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________________ ( १०७ ) - - - हो सहायता या मैत्री कहलाती है जैसाकि खुद कुन्दकुन्द स्वामी ने ही अपने प्रवचनसार मे बतलाया है। यानी तीव्र (अशुम) अनन्तानुवन्धि रूप राग होगा वहां सम्यग्दर्शनादिरूप धर्म नहीं हो सकता क्योंकि तीव्ररागभाव के साथ उसका विरोध है किन्तु जहा मन्दराग होता है वहा व्यवहार धर्म भी होता है जैसा कि तुम भी कह रहे हो। अब रही जितने अश की वात सोपात्माके अंश यानी प्रदेश असख्यात हैं उनमें से कुछ नदेशों में से तो राग नप्ट होजावे और कुछ प्रदेश मे राग वैसा का वैसा ही बना रहे, ऐसा तो हो नहीं सकता किन्तु आत्माम जो राग यानी कपायभाव था उसमें से कुछ कम होगया वह जो पहले गहरा था (मिथ्यात्वदशा में) जोरदार था सो अब सम्यक्त्व दशा में हलका होलिया जो कि हलका राग आत्मा के हर प्रदेश में है और उसी मन्दराग या प्रशस्त (शुभ) राग का नाम वीतरांगता होकर वह धर्म होता है। जैसा कि एक कपड़ा गहरा इलदिया था उस पर सूर्य की धाम लग कर उसका गहरापन हटगया और अब हलका पीला रह गया.तो जिसका ख़याल गहरेरण की तरफ हो जाता है वह तो कहता है कि अरे इसका तो रंग उड़ गया यह तो विद्या होगया परन्तु जिसका विचार पिलाईमात्र पर है वह कहता है कि नही रङ्ग कहां उड़ गया अब भी तो इसमे जरदी है। किश्च एक गृहस्थ वाजार से गेहूं खरीद करके लाया, जिनमे मोटे और महीन कई तरह के बहुत कर थे उनमे से
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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