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सो यह सद्भावनारूप विचार उस स्वरूपाचरण के लिये कारणरूप मानागया हुवा है क्यो कि इस विचार को हृदय में स्थान देनेवालाजीव थोड़ी बहुत देर के बाद वाह्यबातो से दूर हटकर के सिर्फ अपनी आत्मा को ही याद करने लगता है एवं उसमे तन्मय होकर उस अनुभव के द्वारा इप्टानिप्ट विकल्प से रहित होता हुवा सिर्फ ज्ञानदर्शनस्वभावमय बन सकता है जैसा कि समयसार जी की निम्न गाथा मे लिखा हुवा है
अहमिको खलु सुद्धोणिम्ममवोणाणदसण समग्गो । तमि ठिवो तश्चित्तो सव्वे एदे खयं णेमि ||३||
अर्थात्-- खलु यानी निश्चय नय से अगर स्वभावदृष्टि से देखा जाये तो मैं सिर्फ परिपूर्णज्ञानदर्शनवाला हूँ शुद्ध हूँ मेरे में किसी भी दूसरी चीज का सम्मिश्रण बिलकुल भी नहीं है और जब मैं ऐसा हूं तो फिर व्यर्थ ही इन सब दूसरी चीजों से क्यों ममत्व करू अपने आपमे तन्मय होकर स्थित हो रहूं ताकि ये सव रागद्वेपादि आश्रवभाव नष्ट होजावे
और मैं सच्चिदानन्द बन रहूँ । मतलब यह कि इस वीतराग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमय परिणमन का नाम ही स्वरूपाचरण चारित्र है। सम्यक्त्व भी इसी अवस्था में निवय सम्यक्त्व होता है जैसा श्री सयचन्दकृत आत्मसिद्धि मे भी लिखा हुवा है देखो
वर्ते निज स्वभाव का अनुभव लक्ष्य प्रतीत धृत्ति बहे निजभाव में परमार्थे समकीत ।।२२२।