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________________ आत्म-सूत्र १२९ ( २३४) जो वीर दुर्जय संग्राम मे लाखो योद्धाओं को जीतता है, यदि वह एकमात्र अपनी आत्मा को जीत ले, तो यह उसकी सर्वश्रेष्ठ विजय है। (२३५ ) अपनी आत्मा के साथ ही युद्ध करना चाहिए, बाहरी स्थूल पशुमो के साथ युद्ध करने से क्या लाभ ? आत्मा के द्वारा आत्मा को जीतनेवाला ही वास्तव में पूर्ण सुसी होता है। (२३६ ) पांच इन्द्रियाँ, क्रोध, मान, माया, लोभ तथा सबसे अधिक दुर्जय अपनी आत्मा को जीतना चाहिए । एक आत्मा के जीत लेने पर सब कुछ जीत लिया जाता है। (२३७ ) सिर काटनेवाला शत्रु भी उतना अपकार नहीं करता, जितना कि दुराचरण में लगी हुई अपनी आत्मा करती है। क्याशून्य दुराचारी को अपने दुराचरणो का पहले ध्यान नहीं पाता; परन्तु जब वह मृत्यु के मुख में पहुंचता है, तव अपने सब दुराचरणों को याद कर-कर पछताता है। (२३८) जिस साधक की आत्मा इस प्रकार दृढनिश्चयी हो कि 'मैं शरीर छोड सकता हूँ, परन्तु अपना धर्म-शासन नहीं छोड़ सकता,'
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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