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________________ (८०) - - - - - बात नही मैं पहले तुझे तेरी सुतारा दिलाता हूं, चलो। बाहरे उदारता और वाहरे परोपकार क्या कहना हो इस महचा के बारे में.। अब चलो रावण की तरफ-रावण जब खर दूपण जो कि उसका बहने लगता था उसकी भी मदद के लिये जब रवाना हुवा और रास्ते में मनमोहिनी-सीता को जब देखपाया तो खर दूषण की सहायता करने को तो भूल गया और बीच में ही सीता को हथियाके चलता बना, एवं जब लोगों ने उसे समझाया कि यह बात तुम्हारे लायक नहीं है तो गुरुजनों की बात को भी ठुकरा कर उसने विमीपण सरीखे ' भाई को भी निकाल बाहर कर दिया, क्षणिक भोगविलास की लालसा में फंस कर अपने आपके लिये तथा औरों के लिये भी कांटा बन गया इसी लिये राक्षस कहलाने का अधिकारी हुवा । बस तो यही सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि की चेप्टा में अन्तर होता है। मिथ्यादृष्टि जीव भोगों के पीछे मरपूरा देता है किन्तु सम्यग्दृष्टि गृहस्थ अपने संप्राप्त भोगों को । उदारताके साथ भोगताहै सो नीचे फिर स्पष्ट कर बताते हैंप्राप्त्यैतुभोगभ्ययतेतसव्यस्तंप्राप्तमेवानुकरोतिभव्यः । साम्राज्वमगीकृतवान्सुभौमः मुतः पुरोरत्रच सार्वभौम: ३७ ।। अर्थात्-- मिथ्यादृष्टि जीव नये से नये, भोगों को गने के लिये लालायित बना रहता है जैसे कौवा जब | यासा होता है तो एक बूंद किसी घड़े में से पीकर फिर एक
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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