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________________ ब्राह्मण-सूत्र ( २८३ ) जो स्त्री-पुत्र आदि के स्नेह पैदा करनेवाले पूर्व सम्बन्धो को, जाति-बिरादरी के मेल-जोल को तथा वन्धु-जनो को एक वार त्याग देने के बाद फिर उनमे किसी प्रकार की आसक्ति नहीं रखता, दोवारा काम-भोगो में नहीं फंसता, उसे हम ब्राह्मण कहते है। (२४) सिर मुंडा लेनेमात्र से कोई श्रमण नही होता, 'प्रोम्' का जाप कर लेनेमात्र से कोई ब्राह्मण नही होता, निर्जन वन में रहनेमात्र से कोई मुनि नहीं होता, और न कुशा के बने वस्त्र पहन लेनेमात्र से कोई तपस्वी ही हो सकता है। ( २८५) समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से मुनि होता है, और तप से तपस्वी बना जाता है। (२८६ ) __ मनुष्य कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय होता है, कर्म से ही वैश्य होता है, और शूद्र भी अपने कृत कर्मों से ही होता है । (अर्थात् वर्ण-भेद जन्म से नहीं होता। जो जैसा अच्छा या बुरा कार्य करता है, वह वैसा ही ऊंचा नीचा हो जाता है।) (२८७ ) इस भांति पवित्र गुणों से युक्त जो द्विजोत्तम (श्रेष्ठ ब्राह्मण) है, वास्तव में वे ही अपना तथा दूसरो का उद्धार कर सकने में समर्थ है ।
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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