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________________ पूज्य-सूत्र १४३ ( २६७ ) संसार में लोभी मनुष्य के द्वारा किसी विशेष आशा की पूर्ति के लिए लोह-कटक भी सहन कर लिये जाते है, परन्तु जो विना किसी आगा-तृष्णा के कानो मे तीर के समान चुभनेवाले दुर्वचनरूपी कटको को सहन करता है, वही पूज्य है। (२६८ ) विरोधियो की ओर से पडनेवाली दुर्वचन की चोटें कानो में पहुंचकर बड़ी मर्मान्तक पीडा पैदा करती है, परन्तु जो क्षमाशूर जितेन्द्रिय पुरुप उन चोटो को अपना धर्म जानकर समभाव से सहन कर लेता है, वही पृज्य है। (२६६ ) जो परोक्ष में किसीकी निन्दा नहीं करता, प्रत्यक्ष मे भी कलहवर्द्धक अट-सट बाते नही वकता, दूसरो को पीडा पहुंचानेवाली एव निश्चयकारी भाषा भी कभी नही बोलता, वही पूज्य है। (२७०) जो रसलोलुप नहीं है, इन्द्रजाली (जादू-टोना करनेवाला) नही है, मायावी नहीं है, चुगलखोर नहीं है, दीन नही है, दूसरो से अपनी प्रशसा सुनने की इच्छा नही रखता, स्वयं भी अपने मुंह से
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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