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कहा जाता है । नैमित्तिक (मोहनीयकर्मोदय के निमित्तसे हुवा) परिणमन रागादिमय होने से अशुद्ध होता है वह दो प्रकार का होता है -एक तो वह कि राग को अपना स्वरूप ही समझे हुचे रहना, वीतरागता की तरफ लक्ष्य ही नहीं होना सो ऐसा उपयोग तो पहिराम मिथ्याष्टि जीव का होता है जिसको अशुभोपयोग कहते हैं इसी का नाम अनात्मभाव रूप होने से अधर्म है । परन्तु सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेने पर फिर-मै नित्य ज्ञानस्वरूप हूँ, देह मे रह कर भी देह से निम्न हूँ, शरीरादि के साथ ममत्व को लेकर रागादिमान हो रहा हूं अगर उस ममत्व को मिटाएं तो वीतराग और सर्वज्ञ हो.सकता हूँ इत्यादिरूप से अपने श्रद्धान में वीतरागताको स्वीकार कियेहुये उदारतारूप सद्विचार का नाम ही शुभोपयोग है जो कि अनत सम्यग्दृष्टि की दशा में प्रशस्त, देशविरत के प्रशस्तवर और सकतपिरत के प्रशस्ततम होता है । आत्मत्व को स्वीकार किये 'हुये होनेके कारण वह धर्म कहा जाकर उसके साथ कामवारूप चित्त परिणति का होना ही धर्मभ्यान है जो कि तस्तमरूप में चोथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान, के..मन्त तक होता है । उससे अपर अपूर्वकरणादिगुणस्थानों में नही शुक्ल (शुद्धोपयोग)ध्यान के रूप में परिपत हो जाता है। जैसा कि श्री आदिपुराण जी में कहा है देखोप्रवुद्धधीरधःण्या धर्मभ्यानस्य सुश्रुतः ।
सएवं लक्षणोध्याता सामग्री प्राप्य पुष्कलां