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________________ ( १७१ ) - मानकर किनिन् राग किये हुये रहता है, यह जो अज्ञान है वह मर्वथा दूर नहीं हो पाता तब तक ज्ञानचेतना कैसे होमकती है । देखो हमारे आगम ग्रन्थां में सम्यग्ज्ञान के वर्णन में बतलाया गया है कि जो ज्ञान, संशय विपर्यय और अनवध्यवसाय से रहित हो वही सम्यग्ज्ञान होता है । अब अगर एक सम्यग्दष्टि जीव अन्धकार वगेरह के कारण से जेवडी को सर्पजान रहा है तो उस समय जानने की अपेक्षा से तो विपर्यय होने से उसका वह ज्ञान मिथ्याजान हुवा फिर भी वह सम्यग्दर्शन के साथ में है इस लिये सम्यग्ज्ञान कहा जाता है । वस तो वैसे ही चतुर्थगुणस्थान वाले का ज्ञान, सम्यग्ज्ञान होता है मगर वह रागभाव को लिये हुवे होता है, अतः चेतना की अपेक्षा से वह अज्ञानचेतनारूप होता है। सारांश यह है कि चतुर्थगुणस्थान में श्रद्धान ठीक होते ही ज्ञान का भी मिथ्यापना तो हट जाता है फिर भी उसमें स्थिरपना नहीं थापाता जैसे कि कुवत न होकर भी वहा पर अन्नतदशा होती है ऐसा नीचे के छन्ढ मे घताते हैं कुवृत्तभावोऽपसरेढवृत्त-भावो न तूर्यस्थल एव हृत्तः अज्ञानभाव' प्रतिवर्तमानः कुजाननाशेऽपि भवेत्तथा नः ।।८७ अर्थात्- हमारे आचार्यों ने बतलाया है कि अनादि काल से इस संसारी आत्मा के श्रद्धान, ज्ञान और आचरण ये तीनों मिथ्या हो रहे हैं विगड़े हुये हैं सो चतुर्थगुणस्थान में आकर जब इसका श्रद्धान ठीक होता है, मिथ्यापन से सही
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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