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________________ आत्म-सूत्र उसे इन्द्रियां कभी विचलित नही कर सकती, जैसे-भीषण बवडर सुमेरु पर्वत को। ( २३६ ) समस्त इन्द्रियो को खूब अच्छी तरह समाहित करते हुए पापों से अपनी आत्मा की निरन्तर रक्षा करते रहना चाहिए । पापो से अरक्षित मात्मा संसार में भटका करती है, और सुरक्षित प्रात्मा ससार के सब दुखो से मुक्त हो जाती है। (२४० ) शरीर को नाव कहा है, जीव को नाविक कहा जाता है, और संसार को समुद्र बतलाया है । इसी ससार-समुद्र को महर्पिजन पार करते है। (२४१ ) जो प्रवजित होकर प्रमाद के कारण पांच महाव्रतो का अच्छी तरह पालन नहीं करता, अपने आपको निग्रह में नहीं रखता, कामभोगो के रस मे मासक्त हो जाता है, वह जन्म-मरण के बन्धन को जड़ से नहीं काट सकता।
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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