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को सर्वथा हटाकर पूर्णधर्मात्मा बन जाता है और इस लिये मन्दरागरूप व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका कारण कहागया है। शक्षा- इस तरह से भी निश्चय मोक्षमार्ग का कारण व्यवहार
मोक्षमार्ग न होकर व्यवहार मोक्षमार्गका नाश उस (निश्चयमोक्षमार्ग) का कारण ठहरता है । देखो कानजी (रामजीमाणेकचन्द) कृत तत्वार्थसूत्र टीका का
अन्तिम परिशिष्ट पृष्ठ ८०७ की पंक्ति १३ से आगे) उत्तर-भैय्या जी जरा शोचो तो सही क्या कह रहे हो तुम तो खुद ही समझदार हो । ऐसा कहना ठीक नही क्यों कि व्यवहारधर्म का प्रध्वंश और निश्चयधर्म का होना ये दोनी मिन्न भिन्न नही होते । अगर भिन्न माना जावे तो फिर वह नाश क्या चीज रही, कुछ नही । एवं तुच्छामाव की जैन शासन में दो विलकुल मान्यता है नही । ऐसा तो नैयायिक मतवाले मानते हैं। जैनमत यह कहता है कि-पूर्व (कारणरूप) अवस्था का नाश ही उत्तर (कार्यरूप) अवस्था का होना है। जैसा कि श्रीसन्तभद्र स्वामी ने देवागमस्तोत्र के कार्योत्पादः क्षयोहेतोनियमाल्लक्षणापृथक् इस सूतमे स्पष्ट कहा है । जैसे कि मिट्टीकीस्थासरूप पर्याय का विश्वंश ही काशपर्यायका उत्पाद, कोशपर्यायका विध्वंश ही कुशलपर्याय का उत्पाद और कुशलपर्याय का विनाश ही तदुत्तरं घटपर्याय का उत्पाद है दोनों एक कालीन हैं उनमें कोई समय भेद नही होता । इनमें पूर्व र अवस्था कारण और उत्तरोत्तर अवस्था उसका कार्य है