लोभी मनुष्य की तृप्ति के लिए वे कुछ भी नहीं । कारण कि तृप्णा आकाश के समान अनन्त है। चावल और जौ आदि धान्यो तथा सुवर्ण और पशुओ से परिपूर्ण यह समस्त पृथिवी भी लोभी मनुष्य को तृप्त कर सकने में असमर्थ है-यह जानकर सयम का ही आचरण करना चाहिए। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर वाणी ( १७१ ) कोहं च माणं च तहेव माय, लोभ चउत्यं अमात्यवोसा। एयाणि वन्ता अरहा महेसी, न फुवई पावं न फारवेई ॥१०॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपाय-सूत्र ( १७१) क्रोध, मान, माया और लोम-ये चार अन्तरात्मा के भयकर दोप है। इनका पूर्ण रूप से परित्याग करनेवाले अर्हन्त महर्षि न स्वयं पाप करते है, और न दूसरो से करवाते है। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १४: काम-सुत् ( १७२ ) सल्लंकामा विसं फामा, कामा प्रासीविसोवमा। कामे य पत्येमाणा, अकामा जन्ति बोग्गई ॥१॥ ( १७३ ) सवं विलवियं गीयं, सव्वं नर्से विडम्वियं । सब्बे प्राभरणा भारा, सर्व कामा दुहावहा ॥२॥ ( १७४ ) खणमेत्तसोक्खा बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा अणिगामसोक्खा। संसारमोक्खस्स विपक्षभूया, खाणी आणत्याण उ कामभोगा ॥३॥ ( १७५ ) जहा किपागफलाण, परिणामो न सुंबरो। एवं भुताण भोगाणं, परिणामो न सुन्दरो ॥४॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१४: कामसूत्र ( १७२ ) काम-भोग गल्यरूप है, विपरूप है, और विषधर सर्प के समान है। काम-मोगो की लालसा रखनेवाले प्राणी उन्हें प्राप्त किये विना ही अतृप्त दशा में एक दिन दुर्गति को प्राप्त हो जाते है। ( १७३ ) गीत सब विलापरूप है, नाट्य सव विडम्बनारूप हैं। प्राभरण सव भारल्प है। अधिक क्या, ससार के जोभी काम-भोग है, सब-केसब दुखावह है। ( १७४) काम-भोग क्षणमात्र सुख देनेवाले है और चिरकाल तक दुःख देनेवाले है। उनमें सुख बहुत थोडा है, अत्यधिक दुख-ही-दुःख है। मोक्ष-मुख के वे भयकर गत्रु है, अनर्थों की सान है। ( १७५) जैसे किंपाक फलों का परिणाम अच्छा नहीं होता, उसी प्रकार भोगे हुए भोगो का परिणाम भी अच्छा नहीं होता। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० महावीर-वाणी ( १७६ ) जहा य किपागफला मणोरमा, रसेण वण्णण य भुंजमाणा। ते खुड्डए जीवियं पच्चमाणा, एसोवमा कामगुणा विवागे ॥५॥ ( १७७ ) उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पई। भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चई ॥६॥ ( १७८ ) चीराजिणं नगिणिणं, जड़ी संघाडि मुंडिणं । एयाणि विन तायन्ति, दुस्सीलं परियागयं ॥७॥ ( १७६ ) ने केइ सरीरे सत्ता, धणे ख्वे य सन्चसो । मणसा काय धक्केणं, सव्वे ते दुक्खसंभवा ।। ( १८० ) अच्चेइ कालो तुरन्त राइनो, नयाधि भोगा पुरिसाण निच्चा। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम-सूत्र ( १७६ ) जैसे किंपाक फल रूप-रग और रस की दृष्टि से शुरू में खाते समय तो बडे अच्छे मालूम होते है, पर बाद में जीवन के नाशक है; वैसे ही कामभोग भी शुरू में तो बडे मनोहर लगते है, पर विपाककाल में सर्वनाश कर देते है। ( १७७ ) जो मनुष्य भोगी है-भोगासक्त है, वही कर्म-मल से लिप्त होता है, अभोगी लिप्त नहीं होता। भोगी ससार में परिभ्रमण किया करता है, और अभोगी ससार-बन्धन से मुक्त हो जाता है। (१७८ ) मृगचर्म, नग्नत्व, जटा, सघाटिका (बौद्ध भिक्षुयो का सा उत्तरीय वस्त्र), और मुण्डन आदि कोई भी धर्मचिह्न दुशील भिक्षु की रक्षा नहीं कर सकते। ( १७६ ) जो अविवेकी मनुष्य मन, वचन और काया से शरीर, वर्ण तथा रूप में आसक्त रहते है, वे सब अपने लिए दुख उत्पन्न करते है। (१८०) काल वडी दुति गति से चला जा रहा है, जीवन की एक-एक करके सभी रात्रियां बीतती जा रही है, फल-स्वरूप काम-भोग चिरस्थायी Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ महावीरस्वापी उविच्च भोगा पुरिसं चयन्ति, दुर्म जहा खीणफलं व पक्खी in ( १८१ ) अधुर्व जीवियं नच्चा, सिद्धिमग्गं वियाणिया । दिणिनटेज भोगेसु, माउं परिमिश्रमप्पणो ॥१०॥ (१५२ ) पुरिसोरम पावकम्मुणा, पलियन्तं मणुयाण जीवियं । सना इह काममुच्छिया, मोहं जन्ति नरा असंवुडा ॥११॥ (१५३ ) संबुन्भह ! किं न बुज्झह ? संबोही खलु पेच्च दुल्लहा । नो हवणमन्ति राइनो, नो सुलभं पुणरवि जीवियं ॥१२॥ ( १८४) दुप्परिच्चया इमे कामा, नो सुजहा अधीरपुरिसेहि । अह सन्ति सुवया साहू, जे तरन्ति अतरं वणिया व ॥१३॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम-सूत्र नहीं है । भोग-विलास के साधनो से रहित पुरुष को लोग वैसे ही छोड़ देते है, जैसे क्षीणफल वृक्ष को पक्षी। (११) मानव-जीवन नश्वर है, उसमें भी अपनी आयु तो बहुत ही परिमित है, एकमात्र मोक्ष-मार्ग ही अविचल है, यह जानकर कामभोगो से निवृत्त हो जाना चाहिए। ( १८२ ) हे पुरुप | मनुष्यो का जीवन अत्यन्त अल्प है-क्षणभगुर है, प्रत शीघ्र ही पापकर्म से निवृत्त हो जा। ससार में आसक्त तथा काम-भोगो से मूच्छित असयमी मनुष्य बार-बार मोह को प्राप्त होते रहते है। (१८३ ) समझो, इतना क्यो नही समझते ? परलोक में सम्यक् बोधि का प्राप्त होना बड़ा कठिन है। बीती हुई रात्रियों कभी लौटकर नहीं आती। मनुष्य-जीवन का दोवारा पाना आसान नहीं। ( १९४) काम-भोग वडी मुश्किल से छूटते है, अधीर पुरुप तो इन्हें सहसा छोड़ ही नहीं सकते। परन्तु जो महाव्रतो-जैसे सुन्दर व्रतो के पालन करनेवाले साधुपुरुष है, वे ही दुस्तर भोग-समुद्र को तैरकर पार होते है, जैसे-व्यापारी वणिक समुद्र को। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १५ : असरण सुत् ( १८५) वित्तं पसवो न नाइनो, तं वाले सरणं ति मन्नई। एए मम तेसु वि अहं, नो ताणं सरणं न विज्ञई ॥१॥ ( १८६ ) जम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य । ग्रहो दुक्खो हु संसारो, जत्य कीसन्ति जन्तुणो ॥२॥ ( १८७ ) इमं सरीरं अणिचं, असुई असुइसंभवं । असासयावासमिणं, दुक्खकेसाण भायणं ॥३॥ ( १८८) दाराणि सुया चेव, मित्ता य तह बन्धवा । जीवन्तमणुजीवन्ति, मयं नाणुवयन्ति य॥४॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १५: अशरण-सूत्र ( १८५) मूर्ख मनुष्य घन, पशु और जातिवालो को अपना शरण मानता है और समझता है कि ये मेरे है' और 'मै उनका हूँ। परन्तु इनमे से कोई भी आपत्तिकाल में प्राण तथा शरण का देनेवाला नही। ( १८६) जन्म का दुख है, जरा (वुढापा) का दुख है, रोग और मरण का दुख है । अहो ! ससार दुःखरूप ही है । यही कारण है कि यहां प्रत्येक प्राणी जव देखो तव क्लेश ही पाता रहता है। (१८७ ) यह शरीर अनित्य है, अशुचि है, अशुचि से उत्पन्न हुआ है, दुख और क्लेशो का धाम है । जीवात्मा का इसमें कुछ ही क्षणो के लिए निवास है, आखिर एक दिन तो अचानक छोड़कर चले ही जाना है। ( १८८) स्त्री, पुत्र, मित्र और वन्धुजन सब कोई जीते जी के ही साथी है, मरने पर कोई भी पीछे नहीं आता। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी १०६ ( १८६) वेया महीया न भवन्ति ताणं, भुत्ता दिया निन्ति तमं तमेणं । जाया य पुत्ता न हवन्ति ताणं, को नाम ते अणुमन्नेज एवं ॥॥ ( १९०) चिच्चा दुपयं च चउप्पयं च, खेतं गिहं घण-धन्नं च सम्वं । फम्मप्पबीमो अवसो पयाइ, परं भवं सुन्दरं पावगं वा॥६॥ ( १९१ ) जहह सीहो व मियं गहाय, मन्चू नरं नइ हु अन्तकाले । न तस्स माया व पिया व भाया, कालम्मि तस्संसहरा भवन्ति ॥७॥ ( १९२ ) जमिणं जगई पुढो जगा कम्मेहि लुप्पन्ति पाणिणो । सयमेव कडेहि गाहई, नो तस्स मुच्चेज्जपुट्ठयं ॥८॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशरण-सूत्र ( १८६) पढ़े हुए वेद वचा नहीं सकते, जिमाये हुए ब्राह्मण अन्धकार से अन्धकार में ही ले जाते है, तथा स्त्री और पुत्र भी रक्षा नहीं कर सकते, तो ऐसी दशा में कौन विवेकी पुरुष इन्हे स्वीकार करेगा? ( १९०) द्विपद (दास, दासी आदि मनुष्य), चतुष्पद, क्षेत्र, गृह और धन-धान्य सब कुछ छोड़कर विवशता की दशा में प्राणी अपने कृत कर्मों के साथ अच्छे या बुरे परभव मे चला जाता है। ( १९१ ) जिस तरह सिंह हिरण को पकडकर ले जाता है, उसी तरह अतसमय मृत्यु भी मनुष्य को उठा ले जाती है। उस समय माता, पिता, भाई आदि कोई भी उसके दुःख में भागीदार नहीं होते-परलोक में उसके साथ नहीं जाते। ( १९२ ) संसार में जितने भी प्राणी है, वे सब अपने कृत कर्मों के कारण ही दुखी होते हैं। अच्छा या दुरा जैसा भी कर्म है, उसका फल भोगे विना कभी छुटकारा नही हो सकता । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी ( १९३ ) असासए सरीरम्मि, रई भोवलभामहं । पच्छा पुरा व चइयव्वे, फेणबुन्बुयसनिभे ॥६॥ ( १९४) माणुसत्ते असारम्मि, वाहि-रोगाण पालए। जरामरणपत्थम्मि, खणं पि न रमामहं ॥१०॥ ( १९५) जीवियं व त्वं च, विज्जुसंपायचंचलं । जत्य तं मुन्मसि राय ! पच्चत्यं नावबुज्झसि ॥११॥ ( १९६ ) न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइप्रो, नमित्तवग्गा न सुया न बन्धवा । एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं, कतारमेव अणुजाइ कम्मं ॥१२॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशरण-सूत्र १०९ ( १९३) यह शरीर पानी के वुलबुले के समान क्षणभगुर है, पहले या पीछे एक दिन इसे छोडना ही है, अत इसके प्रति मुझे तनिक भी प्रीति (आसक्ति) नहीं है। ( १९४) मानव-पारीर प्रसार है, आधि-व्याधियो का घर है, जरा और मरण से ग्रस्त है। अत में इसकी ओर से क्षणभर भी प्रसन्न नहीं होता ( १९५ ) मनुष्य का जीवन और रूप-सौन्दर्य विजली की चमक के समान चचल है । आश्चर्य है, हे राजन्, तुम इसपर मुग्ध हो रहे हो! क्यो नही परलोक की ओर का खयाल करते हो? ( १९६ ) पापी जीव के दुःख को न जातिवाले वटा सकते है, न मित्रवर्ग, न पुत्र, और न भाई-बन्यु । जब कभी दुख आकर पड़ता है, तब वह स्वय अकेला ही उसे भोगता है । क्योकि कर्म अपने कर्ता के ही पीछे लगते है, अन्य किसीके नहीं। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल-सुत्तं ( १९७ ) भोगामिसदोसविसन्ने, हियनिस्सेयसबुद्धिवोच्चत्थे। बाले य मन्दिए मूढे, बज्झइ मच्छिया व खेलम्मि ॥१॥ ( १९८) जे गिद्धे कामभोगेसु, एगे कूडाय गच्छई। न मे बिट्टे परे लोए, चक्खुदिट्ठा इमा रई ॥२॥ ( १९९) हत्यागया इमे कामा, कालिया जे अणागया। को जाणइ परे लोए, अत्यि वा नत्यि वा पुणो ॥३॥ ( २०० ) जणेण सद्धि होक्खामि, इइ बाले पगभइ । कामभोगाणुराएणं, केसं संपडिवज्जइ ॥४॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल-सूत्र ( १९७ ) जो वाल-मूर्ख मनुष्य काम-भोगो के मोहक दोषो मे आसक्त है, हित तथा निश्रेयस के विचार से शून्य है, वे मन्दबुद्धि मूढ ससार में वैसे ही फंस जाते हैं, जैसे मक्खी श्लेष्म (कफ) में। ( १९८ ) जो मनुष्य काम-भोगो में आसक्त होते है, वे बुरे-से-बुरे पापकर्म कर डालते है । ऐसे लोगो की मान्यता होती है कि-"परलोक हमने देखा नहीं है, और यह विद्यमान काम-मोगो का आनन्द तो प्रत्यक्ष-सिद्ध है।" ( १९९) "वर्तमान काल के काम-भोग हाय मे आये हुए है पूर्णतया स्वाधीन है। भविष्यकाल में परलोक के सुखो का क्या ठीक-मिले या न मिलें और यह भी कौन जानता है कि, परलोक है भी या नही?" ( २०० ) ___ "म तो सामान्य लोगो के साथ रहूंगा-अर्थात् जैसी उनकी दशा होगी, वैसी मेरी भी हो जायेगी"-मूर्ख मनुष्य इस प्रकार धूप्टता-भरी बातें किया करते है और काम-भोगो की आसक्ति के कारण अन्त में महान् क्लेश पाते है। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ महावीर-वाणी ( २०१) तो से वंडं समारभई, तसेतु थावरेसु य । अट्ठाए य अणटाए, भूयगामं विहिसई ॥५॥ ( २०२) हिसे बाले मुसावाई, माइल्ले पिसुणे सढे। भुजमाणे सुरं मंस, सेयमेयं ति मन्नई ॥६॥ (२०३ ) कायसा वयसा मते, वित्त गिद्धे य इत्यिसु । दुहनो मलं संचिणइ, सिसुनाग व मट्टियं ॥७॥ ( २०४ ) तो पुढो मायकेणं, गिलाणो परितप्पइ । पभीलो परलोगस्स, कम्माणुप्पेही अप्पणो ॥८॥ ( २०५ ) जे केइ बाला इह जीवियट्ठी, पावाई कम्माई करेन्ति रहा। ते धोरख्वे तमसिन्धयारे, तिव्वाभितावे नरगे पडन्ति ॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाल-सूत्र ( २०१) मूर्ख मनुष्य विषयासक्त होते ही त्रस तथा स्थावर जीवो को सताना शुरू कर देता है, और अन्ततक मतलब-बेमतलब प्राणिसमूह की हिंसा करता ही रहता है। (२०२) मूर्ख मनुष्य हिंसक, असत्यभाषी, मायावी, चुगलखोर और धूर्त होता है । वह मास तथा मद्य के खाने-पीने में ही अपना श्रेय समझता है। (२०३ ) जो मनुष्य शरीर तथा वचन के बल पर मदान्ध है, धन तथा स्त्री जन में आसक्त है, वह राग और द्वेप दोनो के द्वारा वैसे ही कर्ममल का संचय करता है, जैसे अलसिया मिट्टी का । (२०४ ) पाप-कर्मों के फलस्वरूप जब मनुष्य अन्तिम समय में असाध्य रोगो से पीड़ित होता है, तब वह खिन्नचित्त होकर अन्दर-ही अन्दर पछताता है, और अपने पूर्वकृत पाप-कर्मों को याद कर-कर परलोक की विभीपिका से कांप उठता है। ( २०५ ) जो मूर्ख मनुष्य अपने तुच्छ जीवन के लिए निर्दय होकर पापकर्म करते है, वे महाभयकर प्रगाढ अन्धकाराच्छन्न एव तीव्र तापवाले तमिस्र नरक में जाकर पडते हैं। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ महावीर-वाणी ( २०६ ) जया य चयइ धम्म, अणन्नो भोगकारणा। से तत्थ मुच्छिए वाले, आयई नावबुज्झई ॥१०॥ ( २०७) निच्चविग्गो जहा तेगो, अत्तकम्मे हि दुम्मई। तारिसो मरणंऽते वि, नाराहेइ संवरं ॥११॥ ( २०८ ) ने केइ पब्वइए, निहासीले पगामसो। भोच्चा पिच्चा सुहं सुवइ, पावसमणि त्ति वुच्चइ ॥१२॥ ( २०६) वेराई कुब्वइ वेरी, तो वेरेहिं रज्जइ । पावोवगा य पारमा, टुक्खफासा य अन्तसो ॥१३॥ (२१०) मासे मासे तु जो वाले, कुसग्गेणं तु भुंजए। न सो सुयक्खायधम्मस्स, फलं अग्घ सोलसि ॥१४॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाल-सूत्र ११५ ( २०६ ) अनायं मनुष्य काम-भोगो के लिए जब धर्म को छोडता है, तव वह भोग-विलास में भूच्छित रहनेवाला मूर्ख अपने भयकर भविष्य को नहीं जानता। (२०७ ) जिस तरह हमेशा भयभ्रान्त रहनेवाला चोर अपने ही दुष्कर्मों के कारण दुख उठाता है, उसी तरह मूर्ख मनुष्य भी अपने दुराचरणो के कारण दुख पाता है, और वह अतकाल में भी सवर धर्म की प्राराधना नही कर सकता। (२०८) जो भिक्षु प्रव्रज्या लेकर भी अत्यन्त निद्राशील हो जाता है, खा-पीकर मजे से सो जाया करता है, वह 'पाप-श्रमण' कहलाता है। (२०६) वैर रखनेवाला मनुष्य हमेशा वैर ही किया करता है, वह वैर में ही आनन्द पाता है। हिंसाकर्म पाप को उत्पन्न करनेवाले है, अन्त मे दुख पहुंचानेवाले है। .. (२१०) यदि अज्ञानी मनुष्य महीने महीनेभर का घोर तप करे और पारण के दिन केवल कुशा की नोक से भोजन करे, तो भी वह सत्पुरुषो के बताये धर्म का आचरण करनेवाले मनुष्य के सोलहवें हिस्से को भी नहीं पहुंच सकता। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी ( २११ ) इह जीवियं अनियमित्ता, पन्भट्ठा समाहि-जोहि । ते कामभोगरसगिद्धा, उववज्जन्ति प्रासुरे फाये ॥१॥ ( २१२ ) जावन्तविज्जा पुरिसा, सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुप्पन्ति बहुसो मूढा, संसारम्मि अणन्तए ॥१६॥ ( २१३ ) वालाणं अकामं तु मरणं असई भवे । पंडियाणं सकाम तु, उक्कोसेण सई भवे ॥१७॥ ( २१४ ) बालस्स पस्स बालतं, प्रहम्म पडिवज्जिया । चिच्चा धम्म अहम्मिट्ट, नरए उववज्जइ ॥१८॥ ( २१५ ) धीरस्स पस धीरतं, सच्चधम्माणुवत्तिणो। चिच्चा अधम्म पम्मिट्ठ, देवेसु उववज्जद ॥१९॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाल-सूत्र ११७ ( २११ ) जो मनुष्य अपने जीवन को अनियत्रित (उच्छवल) रखने के कारण यहां समाधि-योग से भ्रष्ट हो जाते है, वे काम-भोगो में आसक्त होकर अन्त में असुरयोनि में उत्पन्न होते है। ( २१२ ) सतार में जितने भी अविद्वान् (मूर्ख) पुरुष है, वे सब दुख भोगनेवाले है। मूढ प्राणी अनन्त ससार में बार-बार लुप्त होते रहते है-जन्मते और मरते रहते हैं। (२१३ ) मूर्स जीवो का अकाम मरण ससार मे बार-बार हुआ करता है। परन्तु पडित पुरुषों का सकाम मरण केवल एक वार ही होता हैवै पुनर्जन्म नही पाते। ( २१४ ) मूर्ख मनुष्य की मूर्सता तो देखो, जो धर्म को छोडकर, अधर्म को स्वीकार कर अमिप्ठ हो जाता है, और अन्त में नरक-गति को प्राप्त होता है। ( २१५ ) सत्य-धर्म के अनुगामी धीर पुरुष की धीरता देखो, जो अधर्म का परित्याग कर धर्मिष्ठ हो जाता है, और अन्त में देवलोक मे उत्पन्न होता है। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ महावीर वाणी ( २१६ ) तुलियाण बालभावं, अबालं चेव पंडिए। चहकण वालमावं, अवालं सेवई मुणी ॥२०॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ बाल-सूत्र ( २१६ ) विद्वान्, मुनि, बाल-भाव और अवाल-भाव का इस प्रकार तुलनात्मक विचार कर वाल-भाव को छोड़ दे, और अवाल-भाव को ही स्वीकार करे। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १७: पंडिय-सुत्र ( २१७ ) समिक्ख पंडिए तम्हा, पासजाइपहे बहू । अप्पणा सच्चमेसेज्जा, मेति भूएसु कप्पए ॥१॥ (२१८ ) जे य कते पिए भोए, लढे वि पिढीकृब्बई । साहीणे चयह भोए, से हु चाइ ति चुच्चई ॥२॥ ( २१६ ) वत्यगन्धमलंकार, इथियो सयणाणि य। अच्छन्दा जे न भुजन्ति, न से चाइ त्ति बुच्चई ॥३॥ ( २२० ) डहरे य पाणे बुढे य पाणे, ते अत्तो पासइ सन्चलोए । उव्वेहई लोगमिणं महन्तं, बुद्धो पमत्तेसु परिव्वएज्जा ॥४॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १७: पण्डित-सूत्र ( २१७ ) पण्डित पुरुष को चाहिए कि वह ससार-भ्रमण के कारणरूप दुष्कर्म-पागो का भली भांति विचार कर अपने आप स्वतन्त्ररूप से सत्य को सोज करे, और सब जीवो पर मंत्रीभाव रखे। (२१८ ) जो मनुष्य सुन्दर और प्रिय भोगो को पाकर भी पीठ फेर लेता है, सब प्रकार से स्वाधीन भोगो का परित्याग कर देता है, वही सच्चा त्यागी कहलाता है। (२१६ ) जो मनुष्य किसी परतत्रता के कारण वस्त्र, गन्व, अलकार, स्त्री और शयन आदि का उपभोग नही कर पाता, वह सच्चा त्यागी नहीं कहलाता। (२२० ) जो बुद्धिमान मनुष्य मोहनिद्रा मे सोते रहनेवाले मनुष्यो के बीच रहकर ससार के छोटे-बड़े सभी प्राणियो को अपनी आत्मा के समान देसे, इस महान् विश्व को प्रशाश्वत जाने, सर्वदा अप्रमत्त भाव से संयमाचरण में रत रहे वही मोक्षगति का सच्चा अधिकारी है। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ महावीर-वाणी ( २२१ ) जे ममाइप्रमई जहाइ, से जहाइ ममाइभ । से हु विट्ठभए मुणी, जस्स नस्थि ममाइ ॥५॥ ( २२२ ) जहा कुम्मे सभंगाई, सए देहे समाहरे। एवं पावाई मेहावी, अन्झप्पेण समाहरे ॥६॥ ( २२३ ) जो सहस्सं सहस्साणं, मासे मासे गवं दए। तस्स वि संजमो सेयो अविन्तस्स वि किंचण ॥७॥ ( २२४ ) नाणस्स सम्बस्स पगासणाय, अनाणमोहस्स विवज्जणाए । रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगन्तसोक्खं समुवेई मोक्वं ॥॥ ( २२५ ) तस्सेस मग्गो गुरुविद्धसेवा, विवज्जणा बालजणस्स दूरा। समाय एगन्तनिसेवणा य, सुत्तत्थसंचिन्तणया घिई या Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित-सूत्र १२३ ( २२१ ) जो ममत्व-चुद्धि का परित्याग करता है, वह ममत्व का परित्याग करता है । वास्तव में वही मसार से सच्चा भय खानेवाला मुनि है, जिसे किसी भी प्रकार का ममत्व-भाव नहीं है। (२२२ ) जैसे कमा आपत्ति से बचने के लिए अपने अगो को अपने भरीर में सिकोड लेता है, उसी प्रकार पडितजन भी विषयो की ओर जाती हुई अपनी इन्द्रियो को आध्यात्मिक ज्ञान से सिकोडकर रखे। ( २२३ ) जो मनुप्य प्रतिमास लाखो गायें दान में देता है, उसकी अपेक्षा कुछ भी न देनेवाले का मयमाचरण श्रेष्ठ है। ( २२४ ) सब प्रकार के ज्ञान को निमल करने से, अज्ञान और मोह के त्यागने से, तथा राग और ढेप का क्षय करने से एकान्त सुखस्वरूप मोक्ष प्राप्त होता है। ( २२५) सद्गुरु तथा अनुभवी वृद्धो की सेवा करना, मूरों के संसर्ग से दूर रहना, एकाग्र चित्त से सत् गास्त्रो का अभ्यास करना और उनके गम्भीर अर्थ का चिन्तन करना, और चित्त मे धृतिरूप अटल शान्ति प्राप्त करना, यह निश्रेयस का मार्ग है। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ महावीर-वाणी ( २२६ ) आहारमिच्छे मियमेसणिज्नं, सहायमिच्छे निउणत्यबुद्धि । निकेयमिच्छेज्ज विवेगजोग, समाहिकामे समणे तवत्सी ॥१०॥ ( २२७ ) न वा लभेज्जा निउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणो समं वा। एको वि पावाई विवज्जयन्तो, विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ॥११॥ ( २२८) जाई च डि च इहज्ज पास, भूहिं सायं पडिलेह जाणे। तम्हाऽइविज्जो परमं ति नच्चा, सम्मत्तदंसी न करेह पावं ॥१२॥ ( २२६ ) न कम्मुणा कम्म खर्वन्ति बाला, अकम्मुणा कम्म खन्ति पीरा। महाविणो लोभभया वईया, संतोसिणो न पकरेन्ति पावं ॥१३॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित-सूत्र ( २२६ ) समाधि की इच्छा रखनेवाला तपस्वी श्रमण परिमित तथा शुद्ध आहार ग्रहण करे, निपुण बुद्धिवाले तत्त्वज्ञानी साथी की खोज करे, और ध्यान करनेयोग्य एकान्त स्यान में निवास करे। (२२७ ) यदि अपने से गुणो मे अधिक या समान गुणवाला साथी न मिले, तो पापकर्मों का परित्याग कर तया काम-भोगो में सर्वथा अनासक्त रहकर अकेला ही विचरे । परन्तु दुराचारी का कभी भूलकर भी सग न करे। (२२८ ) ससार मे जन्म-मरण के महान् दुःखो को देखकर और यह अच्छी तरह जानकर कि-सव जीव सुख की इच्छा रखनेवाले हैं' अहिंसा को मोक्ष का मार्ग समझकर सम्यक्त्वधारी विद्वान् कमी भी पाप-कर्म नहीं करते। ( २२६ ) ___ मूर्ख साधक कितना ही क्यो न प्रयत्न करे, किन्तु पाप-कर्मों से पाप-कर्मों को कदापि नष्ट नहीं कर सकते । बुद्धिमान साधक वे है, जो पाप-कर्मों के परित्याग से पाप-कर्मों को नष्ट करते है । अतएव लोम और भय से रहित सर्वदा सन्तुष्ट रहनेवाले मेघावी पुरुष किसी भी प्रकार का पापकर्म नहीं करते। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१८: अप्प सुत्न ( २३० ) अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नन्दनं वणं ॥२॥ ( २३१ ) अप्पा कत्ता विकत्ता य, वुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पष्ट्रिय सुप्पहिलो ॥२॥ (२३२ ) अप्पा चेव इमेयव्यो, अप्पा हु खलु वुद्दमो। अप्पा दन्तो सुही होइ, अस्सि लोए परत्य य ॥३॥ ( २३३ ) परं मे अप्पा दन्तो, संजमेण तवेण य। माऽहं परेहि दम्मन्तो, बन्धणेहि बहेहि य ॥४॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १८: आत्म-सूत्र ( २३० ) अपनी आत्मा ही नरक की वैतरणी नदी तथा कूट शाल्मली वृक्ष है । और अपनी प्रात्मा ही स्वर्ग की कामदुधा घेनु तथा नन्दनवन है। (२३१) आत्मा ही अपने दुखो और सुखो का कर्ता तथा भोक्ता है। अच्छे मार्ग पर चलनेवाला आत्मा अपना मित्र है, और वुरे मार्ग पर चलनेवाला प्रात्मा अपना शत्रु है। ( २३२ ) अपने-आपको ही दमन करना चाहिए। वास्तव में अपने आपको दमन करना ही कठिन है। अपने आपको दमन करनेवाला इस लोक में तथा परलोक मे सुखी होता है। ( २३३ ) दूसरे लोग मेरा वध बन्धनादि से वमन करे, इसकी अपेक्षा तो मै संयम और तप के द्वारा अपने आप ही अपना (आत्मा का) दमन कलं, यह अच्छा है। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी ( २३४ ) जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए निणे। एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जो ॥५॥ ( २३५ ) अप्पाणमेव जुज्झाहि, कि ते जुझण बज्झयो। अप्पाणमेव अप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए ॥६॥ ( २३६ ) पंचिन्दियाणि कोहं, माणं मायं तहेव लोहं च । दुज्जयं चैव अप्पाणं, सव्वमप्पे जिए जिय ॥७॥ ( २३७ ) न त अरी कंट-छेत्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा । से नाहिइ मन्चमुहं तु पत्ते, पच्छाणुतावेण क्याविहूणो ॥६॥ ( २३८ ) जस्सेवमप्पा उ हवेज्ज निच्छिनो, चइज्ज देहं न हु धम्मसासणं । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-सूत्र १२९ ( २३४) जो वीर दुर्जय संग्राम मे लाखो योद्धाओं को जीतता है, यदि वह एकमात्र अपनी आत्मा को जीत ले, तो यह उसकी सर्वश्रेष्ठ विजय है। (२३५ ) अपनी आत्मा के साथ ही युद्ध करना चाहिए, बाहरी स्थूल पशुमो के साथ युद्ध करने से क्या लाभ ? आत्मा के द्वारा आत्मा को जीतनेवाला ही वास्तव में पूर्ण सुसी होता है। (२३६ ) पांच इन्द्रियाँ, क्रोध, मान, माया, लोभ तथा सबसे अधिक दुर्जय अपनी आत्मा को जीतना चाहिए । एक आत्मा के जीत लेने पर सब कुछ जीत लिया जाता है। (२३७ ) सिर काटनेवाला शत्रु भी उतना अपकार नहीं करता, जितना कि दुराचरण में लगी हुई अपनी आत्मा करती है। क्याशून्य दुराचारी को अपने दुराचरणो का पहले ध्यान नहीं पाता; परन्तु जब वह मृत्यु के मुख में पहुंचता है, तव अपने सब दुराचरणों को याद कर-कर पछताता है। (२३८) जिस साधक की आत्मा इस प्रकार दृढनिश्चयी हो कि 'मैं शरीर छोड सकता हूँ, परन्तु अपना धर्म-शासन नहीं छोड़ सकता,' Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० महावीरवाणी तं तारिमं नो पपतन्ति इन्दिया, उन्ति यामा प गुवाणं गिरि ( २३८ ) अप्पा हल समय परगे, मानिन्दिप गुनमाहिए। घरतिमो नाइपर उयर सुरक्षिसको ममता मुन्ना ॥१०॥ (२८० ) गरीरमा नाप ति, जीपो पुयर नायित्रो। मंगारो अग्गयो पत्तो, न परन्ति महगिणो ॥११॥ ( ४१) जो पपसाग माषपाई, मम्मं न गो पामयः पगाया। प्रनिगाहप्पा य रमेगु गित न मूलयो हिन्दी चनाणं से ॥१२॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-सूत्र उसे इन्द्रियां कभी विचलित नही कर सकती, जैसे-भीषण बवडर सुमेरु पर्वत को। ( २३६ ) समस्त इन्द्रियो को खूब अच्छी तरह समाहित करते हुए पापों से अपनी आत्मा की निरन्तर रक्षा करते रहना चाहिए । पापो से अरक्षित मात्मा संसार में भटका करती है, और सुरक्षित प्रात्मा ससार के सब दुखो से मुक्त हो जाती है। (२४० ) शरीर को नाव कहा है, जीव को नाविक कहा जाता है, और संसार को समुद्र बतलाया है । इसी ससार-समुद्र को महर्पिजन पार करते है। (२४१ ) जो प्रवजित होकर प्रमाद के कारण पांच महाव्रतो का अच्छी तरह पालन नहीं करता, अपने आपको निग्रह में नहीं रखता, कामभोगो के रस मे मासक्त हो जाता है, वह जन्म-मरण के बन्धन को जड़ से नहीं काट सकता। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १९ : लोगतत्त-सुत्तं ( २४२ ) धम्मो महन्मो भागासं, कालो पुग्गल जंतवो। एस लोगो त्ति पन्नतो, जिणेहि वरवसिहि ॥१॥ ( २४३ ) गइलक्षणो धम्मो, अहम्मो ठाणलक्षणो। भाषणं सम्वदव्वाणं, नहं ओगाहलक्खणं ॥२॥ ( २४४ ) वत्तणालक्खणो कालो, जोवो उवमोगलक्खणो। नाणेणं दसणेणं च, सुहेण य दुहेण य ॥३॥ (२४५ ) नाणं च सणं चेव, चरितं च तवो वहा । वीरिय उपभोगो य, एवं जीवस्स लक्खणं ॥४॥ ( २४६ ) सईघयार-उज्जोयो, पहा छायातवे इ वा । चण्ण-रस-गन्ध-फासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥५॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १९ : लोकतत्त्वसूत्र ( २४२ ) धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव-ये छ. द्रव्य है। केवलदर्शन के घr जिन भगवानो ने इन सबको लोक कहा है। । ( २४३ ) धर्मद्रव्य का लक्षण गति है, अधर्मद्रव्य का लक्षण स्थिति है। सव पदार्थों को अवकाश देना-आकाश का लक्षण है। (२४) काल का लक्षण वर्तना है, और उपयोग जीव का लक्षण है। जीवात्मा ज्ञान से, दर्शन से, सुख से, तथा दुख से जाना-पहचाना जाता है। ( २४५ ) अतएव ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य, तप, वीर्य और उपयोग-ये सब जीव के लक्षण है। ( २४६ ) शब्द, अन्धकार, उजेला, प्रभा, छाया, आतप (धूप), वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श-ये सव पुद्गल के लक्षण है । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ महावीर-वाणी ( २४७ ) जीवाजीवा य बन्धो य पुण्णं पावासवो तहा। संवरो निन्जरा मोक्खो, सन्तेए तहिया नव ॥६॥ ( २४८ ) तहियाणं तु भावाणं, सब्भावे उबएसणं । भावेणं सद्दहन्तस्स, सम्मत्तं तं वियाहियं ॥७॥ (२४६ ) नाणेण जाणइ भावे, दसणेणं य सद्दहे । चरित्तण निगिण्हाइ, तवेण परिसुभाइ । ( २५० ) नाणं च दसणं घेव, चरित्तं च तवो तहा। एय मग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छन्ति सुग्गई ॥६॥ ( २५१ ) तत्थ पंचविहं नाणं, सुर्य भाभिनिबोहियं । मोहिनाणं तु तइय, मणनाणं च केवलं ॥१०॥ ( २५२-२५३ ) नाणसावरणिज्ज, सणावरणं तहा । वेयणिज्ज तहा मोह, पाउकम्मं तहेव य ॥११॥ नामकम्मं च गोतं च, अन्तरायं तहेव य। एवमेयाई कम्माई, प्रदेव उ समासो ॥१२॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकतत्त्व-सूत्र १३५ (२४७ ) जीव, अजीव, वन्ध, पुण्य, पाप, आस्रव, सवर, निर्जरा और मोक्ष-ये नव सत्य-तत्त्व है। ( २४८ ) जीवादिक सत्य पदार्थों के अस्तित्व के विषय में सद्गुरु के उपदेश से, अथवा स्वय ही अपने भाव से श्रद्धान करना, सम्यक्त्व कहा गया है। (२४६ ) मुमुक्ष प्रात्मा ज्ञान से जीवादिक पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धान करता है, चारित्र्य से भोग-वासनामो का निग्रह करता है, और तप से कर्ममलरहित होकर पूर्णतया शुद्ध हो जाता है। ( २५०) ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य और तप–इस चतुष्टय अध्यात्ममार्ग को प्राप्त होकर मुमुक्ष जीव मोक्षरुप सद्गति को पाते है। ( २५१ ) मति, श्रुत, अवधि, मन पर्याय और केवल इस भाँति ज्ञान पांच प्रकार का है। ( २५२-२५३ ) शानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय-इस प्रकार संक्षेप में ये आठ कम वतलाये है। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ महावीर-वाणी ( २५४ ) सो तवो दुविहो वुत्तो, बाहिरब्भन्तरो तहा। बाहिरो छविही वृत्तो, एवमन्भन्तरो तवो ॥१३॥ ( २५५ ) अणसणमूणोयरिया, भिक्खायरिया रसपरिच्चाओ। कायकिलेसो संलोणया य, बज्भो तवो होइ ॥१४॥ ( २५६ ) पायच्छित्तं विणो, वेयावच्चं तहेव सभाओ। भाणं च विउस्सग्गो, एसो अन्भिन्तरो तवो ॥१२॥ ( २५७ ) किण्हा नीला य काऊ य, तेक पम्हा तहेव य। सुक्कलेसा य छट्ठा, नामाई- तु नहक्कम ॥१६॥ ( २५८ ) किण्हा नीला काऊ, तिन्नि वि एयानो अहम्मलेसानो। एयाहि तिहि वि जीवो, दुग्गई उववज्जइ ॥१७॥ ( २५६ ) तेऊ पम्हा सुक्का, तिलि वि एयाओ धम्मलेसाओ । एयाहि तिहि वि जीवो, सुग्गई उववज्जह ॥१८॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकतत्त्व-सूत्र ( २५४ ) तप दो प्रकार का बतलाया है वाह्य और अभ्यतर । वाह्य तपछ प्रकार का कहा है, इसी प्रकार अभ्यन्तर तप भी छ ही प्रकार का है। अनशन, कनोदरी, भिक्षाचरी, रसपरित्याग, काय-क्लेश और संलेखना-ये बाह्य तप है। (२५६ ) प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्गये अभ्यन्तर तप है। ( २५७ ) कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म, और शुक्ल-ये लेश्यामो के क्रमश. छ नाम है। (२५८ ) कृष्ण, नील, कापोत-ये तीन अधर्म-लेश्याएं हैं। इन तीनो से युक्त जीव दुर्गति में उत्पन्न होता है। ( २५६) तेज, पद्म और शुक्ल-ये तीन धर्म-लेश्याएं हैं। इन तीनो से युक्त जीव सद्गति में उत्पन्न होता है। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ महावीर-वाणी ( २६० ) भट्टी पवयणमायानो, समिई गुत्ती तहेव य। पंचेव य समिईनो, तो गुत्तीमो आहिया ॥१९॥ ( २६१ ) इरियाभासेसणादाणे, उच्चारे समिई इय । मणगृत्ती वयगुत्ती, कायगुत्ती य अट्ठमा ॥२०॥ ( २६२ ) एयायो पंच समिईओ, चरणस्स य पवत्तणे। गुत्ती नियत्तणे वृत्ता, असुभत्येसु सब्बसो ॥२१॥ ( २६३ ) एसा पवयणमाया, ने समं पायरे मुणी । से खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पंडिए ॥२२॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकतत्त्व-सूत्र १३९ ( २६० ) पांच समिति और तीन गुप्ति-इस प्रकार पाठ प्रवचन-माताएं कहलाती हैं। ( २६१ ) ईर्या, भापा, एपणा, आदान-निक्षेप, और उच्चार-ये पांच समितियां है। तथा मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, और कायगुप्ति-ये तीन गुप्तियां है। इस प्रकार दोनो मिलकर आठ प्रवचन-माताएं है। ( २६२ ) पांच समितियां चारित्र्य की दया आदि प्रवृत्तियो में काम आती है, और तीन गुप्तियां सव प्रकार के अशुभ व्यापारो से निवृत्त होने में सहायक होती है। (२६३ ) जो विद्वान् मुनि उक्त आठ प्रवचन-माताओ का अच्छी तरह आचरण करता है, वह शीघ्र ही अखिल ससार से सदा के लिए मुक्त हो जाता है। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २० पुज्ज-सुत्तं ( २६४ ) मायारमहा विणयं पउने, सुस्सूसमाणो परिगिन्म वक्कं । जहोवइट्ठ अभिखमाणो, गुरु तु नासाययई स पुज्जो ॥१॥ ( २६५ ) अन्नापउँछ चरइ विसुद्धं, जवणट्टया समुयाणं च निच्वं । मलबुयं नो परिवेवएज्जा, लढुं न विकत्थई स पुज्जो ॥२॥ (२६६ ) संथारसेज्जासणभत्तपाणे, अप्पिच्छया अइलाभे वि सन्ते । जो एवमप्पाणऽभितोसएज्जा, संतोसपाहन्नरए स पुज्जो ॥३॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २० पूज्य-सूत्र ( २६४ ) जो आचार-प्राप्ति के लिए विनय का प्रयोग करता है, जो भक्तिपूर्वक गुरु-वचनो को सुन एव स्वीकृत कर कहने के अनुसार कार्य को पूरा करता है, जो गुरु की कभी अशातना नही करता वही पूज्य है। ( २६५ ) जो केवल सयम-यात्रा के निर्वाह के लिए अपरिचितभाव से दोप-रहित भिक्षावृत्ति करता है, जो आहार आदि न मिलने पर कमी खिन्न नहीं होता और मिल जाने पर कभी प्रसन्न नहीं होता, वही पूज्य है। ( २६६ ) जो सस्तारक, शय्या, आसन और भोजन-पान आदि का अधिक लाभ होने पर भी अपनी आवश्यकता के अनुसार थोडा ही ग्रहण करता है, सन्तोप की प्रधानता में रत होकर अपने आपको सदा सन्तुष्ट बनाये रखता है, वही पूज्य है। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ महावीर-वाणी ( २६७ ) सक्का सहेर्ड प्रासाइ कंटया, प्रश्नोमया उच्छहया नरेण । प्रणासए जो उ सहेज कंटए, बईमए कण्णसरे स पुज्जो ॥४॥ ( २६८ ) समावयन्ता वयणाभिधाया, कणं गया दुम्मणियं जणन्ति । धम्मो ति किच्चा परमग्गसूरे, जिइन्दिए जो सहइ स पुज्जो ॥५॥ ( २६६) अवणवायं च परंमुहस्स, पच्चक्खनो पडिणीयं च भास । मोहारिणि अप्पियकारिणि च, भासं न भासेज्ज सया स पुज्जो ॥६॥ ( २७० ) अलोलुए अक्कुहए अमाई, अपिसुणे या वि अवीणिवित्ती। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य-सूत्र १४३ ( २६७ ) संसार में लोभी मनुष्य के द्वारा किसी विशेष आशा की पूर्ति के लिए लोह-कटक भी सहन कर लिये जाते है, परन्तु जो विना किसी आगा-तृष्णा के कानो मे तीर के समान चुभनेवाले दुर्वचनरूपी कटको को सहन करता है, वही पूज्य है। (२६८ ) विरोधियो की ओर से पडनेवाली दुर्वचन की चोटें कानो में पहुंचकर बड़ी मर्मान्तक पीडा पैदा करती है, परन्तु जो क्षमाशूर जितेन्द्रिय पुरुप उन चोटो को अपना धर्म जानकर समभाव से सहन कर लेता है, वही पृज्य है। (२६६ ) जो परोक्ष में किसीकी निन्दा नहीं करता, प्रत्यक्ष मे भी कलहवर्द्धक अट-सट बाते नही वकता, दूसरो को पीडा पहुंचानेवाली एव निश्चयकारी भाषा भी कभी नही बोलता, वही पूज्य है। (२७०) जो रसलोलुप नहीं है, इन्द्रजाली (जादू-टोना करनेवाला) नही है, मायावी नहीं है, चुगलखोर नहीं है, दीन नही है, दूसरो से अपनी प्रशसा सुनने की इच्छा नही रखता, स्वयं भी अपने मुंह से Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ महावीर-वाणी नो भावए नो वि य भावियप्पा, अकोउहल्ले य सया स पुज्जो ॥७॥ ( २७१ ) गुणेहि साहू अगुणेहिसाहू, गिहाहि साहू गुण मुञ्चऽसाहू । वियाणिया अप्पगमप्पएणं, जो रागदोसेहि समो स पुज्जो ॥६॥ ( २७२ ) तहेब बहरं च महल्लगं वा, इत्थी पुर्म पन्वइयं गिहि वा। नो हीलए नो विय खिसएज्जा, __ थमं च कोहं च चए स पुज्जो ॥६॥ ( २७३ ) तेस गुरूणं गुणसायराणं, सोच्चाणं मेहावी सुभासियाई। चरे भुणी पंचरए तिगुत्तो, चउकसायावगए स पुज्जो ॥१०॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य-सूत्र १४५ अपनी प्रशसा नहीं करता, खेल तमाशा आदि देखने का भी शौकीन नहीं, वही पूज्य है। ( २७१ ) गुणो से साधु होता है और अगुणो से असाधु, अत हे मुमुक्षु । सद्गुणो को ग्रहण कर और दुर्गुणो को छोड । जो साधक अपनी आत्मा द्वारा अपनी प्रात्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचानकर राग और द्वेप दोनो में समभाव रखता है, वही पूज्य है। (२७२ ) जो बालक, वृद्ध, स्त्री, पुरुष, साबु, और गृहस्थ आदि किसीका भी अपमान तया तिरस्कार नहीं करता, जो क्रोध और अभिमान का पूर्णरूप से परित्याग करता है, वही पूज्य है। ( २७३ ) जो वुद्धिमान मुनि सद्गुण-सिन्धु गुरुजनो के सुभाषितो को सुनकर तदनुसार पांच महाव्रतो में रत होता है, तीन गुप्तियाँ धारण करता है, और चार कपायो से दूर रहता है, वही पूज्य है। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२१ : माहण-सुत्तं ( २७४ ) जो न सज्जइ प्रागन्तं, पव्वयन्तो न सोयई। रमद प्रज्जवयणम्मि, तं वयं बूम माहणं ॥१॥ ( २७५ ) जायरूवं जहाम?, निढन्तमल-पावर्ग। राग-दोस-भयाईयं, तं वयं धूम माहणं ॥२॥ ( २७६ ) तवस्सियं फिर्स दन्तं, अवचियमसंसोणिय । सुन्वयं पत्तनिव्वाणं, तं वयं बूम माहणं ॥३॥ ( २७७ ) तसपाणे वियाणित्ता, संगहेण य थावरे । जो न हिसइ तिविहेणं, तं वयं वूम माहणं ॥४॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २१: ब्राह्मण-सूत्र ( २७४ ) जो भानेवाले स्नेही जनो मे आसक्ति नहीं रखता, जो जाता हुमा शोक नहीं करता, जो आर्य-वचनो म सदा आनन्द पाता है, उसे हम ब्राह्मण कहते है। (२७५ ) ___ जो अग्नि में डालकर शुद्ध किये हुए और कसौटी पर कसे हुए सोने के समान निर्मल है, जो राग, द्वेष तथा भय से रहित है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। (२७६ ) जो तपस्वी है, जो दुवला-पतला है, जो इन्द्रिय-निग्रही है, उग्र तप साधना के कारण जिसका रक्त और मास भी सूख गया है, जो शुद्धवती है, जिसने निर्वाण (भात्मशान्ति) पा लिया है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। (२७७ ) __ जोस्थावर, जगम सभी प्राणियो को भलीभांति जानकर, उनकी तीनों ही प्रकार से कभी हिंसा नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण __मन, वाणी और शरीर से; अथवा करने, कराने और अनुमोदन से। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी ( २५८) कोहा वा जइ वा हासा, लोहा वा जइ वा भया । मुस न वयई जो उ, तं वयं वूम माहणं ॥५॥ (२७६ ) चित्तमन्तमचित्तं वा, अप्पं वा नइ वा बहुं । न गिहाइ प्रदत्तं जे, तं वयं वूम माहणे ॥६॥ (२०) दिव्य-माणुस-तेरिच्छं, जो न सेवइ मेहुणं । मणसा काय-वक्केणं, तं वयं वूम माहणं ॥७॥ ( २८१ ) जहा पोम्म जले जाय, नोवलिप्पइ वारिणा । एवं अलितं कामेहि, तं वयं वूम माहणं ॥८॥ (२२) अलोलुयं महानीविं, अणगार अकिंवणं । प्रसंसत्तं गिहत्येसु, तं घयं बूम माहणं ॥९॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मण-सूत्र १४९ कहते है। ( २७८ ) जो कोष से, हास्य से, लोभ से अथवा भय से-किसी भी मलिन सकल्प से असत्य नहीं बोलता, उसे हम ब्राह्मण कहते है। ( २७६ ) जो सचित्त या अचित्त कोई भी पदार्थ भले ही फिर वह थोडा हो या ज्यादा, मालिक के सहर्ष दिये विना चोरी से नहीं लेता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। (२०) जो देवता, मनुष्य तथा तिर्यञ्च सम्बन्धी सभी प्रकार के मैथुन का मन, वाणी और शरीर से कभी सेवन नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते है। (२८१ ) जिस प्रकार कमल जल में उत्पन्न होकर भी जल से लिप्त नही होता, इसी प्रकार जो ससार में रहकर भी काम-भोगो से सर्वथा अलिप्त रहता है, उसे हम ब्राह्मण कहते है। ( २८२ ) जो अलोलुप है, जो अनासक्त-जीवी है, जो अनागार (विना घरवार का) है, जो अकिंचन है, जो गृहस्थो से अलिप्त है, उसे हम ब्राह्मण कहते है। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० महावीर-वाणी ( २८३ ) नहित्ता पुन्व-संनोग, नाइसंगे य बन्धवे । जो न सज्जइ भोगेसु, तं वयं बूम माहणं ॥१०॥ ( २५४) न वि मुंडिएण समणो, न ओकारेण बंभणो। न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण तावसो ॥११॥ ( २८५ ) समयाए समणो होइ, बंभोरेण बंभयो। नाणेण मुणी होइ तवेण होइ तावसो ॥१२॥ ( २८६ ) कम्मुणा बभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिो। वइसो कम्मुणा होइ, सुदो हवइ कम्मुणा ॥१३॥ ( २५७ ) एवं गुणसमाउत्ता, जे भवन्ति दिउत्तमा । ते समत्या समुद्धत्तं, परमप्पाणमेव य ॥१४॥ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मण-सूत्र ( २८३ ) जो स्त्री-पुत्र आदि के स्नेह पैदा करनेवाले पूर्व सम्बन्धो को, जाति-बिरादरी के मेल-जोल को तथा वन्धु-जनो को एक वार त्याग देने के बाद फिर उनमे किसी प्रकार की आसक्ति नहीं रखता, दोवारा काम-भोगो में नहीं फंसता, उसे हम ब्राह्मण कहते है। (२४) सिर मुंडा लेनेमात्र से कोई श्रमण नही होता, 'प्रोम्' का जाप कर लेनेमात्र से कोई ब्राह्मण नही होता, निर्जन वन में रहनेमात्र से कोई मुनि नहीं होता, और न कुशा के बने वस्त्र पहन लेनेमात्र से कोई तपस्वी ही हो सकता है। ( २८५) समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से मुनि होता है, और तप से तपस्वी बना जाता है। (२८६ ) __ मनुष्य कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय होता है, कर्म से ही वैश्य होता है, और शूद्र भी अपने कृत कर्मों से ही होता है । (अर्थात् वर्ण-भेद जन्म से नहीं होता। जो जैसा अच्छा या बुरा कार्य करता है, वह वैसा ही ऊंचा नीचा हो जाता है।) (२८७ ) इस भांति पवित्र गुणों से युक्त जो द्विजोत्तम (श्रेष्ठ ब्राह्मण) है, वास्तव में वे ही अपना तथा दूसरो का उद्धार कर सकने में समर्थ है । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २२: भिक्खु-सुत्तं (२८८ ) रोइन नायपुत्त-वयणे, अप्पसमे भन्नेज्ज छ प्पि काए । पंच य फासे महत्वयाई, पंचासवसंवरे जे स भिक्खू ॥१॥ (२८६ ) चत्तारि वमे सया कसाए, घुवजोगी य हविज्ज बुद्धवयणे। अहणे निज्जायस्व-रयए, गिहिजोगं परिवज्जए ने त भिक्खू ॥२॥ ( २९० ) । सम्मविही सया अमूढे, अस्थि हु नाणे तव-संजमे य। तवसा धुणइ पुराण पावर्ग, मण-वय-कायसुसंवुड़े जे स भिक्खू ॥३॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २२: भिक्षु-सूत्र ( २८८ ) जो जातपुत्र-भगवान महावीर के प्रवचनो पर श्रद्धा रखकर छ काय के जीवो को अपनी आत्मा के समान मानता है, जो अहिंसा आदि पांच महावतो का पूर्ण रूप से पालन करता है, जो पांच प्रास्त्रवो का सवरण अर्थात् निरोध करता है, वही भिक्षु है। (२८६) जो सदा क्रोध, मान, माया और लोभ-चार कपायो का परित्याग करता है, जो नानी पुरुषो के वचनो पर दृढविश्वासी रहता है, जो चाँदी, सोना आदि किसी भी प्रकार का परिग्रह नही रखता, जो गृहस्यों के साथ कोई भी सासारिक स्नेह-सम्बन्ध नही जोडता, वही भिक्षु है। ( २६०) जो सम्यग्दर्णी है, जो कर्तव्य-विमूढ नही है, जो ज्ञान, तप और सयम का दृढ श्रद्धालु है, जो मन, वचन और शरीर को पाप-पथ पर जाने से रोक रखता है, जो तप के द्वारा पूर्व-कृत पाप-कर्मों को नष्ट कर देता है, वही भिक्षु है। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ महावीर-वाणी ( २९१ ) न य चुग्गहियं कहं कहिन्जा, नय कुप्पे निहुइन्दिए पसन्ते । संजमधुवजोगजुत्ते, उवसते अविहेडए जे स भिक्खू ॥४॥ ( २९२ ) जो सहइ हु गामफटए, अकोस-पहार-तज्जणामो य। भय-भैरव-सह-सम्पहासे, समसुह-चुपखसहे जे स भिक्खू ॥५॥ ( २९३ ) अभिभूय कारण परिसहाई, ___समुद्धरे नाइपहाउ अप्पयं । विइत्तु जाई-भरणं महब्भयं, तवे रए सामणिए जे स भिक्खू ॥६॥ ( २६४ ) हत्थसंजए पायसंजए, वायसंजए संजइन्दिए । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ भिक्षु-सूत्र ( २६१ ) जो कलहकारी वचन नहीं कहता, जो क्रोध नहीं करता, जिसकी इन्द्रियाँ प्रचंचल है, जो प्रशान्त है, जो सयम में ध्रुवयोगी (सर्वथा तल्लीन) रहता है, जो सकट आने पर व्याकुल नहीं होता, जो कभी योग्य कर्तव्य का अनादर नहीं करता, वही भिक्षु है। ( २६२ ) जो कान मे काँटे के समान चुभनेवाले आक्रोश वचनो को, प्रहारों को, तथा अयोग्य उपालभो को शान्तिपूर्वक सह लेता है, जो भीपण अट्टहास और प्रचण्ड गर्जनावाले स्थानो में भी निर्भय रहता है, जो सुस-दुःख दोनो को एकसमान समभावपूर्वक सहन करता है, वही मिक्ष है। ( २९३ ) जो शरीर से परीपहो को धैर्य के साथ सहन कर ससार-गर्त से अपना उद्धार कर लेता है, जो जन्म-मरण को महाभयकर जानकर सदा श्रमणोचित तपश्चरण में रत रहता है, वही भिक्षु है। ( २६४ ) जो हाथ, पांव, वाणी और इन्द्रियो का यथार्थ संयम रखता है, जो सदा अध्यात्म-चिंतन में ही रत रहता है, जो अपने आपको Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ महावीर-वाणी अझप्परए सुसमाहिमप्पा, सुत्तत्थं च वियाणइ जे स भिक्खू ॥७॥ ( २९५ ) उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्ध, अन्नायउंछ पुलनिप्पुलाए। कयविक्कयसनिहिलो विरए, सव्वसंगावगए य जे स भिक्खू ॥ ( २९६ ) अलोल भिक्खू न रसेसु गिद्ध, उंछ घरे जीविय नाभिकखे। हड्डि च सपकारण-पूयणं च, चए ठियप्पा अणिहे जे स भिक्खू ॥६॥ ( २९७ ) न परं धइज्जासि अयं कुसीले, जेणं च फुप्पेज न ले वएज्जा। जाणिय पत्तेयं पुण्ण-पावं, अत्ताणं न समुक्कसे जे स भिक्खू ॥१०॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिक्षु-सूत्र भली भांति समाधिस्थ करता है, जो सूत्रार्थ का पूरा जाननेवाला है, वही भिक्षु है। ( २६५) जो अपने सयम-साधक उपकरणोतक में भी मूर्छा (आसक्ति) नही रखता, जो लालची नही है, जो अज्ञात परिवारो के यहां से भिक्षा मांगता है, जो संयम-पथ मे वाधक होनेवाले दोपो से दूर रहता है, जो सरीदने-बेचने और सग्रह करने के गृहस्थोचित धधो के फेर मे नही पडता, जो सव प्रकार से नि सग रहता है, वही भिक्षु है। ( २९६ ) जो मुनि अलोलुप है, जो रसों में अगृद्ध है, जो अज्ञात कुल की भिक्षा करता है, जो जीवन की चिन्ता नहीं करता, जो ऋद्धि, सत्कार और पूजा-प्रतिष्ठा का मोह भी छोड देता है, जो स्थितात्मा तथा निस्पृही है, वही भिक्षु है। ( २९७ ) जो दूसरो को यह दुराचारी है ऐसा नहीं कहता, जो कटु वचन -जिससे सुननेवाला क्षुब्ध हो-नही बोलता, 'सव जीव अपनेअपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार ही सुख-दुःख भोगते हैं। ऐसा जानकर जो दूसरों की निन्ध चेष्टानो पर लक्ष्य न देकर अपने सुधार की चिंता करता है, जो अपने आपको उन तप और त्याग आदि के गर्व से उद्धत नहीं बनाता, वही भिक्षु है । १२ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी ( २९८ ) न जाइमत्ते न य स्वमत्ते, न लाभमत्ते न सुएण मत्ते। मयाणि सन्याणि विवज्जयंतो, धम्मन्माणरए जे स भिक्खू ॥१॥ ( २९६ ) पवेयए अज्जपर्य महामुणी, धम्मे ठिो ठावयई परं पि। निक्खम्म बन्जेज्ज कुसीलिंग, न यावि हासंकुहए ने स भिक्खू ॥१२॥ ( ३०० ) तं देहवासं असुई असासयं, __सया चए निच्चहियद्रियप्पा। छिदित्तु जाईमरणस्स बंधणं, उवेइ भिक्खू अपुणागमं गई ॥१३॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिनु-सूत्र १५९ ( २९८ ) जो जाति का अभिमान नहीं करता, जो रूप का अभिमान नहीं करता, जो लाभ का अभिमान नहीं करता, जो श्रुत (पांडित्य) का अभिमान नहीं करता, जो सभी प्रकार के अभिमानो का परित्याग कर केवल धर्म-ध्यान में ही रत रहता है, वही भिक्षु है। ( २६९) जो महामुनि आर्यपद (सद्धर्म) का उपदेश करता है, जो स्वय धर्म में स्थित होकर दूसरो को भी धर्म में स्थित करता है, जो घरगृहस्थी के प्रपच से निकलकर सदा के लिए कुशील लिंग (निन्ध वेश) को छोड़ देता है, जो किसीके साथ हंसी-ठट्ठा भी नही करता, वही भिक्षु है। ( ३०० ) इस भांति अपने को सदैव कल्याण पथ पर खड़ा रखनेवाला भिक्षु अपवित्र और क्षणभगुर शरीर में निवास करना हमेशा के लिए, छोड़ देता है, जन्म-मरण के बन्धनो को सर्वथा काटकर अपुनरागमगति (मोक्ष) को प्राप्त होता है। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २३ : मोक्खमग्ग-सुत्तं ( ३०१) कहं चरे? कह चिट्ठ ? कहमासे ? कहं सए? कहं भुंजन्तो भासन्तो पावं कम्मं न बन्धइ ? ॥१॥ ( ३०२) जयं घरे जयं चिट्टे, जयमासे जयं सए। जयं भुंजन्तो भासन्तो पावं कम्मं न बन्धइ ॥२॥ ( ३०३ ) सव्वभूयप्पभूयस्स सम्मं भूयाई पासो । पिहियासवस्त दन्तस्स पावं कम्मं न बन्धह ॥३॥ ( ३०४ ) पढम नाणं तमो.दया एवं चिदुइ सव्वसंजए। अन्नाणी किं काही किंवा नाहिइ छेय-पावगं ॥४॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २३ : मोक्षमार्ग-सूत्र (३०१) भन्ते कैसे चले? कैसे खडा हो ? कैसे बैठे ? कैसे सोये ? कैसे भोजन करे? कैसे वोले ?-जिससे कि पाप-कर्म का बन्धन न हो। ( ३०२) आयुष्मन् । विवेक से चले, विवेक से खडा हो; विवेक मे बैठे; विवेक से सोये, विवेक से जिन करे; और विवेक से ही बोले, तो पाप-कर्म नहीं बांध सकता। (३०३ ) जो सब जीवो को अपने ही समान समझता है, अपने, पराये, सवको समान दृष्टि से देखता है, जिसने सव आत्रवो का निरोष कर लिया है, जो चचल इन्द्रियो का दमन कर चुका है, उसे पाप-कर्म का बन्धन नहीं होता। (३०४) प्रथम ज्ञान है, पीछे दया। इसी क्रम पर समग्र त्यागीवर्ग अपनी सयम-यात्रा के लिए ठहरा हुआ है। भला, अज्ञानी मनुष्य क्या करेगा ? श्रेय तथा पाप को वह कैसे जान सकेगा ? Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ महावीर-वाणी ( ३०५ ) सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं । उभयं पि जाणइ सोच्चा, जं छेयं तं समायरे ॥५॥ ( ३०६ ) जो जीवे वि न जाणइ, अजीवे वि न जाणइ । जीवाऽजीवें प्रयाणतो कहं सो नाहीइ संजमं ॥६॥ ( ३०७ ) जो जीवे वि बियाणाइ, अजीवे वि वियाणइ । जीवाऽनीवे वियाणतो, सो हु नाहीइ संजमं ॥७॥ ( ३०८ ) जया जीवमनीवे य, दो वि एए वियाणइ । तया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाणइ ॥ (३०९) जया गई बहुविहं सबजीवाण जाणइ । तया पुण्णं च पावं च बंधं मोक्खं च जाणइ ॥९॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग-सूत्र १६३ ( ३०५) सुनकर ही कल्याण का मार्ग जाना जाता है। सुनकर ही पाप का मार्ग जाना जाता है। दोनो ही मार्ग सुनकर ही जाने जाते है । बुद्धिमान सावक का कर्तव्य है कि पहले श्रवण करे और फिर अपने को जो श्रेय मालूम हो, उसका आचरण करे। जो न तो जीव (चेतनतत्त्व) को जानता है, और न अजीव (जड़तत्त्व)को ही जानता है, वह जीव अजीव के स्वरूप को न जाननेवाला साबक भला, किस तरह सयम को जान सकेगा? ( ३०७ ) जो जीव को भी जानता है और अजीव को भी जानता है, ऐसा जीव और अजीव-दोनो को भलीभांति जाननेवाला सावक ही सयम को जान सकेगा। ( ३०८ ) जव जीव और अजीव-दोनो को भलीभांति जान लेता है, तव वह सब जीवों की नानाविध गति (नरक तिर्यंच आदि) को भी जान लेता है। ( ३०६) जब वह सब जीवों की नानाविध गतियो को जान लेता है, तव पुण्य, पाप, वन्धन और मोक्ष को भी जान लेता है। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ महावीर-वाणी ( ३१०) जया पुण्णं च पावं च बंध मोक्खं च जाणइ। तया निविदए भोए जे दिवे जे य माणुसे ॥१०॥ ( ३११ ) जया निविदए भोए जे दिवे ने य माणुसे । तया चयइ संजोग सन्भिन्तरं बाहिरं ॥११॥ ( ३१२ ) जया चयइ संजोग सन्भिन्तर बाहिरं। तया मुण्डे भवित्ताणं पन्वयइ अणगारियं ॥१२॥ ( ३१३ ) नया मुण्डे भवित्ताणं पव्वयइ अणगारियं । तया संवरमुक्किटुं धम्म फासे अणुतरं ॥१॥ ( ३१४ ) जया संवरमुक्किट्ठ धर्म फासे अणुत्तरं । तया धुणइ कम्मरयं प्रबोहिकलुसं कडं ॥१४॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग-सूत्र (३१०) जव पुण्य, पाप, बन्धन और मोक्ष को जान लेता है, तब देवता और मनुष्यसम्बन्धी समस्त काम-भोगो को जान लेता है अर्थात् उनसे विरक्त हो जाता है। (३११) जव देवता और मनुष्यसम्बन्धी समस्त काम-भोगो से विरक्त हो जाता है, तब अन्दर और बाहर के सभी सासारिक सम्बन्धो को छोड़ देता है। ( ३१२) जव अन्दर और बाहर के समस्त सासारिक सम्बन्धो को छोड देता है, तब मुण्डित (दीक्षित) होकर पूर्णतया अनागार वृत्ति (मुनिचर्या) को प्राप्त करता है। जब मुण्डित होकर अनागार वृत्ति को प्राप्त करता है, तब उत्कृष्ट संवर एव अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है। (३१४ ) जब उत्कृष्ट सवर एवं अनुत्तर धर्म का सर्य करता है, तव (अन्तरात्मा पर से) अज्ञानकालिमाजन्य कर्म-मल को झाड़ देता Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ महावीरवाणी ( ३१५ ) जया धुणइ कम्मरयं अवोहिकलुसं कडं । तया सब्वत्तगं नाणं दसणं चाभिगच्छइ ॥१५॥ ( ३१६ ) जया सव्वत्तगं नाणं दसणं चाभिगच्छह । तया लोगमलोगं च जिणो जाणइ फेवली ॥१६॥ ( ३१७ ) जया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली । तया जोगे निरंभित्ता सेलेसि पडिवज्जइ ॥१७॥ ( ३१८ ) जया जोगे निरंभित्ता सेलेसि पडिवज्जइ । तया कम्म खवित्ताणं सिद्धि गच्छह नीरभो ॥१८॥ ( ३१६) जया कम्म खवित्ताणं सिद्धि गच्छइ नीरो। तया लोगमत्ययत्यो सिद्धो हवइ सासमो ॥१९॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग-सूत्र १६७ ( ३१५ ) जब (अन्तरात्मा पर से )प्रज्ञानकालिमाजन्य कर्म-मल को दूर कर देता है, तब सर्वत्रगामी केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है। जव सर्वत्रगामी केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है, तव जिन तथा केवली होकर लोक और प्रलोक को जान लेता है। __ जव केवलज्ञानी जिन लोक प्रलोकरूप समस्त ससार को जान लेता है, तव (आयु समाप्ति पर) मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति का निरोधन कर शैलेशी (अचल-अकम्प) अवस्था को प्राप्त होता है । (३१८) जव मन, वचन और शरीर के योगो का निरोधन कर मात्मा शैलेशी अवस्था को पाती है-पूर्णरूप से स्पन्दन-रहित हो जाती है, तव सव कर्मों को क्षय कर-सर्वथा मल-रहित होकर सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त होती है। (३१६) जव आत्मा सब कर्मों को क्षय कर-सर्वथा मलरहित होकर सिद्धि को पा लेती है, तव लोक के मस्तक पर-ऊपर के अन्य भागपर स्थित होकर सदा काल के लिए सिद्ध हो जाती है। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ महावीरवाणी ( ३२०) सुहसायगस्स समणस्स सायाउलगस्स निगामसाइस्स। उच्छोलणापहाविस्स दुल्लहा सोग्गई तारिसगस्स ॥२०॥ (३२१) तवोगुणपहाणस्स उज्जुमईखन्तिसंजमरयस्स । परीसहे जिणन्तस्स सुलहा सोग्गई तारिसगस्स ॥२१॥ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग-सूत्र १६९ ( ३२०) जो श्रमण भौतिक सुख की इच्छा रखता है, भविष्यकालिक सुख-साधनो के लिए व्याकुल रहता है, जब देखो तव सोता रहता है, मुन्दरता के फेर में पड़कर हाय, पर, मुंह आदि धोने में लगा रहता है, उसे सद्गति मिलनी बड़ी दुर्लभ है। ( ३२१ ) जो उत्कृष्ट तपश्चरण का गुण रसता है, प्रकृति से सरल है, क्षमा और संयम में रत है, शान्ति के साथ क्षुघा आदि परीपहो को जीतनेवाला है, उसे सद्गति मिलनी बडी सुलभ है। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२४: विवाद-सुत् ( ३२२ ) नत्थियवायो संति पंच महन्भूया, इहमेगेसिमाहिया। पुढवी पाऊ तेक वा, वाऊ भागासपंचमा ॥१॥ ( ३२३ ) एए पंच महब्भूया, तेब्भो एगो ति माहिया । मह तेसि विणासेणं, विणासो होइ देहिणो ॥२॥ ( ३२४ ) बम्हवाओ जहा य पुठवीथूभे, एगे नाणा हि दीसइ । एवं भो ! कसिणे लोए, विनू नाणा हि दोसइ ॥३॥ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२४: विवाद-सूत्र ( ३२२) नास्तिक वाद कितने ही लोगो की ऐसी मान्यता है कि इस ससार में जो कुछ भी है वह केवल पृथ्वी, जल, तेज, वायु और पांचवां आकाशये पांच महाभूत ही है। ( ३२३ ) उक्त महाभूतो में से एक (आत्मा) पैदा होती है, भूतो का नाश होने पर देही (आत्मा) का भी नाश हो जाता है। अर्थात्जीवात्मा कोई स्वतन्य पदार्य नहीं है। वह पांच महाभूतो में से उत्पन्न होता है, और जब वे नष्ट होते है, तव उनके साथ ही स्वय भी नष्ट हो जाता है। (३२४ ) ब्रह्मवाद ___ जैसे,पृथ्वी का समूह (पृथ्वीस्तूप) एक (एकसमान) है, तो भी पर्वत, नगर, घट, गराव आदि अनेक रूपो मे पृथक्-पृथक् मालूम होता है। उसी तरह समस्त विश्व भी विज्ञ-स्वरुप (एक ही चैतन्य पात्माके रूप में समान) है,तथापि भेद-बुद्धि के कारण वन, वृक्ष प्रादि जड तथा पशु, पक्षी,मनुष्य प्रादि चैतन्य के रूप मे पृथक्-पृथक् दिखाई देता है । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ महावीरवाणी ( ३२५) तज्जीवतच्छरीरवाओ पत्तयं कसिणे आया जे बाला जे य पंडिया। सन्ति पिच्चा न ते सन्ति, नत्यि सत्तोववाइया || . ( ३२६ ) नत्यि पुण्णे व पावे वा, नस्थि लोए इनोऽवरे।' सरीरस्स विणासेणं, विणासो होइ देहिणो ॥५॥ ( ३२७ ) अकिरियावायो कुवं च कारयं चेव, सव्वं कुवं न विज्जई। एवं अकारो अप्पा, एवं ते उ पगम्भिया ॥६॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाद-सूत्र १७३ ( ३२५) तज्जीववच्छरीरवाद ससार में जितने भी शरीर है, वास्तव मे वे ही एक-एक आत्मा है-अर्थात् प्रात्मा या जीव जो कुछ भी है, यह शरीर ही है। शरीरनाश के वाद मूर्ख या पडित, धर्मात्मा या पापी परलोक में जानेवाला कोई भी नहीं रहता। क्योकि शरीर से पृथक् कोई भी सत्त्व (प्राणी) प्रोपपातिक (एक जन्म से दूसरे जन्म मे उत्पन्न होनेवाला) नहीं है। ( ३२६ ) न पुण्य है, न पाप है, और न इन दोनो के फलस्वरूप प्रस्तुत दृश्य जगत् से अतिरिक्त परलोक के नाम से दूसरा कोई जगत् ही है। शरीर के नाश के साथ ही तत्स्वरूप देही (आत्मा) का भी नाश हो जाता है। ( ३२७ ) अक्रियावाद आत्मा करनेवाला या करानेवाला-यो कहिए कि किसी भी प्रकार से कुछ भी क्रिया करनेवाला नही है। इसी भाति कितने ही प्रगल्भ (घृष्ट) होकर आत्मा को प्रकारक (अकर्ता) बतलाते है। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ महावीरवाणी ( ३२८) खंधवाओ पंच खंघे धर्यतेगे, बाला उ खण-जोइणो। अण्णो अणण्णो वाहु, हेयं च अहेयं ॥७॥ ( ३२६ ) निच-वाओ संति पंच महन्भूया, इहमेगेसिमाहिया । प्रायट्ठा पुणो प्राहु, आया लोगे य सासए ॥ ( ३३० ) दुहनो न विणस्सन्ति, नो य उप्पज्जए अयं । सव्वे वि सवहा भावा, नियतिभावमागया Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाद-सूत्र ( ३२८ ) स्कन्धवाद कितने ही वाल (अज्ञानी) ऐसा कहते है कि संसार में मात्र रूपादि पाँच ही स्कन्ध है और वे सव क्षणयोगी-अर्थात् क्षण-क्षण में उत्पन्न और नष्ट होनेवाले है। इनके अतिरिक्त, सहेतुक या निर्हेतुक तथा भिन्न या अभिन्न दूसरा कोई भी (आत्मा जैसा) पदार्थ नहीं है। ( ३२६ ) नित्यवाद कितने ही लोगो का ऐसा कहना है कि पांच महाभूत है, और इनसे भिन्न चित्स्वरुप छठा आत्मा है। तथा ये सब आत्मा और लोक शाश्वत है-नित्य है। ( ३३० ) यह जड और चैतन्य-उभयस्वरूप जगत् न तो कभी नष्ट होता है, न कभी उत्पन्न ही होता है । असत् की कभी उत्पत्ति नही होती, सत् का कभी नाश नही होता; इसलिए सब पदार्य सर्वथा नियतता (नित्यता) को प्राप्त है। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ महावीर-वाणी ( ३३१) नियतिवायो न त सयं कई दुक्वं, को अन्नकई च णं। सुहं वा जइ वा दुक्ख, सेहियं वा असेहियं ॥१०॥ ( ३३२) सयं कडं न अण्णेहि, वैदयन्ति पुढो जिया। संगइयं तहा तेसि, इहमेगेसिमाहिया ॥११॥ ( ३३३ ) धाउ-वाश्रो पुढवी पाक तेऊ य, तहा वाळ य एगो । चत्तारि पाउणो रूवं, एवमाहंसु भावरे ॥१२॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाद-सूत्र १७७ ( ३३१) नियतिवाद कितने ही ऐसा कहते हैं कि ससार में जीवात्माएं नैमित्तिक अथवा अनैमित्तिक जो भी सुख-दुःख का अनुभव करती हैं, तथा समय आने पर अपने स्थान पर च्युत होती है, वह सब आत्मा के अपने पुरुपार्य से नहीं होता-नियति से ही होता है। अस्तु, जव अपने सुख-दुख की मात्मा आप विधाता नहीं है, तब भला दूसरा कोई तो हो ही कैसे सकता है? ( ३३२) जीवात्माएँ पृथक्-पृथक् रूप से जो सुख-दुख का अनुभव करती है, वह न तो स्वकृत ही होता है और न परकृत ही। यह जो कुछ भी उत्थान या पतन हुआ करता है, सव सागतिक है--नियति से है। (जव जहाँ जैसा बननेवाला होता है, तब वहां वैसा ही नियतिवश वन जाता है। इसमें किसी के पुरुषार्थ आदि का कुछ भी वश नहीं चलता।) (३३३ ) धातु-वाद दूसरे लोग ऐसा कहते है कि पृथिवी, जल, तेज और वायु -~-इन चार धातुमो (धारक तथा पोषक तत्त्वो) का ही यह रूप (शरीर तथा ससार) बना हुआ है। इनके अतिरिक्त, दूसरा कुछ भी स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ महावीर-चाणी ( ३३४ ) जग-हेतुवायो इणमन्नं तु अन्नाणं, इहमेगेसिमाहिया । देव-उत्ते अयं लोए, बंभउते य आवरे ॥१३॥ ( ३३५ ) ईसरेण कड़े लोए, पहाणाइ तहाऽवरे । जीवाजीनसमाउते सुहदुक्खसमभिए ॥१४॥ ( ३३६ ) सयंभुणा फड़े लोए, इइ वृत्तं महेसिणा। मारेण संथुना माया, तेण लोए प्रसासए ॥१५॥ ( ३३७ ) उपसंहारो एवमेयाणि जम्पन्ता, वाला पंडियमाणिणो। निययानिययं सन्त, प्रयाणन्ता अबुद्धिया ॥१६॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ विवाद-सूत्र ( ३३४) जगत्कर्तृत्त्ववाद जगत् की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कितने ही लोगो का यह भ्रान्तिमय वक्तव्य है -"कोई कहते हैं कि यह लोक देवो ने बनाया है।" --"कोई कहते है कि यह लोक ब्रह्मा ने बनाया है।" ( ३३५ ) --"कोई कहते है कि यह लोक ईश्वर ने बनाया है।" -"कोई कहते है कि जड और चैतन्य से युक्त तया सुख और दुख से समन्वित यह लोक प्रधान (प्रकृति) आदि के द्वारा बना है।" ( ३३६ ) --"कोई कहते है कि यह लोक स्वयम्भू ने बनाया है, ऐसा हमारे महर्षि ने कहा है। अनन्तरमार ने माया का विस्तार कियाइस कारण लोक अशाश्वत (अनित्य) है।" ( ३३७ ) उपसंहार अपने-आपको पण्डित माननेवाले बुद्धिहीन मूर्ख इस प्रकार की अनेक बातें करते है । परन्तु नियति क्या है और अनियति क्या, यह कुछ भी नहीं जानते, समझते । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० महावीर-वाणी ( ३३८ ) वे नावि संघि नच्चाणं, न ते धम्मविऊ जणा। ने ते उ बाइणो एवं, न ते संसारपारगा ॥१७॥ ( ३३६ ) नाणाविहाई दुक्खाई, अणुहोन्ति पुणो पुणो । संसारचक्कवालम्मि, मच्चवाहिजराफुले ॥१८॥ ( ३४० ) उच्चावयाणि गच्छन्ता, गम्भमेस्सन्तिणन्तसो। नायपुत्ते महावीरे एवमाह जिणुतमे ॥१९॥ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ विवाद-सूत्र ( ३३८ ) वेन तो ठीक-ठीक कर्म-सन्धि का ही ज्ञान रखते है, और न उन्हें कुछ धर्म का ही मान है । जो ऐसी अनर्गल वातें करते है, वे ससार (समुद्र) से पार नही हो सकते। ( ३३६ ) जरा, मरण और व्याधि से पूर्ण ससार-चक्र में वे लोग वारवार नाना प्रकार के दुख भोगते रहते है। ( ३४० ) वे लोग कभी तो ऊंची योनि में जाते है, और कभी नीची योनि में जाते हैं। यो ही इधर-उधर परिभ्रमण करते हुए अनन्त वार गर्भ में पैदा होगे, जन्म लेंगे और मरेंगे-जिनश्रेष्ठ ज्ञातपुत्र महावीर स्वामी ने ऐसा कहा है। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २५ खामणासुतं ( ३४१) सब्यस्स जीवरासिस्स भावो धम्मनिहिन्ननिम्नचित्तो। सव्वे समावइत्ता खमामि सम्वस्स अहयं पि॥१॥ (३४२ ) सवस्स समणसंघस्स भगवो अंजलि करिम सीसे। सब्वे खमावइत्ता खमामि सव्वस्स अयं पि ॥२॥ ( ३४३ ) पायरिए उवमाए सीसे साहम्मिए कुल-गणे य। ने मे केइ कसाया सब्वे तिविहेण खामि ॥३॥ (३४४) खामेमि सब्वे जीवे सबै जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूएसु धेरै मज्मं न केणइ ॥४॥ (३४५) जं जं मणेण बद्धं जं जं वायाए भासिनं पावं । जं जं कारण कयं मिच्छा मि दुक्कडं तस्स ॥५॥ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२५: क्षमापन सूत्र ( ३४१ ) धर्म में स्थिर वृद्धि होकर मै सद्भावपूर्वक सब जीवो के पास अपने अपरावो की क्षमा मांगता हूँ और उनके सब अपराधो को में भी सद्भावपूर्वक क्षमा करता है। (३४२ ) में नतमस्तक होकर भगवत श्रमणसंघ के पास अपने अपराधो की क्षमा मांगता है और उनको भी मै क्षमा करता हूँ। (३४३ ) प्राचार्य, उपाध्याय, गिप्यगण और सामिक बन्युप्रो तथा कुल और गण के प्रति मने जो क्रोवादियुक्त व्यवहार किया हो उसके लिए मन, वचन और काय मे क्षमा मांगता हूँ। (३४४ ) में समस्त जीवो से क्षमा मांगता हूँ और सब जीव मुझे भी क्षमा दान दें। सर्व जीवो के साय मेरी मैत्रीवृत्ति है। किसी के भी साय मेरा वैर नही है। (३४५ ) मैने जो जो पाप मन से-सकल्पित किये है, वाणी से वाले है और गरीर से किये है, वे मेरे सब पाप मिथ्या हो जायें। Page #420 --------------------------------------------------------------------------  Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दों का अर्थ सवर-अनासक्त प्रवृत्ति-प्रात्मा की शुद्ध प्रवृत्ति । अनुत्तर---उत्तमोत्तम। अनगार-जिमका अमुक एक घर नहीं है अर्थात् निरतर सविधि भ्रमणशील साधु । केवली-केवल ज्ञानवाला-सतत शुद्ध प्रात्मनिष्ठ । शैलेशी-शिलेश-हिमालय, हिमालय के समान प्रकप स्थिति । परीपह-जव साधक साधना करता है तव जो जो विघ्न आते हैं उनके लिए परीपह गन्द प्रयुक्त होता है। साधक को उन सब विघ्नो को सहन करना ही चाहिए इसलिए उनका नाम 'परीपह' हुआ। प्रोपपातिक-उपपात अर्थात् स्वर्ग में या नरक में जन्म होना। प्रौपपातिक का अर्थ हुआ स्वर्गीय प्राणी या नारकी प्राणी। अस-धूप से पास पाकर छांह का और शीत से पास पाकर धूप का प्राश्रय लेनेवाला प्राणी-अस । तियंच-देव, नरक और मनुष्य को छोडकर शेष जीवो का नाम "तियंच है। निग्रन्य-गांठ देकर रखने लायक कोई चीज जिनके पास नही है-अपरिग्रही-साधु। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८६ ] एषणीय-शोधनीय-खोज करने लायक-जिनकी उत्पत्ति दूषित है या नहीं इस प्रकार गवेपणा के योग्य । विड-गोमूत्रादिक द्वारा पका हुआ नमक । रजोहरण-रज को हरनेवाला साधन-जो आजकल पतली ऊन की डोरियो से बनाया जाता है-जैन साधु निरंतर पास रखते है जहाँ बैठना होता है वहाँ उससे झाड़कर वैठते है। जिसका दूसरा नाम 'ओषा-चरवला' है। मानव-आसक्ति युक्त अच्छी या दुरी प्रवृत्ति । द्वीन्द्रिय-स्पर्श और रस, इन दो इन्द्रियो वाले जीव-जैसे जोक इत्यादि। त्रीन्द्रिय-स्पर्श, रस सौर घ्राण इन तीन इन्द्रियो वाले जीव जैसे चीटी आदि। चतुरिन्द्रिय-स्पर्श, रस, प्राण और नेत्र इन चार इन्द्रियो वाले प्राणी-जैसे भ्रमर आदि । किंपाकफल-जो फल देखने मे और स्वाद मे सुन्दर होता है पर खाने से प्राण का नाश करता है। पुद्गल-रूप, रस, गध, स्पर्श और शब्द वाले जड पदार्थ या जड़ पदार्थ के विविध रूप। निर्जरा-कर्मों को नाश करने की प्रवृत्ति-अनासक्त चित्त से प्रवृत्ति करने से प्रात्मा के सब कर्म नाश हो जाते है। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८७ ] श्रद्धान-श्रद्धा-आप्त पुरुप में दृढ विश्वास । सचित्त-चित्तयुक्त-प्राणयुक्त-जीवसहित कोई भी पदार्थ । अचित्त-सचित्त से उलटा-निर्जीव। कषाय-पात्मा के स्वरूप को कषनाश करनेवाले, क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार महादोष । अगृद्ध-अलोलुप। मति-इन्द्रियजन्य ज्ञान । श्रुत-शास्त्रज्ञान। मन पर्याय दूसरो के परोक्ष वा अपरोक्ष मन के भावो को ठीक पहचाननेवाला ज्ञान। अवधि-रूपादियुक्त परोक्ष वा अपरोक्ष पदार्थ को जान सकनेवाला ' मर्यादित ज्ञान। केवल-सव को जान सकनेवाला ज्ञान । ज्ञानावरणीय-ज्ञान के प्रावरण रूप कर्म-ज्ञान, ज्ञानी वा ज्ञान के साधन के प्रति पादि दुर्भाव रखने से ज्ञानावरणीय कर्म बंधते है। दर्शनावरणीय-दर्शनशक्ति के प्रावरणरूप कर्म । वेदनीय-सासारिक सुख वा दुख के साधनरूप कर्म । मोहनीय-मोह को उत्पन्न करनेवाले कर्म-मोहनीय कर्म के ही प्राबल्य से आत्मा अपना स्वरूप नही पहचानता। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५८ ] नोदरी-भूख से कुछ कम खाना-उदर को ऊन रखना पूरा न भरना। संलेखना-कषाय का अन्त करने के लिए उसके निर्वाहक और पोषक प्रान्तर और बाह्य निमित्तो को घटाते हुए कषाय को पतला बनाने की-शरीर के अन्त तक चलती हुई प्रवृत्ति । वैयावृत्त्य-बाल, वृद्ध,रोगी ऐसे अपने समान धर्मियो की सेवा। लेश्या-आत्मा के परिणाम-अध्यवसाय । समिति-शारीरिक, वाचिक और मानसिक सावधानता । गुप्ति-गोपन करना-सरक्षण करना; मन, वचन और शरीर को दुष्ट कार्यों से बचा लेना। ईर्या-गमनागमन वगेरे क्रिया । एषणा-निर्दोष वस्त्र पात्र और खानपान की शोध करना। आदान-निक्षेपकोई भी पदार्थ को लेना या रखना-मूकना । उच्चारसमिति-शौच क्रिया वा लघुशका अर्थात् किसी भी प्रकार का शारीरिक मल । मल को ऐसे स्थान में छोड़ना जहां किसी को लेश भी कष्ट न हो और जहाँ कोई भी आता जाता न हो और देख भी न सके । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- _