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________________ ( १६६ ) तत्र ज्ञानादन्यत्र दमहकरोमीति चेतन कर्मचेतना ज्ञानादन्यत्र वेदयेऽहमिति चेतनं कर्मफलचेतना । मा तु समस्तापि संसारवीजं संसारवीजस्याप्टविधकर्मणोवीजत्वात् इसी का स्पष्टीकरण तात्पर्यवृत्ति में हैमदीयं कर्म मयाकृतं कर्मेत्याद्यज्ञानमावेन, ईहापूर्व कमिष्टानिष्टरूपेण निरुपरागशुद्धात्मानुभूतिच्युतस्य मनोवचनकायव्यापारकरणं यत् सा बन्धकारणभूता कर्मचेतना भएयते। न्वस्थभावरहितेनाज्ञानमावेन यथासम्भवं व्यक्ताव्यक्त स्वभावेनेहापूर्वक मिष्टानिष्टविकल्परूपेण हर्पविषादमयं सुखदुःखानुभवनं यत् सा बन्धकारणभूता कर्मफलचेतना भण्यते । ___मतलव यही कि शुद्धात्मानुभूतिरूप शुक्लध्यानसमाधि से च्युत हो रहे हुये जीव की मन वचन काय की चेष्टा का नाम तो कर्मचेतना और वीतरागपन के सिवाय जरा सा भी इप्टानिष्टविकल्प को लिये हुये हर्प विपाद को प्राप्त होना कर्मचेतना कहलाती है। यानी वीतरागपन का नाम ज्ञानचेतना और सरागपन का नाम अजानचेतना है जैसा श्री कुन्दकुन्द प्राचार्य की पञ्चास्तिकाय नाम अन्थ की निम्न गाथा में लिखा हुवा है सव्वे खलु कम्भफलं थावरकायातसाहिकजजुई। पाणित्तमदिकन्ताणाणं विदन्तिते जीवा ।। ३६ ।। अर्थात् - स्थावर एकेन्द्रिय जीवों में तो सभी के कर्मफलचेतना हुवा करती है परन्तु जो जीव प्राणिपने को यानी
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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