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________________ ( ११३ ) - समझदार आदमी भ्रम मे नही पड़ सकता । एवं निःशाङ्कित, निःकांक्षित, निर्विचिकिरिमन, अमूढदृष्टिस्य, उपगूहन, स्थिति करण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ भाव और होते हैं जो कि सम्यग्दर्शन के अंग कहलाते है जिनका कि वर्णन क्रमश. संक्षेप से नीचे किया जावेगा। जेसे कि मनुष्य शरीर मे शिर, हाथ, पैर वगेरह अवयव होते है वैसे ही सम्यग्दर्शन के ये आठ अंग होते है जो कि सम्यग्दर्शन से कथंचिद्मेट लिये हुये होते हैं । सो किसी मनुष्य के अगर हाथ कट गये था पैर टूट गये तो वह बिलकुल नष्ट ही होजाता हो सो बात नहीं मगर बेकार जरूर होजाता है, वैसे ही सम्यग्दृष्टि के भी इन अंगो में से कभी किसी में कोई कमी भी रहजाती है । एवं किसी का कोई अंग खाशतोर से पुष्टि पाजाता है जिसको कि लेकर उस के गीत गाये जाया करते हैं । अस्तु । इनमे से सबसे पहिला अंग तो नि'शावित है जो कि शरीर के समान है उमका स्वरूप यह है मतंजिनोक्त चपरोदितश्चसमानमेवेतिमतिप्रपञ्चः कदापि तस्यसुवर्णस्यात्मतातुसम्धिनिकषप्रतीत्या । ५४|| अर्थात् जिन भगवान के द्वारा प्रतिपादित मत भी एक मत है जैसे कि इस भूतल पर और भी अनेक मत हैं। उनमें कही गईहुई सभी बाते विलकुल ही झूठी हो सो बात नही एवं जैनमत मे कही हुई भी सभी बात' सोलही आने सही ही हों
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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