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________________ ( १४८ ) जिसके कि द्वारा उसके कर्मवन्ध होता रहता है । दशवें गुणस्थान से उपर कषायों का अभाव होजाने से इस आत्मा के शानचेतना होती है, ताकि नवीन कर्मवन्ध का सर्वथा अभाव होजाता है, ऐसा श्री जैनागम का कहना है । जैसा किअण्णाणमवो भावो अणाणिणो कुणदितेण कम्माणि ' माणमओ णाणिस्सदुणकुणदितम्हादुकम्माणि ॥ १७ ॥ श्री समयसार जी की इस गाथा में स्पष्ट कहा गया है कि अज्ञानी जीव के अज्ञानभावना यानी चेतना होती है ताकि वह कर्मबन्ध करता है परन्तु ज्ञानी जीव के ज्ञानभावना यानी चेतना हो लेती है ताकि फिर वह कर्मवन्ध नही किया करता है । मतलब यह कि जहां तक जीव कुछ भी नवीनवन्ध करता रहता है वहां तक वह अज्ञानी है उसके अज्ञानचेतना है, जैसा कि आगे चलकर उसी समयसार जी की गाथा नम्बर ३८६ में भी बतलाया गया है। ज्ञान या अज्ञान चेतना का खुलासा जो वस्तु को सिर्फ उदासीन भाव से जानता मात्र हो उसे ज्ञान कहते हैं और जो साथ में इष्टानिष्ट-विकल्प को लिये हुये रागद्वषात्मक हो उस ज्ञानको ही प्राचार्यों ने अज्ञान बतलाया है एवं चेतनानामा तद्र पपरिणमन का है । इस प्रकार झानचेतना कहो चाहे शुद्धोपयोग कहो दोनों एक बात है, जिसके कि होने पर बिलकुल बन्ध नहीं होता। उससे उलटी
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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