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डालता है ऐसा मानते हुये सिर्फ उपादान के भरोसे पर ही कार्य होना मान लिया जावे जैसा कि अपनी वस्तु विज्ञानसार
कान जी लिखने हैं और जैसा कि तुम समझ रहे हो तो फिर इसमे सबसे बड़ा भारी दोष तो यह था उपस्थित होगा कि यह जो संसार में विचित्रता दीख रही है वह नहीं होनी चाहिए क्योंकि द्रव्यत्वके नाते सभी जीवात्मायें समान हैं सभी अनादिकाल से एक साथ है सबके गुण भी समान है और उन की पर्याय निश्चितक्रम से किसी भी प्रकार के व्युत्क्रम बिना एक अनुक्रम से होती हैं फिर यहां विचित्रता का क्या काम । सब की एकसी दशा सदा काल एक साथ ही होनी चाहिए। यही बात पुद्गल परमाणुवी के बारे मे भी है। सभी पुद्गल परमाणु शाश्वत नित्य हैं पुद्गल द्रव्यत्वेन एकसे ही हैं उन
गुण भी स्पर्श रस गन्ध और वर्ण सब एकसे हैं और पर्याये उनकी मवकी ठीक अनुक्रम से ही होती हैं फिर ये अनेक प्रकार के स्कन्धादि क्यों हुये तथा क्यों हो रहे हैं । नहीं होने चाहिये। फिर तो एक ब्रह्म द्वितीयं नास्ति वाली ब्रह्मवादियों की कहावत के समान जैन मत के हिसाब से भी द्वे वस्तुनी तृतीयं नास्ति यह कहावत चरितार्थ होनी चाहिये। फिर यन्ध मोक्ष संयोग वियोग जन्म मरण इसलोक परलोक और पुण्य पापादि की चर्चा पर हड़ताल फेर देनी पड़ेगी । अतः मानना ही चाहिये कि जो भी कार्य होता है वह उपादान और निमित्त कारण इन दोनों के अधीन हुवा करता है। उपादान से तो होता है