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स्वरूप एक ही लक्षण सब जगह विद्यमान रहता है, अतः सम्यक्त्व तो एक ही होता है और जब सम्यक्त्व एक है तो उसके साथमें होने वाली ज्ञानचेतना भी फिर उसमें सव जगह सदा रहती है । उसमे चारित्रमोह के उदय से होनेवाला राग कुछ भी बाधा नही करता क्यो कि अन्य कर्म का उदय अन्यत्र क्यों बाधा करने लगा ? सो अगर ऐसा मानलिया जावे तो फिर ज्ञान में मिथ्यापन लानेवाला दर्शनमोह को जो कहा गया है वह भी नही होना चाहिये । द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि मुनि के ग्यारह अंग और दशपूर्व के ज्ञान को जो मिथ्याज्ञान कहागया है सो भी क्यों ? क्यों कि वहां श्रुतज्ञानावरणीयकर्म का तो क्षयोपशम होता ही है वहां पर तो दर्शनमोह के उठ्य से ही ज्ञान-मिथ्याज्ञान होता है । तथा चचारित्रमोहः सुतरामनन्ता-नुवन्थिनामाकथितः समन्तात् । अभावतो यस्य विना न सन्यग्दृष्टिर्भवत्येपविवेकगम्यः ७५
अर्थात्-अनन्तानुवन्धि क्रोधमानमाया और लोमरूपभाव,चारित्रमोहकर्मका ही तो प्रभाव है जिसके कि दूर हुये बिमा यह आत्मा सम्यग्दृप्टि नही होसकता अतः यह कहना ठीक नही कि एक कर्म का कार्य, दूसरा कर्म कभी किसी हालत में भी नहीं कर सकता। किञ्च दर्शनमोहकर्म और चारित्रमोह कर्म सर्वथा भिन्न हैं भी कहां किन्तु मोहनीयकर्म ही के तो हो मेह हैं अतः मोहनीयत्वेन दोनों एक ही तो हैं। और तब फिर