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महावीर-वाणी
लाभन्तरे जीवियं व्हइत्ता,
पच्छा परिनाय मलावधंसी ॥७॥
( ११७ )
छन्दनिरोहेण उबेइ मोखं,
आसे जहा सिक्खियवम्मधारी । पुब्वाई वासाई घरेऽप्पमत्ते,
तम्हा मुणी खिप्पमुवेइ मोक्खं ॥३॥
( ११८ )
स पुन्यमेवं न लभेज पच्छा,
एसोवमा सासयवाइयाणं । विसीयई सिढिले पाउयम्मि,
कालोवणीए सरीरस्स भए ॥॥
( ११६ )
खिप्पं न सक्केई विवेगमेऊं,
तम्हा समुदाय पहाय कामे ।