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से पूर्ववर्ती अव्रतसम्यग्दृष्ट्यादिक को तो आत्मविश्वासमात्र होता है, जैसा कि मिश्री को नहीं चख कर भी पिता की बात पर जमरहने वाले लड़के को मिश्री का विश्वास । शंका-गृहस्थ होते हुए भी जो आदमी एकाग्र निश्चल होकर
ऐमा विचार कर रहा हो कि मेरी आत्मा अथवा मैं शुद्धयुद्ध सच्चिदानन्द हूँ मेरे अन्दर राग, रोप वगेरह बिलकुल भी नहीं हैं इत्यादि । उस समय तो उसके
आत्मानुभव है कि नहीं ? उत्तर- वह आदमी तो उस भिखारी सरीखा निरा पागल है जो कि जन्मदद्धि होते हुये भी अपने आपको चक्रवर्ती मान रहा हो । इससे तो वह मिथ्याप्टि भी कुछ अच्छा है जो कि अपने आपको दुःखी अनुभव करता है, अतः यह दुख मुझे क्यों हो रहा है और यह कैसे नष्ट होसकता है ऐसा शोच रहा हो।
हां जो तत्वश्रद्धानी जब कभी गृहस्थोचित और बातों की तरफ से अपने मन को मोड़ कर एकाप्रभाव से ऐसा विचार कर रहा हो कि मेरी आत्मा अथवा मैं भी तो स्वभाव की अपेक्षा से सिद्धों के समान ही विकार रहित हूँ। विकार जो है वह तो मेरी वर्तमान अवस्थामात्र है जो कि कर्मों के संयोग को लेकर वाह्यपदार्थों में इप्टानिष्ट कल्पना करने से होरहा है इत्यादि तो यह उसका विचार सद्विचार होता है, धर्मभावनारूप है और मन्दलेश्या के होने से होनेवाला है।