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इस तरह से सुविदितपयत्यमुत्तोशुद्धोपयोग अर्थात् सिर्फ तत्वार्थ श्रद्धानवाला जीव भी शुद्धोपयोगी होता है ऐसा मतजैब निकाला जावे तो फिर संयमतपःसंयुतोऽपिशुद्धोपयोगः यानी तत्वार्थ-श्रद्धानशून्य सिर्फ तपः संयम का धारक द्रव्यलिंगी मुनि भी शुद्धोपयोगी ठहरेगा इस लिये उपयुक्त आचार्य "कृत अर्थ ही सुसंगत है।
। तथा च 'शुद्धोपयोग में शुक्ल का पर्यायवाची शुद्ध शब्द है और उपयोग शब्द विचार का ध्यान का पर्यायवाची यानी शुद्धोपयोग कहो या शुक्लध्यान कहो एक बात है जो कि शुक्लध्यान सातवे गुणस्थान के बाद "में सुरू होता है, चोथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक तो धर्मध्यान ही होता है ऐसा तत्वार्थ सूत्र की सर्वार्थसिद्धि नाम की टीका धगेरह में लिखा हुवा है। जो कि धर्मध्यान शुभोपयोग रूप होता है । अगर धर्म ध्यान को भी शुद्धोपयोग (वीतरागता) रूप ही माना जावे तो फिर शुक्लध्यान और धर्म ध्यान में अन्तर ही क्या रह जाता है | धर्म शब्द का अर्थ भी जो लोग सिर्फ 'सहज पारिणामिक भाव लेते हैं वे भूल खाते है । धर्म शब्द का सीधा अर्थ परिणमन है जो कि परिणमन, आत्माका दो प्रकारका होता है। एक तो सहज परनिरपेक्ष 'दूसरा नैमित्तिक (परसापेक्ष) सो सहजपरिणमन सो वीतरागता . रूप होता है। उस वीतरागंतारूप परिणमनके साथ एकाग्रतालिये हुये उपयोग कानाम ही शुक्ल (सद्धर्म) ध्यान है जिसे शद्धोपयोग