________________
( २५ )
-
यानी लोकाकाश के अन्त तक ही गमन करने का उससे उपर नहीं जाने का ही स्वयं जीव का स्वभाव है ऐसा सूत्र बनाया जा सकता था किन्तु जीवादि पढार्थ का परिणमन कथांचित् स्वतन्त्र होता है तो कथाचित् परतन्त्र भी। यानी वह परिणमन दो प्रकार का होता है एक तो अर्थ पर्यायरूप सदृश परिणमन दूसरा व्यखन पर्यायरूप विसरश परिणमन । सो अगुरु लघु गुणाधीन सदृश परिणमन-सूक्ष्म परिणमन तो निरंतर सहज होता रहता है किन्तु प्रदेशवत्व गुण के विकार रूप विसदृश परिणमन होता है वह निमित्त सापेक्ष ही होता है । एवं जीव
और पुद्गल का गमन रूप परिणमने धर्म द्रव्य को निमित्त लेकर उसकी सहायता से और स्थानरूप परिणमन अधर्म द्रव्य को निमित्त लेकर उसकी सहायता से होता है ऐसा कहना ठीक ही है।
__ जो सब चीजो को जगह देता है वह आकाश द्रव्य कहः लाता है जोकि अनन्त प्रदेशी सर्व व्यापी एक द्रव्य है । जितने
आकाशमे सब द्रव्य पाये जाते हैं उतने आकाश को लोक कहते हैं और उससे बाहर जो सिर्फ आकाश है उसको अलोक कहा जाता है । जो सब इन्या को परिवर्तन करने में सहायक हो उसे काल द्रव्य वरते हैं वह इस लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों में एक एक प्रदेश में एक एक अणु के रूप मे भिन्न भिन्न स्थित है । जीव द्रव्य अनन्त हैं सो भिन्न भिन्न एकैक जीव लोकाकाश के जितने प्रदेशों वाला असंख्यात प्रदेशी है मगर