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दूसरा क्या हो सकता है । जैसा कि एक दोहा में लिखा है
अपनी करनी से बने यह जन चोर विभोर । उरमत सुरमत आप ही ध्वजा पवन मकझोर ।।१।।
मन्दिर के ऊपर होने वाली ध्वजा, हवा का निमित्त पाकर जिधर को झुकाव खाती है उसी बल होकर दण्डे में लिपट रहती है,कभी इधर से उधर तो कभी उधर से इधर और हवा जब कम हो जाती है या बन्द सी हो रहती है तब ध्वजा भी सरल सीधी हो लेती है तथा स्थिर हो जाया करती है वैसे ही संसारी प्राणी का हाल है जब बुरी वासना में पड़ता है तो अपने आप ही बुराइयों की ओर जाकर चोर चुगलखोर बनते हुये आप ही कप्ट उठाता है और जब सद्भावना को लेकर भलाई करने में लगता है तो समाश्वासन प्राप्त करता है किन्तु इससे भी जब आगे बढता है तो वाह्य वासना से रहित होते हुये सिर्फ 'परमात्मानुभवन में तल्लीन होकर अपने मन को स्थिर बना लेता है तो सदा के लिये निराकुल भी बन सकता है इस प्रकार के सुविशद विचार का नाम ही आस्तिक्य भार है जिसको कि लेकर आत्मा से परमात्मा बनने का अटल सिद्धांत इसके दिल मे घर किये हुये रहता है ताकि यह अपने मन वचन और काय से सरलता के साथ श्री अर्हन्त भगवान का अनुयायी हो रहता है। ध्यानादहोधर्ममयोरुधाम्न उदेतिवाऽऽज्ञाविचयादिनाम्नः । सम्यग्दृशोभावचतुष्कमेतत्पर्यत्यमीषुप्फुटमस्यचेतः ॥२॥