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लगता है क्या ?मानलो एक अम्बाके दो लड़के हैं, एक अवती और दूसरा व्रती दोनोंने विचार करके अम्बासे कहा कि मैय्या आज तो लड्डू खाने को तबियत चाहती है सो लड्डू बनाना मगर वह लड्डू बनाना भूलगई उसने भात बनालिये, भोजन के समय कहा कि आवो बेटो भात तैयार होगये खालो,इस पर अवती ने तो शोचा कि चलो कोई बात नहीं भात बनाये हैं तो भात ही सही । उधर व्रती कहता है कि आज कई दिन से तो मोदक बनाने को कहा था सो क्यों नही बनाये मै तो नहीं खावा, यो रोष में भर आता है, इतना तो हो सकता है किन्तु इस रोष ही रोष में बाजार से हलवाई के यहां से लड्डू लाकर खालेवे ऐसा कभी नही होसकता । जैसे कि अबती के मनमें आजावे तो खरीदकर भट खाने लगजाता है, बस यही इन दोनों के अन्दर अन्तर होता है जो कि उसकी कषाय का अन्तर है और अन्तरंग में सदा बना रहता है इस कषाय विशेष से ही व्रती की अपेक्षा अवती के अधिक बन्ध माना गया है सो ठीक ही है । घास खानेवाला हिरण दूब चरते समय भी अपनी भद्रता के कारण उतना पाप नही करता है जितना कि नीन्द में सोरहा हुवा चूहों का खानेवाला बिलाव,ऐसा माननाही होगा। एवं तृतीयाख्य कषायहानेर्भोगापयोगायमनोऽनुजाने तथापि सत्कर्मणि संप्रवृत्ति किन्त्वमुष्यात्ममुखाभिवृचिः ६६ • अर्थात्-श्रावक अवस्था में यद्यपि त्याग की तरफ