SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (७) - - - meream m यतःसदास्तिक्यमुदेतिचेतस्यशुष्ययादृग्भविनाक्रियेत तदेवमुक्त ऽतउदारबुद्धधाई तोऽनुगतं कुरुतेत्रिशुद्धया ५१ अर्थातू-सम्यग्दृष्टि जीव जानता है कि जो जैसा करता है बैला स्वय भरता है, जो जहर खाता है वही मरता है.और जो मिश्री चखता है उसका मुह मीठा होजाया करता है। दूसरा कोई किसी का क्या कर सकता है, कुछ नहीं देखा वैद्य सभी रोगियों को नीरोग करना चाहता है यह उसकी सद्भावना है, परन्तु रांग मुक्त होता है वहां जो कि अपने भविष्यत्सातोदय को लिये हुये होकर उसकी औषधिका ठीक सदुपयोग करता है। भीमर तालाव की सभी मछलियों को पकड़ना चाहता है मगर पकड़ी वे ही जाती है जो कि अपनी चपलता के कारण उसके जाल में आ-गिरती हैं, वरना उसका प्रयोग व्यर्थ जाता है, फिर भी,झीमर अपनी दुर्भावना.से पाप का.भार,अपने मत्थे लेता है और उससे, नरक में जाता है जहां कष्ट पाता है । वैद्य अपनी सद्भावना के द्वारा स्वर्ग का भागी होजाता है । स्वर्ग नरक एवं पुनर्जन्म भी अवश्य है क्यों कि एक माता पिता के एक रजोवीर्य से पैदा होने वाले .लोगों में रावण और विभीषण का, सा बहुत कुछ भेट दीरनं में आता है बल्कि एक सहवाम से और एक साथ में पैदा होने वाली, संन्ताने भी एक स्वभाववाली और एक सरीखी नही होती.तो इसमे उनका पुण्य पाप ही तो कारण है,और
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy