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जैसा कि श्री समयसार जी में ही लिखा है
परमप्पाणं कुव्वं अप्पाणं पियपरं किरन्तो सो।
अण्णाणमवो जीवो कम्माणकारगोहोदि ॥१२॥ शंका- यह अज्ञान भी तो कर्मोदय से ही होता है फिर
कैसे मिटेगा! उत्तर- कर्मों का उदय दो तरह का होता है एक अप्रशस्तोदय दूसरा प्रशस्तोदय, सो जैसा उदय होता है वैसा वाह्य समागम होता है अतः जब शस्तोदय हो और उससे सत्समागम हो तो उन सन्तों को अपने मानकर जैसा वे कहैं कि भैय्या यह संसारका ठाठ असार,क्षणिक है। यह शरीर भी जो कि आत्मा को कर्मोदय से प्राप्त हुवा है, चौले के समान इससे भिन्न है, नश्वर है इसमें निवास करनेवाला आत्माराम जिसने कि इसे धारण कर रक्खा है,भिन्न है,शाश्वतचेतनावान है। शरीर जड है अतः इस पर तुमको नही रीझना चाहिये इस प्रकार के उनके कहने को मानले तो मोक्षनगर की डगर पर आसकता है फिर मोक्ष मुलम ही है रास्तेपर लगा हुवा आदमी धीरे या कुछ देरी से स्थान पर पहुच ही जाता है। शङ्का- यह क्यों कहा कि उनके कहने को यदि वह मानले ?
जब कि उनके कहने को मानने रूप कर्म का उदय
होगा तो मानेगा ही क्यों नहीं? 'उत्तर- मानना किसी कर्म के उदय से नही हुआ करता परन्तु वह तो उसकी रुचि का कार्य है । मानलो कि एक आदमी के