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चीज जो कि दर्शन माहके अभावसे प्रगट होता है । चारित्र मोहका उदय अपना कार्य करता है वह चारित्रम दोप पैदा करता रहता है, सम्यग्दर्शन और ज्ञान से उसका क्या सम्बन्ध है ? जना कि राजमल जी काष्ठासंधीकृत पश्चाध्यायी में लिखा है___पाकाचारित्रमोहस्य रागोऽस्त्योदयिक.सुट
सम्यक्त्वे स कुतोन्यायाजानेवाऽनुयात्मके || अर्थात् सम्यक्त्वतो क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिकभावरूप होता है । ज्ञान अव्रतमम्यग्दृष्टि के क्षायोपशमिक्रमावरूप हुवा करता है, किसी कर्मके उदय से नही होना अतः चारित्रमाह के उदय से होनेवाला औयिकमाव जो है वह सम्यक्त्व में या ज्ञानमें नोप कारक नहीं हो सकता वह तो चारित्र में ही दोप पैदा करेगा।
अनन्ननिह सम्यक्वं रागोऽयं बुद्धिपूर्वकः
नूनं हन्तु क्षमोनस्याज्ञानसञ्चेतनामिमां ॥२८॥ - सारांश यह कि सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व का वन्धोदय न होने से अप्रत्याख्यानावरणादिरूपरागद्वेष, ज्ञानचेतना में वाधक नही हो सकते । एवं च फिर सम्यक्त्व के सराग और वीतराग ऐसे दो भेद न होकर वह तो सदा एकहीसा रहता है जैसा कि उम श्लोक मे लिखा है
तस्मात्सम्यक्वमेकंस्यादत्तिलक्षणादपि
तद्यथाऽवश्यकी तत्रविद्यते ज्ञानचेतना ||३|| मतलब यह कि सम्यक्त्व का तो, दर्शनमोह के अभाव