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पन पर आता है तो इसके ज्ञान और चारित्र में भी मिथ्यापन नहीं रहता । दुःश्रद्धा के साथ साथ कुत्सित विचार और कुचेष्टा भी विदा होजाते हैं । इस तरह यद्यपि उसके हृदय पर से दुर्वृत्तपन तो दूर होजाता है मगर अवृत्तपन तो फिर भी बना ही रहता है। वह दूसरे की बहू बेटी पर घुरी निगाह नहीं डालता, चोरी चुगलखोरी नहीं करता, किन्तु अपनी
औरत के साथ यथेप्ट रतिचेष्टा करता है अपने घरूखाने को इच्छानुसार खाकर प्रसन्न रहता है । न्यायोचित विपय भोगों को भोगने की बावत उसके चित्तपर कोई नियन्त्रण नहीं होता है और इसी लिये हमारे आचार्यों ने उसे स्पष्ट रूप से अवतसम्यग्दृष्टि बतलाया है । बस तो जिस प्रकार उसका दुवृत्त नष्ट होकर अव्रतपन बना रहता है, वैसे ही कुज्ञान-खोटा विचार दूर होकर भी अन्नान बना रहता है-विचार की चपलता दूर नहीं होपाती, अतः ज्ञानचेतना नहीं होती क्यो कि विचार की स्थिरता का एकाप्रज्ञानोपयोग का, आत्माधीन ज्ञानभाव का 'नाम ही ज्ञानचेतना है।
शङ्खा- खैर चतुर्थादिगुणस्थान मे तो न सही किन्तु सप्तमादिगुणस्थान में जब कि अप्रमत्तअवस्था होती है वहां तो ज्ञानचेतना कहनी चाहिये कि नहीं ? क्यों कि वहां तो निर्विकल्प अपनी आत्मा के ध्यान के सिवाय और कोई बात सम्भव ही नहीं है जहां पर कि इस जीव की वृत्ति, विकथावो से यानी पर की वाती से इन्द्रियाधीनता से क्रोधादि कपायो