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: १७: पंडिय-सुत्र
( २१७ ) समिक्ख पंडिए तम्हा, पासजाइपहे बहू । अप्पणा सच्चमेसेज्जा, मेति भूएसु कप्पए ॥१॥
(२१८ ) जे य कते पिए भोए, लढे वि पिढीकृब्बई । साहीणे चयह भोए, से हु चाइ ति चुच्चई ॥२॥
( २१६ ) वत्यगन्धमलंकार, इथियो सयणाणि य। अच्छन्दा जे न भुजन्ति, न से चाइ त्ति बुच्चई ॥३॥
( २२० ) डहरे य पाणे बुढे य पाणे,
ते अत्तो पासइ सन्चलोए । उव्वेहई लोगमिणं महन्तं,
बुद्धो पमत्तेसु परिव्वएज्जा ॥४॥