SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अप्रमाद-सूत्र ( ११३ ) जैसे बोर मेघ के द्वार पर पगडा जाकर अपने ही दुष्कर्म के कारण चीरा जाता है, वैने ही पाप करनेवाला प्राणी भी इस लोक में तया परलोक मे-दोनों ही जगह-भयकर दुख पाता है। क्योकि कृन पर्मों को भोगे पिना कभी छटाग नहीं हो सकता। ( ११४ ) मनारी मनुष्य अपने प्रिय कुटुम्बियों के लिए बुरे-मे-बुरे भी पाप-धर्म पर जानना है, पर जब उनके दुष्कल भोगने का समय आता है तब अकेला ही दुम भोगता है, को भी भाई-बन्धु उसका दुख बटानेवाला-गहायता पहुंचानेवाला नहीं होता। ( ११५ ) प्रागप्रम परित पुग्प को मोहनिद्रा में मोने रहनेवाले ससारी मनुष्यों के बीच रहकर भी गय और में जागरूफ रहना चाहिए, विगीया विश्वास नहीं करना चाहिए । 'काल निर्दय है और गरीर निबंल पह जानकर भारत पक्षी की तरह हमेशा मप्रमत्त भाव में वित्रग्ना चाहिए। (११६ ) नमार में जो कुछ धन पन प्रादि पदार्य है, उन सबको पाणरूप जानकर मुमा बसी मावधानी के माय फूंक-फूंककर पांव रखं । जबतक नगर मगात है, तबतक उमका उपयोग अधिक
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy