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गई-उसके खाने के लिये उन तीनों ही का ध्यान भी वहां आकर्षित किया गया । परन्तु उनमें एक आदमी तो बुभुक्षित था वह रुचि से उसे खाने लगा दूसरा जिसे अजीर्ण सा हो रहा था उसन कुछ ना कुछसा खाया । परन्तु तीसरा जिसे कि उसके खाने का त्याग है तो अतिशयरूप से आग्रह करने पर भी उसने उसे विलकुल नही खाया। भूख होने और भोजन सम्मुख मे होने पर भी उसके खाने का उत्तने भाव नहीं किया अतः मानना होगा कि अपने परिणामों को खोटे और चोखे करने वाला यह आत्मा ही है जैसा कि श्री समयसार जी में भी लिखा है कि-'जंकुणइभाव मादाकत्ता सोहोदितस्सभावस्स'
अर्थात् - यह आत्मा अपने भाव को भला या बुरा आप बनाता है अतः यही उसका कर्ता और जो जैसा भाव इस से बनता है वह भाव इमका कर्म यानी कार्य है एवं यह
आत्मा जैसे भाव करता है उसी के अनुसार कर्मवर्गणा कर्म रूपमें आकर इसका साथ देती हैं अतः वे भी इसी की की हुई यानी कर्म कहलाती हैं क्यों कि भाव और भावी मे अभेद होता है इसलिये जो जिसके भावसे हुवा वह उस भाववानसेही हुवा ऐसा कहने में कोई दोप नही ताकि भाव से जो हुवा वह भाववान पर ही फलता है । इस प्रकार कर्म और जीव में परस्पर औरत तथा मरद का सा नाता है कर्म संग्राह्य हैं और जीव है सो संग्राहक होता है । किंच औरत अगर भलेरी हो तो उसे मरद के विचारानुसार चलना पड़ता है, मरद को भी उस