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निजमाहि निज के हेतु निजकरि आपको आपेगहो।
गुण गुणीज्ञाता ज्ञानज्ञेय मझार कुछ भेद न रह्यो ।। इन शब्दों में दोहराया है और जो कि साक्षात शुक्लध्यान का रूप है जो कि वीतराग सम्यग्दृष्टि अवस्था में होता है। सराग सम्यग्दृष्टि अवस्था मै तो राग को और ज्ञान को मिन्न भिन्न मानता मात्र है, भिन्न भिन्न कर नहीं पता है जैसा कि आचार्य श्री लिख रहे हैं । एवं ज्ञानचेतना तो निर्विकल्परूप से ज्ञान की स्थिरता का नाम है जैसा कि पहले बताया ही जा जुका है, अतः ये सब एक शुद्धोपयोगके ही या शुक्लध्यान के ही नाम हैं । भेद है तो सिर्फ इतना ही कि शुद्धोपयोग शब्द तो आत्मा को मुख्य करके कहा जाता है । भेदविज्ञान शब्द के कहने मे सम्यग्दर्शनगुण का लक्ष्य होता है। ज्ञान गुण की मुख्यता से ज्ञानचेतना कहा जाता है । और स्वरूपाचरण शब्द चरित्रगुण की प्रधानता से कहा गया हुवा है। शंका-शुक्लध्यान तो सातवेगुणस्थान से भी उपर आठवे गुण स्थान से सुरू होता है किन्तु स्वरूपाचरण तो चोथेगुणस्थान वाले अव्रत सम्यग्दृष्टि के ही होजाता है क्योंकि स्वरूपाचरण का घातकरने वाली तो अनन्तानुवन्धिकपाय है जिसका कि उसके प्रभाव होता है। उत्तर- भैय्या जी अनन्तानुवन्धिकपाय का काम तो अन्याय और अभक्ष्यादि में प्रवृत्ति करवाना एवं गुरु संस्था को न मान कर मनमानी करने में मस्त रखना है जैसा कि मिथ्यात्व का