SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १३७ ) उत्तरकालमें उस आत्मा के उपादेयतारूप रागांशको भी क्रमशः लुप्त करके शुक्लध्यान के रूप में परिणत होता है। उस रागांश को लुप्त करने की क्रमिक पद्धति का नाम ही श्रेणी है सो ही नीचे के वृत्त में बताते हैंउदीयमानस्य चिदंशकस्य रागादिदानींच्यवतः समस्य यन्त्रण तैलस्य खलादिवेतः श्रेणौ समष्टिं प्रतिभातिचेतः ६६ अर्थात्- याद रहे कि अणि-समारोहण के लिये या शुक्लध्यान प्राप्त करने के लिये सहायतारूप से अनपूर्वादिरूप विशिष्ट अवज्ञान की भी आवश्यकता होती है जो कि उस आत्मा मे या तो पहले से ही प्रस्फुट होरहा होता है और नहीं तो फिर रूपातीतध्यान के समय प्रस्फुट कर लिया जाता है तव फिर आगे बढ़ाजाता है । सो उम ऋणि मे प्रविष्ट हुवा आत्मा अपने रागांश को दुवात या नष्ट करते हुये वहा पर प्रफुट होनेवाले शुद्धचेतनांश का अनुभव करता है जैसे कि कोलू मे तिल पिल करके खल में से पृथक् होता हुवा तैल दीख पड़ता है एवं रीव्या यह आत्मा विशद से विशदतर होता चला जाता है इसी का दूसरा उदाहरणपटः प्रशुद्धथन्निबफेनिलेनाऽधुनानुभ्येतभवन्निरेनाः । किल्तूपयोगोंनहि शुद्ध-एव प्राहेति सम्यगजिनराजदेवः ७० अर्थात् जिस प्रकार ' एक मैले कपड़े को सावुन और पानी से जव धोया जाता है तो वह धीरे धीरे साफ होता हुवा
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy