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• क्षपकोपशमश्रेण्योरुत्कृष्टं (शुक्लं नाम) ध्यानमृच्छति ॥ शङ्का- यह तो ठीक है शुक्लध्यान तो सप्तमगुणस्थान से
उपर में ही होता है, मगर शुद्धोपयोग तो आत्मीक , शुद्धताका नाम है सो चतुर्थगुणस्थान में जब दर्शनमोह ' नष्ट होचुका तो उतने रूपमें वहां शुद्धोपयोग भी
होलिया ऐसा हमलोग तो समझते हैं! उत्तर- उपयोग नाम अभिप्राय का है वह तीन तरह का होता है अशुभ, शुम और शुद्ध । उसमें अशुभोपयोग दुरभिप्राय का नाम है जो कि मोह यानी मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धिरूप कषाय की वजहसे वस्तुतत्वके बारेमें भुलावेके रूपमे होता है। जिससे कि यह जीव घोर दुान को करने वाला होता है
और सत्यार्थश्रद्धानरूप सदभिप्राय का नाम शुभोपयोग है, जिसका धारक जीव शुभलेश्या को अपना कर जव बस्तुतत्व के विचार में एकाग्रता से लगा रहता है उस समय उसके प्रशस्त (धर्म) ध्यान होता है । और वही जब अपने रागादि विकारभावों को सर्वथा नष्ट करके निश्चलरूपसे अपने शद्धात्म स्वरूप के अनुभव करने में निमम होलेवा है उस समय उसके 'शुद्धोपयोग होता है ऐसा श्री ज्ञानार्णव जी में लिखा है देखो
पापाशयवशान्मोहान्मिथ्यात्वाद्वस्तुविभ्रमात् कषायान्नायतेऽजस्रमसद्ध्यानं शरीरिणाम् ॥२६॥ पुण्याशयवशाज्जातं शुद्धलेश्यावलम्बनात चिन्तनाद्वस्तुतत्वस्य प्रशरतं ध्यानमुच्यते ॥२॥