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कामसूत्र
( १७२ ) काम-भोग गल्यरूप है, विपरूप है, और विषधर सर्प के समान है। काम-मोगो की लालसा रखनेवाले प्राणी उन्हें प्राप्त किये विना ही अतृप्त दशा में एक दिन दुर्गति को प्राप्त हो जाते है।
( १७३ ) गीत सब विलापरूप है, नाट्य सव विडम्बनारूप हैं। प्राभरण सव भारल्प है। अधिक क्या, ससार के जोभी काम-भोग है, सब-केसब दुखावह है।
( १७४) काम-भोग क्षणमात्र सुख देनेवाले है और चिरकाल तक दुःख देनेवाले है। उनमें सुख बहुत थोडा है, अत्यधिक दुख-ही-दुःख है। मोक्ष-मुख के वे भयकर गत्रु है, अनर्थों की सान है।
( १७५) जैसे किंपाक फलों का परिणाम अच्छा नहीं होता, उसी प्रकार भोगे हुए भोगो का परिणाम भी अच्छा नहीं होता।