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काम-सूत्र
( १७६ ) जैसे किंपाक फल रूप-रग और रस की दृष्टि से शुरू में खाते समय तो बडे अच्छे मालूम होते है, पर बाद में जीवन के नाशक है; वैसे ही कामभोग भी शुरू में तो बडे मनोहर लगते है, पर विपाककाल में सर्वनाश कर देते है।
( १७७ ) जो मनुष्य भोगी है-भोगासक्त है, वही कर्म-मल से लिप्त होता है, अभोगी लिप्त नहीं होता। भोगी ससार में परिभ्रमण किया करता है, और अभोगी ससार-बन्धन से मुक्त हो जाता है।
(१७८ ) मृगचर्म, नग्नत्व, जटा, सघाटिका (बौद्ध भिक्षुयो का सा उत्तरीय वस्त्र), और मुण्डन आदि कोई भी धर्मचिह्न दुशील भिक्षु की रक्षा नहीं कर सकते।
( १७६ ) जो अविवेकी मनुष्य मन, वचन और काया से शरीर, वर्ण तथा रूप में आसक्त रहते है, वे सब अपने लिए दुख उत्पन्न करते है।
(१८०) काल वडी दुति गति से चला जा रहा है, जीवन की एक-एक करके सभी रात्रियां बीतती जा रही है, फल-स्वरूप काम-भोग चिरस्थायी