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चंचु किसी दूसरे घड़े मे जा मारता है ऐसे कई गृहस्थों के घड़ों को विगाड़ डालता है तो भी तृप्त नहीं हो पाता । भोग भोगता अत सम्यग्हष्टि भी है मगर वह अपने कर्मोदय के अनुसार जो कुछ उसे प्राप्त होता है उसी को सन्तोष के साथ भोगा करता है जैसे कि पालतू पिल्ला अपने मालिक की दी हुई रूखी सूकी रोटियों को खाकर मस्त बना रहता है । इस बात को समकने के लिये हमारे पाठको को सुभौम चक्रवर्ती और भरत चक्रवति का स्मरण करना चाहिये। भरत जी तो श्री ऋषभदेव भगवान् के जेष्ठ पुत्र एवं इसी युग के आदि चक्री होगये हैं । सुभम भी इस युगके चक्रवर्तियों में से एक हैं। दोनों ही इस छः खएड पृथ्वी के भोक्ता थे छिनवे विनवे हजार स्त्रियों के पति थे । अठारह कोड़ घोड़े, चोरासी लाख हाथी, नवनिधियां और चौदह रत्न इत्यादि सब बातें दोनों के एक समान थीं । हजारों देव जिन का सेवा और पगचम्पी करने वाले थे परन्तु दोनों के श्रात्मपरिणामी में जमीन- श्रासमान का सा अन्तर था, भरत जो दिन सरीखे प्रकाश को लिये हुये थे तो सुभौम रात्रि के अन्धकार में पड़ा हुवा | भरत महाराज इस सब ठाठ को अपने पूर्वकृत सविकल्प धर्म का फल मान रहे थे अतः धर्मको ही प्रथमाराध्य समझ रहे थे और वीतरागता के आनन्द के श्रागे इन भोगों के सुख को अमृत के सम्मुख खल के टुकड़े जितना भी नहीं मान रहे थे इस लिये अन्तमें इसे त्याग कर ऊरासी देर मे पूर्ण वीतराग हो लिये । किन्तु
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