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दुश्मन थी क्यों कि यह था अपने मतलब का यार, दुनियां का कांटा । आप धाप चुका तो दुनियां छकी और आप मरा तो जगत्प्रलय हो गया, यह भावना । इस लिये सबसे बैर किसीसे भी प्र ेम नही अगर कही हुवा भी तो वह भी स्वार्थ को लिये हुवे ऊपरसे दिखाऊ प्रम हुवा इस प्रकार अपने शरीर का ही साथी होकर कुपथ का पथिक हो रहा । किन्तु अब जब सम्यग् दर्शन होगया तो अन्तस्तल मे आत्म द्रव्य पर विश्वास हो लिया कि मेरी आत्मा इस शरीर में होकर भी इस शरीर से भिन्न है और सच्चिदानन्द स्वरूप है इस प्रकार के विश्वास के द्वारा इसका वह उपर्युक्त विश्वास अब जाता रहा एवं जो - निश्चयनय के द्वारा व्यवहारनय प्रतिषेध्य है और निश्चयनय का आश्रय लेने पर ही जीव सम्यग्दृष्टि बनता है इस प्रकार के श्री कुन्दकुन्दाचार्य के कथनको सार्थक कर दिखलारहा है क्योंकिववहारणयोभासदि जीवो देहो य हवदि खलुइको ।
दुच्छियस्स जीवो देहो यकदाविएकट्टो ||२७|| आचार्य श्री ने ही अपने समयसार मे वतलाया है कि जो जीव को और देह को एक बतलाया करता है वह व्यवहारनय होता है किन्तु जो जीव और देहको कभी भी एक न बताकर सर्वदा भिन्न भिन्न बतलाता हो वह निश्चय नय है । परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव निश्चय नयाश्रयी होता है इसका मतलब यह नहीसमझना चाहिये कि वह व्यवहार को बिलकुल भूल ही जाता हो अपितु इतर प्राणियोंके प्रति वह व्यवहार का पूरा पूरा आदी होता है
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