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________________ अप्रमाद-सूत्र परित्याग कर, समतापूर्वक स्वार्थी ससार की वास्तविकता को समझकर, अपनी आत्मा की पापो से रक्षा करते हुए सर्वदा अप्रमादी रूप से विचरना चाहिए। (१२० ) मोह-गुणो के साथ निरन्तर युद्ध करके विजय प्राप्त करनेवाले श्रमण को अनेक प्रकार के प्रतिकूल स्पर्शों का भी बहुत वार सामना करना पड़ता है। परन्तु भिक्षु उनपर तनिक भी अपने मन को क्षुब्ध न करे-शान्त भाव से अपने लक्ष्य की और ही अग्रसर होता रहे। ( १२१ ) संयम-जीवन मे मन्दता पैदा करनेवाले काम-भोग बहुत ही लुभावने मालूम होते है । परतु सयमी पुरुप उनकी ओर अपने मन को कभी आकृष्ट न होने दे। आत्मशोधक साधक का कर्तव्य है कि वह क्रोध को दवाए, अहकार को दूर करे, माया का सेवन न करे, और लोम को छोड दे। ( १२२ ) जो मनुष्य सस्कारहीन है, तुच्छ है, दूसरो की निन्दा करनेवाले है, राग-द्वेप से युक्त है, वे सब अधर्माचरणवाले है-इस प्रकार विचारपूर्वक दुर्गुणो से घृणा करता हुआ मुमुक्षु शरीस्नाश पर्यन्त (जीवन-पर्यन्त) एकमात्र सद्गुणो की ही कामना करता रहे।
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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