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________________ (१४७ ) अस्तु । इस सब लिखने का आचार्य श्री का स्पष्ट मतलब यही है कि शुभोपयोग चतुर्थ गुणस्थान से सुरू होता है और धर्मध्यान भी,जो कि उत्तरोत्तर विशद से विशद हे.ते हुये जाकर सातवे गुणस्थान के अन्त में पूर्ण होता है जहां पर कि रुपातीत नाम का सुदृढ़ धर्मध्यानं हो लेता है और वही धर्मध्यान उससे ऊपर में शुक्लध्यान-शद्धोपयोग के रूप में परिगत होकर दश गुणस्थान के अन्त में सम्पन्न होता है उससे नीचे अप्टमादिगुणस्थानों में तो वह पूर्ण वीतरागरूप न होकर विद्यमान रागांश को मिटाने में तत्परतारूप अपूर्ण होता है जिसके साथ यहाँ पर रागांश भी यत्किञ्चित् होता ही हैं जैसों कि जिनागम का कहना है। और जब कि वहां भाव में रांगांश विद्यमान होता है, अतः उतना बन्ध भी होता ही है, इस लिये यहाँ ज्ञानचंतना नहीं किन्तु वहां भी अज्ञानचेतना ही होती है ऐसा बतलाते हैं श्रासम्परायं सुदृशोऽप्यबोध-संचेतनेत्यईदधीतियोधः । ततोऽत्रबन्धोऽर्थपुनर्नजातुस्याज्ज्ञानसंचेतनयाप्रमातुः ।। ___ अर्थात्-मिथ्याप्टि बहिराम जी के तो कर्म तयाँ कर्मफलरूप अज्ञानचेतना होती ही है किन्तु सम्यग्दर्शनधारक जीव के भी दशमगुणस्थन तक, जहां तक जरासा भी कषायभाव विद्यमान रहता है वहां तक अज्ञानचेतना ही होती है
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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