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काम, शरीर से भिन्न आत्मा को कोई भी चीज न मानने देने का है। और इन दोनोंका अभाव अन्नत सम्यग्दृष्टि के हो लेता है इस लिये वह आत्मा को शरीर से भिन्न नित्यान्वयी ज्ञानमय,
मान कर पुनर्जन्म नरक स्वर्गादिपर विश्वास करता है एवं गुरुवों का हृदय से विनय करने लगता है तथा पाप कर्मो से हर समय भीत रहता है। स्वरूपाचरण तो उस आत्मानुभव का नाम है जो कि सञ्जलनकपाय के भी न होने पर होता है। अनन्तानुवन्व्यादि प्रत्याख्यानावरणपर्यन्तकपाये न होने से सकल चारित्र होजाने पर भी जब तक संज्वलनकपाय का उदय होता है तो वह इस जीव को आत्मानुभव पर जमने नहीं देता। हां जब संचलनकपाय का भी तीव्र उदय न होकर वह मन्द होता है तो यह जीव आत्मानुभवपर लगने की चप्टा करता है यानी अपने पौरुप से उसे भी दवा कर या नष्ट करके अपने आप में लीन होलेता है उसीको आत्मानुभव या आत्माभूति कहते है। यही स्वपाचरणचारित्र है। शङ्का-वो फिर क्या चतुर्थगुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि को
आत्मानुभूति नहीं होती ? तो फिर सम्यक्व कैसा हुवा
और मिथ्यात्व क्या गया ? उत्तर- चतुर्थगुणस्थानवाले को आत्मानुभूति तो नहीं मगर आत्मतत्व का विश्वास जरूर होलेता है जो कि मिथ्याल्व अवस्था मे कभी नहीं हो पाता । जैसे मानलो कि एक आदमी के तीन लड़के हैं जिन्होंने नमक की कङ्करी को उठा कर खाया