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सूर्यादि भूभावपि नेगिष्टिर्यतस्ततश्चादिपदेऽपिविष्टिः । मोहनाशेऽपि चरित्र मोह-सम्विप्लकः स्यादिति सजनोहः७२
अर्थात्- अव्रत सम्यग्दृष्ट्यादि गुण स्थान वर्ती जीव अगर ऊपर की तरफ जावे तब तो क्रमसे आगे बढ कर शुद्धोपयोग (वीतरागता) को प्राप्त कर सकता है किन्तु नीचे की तरफ लुढक कर वापिस मिथ्याडष्टि भी तो बन सकता है सीधा ऊपर को ही जावे यह उसके लिये कोई नियम नहीं है। जिसका दर्शन मोह बिलकुल नप्ट होगया ऐसा क्षायिक सम्यगदृष्टि भी चतुर्थ गुण स्थान से नीचे की ओर तो नही जाता फिर भी पांचवं छटे सातवें गुण स्थानों में यहां से वहां अनेक चार परिवर्तन तो करता ही है। हां जिसने सातिशयाप्रमत्त अवस्थाको प्राप्त कर लिया यह अवश्य अष्टमादि गुणस्थानों में होकर वीतराग पनको प्राप्त करता ही है फिर भले ही वह औपशमिकभावात्मक हो तो अन्तर्मुहूर्त के बाद वीतरागपनसे सरागपन में आ जाता है परन्तु वीतरागपन को पाये विना नही रह सकता इस लिये अप्टमादि गुण स्थानों को शुद्धोपयोग में सम्मिलित किया गया है, चतुर्थादिगुणस्थानों को नहीं ऐसा समझना चाहिये।
किञ्चचतुर्थानि गुणस्थानों में अनन्तानुवन्ध्यादि कपायों का अभाव होकर भी अप्रत्याख्यानावरणादि कपायोंका उदय हो रहता है मगर अप्टमाठि गुणस्थान तो अवशिष्ट रही संज्वलन कषाय