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________________ - - - होती, किन्तु आत्माके उपयोगर्म कपाये अंश अंशमै होती हैं। शङ्का-वर्तमान के कुछ लोगों का कहना है कि चतुर्थगुणस्थान से ही शुद्धोपयोग शुरू होजाता है क्यों कि वहां दर्शनमोह का अभाव हो लेता है। अतः उतने अंश में वहां शुद्धता मानने में क्या हानि है ?, उत्तर- दिगम्बर जैनाचार्यों ने तो इस प्रकार कीन्हीं ने भी कहा नहीं है। हमारे सर्वमान्य आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने ही अपने प्रवचनसार में लिखा है कि जिस साधु ने अपना तत्वार्थविषयक श्रद्धान विलकुल ठीक कर रक्खा हो, जो संयम और तपका घारक हो एवं बिलकुल राग, द्वेप से रहित होलिया हा अतः सुख और दुःख में एकसा विचार रखता हो वही शुद्धोपयोग, वाला होता है देखो-, सुविदिवपयत्यसुत्तो संजम तव संजुठोविगतरागी समणो समसुहदुक्खो भणिदो शुद्धोपयोगोति ॥२६|| इस गाथा में आयेहुये विनितपयत्यसुत्तः, संयमतपसंयुतः विगतरागः और समसुखदुःख ये चायें श्रमण के विशपण हैं और श्रमण उनका विशेष्य, जैसा कि प्रवचनसार के टीकाकार श्री अमृतचन्नाचार्य और श्री जयसेनाचार्य भी बतला गये है सों ऐसी अवस्था मुख्य रूप में तो दश गुणस्थान के ऊपर में ही होती है परन्तु अप्रमत्त गुणस्थान से नीचे तो किसी भी वरह नही मानी जा सकती है। हां उनको विशेषण विशेष्य न मान कर सब को भिन्न भिन्न स्वतन्त्र ग्रहण किया जावे और
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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