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________________ ( १४३ - कहा जाता है । नैमित्तिक (माहनीयकर्मोदय के निमित्तसे हुवा) परिणमन रागादिमय होने से अशुद्ध होता है वह दो प्रकार का होता है एक तो यह कि राग को अपना स्वरूप ही समझे हुये रहना, वीतरागता की तरफ लक्ष्य ही नहीं होना सो ऐसा उपयोग तो पहिरात्म मिथ्याष्टि जीव का होता है जिसको अशुभोपयोग कहते है इसी का नाम अनात्मभाव रूप होने से अधर्म है । परन्तु सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेने पर फिर मैं निल ज्ञानस्वरूप हूँ, देह में रह कर भी देह से निन हूँ, शरीरादि के साथ ममत्र को लेकर रागादिमान हो रहा हूं अगर उस ममत्व को मिटाएं तो वीतराग और सर्वज हो सकता हूँ इत्यादिरूप से अपने श्रद्धान में वीतरागताको स्वीकार कियेहुये उदारतारूप सद्विचार का नाम ही शुभोपयोग है जो कि अव्रत सम्यग्दप्टि की दशा में प्रशस्त, देशविरत के प्रशस्ततर और सकलविरत के प्रशस्ततम होता है । आत्मत्य को स्वीकार किये हुये होनेके कारण वह धर्म कहा जाकर उसके साथ एकाग्रतारूप चित्त परिणति का होना ही धर्मध्यान है जो कि वरतमरूप में चोथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान के अन्त तक होता है । उससे ऊपर अपूर्वकरणादिगुणस्थानों में ' बही शुक्ल (शुद्धोपयोग) ध्यान के रूप में परिणत हो जाता है। जैसा कि श्री आदिपुराण जी में कहा है देखोप्रवुद्धधीरवःश्रेण्या धर्मध्यानस्य सुश्रुतः सएवं लक्षणोध्याता सामग्री प्राप्य पुष्कला
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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