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सम्यक्त्व है, उसका विरोधी मिथ्यात्व अस्मदादि संसारी लोगों मे विद्यमान है उसे दूर करके सम्यक्त्व प्रान करना चाहिये । इस प्रकार उपसंहार करते हुये अव ग्रन्थ समाप्त कियाजाता है--
आत्मीयं सुख मन्यजामिति या वृचिः परत्रात्मन । स्तन्मिथ्यात्वमकप्रदं निगदितं मुञ्चेदिदानी जनः ।।
आत्मन्येव सुखं ममेत्यनुवदन्वाह्यानिवृत्तो यदा । स्मन्यात्माविलगत्यहो विजयतां सम्यत्व मेतत्सदा ॥१०॥
अर्थात्-हरेक शरीरधारी सुख की खोज में है, वह चाहता है कि मुझे सुख प्राप्त हो, दुःख कभी न हो, मै सदा सुखी बना रहूँ. परन्तु कैसे बनू यही भावना इस के मन में निरन्तर बनी रहती है क्यो कि इसे यह पता नहीं है कि सुख वो मेरी आत्मा का अपना गुण है. वह मेरा मेरे पास है । यह तो समझता है कि सुख कहीं बाहरी चीजा में खाने-पीने और कोमल पलङ्ग पर लेटलगाने वगेरह में है। इस लिये इस का लगाव उन्हीं के पीछे हो रहा है। जैसे हरिण अपनी नाभि की सुगन्ध को बाहर की सुगन्ध समझ कर उसके ढूंढने में इधर से उधर भटकता फिरता है, वैसे ही यह संसारी जीव भी वाह्य विषयों में मुख मान कर उनमें भम्पापात लेता है उन्हीं के पीछे लगा रहता है, बस यही इसकी भूल है, मिथ्यात्व है, उलटापन है जो कि इसे दुःख देनेवाला है । अत. आत्महितैषी