________________
( ६६ )
अपने शरीर पर अगर कोई आपत्ति आती है, उसे सहन करता है उसमें पत्थर के समान मजबूत दिलवाला रहता है। घबराता नही है शोचता है कि यह चित्र बाधा मेरा क्या बिगाड़ सकती है, यह तो शरीर पर होती है, मेरी आत्मा तो शरीर से भिन्न है उसका कोई बिगाड़ इससे नही होसकता इस मेरे कहलाने वाले शरीर के भी परमाणु वस्तुतः सब भिन्न भिन्न नित्य हैं उनका भी इससे विगाड़ हो सकता है क्या ? किन्तु नही फिर घबराने की बात ही कौनसी है इति । मगर वही जब दूसरी पर किसी प्रकार को आपत्ति को आई हुई देखता है तो झट ही अग्नि से मक्खन की भांति इसका मन पिघल उठता है, यथा शक्ति उसे उन पर से दूर करने की चेष्टा करता है। वहां यह नहीं शोचता कि इनकी आत्मा तो शरीर से भिन्न है इत्यादि । और इसी लिये अपनी तरफ से जहां तक हो सके किसी को भी किसी प्रकार का कष्ट देना ही नहीं चाहता है क्यों कि यह जानता है कि इनकी आत्मा और शरीर परस्पर जब एक बन्धन रूप हैं तो फिर इनके शरीर में किया हुवा कष्ट इनकी आत्मा को ही होता है, उस कष्ट का सम्बेदन तो इनकी आत्मा ही करती है। ऐसा शोच कर हिंसा, झूठ, चोरी अभक्ष्य भक्षणादि कुकमोंसे बचा हुवा रहता है, सबके साथ मित्रता का व्यवहार करता है । पूर्वोक्त मिथ्यादृष्टि सरीखी क्रूरता का इस में नाम लेश भी नही रहता, यह सभी के साथमे प्रेम का वर्ताव रखता है। किसी के भी प्रति