SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६४ ) रूप से तत्वश्रद्धानी बना हुवा है । वस्तु के स्वरूप को और का और माने हुये है । कभी अगर सद्गुरु का समागम हो गया तो उनके कहने को ज्ञान में लेकर कहता है कि यह ...इत्यादि सब पर वस्तु हैं मै इनसे भिन्न हूँ कर्म जब है, आत्मा में होकर भी आत्मा से भिन्न है, आत्मा मेरी उनसे भिन्न ज्ञानमय है इत्यादि । तब कहीं चेष्टा में अशुभ से शुभ पर भी आता है परन्तु परसंयोग रहित शुद्धस्वभाव पर रुचि नही लाता है। यह भी कहता है कि राग द्व ेष मेरा स्वरूप नहीं है विकार है, मै जीव हॅू चेतना स्वरूप हूँ इस प्रकार सप्ततत्वादि के विचारसे वर्तमान में सरलभाव होता है । किन्तु स्वभाव की महिमा को पकड़ नही पाता संयोगजभाव की ओर ही झुका हुवा रहता है जैसे कि किसी वैश्यावाज को समझाया जाय, कि वैश्या तो धन से दोस्ती रखती है वह तुमसे प्यार नही करती तुम उसके साथ मे प्रेममें फंस कर दुख पावोगे अपनी धरू स्त्री जो सच्चा प्यार रखती है उससे मिल कर आराम से रहो तो इस बात को सुन तो लेता है और याद भी रखता है किन्तु उस वैश्या की चापलूसीभरी चेष्टा को हृदय पर से नही उतरता है तब तक यह उधर से हट कर अपना कदम इधर नही रखता वैसे ही मिध्या दृष्टि जीव भगवान वीर की बाणी को सुनता है, उसे ज्ञान में लाता है मगर अपनी पर्याय बुद्धि को दिल पर से नहीं उतर पाता शौचता है कि ऋहो यह शरीर न हो तो मैं जप तप संयम कैसे पाल सक्ता हूँ कैसे
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy