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विचारात्मक चतुर्थ अध्याय में लिखा हुवा है कि भले ही गधे के सींग और आकाश का फूल हो जाय तो हो जायो किन्तु गृहस्थावस्थावालों को प्रशस्तध्यान नही हो सकता तिस पर भी मिथ्याष्टियोंको तो स्वप्नमात्र भी सम्यगध्यानका नहीं हो सकता क्योकि मिश्यादृष्टि जीव वस्तुस्वरूप को अपनी इच्छानुसार स्वीकार किये हुये रहता है देखो
खपुष्पमथवा शृंगंखरस्यापि प्रतीयते। न पुनर्देशकालेऽपिध्यान-सिद्धि हाश्रमे ।। १७ ।। दुई शामपिनध्यान-सिद्धिःस्वप्नेऽपिजायते ।
गृहतांदृष्टिवैकल्यावस्तुजातंयहच्छया ॥२८॥ और भी सुनो देखो
रत्नत्रयमनासाद्ययः साक्षान्ध्यातुमिच्छति ।
खपुष्यैः कुरुतेमूढः स वन्ध्यासुतशेखरं ।। ६।०६ शङ्का- अव्रत सम्यग्दृष्टिके भी धर्म ध्यान तो.हमारे आगमग्रन्थों में स्पष्ट रूप से लिखा ही हुवा है। उत्तर- तुम ठीक कहते हो परन्तु अव्रतसम्यग्दृष्टि-के-जो' ध्यान होता है, वह भावनात्मक धर्म-ध्यान होता है क्ति की एकाग्रता रूप दृढ धर्मध्यान संयमी मुनियों के ही होता हैं
और ज्ञानर्णवकार उसी को ध्यान कहते हैं इसी लिये तो ऐसा लिखते है देखो ज्ञानार्णव-प्रन्थ अध्याय २५ में
एकचिन्तानिरोधोयस्तद्ध्यानं भावना. परा। अनुप्रेक्षार्थचिन्तावातज्ज्ञरभ्युपगम्यते ॥ १६ ॥