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है उसके उत्तरमे आचार्य श्री ने बतलाया है कि-धर्मास्तिाकायाभावात् अर्थात्- अलोका काश में गमन करने के लिये निमित्त भूत धर्म द्रव्य का अभाव है इस लिये नही जाता । श्री तत्वार्थ सूत्र जी के इस कथन से द्रव्यका स्वातन्त्र्य और निमित्ताधीनता ये दोनो वाते स्पष्ट हो जाती है क्यों कि जीव की अपनी शक्ति का कोई उपयोग न हो । सिर्फ धर्म द्रव्य की सहायता से ही गमन होता हो तो फिर धर्म द्रव्य तो तमाम लोक मे नीचे और इधर उधर भी है किन्तु मुक्त जीव इधर उधर न जाकर उपर को ही जाता है क्यों कि वह स्वभावाधीन है.। अपने उर्द्धगमन स्वभाव के कारण उपर को ही जाता है यह तो है जीव द्रव्य की गमनविषयक स्वतन्त्रता परन्तु गमन करता है धर्म द्रव्याधीन हो कर । जहां धर्म द्रव्य नही वहां गमन नही होसकता । जैसे रेलगाड़ी चलती है अपनी शक्ति से किन्तु पटरी न हो तो नहीं चल सकती यह हुई निमित्ताधीनता और इसी का नाम सहायता है। अगर ऐसा न हो तो फिर धर्म द्रव्य के मानने की जरूरत ही क्या है ? कुछ भी नही। किन्तु जैन धर्म कहता है कि धर्म द्रव्य और अधर्मद्रव्य हैं जो कि जीव और पुद्गल को चलने और ठहरने में मदद करते हैं । अधर्म द्रव्य न हो तो उनका चलते चलते ठहरना नही हो सकवा और धर्म द्रव्य न हो तो उनका चलना । यदि स्वभाव ही से चलना अभीष्ट होता हो फिर धर्मास्तिकायाभावात् यह सूत्र न कह कर उसके स्थान पर तथास्वभावात्